एक पुरानी कहावत है- ''एक हाथ से ताली नहीं बजती।'' आज देश के उद्योग जगत में जो माहौल बना है उसमें यह कहावत सटीक बैठती है। सीबीआई द्वारा उद्योगपति कुमार मंगलम बिड़ला के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने के बाद चारों तरफ हाय-तौबा मच गई है। तरह-तरह की आशंकाएं प्रकट की जा रही हैं कि इसका संदेश गलत जाएगा, कि देश की आर्थिक प्रगति रुक जाएगी, कि पूंजी निवेशकों का भरोसा टूट जाएगा। श्री बिड़ला के पक्ष में स्वाभाविक ही उद्योग जगत एकजुट होकर खड़ा हो गया है। जनता को याद दिलाया जा रहा है कि बिड़ला घराने को देश की सेवा करते सौ साल से ज्यादा बीत गए हैं, कि कुमार मंगलम स्वयं उज्जवल चरित्र के धनी हैं, कि उनके ऊपर उंगली उठाना सरासर नाइंसाफी है। ये सारे तर्क अपनी जगह ठीक हो सकते हैं लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है।
हम मानते हैं कि यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह अन्य कामों के अलावा देश में उद्योग-व्यापार की प्रगति के लिए भी अनुकूल वातावरण मुहैया करवाए, जिसमें नियम-कायदे से चलने वाले उद्यमी निर्भय और निशंक होकर काम कर सकें। लेकिन यही बात राजनीति पर भी तो लागू होती है। यह देश में सभी वर्गों की जिम्मेदारी है कि एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था व वातावरण बने, जिसमें जिन्हें सरकार चलाने के लिए चुना गया है, वे भी निर्भयतापूर्वक देश की प्रगति के लिए आवश्यक कदम ले सकें। उन पर विश्वास किया जाए कि अगर निर्णय लेने में अनजाने में कोई भूल हो तो उसे अपराध न माना जाए। और जब तक कोई ठोस प्रमाण न हो राजनीतिक नेतृत्व को कटघरे में खड़ा न किया जाए। लेकिन आज तो हालत यह है कि कुछ न्यस्त स्वार्थों ने मिलकर राजनीति को काजल की कोठरी सिध्द करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है।
हमें भारतीय जनता पार्टी का दु:ख समझ में आता है। जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी तब भाजपा को लगा कि उसने दिल्ली फतह कर ली है और उसे कोई चुनौती देने वाला नहीं है। दुर्भाग्य से 2004 में भाजपा का सपना टूट गया। 2009 में उसे दुबारा झटका लगा। अडवानीजी सहित बहुत से नेताओं की प्रधानमंत्री बनने की चाहत अधूरी रह गई। संघ परिवार का भी भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का सपना पूरा नहीं हो सका। भाजपा को विश्वास था कि 2009 में वह निश्चित रूप से सत्ता में वापिस लौटेगी, लेकिन जब यूपीए की लकीर एनडीए से लंबी खिंच गई तो भाजपा ने समझा कि अपनी लकीर बड़ी सिध्द करने का बेहतर उपाय यही है कि सामने वाले की लकीर किसी न किसी तरह छोटी कर दी जाए और इस तरह यूपीए नेतृत्व पर राजनीतिक ही नहीं, व्यक्तिगत आरोप लगाने का सिलसिला शुरू हो गया।
भाजपा कुछ भी हो देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है और उसके पास व्यूह रचने वालों की कमी नहीं है। इसलिए यूपीए-2 का एक साल बीतते न बीतते भाजपा ने एक नई रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया। एक ओर जहां उन्होंने कांग्रेस व मनमोहन सरकार पर आरोप लगाना जारी रखा, वहीं दूसरी ओर देशी कारपोरेट घरानों व एनआरआई के साधनों से मदद लेकर नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में दिल्ली पर कब्जा करने की योजना पर काम शुरू कर दिया गया। भाजपा के पास यद्यपि राष्ट्रीय स्तर पर अनुभव प्राप्त वरिष्ठ नेताओं की कमी नहीं थी, लेकिन नरेन्द्र मोदी पर दांव इसलिए लगाया गया कि कारपोरेट घरानों का सहयोग उनके नाम पर ही सबसे यादा मिल सकता था। यह सब जानते हैं कि उद्योगपति या व्यापारी का पूरा ध्यान मुनाफा कमाने पर रहता है, उसे इसके अलावा और किसी बात से मतलब नहीं रहता। इसलिए वे देश के नेता के रूप में हमेशा ऐसे व्यक्ति को चाहते हैं जो नीति-अनीति की अधिक परवाह किए बिना फौरी निर्णय ले सके।
इसके साथ एक अन्य घटना भी हुई। देश के बहुत सारे टीवी चैनल और अखबारों में कारपोरेट घरानों ने बड़ी मात्रा में पूंजी निवेश किया और उनका नियंत्रण हासिल कर लिया। यहां ''करेला, वह भी नीम चढ़ा'' की कहावत चरितार्थ हो गई। कारपोरेट भारत को अपनी मुनाफे की मशीन चलाने के लिए भाजपा के रूप में एक बड़ा राजनीतिक दल मिल गया, नरेन्द्र मोदी के रूप में भावी नेता और मीडिया पर अपना मनचाहा प्रोपेगंडा करने की सुविधा भी उसने हासिल कर ली। यहां कहा जा सकता है कि कांग्रेस पार्टी इस रणनीति को यथासमय समझने में असफल रही। हम देख रहे हैं कि पिछले दो साल से भाजपा द्वारा और किसी हद तक उसके विश्वस्त प्रवक्ता के रूप में मीडिया द्वारा यूपीए-2 पर ताबड़तोड़ हमले किए जा रहे हैं। पहले राष्ट्रमंडल खेलों का मामला उठा, फिर 2 जी का, कोयला खदानों का तथा ऐसे ही और अन्य प्रकरण। इन सबका धुंआधार प्रचार कर जनता को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जा रही है कि यूपीए-2 से ज्यादा नाकारा सरकार आज तक कोई नहीं है। अंग्रेजी में जैसा कि कहा जाता है- 'एट द ड्राप ऑफ द हैट', इस अंदाज में सुबह-शाम प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगा जा रहा है। बीच में एक मौका तो ऐसा आया जब गुस्से में फनफनाए रतन टाटा ने भारत को 'बनाना रिपब्लिक' की उपमा दे डाली।
अगर एक पल के लिए मान लें कि भाजपा के आरोप व कारपोरेट भारत की चिंताएं वाजिब हैं तब दूसरे सवाल उठते हैं। अगर वर्तमान सत्ताधीशों ने कारपोरेट घरानों से कोई रियायत, कोई सुविधा देने के लिए रिश्वत ली, भ्रष्टाचार किया, अनियमितता की तो इसका अंतत: लाभ किसे होगा? कोयला खदानों के आबंटन का मामला हो अथवा 2-जी स्पैक्ट्रम का, इसमें आखिरकार फायदा तो टाटा, बिड़ला या अंबानी जैसों को ही होना है। क्या यह सरल सी सच्चाई किसी से छिपी हुई है? अभी उद्योग-जगत ने वोडाफोन पर किए गए करारोपण को लेकर कुशंका जाहिर की, लेकिन यह आज-कल की ही खबर है कि भारत में टवेरा गाड़ी बनाने वाली अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कंपनी जनरल मोटर्स ने बड़े पैमाने पर हेराफेरी की। तो क्या इन सबका कहीं कोई दोष नहीं बनता?
किसी भी देश के विकास में उद्योगों का अपना महत्व है। उनके बिना आर्थिक तरक्की की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन हर देश में कुछ नियम कानून भी होते हैं, जिनका पालन अनिवार्य रूप से करना होता है। अमेरिका में एनरॉन कंपनी ने कानून तोड़े तो कंपनी तो बंद हुई ही, उसके प्रवर्तकों को जेल भी जाना पड़ा। अमेरिका के अलावा अन्य पूंजीवादी देशों में भी कानून तोड़ने वाले उद्योगों के खिलाफ यथासमय कार्रवाई होती है, फिर भारत को ही इसका अपवाद क्यों बनाया जाए? हम तो समझते हैं कि फिक्की, एसोचेम, सीआईआई जैसे व्यापारिक संघों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने सदस्य प्रतिष्ठानों को देश के कानूनों का पालन करने प्रेरित करें और वे अगर कानून तोड़ें तो उनकी सदस्यता खत्म कर दें। हम यह न भूलें कि सरकार जब नियम और नीतियां बनाती हैं तो बहुत कुछ तो उद्योग-जगत से पूछकर ही तय किया जाता है।
आज जब कारपोरेट भारत कुमार मंगलम बिड़ला पर संभावित कार्रवाई को लेकर इतना चिंतित है तब उसे यह भी याद रखना चाहिए कि अपने चैनलों और अखबारों के माध्यम से उसने कांग्रेस व यूपीए नेताओं पर राजनैतिक ही नहीं, व्यक्तिगत तौर पर भी कितने बेबुनियाद आरोप लगाए हैं और राजनेताओं की छवि धूमिल करने का उपक्रम किया है। प्रधानमंत्री ने तो बिड़ला प्रकरण में अपने ऊपर जिम्मेदारी ले ली है और एक तरह से श्री बिड़ला को आरोप से बरी कर दिया है। क्या कारपोरेट इंडिया में यह साहस है कि वह प्रधानमंत्री से कहे कि आपके ऊपर हमने जो निराधार आरोप लगाए वे हम वापिस लेते हैं?
देशबंधु में 24 अक्टूबर 2013 को प्रकाशित
No comments:
Post a Comment