Wednesday, 9 October 2013

देहलीज पर चुनाव

मुझे कुछ ऐसा अनुमान था कि चुनाव आयोग इतनी मेहरबानी जरूर करेगा कि जिन राज्यों में चुनाव होना हैं, उनकी सरकारें गांधी जयंती के दिन बापू की प्रतिमा पर पुष्पाहार चढ़ाकर फोटो खिंचवाने का एक आखिरी मौका हासिल कर लें, उसके बाद ही विधानसभा चुनावों का कार्यक्रम घोषित किया जाए। इस अनुमान के पीछे शायद मेरी यह स्वार्थ-बुध्दि भी कहीं काम कर रही थी कि गांधी जयंती पर सरकारी विज्ञापन छापने के मौके से कहीं हम अखबार वाले वंचित न हो जाएं। तो सबसे पहले चुनाव आयोग का शुक्रिया,  क्योंकि अब 8 दिसम्बर तक सरकारी विज्ञापन मिलने की कोई सूरत नहीं है। छत्तीसगढ़ में बहुत से लोगों व संस्थाओं को जिनमें अखबार भी शामिल हैं आसन्न चुनावों के कारण एक और बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा। सात दिन के भव्य राज्योत्सव में करोड़ों रुपए खर्च होते थे। कोई नहीं पूछता था कि इस खर्च का कोई औचित्य है या नहीं। शामियाना और स्टाल सजाने वाले, टैक्सी वाले  तथा अन्यान्य व्यक्तियों और संस्थाओं को तो कमाई करने का यह एक अच्छा अवसर होता ही था, सलमान खान और करीना कपूर जैसों की गरीबी भी इस बहाने थोड़ी दूर हो जाती थी। जाहिर है कि समाचारपत्रों को भी उनका हिस्सा मिलता ही था। जो सरकार के करीब उसे उतना ज्यादा । चूंकि चुनाव घोषित हो गए हैं इसलिए इस साल राज्योत्सव मनने के कोई आसार नहीं है। दीपावली का पर्व भी ऐन उन्हीं तिथियों में पड़ रहा है। इसलिए राज्य स्थापना दिवस पर अगर कोई कार्यक्रम होगा तो वह औपचारिकता का निर्वाह मात्र होगा। संभव है कि मुख्यमंत्री के बजाय मुख्य सचिव ही उसका उद्धाटन करें। 

मैं, 4 अक्टूबर को जिस दिन चुनाव आयोग ने चुनावी कार्यक्रम घोषित किया, रायपुर से सात सौ कि.मी. दूर इंदौर में था। चूंकि मध्यप्रदेश में भी चुनाव होना हैं इसलिए वहां की फिजा भी देखते ही देखते बदल गई। मैं जब चार की सुबह इंदौर पहुंचा तब जगह-जगह पर सत्तापक्ष के नेताओं के होर्डिंग्स, बैनर, पोस्टर लगे हुए थे। वहां के प्रशासन ने सबसे पहला काम होर्डिंग्स को हटाने का किया। इसमें एक विषम स्थिति तब पैदा हुई जब नगर निगम कर्मचारियों ने संकोच या भय के कारण सत्तापक्ष के कुछ नेताओं के होर्डिंग्स को हाथ नहीं लगाया। इस पर स्वाभाविक ही विपक्ष याने कांग्रेस के लोगों ने बवाल मचाया और अंतत: नगर निगम को यथोचित कार्रवाई करना पड़ी। 


कुर्सी किस हद तक किसी को दीवाना बना सकती है इसका एक दिलचस्प उदाहरण भी इंदौर में देखने को मिला। वहां भाजपा के कोई नेता हैं शंकर लालवानी। वे कुछ दिनों से मुख्यमंत्री के पीछे-पीछे घूम रहे थे कि उन्हें इंदौर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बना दिया जाए। बहुत ना-नुकुर के बाद मुख्यमंत्री ने उनकी इच्छा तो पूरी की, लेकिन कहते हैं कि जिस पल सरकारी आदेश पर हस्ताक्षर हुए उस समय आचार संहिता लागू हो चुकी थी। कांग्रेसियों ने इसकी शिकायत की। इंदौर के जिलाधीश ने इस बात की पुष्टि की और मध्यप्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी जयदीप गोविंद ने कलेक्टर की रिपोर्ट के आधार पर निर्णय लेने की सिफारिश निर्वाचन आयोग से कर दी है। हो सकता है कि उस पर आयोग ने अब तक कोई निर्णय ले लिया हो!


इस प्रसंग में गौरतलब है कि मुख्यमंत्री के अलावा अध्यक्ष पद के अभिलाषी व उनके समर्थक यह भलीभांति जानते थे कि चुनाव अब दूर नहीं है तथा आचार संहिता किसी भी दिन लागू हो सकती है, फिर भी श्री लालवानी इस कदर बावले हुए जा रहे थे मानों इंदौर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष पद मिले बिना उनका परलोक नहीं सुधरेगा। कुर्सी न हुई, अंतिम घड़ी में मिलने वाला गंगाजल हो गया! जिस युवा मुख्यमंत्री की समझदारी और नेतृत्व क्षमता की कहानियां हम लगातार पढ़ते आए हैं, उसे ऐसी स्थिति में कमजोरी क्यों दिखानी चाहिए थी, यह मेरी समझ में नहीं आया। 


बहरहाल, 6 तारीख की शाम मैं जब रायपुर लौटा तो अपना शहर कुछ धुला-धुला सा, कुछ ज्यादा साफ-सुथरा नजर  आया। पहले तो उसका कारण नहीं समझ आया, फिर एकाएक ध्यान गया कि तेलीबांधा से टाटीबंध तक के वे सारे होर्डिंग्स उतारे जा चुके थे जिनसे मुख्यमंत्री या कोई अन्य मंत्री झांक रहा था। हर दस कदम पर लगे ये होर्डिंग्स राह चलतों पर अपनी कृपादृष्टि बिखेर रहे थे या गिध्द की मानिंद अपने पंजों में दबोचने के लिए मंडरा रहे थे, कहा नहीं जा सकता। मेरा ध्यान इस तथ्य पर जाए बिना नहीं रहता कि इनमें से बहुत से होर्डिंग्स तो अभी महीने-दो महीने के भीतर लगाए गए थे। गोया आपका पांच साल का काम नहीं, बल्कि पांच हफ्ते का प्रचार चुनाव जितवा देगा। बात निकली है तो जनता के बीच फैली इस चर्चा का जिक्र भी कर देना चाहिए कि बृजमोहन अग्रवाल के होर्डिंग्स की संख्या डॉ. रमन सिंह के होर्डिंग्स के मुकाबले कहीं अधिक नजर आ रही थी। क्यों? तो इसका उत्तर सब जानते हैं। 


इन होर्डिंग्स के हटने से कुछ दिनों के लिए शहर की हवा में थोड़ा हल्कापन, थोड़ी ताजगी जरूर महसूस हो रही है, लेकिन अगर भाजपा तीसरी बार चुनाव जीतती है तो नए दावों के साथ ये विज्ञापन पट फिर से लग जाएंगे और अगर कांग्रेस दस साल के बाद सत्ता में वापिस आती है तो वह भी अपनी नई तस्वीरों व नए वायदों के साथ विज्ञापन करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेगी। शायद यही वजह है कि किसी भी कांग्रेस समर्थक ने सूचना के अधिकार के तहत यह जानने की कोशिश नहीं की कि पिछले दिनों किस मंत्री के कितने बोर्ड लगे तथा इनके लिए किस विभाग ने कितने लाख रुपए खर्च किए।


इस बीच छत्तीसगढ़ में दो बाबा भी चर्चा में आए। एक तो संत-कवि-प्रवचनकार-राजनेता एवं हमारे परम हितैषी पवन दीवान चौथी या पांचवी बार भाजपा में वापिस लौट आए। जिसका नाम ही पवन है, उसे यहां-वहां बहने से कोई रोक भी तो नहीं सकता! दूसरे, राजकीय अतिथि बनकर आए बाबा रामदेव बेहिचक कांग्रेस के नेताओं के प्रति संयमहीन वचन बोलते रहे। इस कथित योग-गुरु से अपनी वाणी को साधना नहीं हुआ। देर से सही, कांग्रेसी जागे और चुनाव आयोग से शिकायत की।


चुनावी माहौल में रायपुर के किसी अन्य अखबार में इसी सोमवार को यह खबर पढ़कर मुझे आश्चर्य हुआ कि सरकार का खजाना खाली हो चुका है और उसे बार-बार रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से ओवर ड्रॉफ्ट लेना पड़ रहा है। यह अखबार चूंकि मुख्यमंत्री का करीबी समझा जाता है इसलिए उसकी खबर पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। यद्यपि इस बात का आश्चर्य जरूर है कि कल तक आप इस सरकार के खिलाफ एक शब्द भी नहीं लिखते थे आज अचानक आपका हृदय परिवर्तन कैसे हुआ? खैर! इससे कुछ गंभीर सवाल उठते हैं। यदि सरकार के पास सचमुच रकम नहीं थी तो फिर ऐसे कार्यक्रम क्यों बनाए गए जो एक तरह से खैरात की श्रेणी में गिने जाएंगे? जब सिलाई मशीन, नाई पेटी, बढ़ई पेटी, छात्राओं के अलावा अन्यों को साइकिल, बरसाती, चप्पल जैसी वस्तुएं देने का कार्यक्रम आप बनाते हैं तो ऐसा लगता है मानो प्राचीनकाल का कोई राजा प्रजा को धन्य कर रहा है! 


यह एक लंबी बहस का मुद्दा है, लेकिन प्रदेश की जनता के सामने यह खबर तात्कालिक रूप से चिंताजनक है तथा दो-तीन माह बाद ही इससे उपजी परिस्थिति का सामना करने के लिए उसे तैयार होना पड़ेगा। यदि भाजपा की सरकार तीसरी बार बनती है तो इस साधनहीनता में वह आगे सरकार कैसे चलाएगी और यदि सरकार कांग्रेस की बनती है तो वह आवश्यक किन्तु कठोर आर्थिक निर्णय लेने का क्या साहस बटोर पाएगी?


देशबंधु में 10 अक्टूबर 2013 को प्रकाशित

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