थोड़े दिन पहले एक ट्विटर वार्तालाप कुछ इस तरह हुआ-
ट्वीट- भाजपा मुख्यालय दिल्ली की पुस्तक दुकान में सरदार पटेल की जीवनी बिक रही है जबकि यह काम कांग्रेस को करना चाहिए था।
प्रतिक्रिया- आप गलत कह रही हैं। कांग्रेस मुख्यालय में तो पुस्तक दुकान है ही नहीं।
उत्तर- क्यों नहीं है, होना चाहिए थी।
इस वार्तालाप से पाठकों को यह तो पता चल ही गया है कि दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में पुस्तकों की दुकान है। यहां आने वाले कार्यकर्ता, टिकिटार्थी या अन्य अतिथि किताबें देखते तो होंगे ही, भले ही खरीदते न हों। मुझे यह बात अच्छी लगी। हमारे देश में ऐसे बहुत से स्थान हैं जहां विभिन्न प्रयोजनों से बड़ी संख्या में लोगों का आना-जाना लगा रहता है। यदि आप ऐतिहासिक स्थल या संग्रहालय में जाएं तो वहां आपको पुरानी मूर्तियों व कलाकृतियों की अनुकृतियां मिल जाएंगी। पिक्चर पोस्टकार्ड और की-रिंग वगैरह भी मिल जाएंगे, लेकिन पुस्तकें अमूमन यहां नहीं मिलतीं। अगर कहीं पुस्तक कोना है भी तो वह सामान्यत: उपेक्षित ही मिलेगा।
देश में धार्मिक श्रद्धा के जो केन्द्र हैं वहां भी कुल मिलाकर ऐसी ही स्थिति है। मंदिर के बाहर कतार से दुकानें सजती हैं उनमें पूजा सामग्री, माला, मनके, देवी-देवताओं के चित्र, कलश, कमंडल इत्यादि मिल जाएंगे, लेकिन किताबें शायद ही मिलेंगी। रामचरित मानस का गुटका या हनुमान चालीसा भले ही मिल जाए, लेकिन यदि उस स्थान विशेष के बारे में प्रामाणिक जानकारी देने वाली कोई संदर्भ पुस्तिका आप ढूंढना चाहें तो निराशा ही हाथ लगेगी। ज्ञानार्जन के प्रति अवज्ञा का जो भाव समाज में है शायद यह उसी का प्रतिफल है। इसका अपवाद अगर देखना है तो आधुनिक समय में तथाकथित संत महात्माओं के जो आश्रम स्थापित हुए हैं वहीं देखने मिलेगा। इन स्थानों पर आकर्षक तरीके से सजी दुकानों में उतने ही आकर्षक ढंग से छपी पुस्तकें उपलब्ध हो जाती हैं। कह सकते हैं कि पुराने तीर्थों की बजाय नए आस्था केन्द्रों का प्रचारतंत्र बेहतर है और ये अपनी मार्केटिंग के लिए पुस्तकों का भी बखूबी इस्तेमाल कर लेते हैं।
खैर! हमने अपनी बात भारतीय जनता पार्टी के संदर्भ में उठाई थी। भाजपा के अलावा दोनों प्रमुख वामपंथी दल इस बारे में काफी सजग हैं। दिल्ली में आप यदि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यालय जाएं तो वहां साम्यवाद और उससे जुड़े आंदोलनों इत्यादि पर पुस्तकें मिल जाएंगी। इस दृष्टि से कांगे्रस की स्थिति चिंतनीय है। यदि देश की राजधानी में स्थित उनके मुख्यालय में पुस्तक बिक्री की व्यवस्था नहीं है तो राज्यों अथवा जिलों में स्थित कार्यालयों में ऐसा कोई इंतजाम होगा इसकी कल्पना करना ही बेकार है। कांग्रेस पार्टी ने इस बारे में आज तक कभी कोई विचार किया या नहीं, कहा नहीं जा सकता। लेकिन इस वक्त जब पार्टी के कर्णधारों के पास सोचने-विचारने के लिए कुछ वक्त है तब शायद इस ओर ध्यान देना अच्छा होगा।
भारतीय जनता पार्टी की दुकान पर सरदार पटेल की जीवनी बिक्री के लिए रखी गई है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। भाजपा प्रधानमंत्री तो सरदार की ऐसी प्रतिमा स्थापित करना चाहते हैं जो विश्व में सबसे ऊंची हो। इस पुस्तक विक्रय केन्द्र में स्वामी विवेकानंद की पुस्तकें भी अवश्य होंगी, जिन्हें भाजपा ने बड़ी खूबसूरती से अपना आदर्श घोषित कर रखा है। भाजपा के जो अन्य प्रेरणा पुरुष हैं उनके लिखित ग्रंथ भी यहां होंगे। फिर शायद अटल बिहारी वाजपेयी के कविता संग्रह भी। साथ ही लालकृष्ण अडवानी, जसवंत सिंह की आत्मकथाएं भी शायद उपलब्ध होंगी। इनके बरक्स कांग्रेस को देखें तो एक सौ पच्चीस साल के इतिहास में कांग्रेसजनों ने जितना लिखा है उसकी कोई थाह ही नहीं है। अगर वे चाहें तो भाजपा से चौगुनी बड़ी दुकान चला सकते हैं। बशर्ते कांग्रेसजनों में किताबें खरीदने और पढऩे की तमीज हो!
मैं पिछले सप्ताह ही न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू द्वारा फेसबुक पर जारी की गई एक सूची देख रहा था। इसमें उन्होंने युवाओं को पढऩे के लिए विश्व साहित्य की लगभग सौ किताबें तजवीज़ की थीं। इसी अंदाज में कोई पढ़ा-लिखा कांग्रेसी उन पुस्तकों की सूची तैयार कर सकता है, जो कांग्रेस की पुस्तक दुकान में उपलब्ध हो। उनमें आर.सी. दत्त, दादाभाई नौरोजी से लेकर हाल-हाल में लिखी शशि थरूर द्वारा तक लिखी गई पुस्तकें शामिल हो सकती हैं। यह तो हम जानते ही हैं कि कांग्रेस के दो सबसे बड़े नेता याने महात्मा गांधी और उनके वारिस जवाहरलाल नेहरू ने जितना प्रचुर लेखन किया है उतना विश्व के किसी अन्य राजनेता ने नहीं। लोकमान्य तिलक, लाला लाजपतराय इत्यादि महान नेताओं ने अपने समय में बहुमूल्य लेखन किया। तिलक महाराज ने एक तरफ 'गीता रहस्यÓ लिखी तो दूसरी ओर 'आर्कटिक होम ऑफ वेदाज़'। लालाजी ने अमेरिकी पत्रकार कैथरीन मेयो की भारत विरोधी पुस्तक 'मदर इंडिया' का बखूबी जवाब दिया था।
कांग्रेस कार्यालय में यदि किसी दिन पुस्तक बिक्री की व्यवस्था हो तो वहां रवीन्द्रनाथ ठाकुर की किताबें रखी जा सकती हैं और विनोबा भावे की। कांग्रेसियों को शायद कभी यह भी याद आ जाए कि महान उपन्यासकार शरतचन्द्र कभी कलकत्ता जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष हुआ करते थे। मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ की बात करें तो शुक्ल अभिनंदन ग्रंथ, द्वारिका प्रसाद मिश्र व अर्जुन सिंह की आत्मकथाएं, भवानी प्रसाद तिवारी द्वारा किया गया गीतांजलि का अनुवाद और न जाने ऐसी कितनी पुस्तकें ध्यान आ सकती हैं। गांधी, नेहरू, इंदिरा पर जो पुस्तकें लिखी गईं उनकी भी संख्या विशाल है। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, काका कालेलकर, दादा धर्माधिकारी व साने गुरुजी की पुस्तकें भी इस सूची में होना चाहिए। पट्टाभि सीतारम्मैया तथा आगे चलकर बी.एन. पाण्डे ने कांग्रेस का जो इतिहास लिखा, उसे भी पता नहीं कि कितने कांग्रेसियों ने पढ़ा होगा!
मैं स्वयं पुस्तकें बहुत पढ़ता हूं। एक पाठक ने तो मुझे ''पुस्तक कीट' की उपाधि दी है। इसके चलते मैं अक्सर एक बेवकूफी का काम करता हूं कि अपने से मिलने-जुलने वालों को मौके-बेमौके पुस्तक पढऩे की सलाह दे देता हूं। ज्यादातर लोग सुनी-अनसुनी कर देते हैं। चिकनी मिट्टी के घड़े पर से पानी फिसल जाता है। यह बिन मांगी सलाह मैंने उन कांग्रेसियों को भी दी जो यहां-वहां टकरा जाते हैं। आपातकाल के प्रारंभिक दिनों में छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख कांग्रेस नेता के परामर्श मांगने पर मैंने उन्हें कहा था कि कांग्रेसजनों को महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू- इन दो का लिखा हुआ तो अवश्य ही पढऩा चाहिए। इसी तरह मेरे एक परिचित युवा जब पहली बार विधायक बने तो मैंने उनसे कहा कि वे अगर इनको पढ़ लेंगे तो विधानसभा में बेहतर ढंग से अपनी बात रखने में उन्हें मदद मिलेगी। जाहिर था कि उन्हें यह सलाह व्यर्थ मालूम पड़ती।
दरअसल यहां कांग्रेस अथवा भाजपा की बात नहीं है। मैं इसे एक बड़े कैनवास पर देखने की कोशिश कर रहा था। मुझे याद है कि सन् 2004 विधानसभा चुनाव के उपरांत समकालीन समाचारपत्र ''नवभारत' ने नवनिर्वाचित विधायकों से साक्षात्कारों की श्रृंखला प्रकाशित की थी। उसमें एक सवाल था कि आप क्या पढ़ते हैं? भाजपा के अधिकतर विधायकों का जवाब था कि वे गीता और रामायण पढ़ते हैं। जबकि कुछ कांग्रेसियों ने याददाश्त पर जोर डालकर शायद प्रेमचन्द का नाम लिया था। मुझे इनके जवाब सुनकर हैरानी से ज्यादा दुख हुआ था। आपको जनता ने विधानसभा में चुनकर इसलिए भेजा है कि आप वहां देश के संविधान व अपनी पार्टी की रीति-नीति के अनुसार लोकमहत्व के मुद्दों पर बात रख सकें जिसके आधार पर भावी विकास के लिए निर्णय लिए जा सकें। इसकी तैयारी आप कैसे करेंगे?
मैं अपनी चिंता को स्मृति ईरानी की शैक्षणिक योग्यता पर उठे अनावश्यक विवाद से जोड़कर भी देखता हूं। मैं जितना समझता हूं सुश्री ईरानी ने अध्यवसाय के द्वारा अपनी शैक्षणिक योग्यता की कमी को सफलतापूर्वक दूर किया है। जो भी व्यक्ति राजनीति में सक्रिय है उसके लिए यह आवश्यक होना चाहिए कि उसने पढ़ाई चाहे कितनी भी की हो, विश्व परिदृश्य, भारत की लोकशाही और देश के संविधान के समझने में जिन पुस्तकों से मदद मिल सकती है उन्हें वे अवश्य पढ़ें। भाजपा मुख्यालय में पुस्तक बिक्री इस कमी को दूर करने का एक प्रयत्न है। कांग्रेसियों को भी इस पर विचार करना ही चाहिए। मेरा तो कहना है कि हर राजनीतिक कार्यकर्ता के घर में अपनी रुचि की पुस्तकें अलमारी में बंद नहीं, बल्कि बैठक वाले कमरे में या ड्राइंगरूम में रखी होना चाहिए ताकि मुलाकाती भी उन किताबों को पढ़ें नहीं, तो उलट पुलट कर देख तो लें।
देशबन्धु में 03 जुलाई 2014 प्रकाशित
लोग समझते हैं कि पुस्तक पढना सिर्फ़ साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों का ही पेशा है। जबकि राजनितिज्ञों को भी पुस्तकें पढने का अभ्यास करना चाहिए। जिससे उन्हें विभिन्न विचारधाराओं का ज्ञान हो साथ ही जागरुकता बढे। एक नेता जी का भाषण सुन रहा था, वे बाँध के पानी को "लीटर" में नाप रहे थे। ऐसी हास्यस्पद स्थिति स्वाध्याय न करने से होती है। मैं नहीं समझता कि विद्यालय की डिग्रियाँ ही किसी की कार्यक्षमता को आंकने या तौलने का पैमाना हैं। स्वाध्याय से व्यक्ति विद्यालयों की शिक्षा से कहीं अधिक ज्ञानार्जन करता है। इसलिए शास्त्रों ने भी कहा है कि स्वाध्याय से प्रमाद नहीं नहीं करना चाहिए। आचार्य श्रीराम शर्मा कहते थे " मनुष्य की सच्ची साथी पुस्तकें हैं।"
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