Thursday, 30 August 2018

राजनीति में नौकरशाह

                                             
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस संभवत: पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय प्रशासनिक सेवा (उसे तब आईसीएस कहा जाता था) से इस्तीफा देकर राजनीति की राह पकड़ ली थी। यह 1920-21 की बात है। नेताजी की आयु उस समय मात्र चौबीस वर्ष थी। मुझे जितना याद है नेताजी का अनुकरण करने वाले दूसरे व्यक्ति हरि विष्णु कामथ थे। 1938-39 में वे जबलपुर में पदस्थ थे। जबलपुर के पास त्रिपुरी में कांग्रेस का ऐतिहासिक अधिवेशन उन्हीं दिनों हुआ था। वे तभी नेताजी से प्रभावित हुए और आनन-फानन में आईसीएस से त्यागपत्र दे दिया। कामथ साहब सुभाष बाबू द्वारा स्थापित फारवर्ड ब्लाक के पहले महामंत्री थे। वे संविधान सभा के सदस्य भी रहे और जबलपुर से लगी होशंगाबाद सीट से लोकसभा के लिए  चार बार चुने गए। उनके अलावा मुझे आर.के. पाटिल का भी ध्यान आता है, वे भी गांधी जी से प्रभावित होकर आईसीएस छोड़कर राजनीति में आए। श्री पाटिल एक समय रायपुर के कलेक्टर थे और आगे चलकर पं. रविशंकर शुक्ल ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था। रायपुर में स्टेशन चौक पर नेताजी की जो प्रतिमा स्थापित है उसका अनावरण उन्होंने मंत्री के रूप में किया था।
छत्तीसगढ़ की राजधानी याने रायपुर के कलेक्टर ओ.पी. चौधरी के भारतीय प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा देकर राजनीति में प्रवेश करने की खबर हाल में पढ़ी तो ये सारे प्रसंग अनायास स्मृतिपटल पर उभर आए। श्री चौधरी स्वयं भी संभवत: इनसे वाकिफ होंगे! जाने-अनजाने वे उस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं जिसकी बुनियाद लगभग सौ साल पहले रखी गई थी। तब और अब के समय में बहुत बड़ा फर्क है। वह स्वाधीनता की लड़ाई का दौर था। सुभाष बाबू, कामथ साहब, पाटिल जी, ये सब गांधी मार्ग के अनुयायी थे। इन्हें गांधीजी ने नौकरी छोड़ने के लिए नहीं कहा था, लेकिन उनके मन में देश की आजादी का सपना पल रहा था; और ये सुख-सुविधा छोड़कर कांटों भरी राह पर चलने के लिए कृतसंकल्प सेनानी थे। इस परंपरा को जिन लोगों ने आगे बढ़ाया उन्हें मुझे सबसे पहले सी.डी. देशमुख का नाम ध्यान आता है। यह संयोग है कि श्री देशमुख ने भी आईसीएस में अपनी सेवा रायपुर से ही प्रारंभ की थी। यहां वे  शायद प्रशिक्षु अधिकारी के रूप में पदस्थ थे। श्री देशमुख तीस साल की सेवा के पश्चात 1948 में सेवानिवृत्त हुए।  
आर्थिक मामलों में उनकी प्रतिभा का लोहा अंग्रेज सरकार ने भी माना। वे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर बनने वाले पहले भारतीय थे। आजाद देश ने भी उनकी सेवाओं का लाभ लेने में संकोच नहीं किया। पंडित नेहरू ने 1950 में उन्हें अपनी कैबिनेट में वित्त मंत्री के रूप में शामिल किया। यहां स्पष्ट कर देना उचित होगा कि उन्होंने नौकरी से इस्तीफा तो नहीं दिया था, लेकिन वे उन प्रारंभिक व्यक्तियों में से थे जिन्होंने सरकारी सेवा के बाद सक्रिय राजनीति में लंबे समय तक हिस्सेदारी की। उनकी श्रेणी में सुशीलचन्द्र वर्मा को रखा जा सकता है जो 1960 के आसपास रायपुर के कलेक्टर थे, आगे चलकर भारत सरकार के सचिव और मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव बने और फिर भोपाल से चार बार लोकसभा के लिए चुने गए। 
1947 के पहले आजादी की लड़ाई थी, तो 1947 के बाद देश के नवनिर्माण का स्वप्न था। सी.डी. देशमुख, सुशीलचन्द्र वर्मा, यशवंत सिन्हा, राजमोहन गांधी जैसे कितने ही अधिकारी हैं जिन्होंने नेहरू युग में और फिर इंदिरा युग में स्वावलंबी, सक्षम, शक्तिशाली देश बनाने के लिए अपनी सेवाएं पहले नौकरशाह के रूप में और फिर राजनेता के रूप में दीं। यहां भारतीय विदेश सेवा से राजनीति में आए कुछ नाम भी लिए जा सकते हैं- जैसे के.आर. नारायणन, मणिशंकर अय्यर, हामिद अंसारी, मीरा कुमार इत्यादि। इनके समानांतर और इनकी तुलना में संख्या में बहुत अधिक वे अधिकारी भी थे जिन्होंने सरकार में रहकर सत्यनिष्ठा से काम किया और सेवानिवृत्त होकर अन्य कोई इच्छा, आकांक्षा रखे बिना पार्श्व में चले गए।
ओ.पी. चौधरी के सामने इन दोनों तरह के दृष्टांतों के अलावा रायपुर जिलाधीश कार्यालय का इतिहास भी था। हमने दो नाम तो पहले ही लिए हैं। आर. के. पाटिल और सुशीलचन्द्र वर्मा के अलावा अजीत जोगी और नजाब जंग का ध्यान आ जाना स्वाभाविक है। अजीत जोगी का उदाहरण आज की चर्चा के संदर्भ में अधिक मौजूं है। श्री जोगी और श्री चौधरी दोनों ग्रामीण परिवेश से आते हैं। श्री जोगी ने मई 1986 में मात्र चालीस वर्ष की आयु में सरकारी नौकरी छोड़ दी थी। वे प्रदेश के सबसे प्रमुख जिला इंदौर के कलेक्टर थे और कुछ ही दिनों में आयुक्त या सचिव बनने वाले थे; किन्तु उन्होंने त्यागपत्र तब दिया जब शायद उनके राज्यसभा में जाने की बात पक्की हो चुकी थी। ओ.पी. चौधरी ने सैंतीस वर्ष की आयु में सरकारी नौकरी छोड़ी है। उनका राजनीतिक भविष्य ऊपरी तौर पर अनिश्चित लगता है, लेकिन उन्होंने कुछ गुणा-भाग तो लगाया ही होगा! जिस तरह श्री जोगी उन दिनों अर्जुन सिंह  के विश्वस्त अधिकारी थे उसी तरह श्री चौधरी भी डॉ. रमन सिंह के विश्वासभाजन हैं।
ओ.पी. चौधरी ने अपना त्यागपत्र स्वीकृत हो जाने के बाद ट्विटर पर लिखा है कि वे अपनी माटी की सेवा करना चाहते हैं। उनके मनोगत का स्वागत है।  इन सारे रोचक किस्सों के बीच कुछेक बुनियादी पहलुओं पर ध्यान जाता है। मेरा मानना है कि आप जहां भी जिस भी स्थिति में हों, हर जगह देश और समाज की सेवा के अवसर होते हैं। राजनीति सेवा का न तो एकमात्र माध्यम है और न सर्वोपरि। सरकारी सेवा हो या जीवन का कोई अन्य क्षेत्र, सब में अपनी-अपनी तरह से समाज का ऋण चुकाने के मौके मिलते हैं। स्वाधीनता संग्राम के दिनों की बात कुछ और थी। उस समय के उदाहरण आज लागू नहीं हो सकते। नेहरू युग में देश की राजनीति का जो आदर्शवादी स्वरूप था वह धीरे-धीरे कर विकृत होते गया है, इसलिए आज के दिन राजनीति के माध्यम से सेवा करने का स्वप्न संजोना साहस का काम है। 
यहां समझ लेना उचित होगा कि सेवा से हमारा अभिप्राय मशीनी ढंग से काम करने से नहीं, बल्कि समाज में बेहतरी के लिए बदलाव लाने के प्रयत्नों से है। इस दृष्टि से विचार करें तो आईएएस अथवा अन्य किसी शासकीय सेवा छोड़कर राजनीति में आने मात्र से परिवर्तन की कोई निकट या दूर संभावना नजर नहीं आती। आज देश की राजनीति यथास्थिति की पोषक है, फिर सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो। बंकर राय, अरूणा राय, हर्षमंदर जैसे अधिकारियों ने आईएएस छोड़ी तो राजनीति में आने के बजाय उन्होंने गैरसरकारी क्षेत्र में काम करना पसंद किया। उन्हें जो कुछ भी सफलता मिली उसी में मिली। डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा, एन.सी. सक्सेना, एस.आर. शंकरन और शरतचन्द्र बेहार जैसे व्यक्ति जो आईएएस में लंबे समय तक रहे और ऊंचे पदों पर काम किया, वे भी गैरसरकारी और गैरराजनीतिक मंचों पर काम करके ही यथास्थिति में बदलाव के एजेंडा को सार्वजनिक विमर्श में ला पाए। इस पृष्ठभूमि में ओ.पी. चौधरी कितना कुछ सफल हो पाएंगे। यह देखने की उत्सुकता बनी रहेगी।
भारत में सरकारी नौकरी की बात चलने पर एक सच्चाई की ओर बरबस ध्यान जाता है। हमारे यहां सरकारी नौकरी के साथ जीवनयापन की सुरक्षा का मुद्दा जुड़ा हुआ है। एक बार सरकारी नौकरी मिल जाए तो जीवन भर की आश्वस्ति हो जाती है। यह स्थिति आज से नहीं, न जाने कब से बनी हुई है। प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दरोगा' को याद कीजिए। सरकारी नौकरी मिल गई याने गंगा नहा लिए। इस लिहाज से सोचें तो ओ.पी. चौधरी ने नि:संदेह अपने भावी जीवन को दांव पर लगा दिया है। यदि वे कल को राजनीति में सफल न हो पाए तो उन जैसे प्रतिभाशाली युवक के लिए कार्पोरेट क्षेत्र में काम करने के अवसर होंगे। फिर भी आईएएस का जो रौब-रुआब है वह प्राइवेट सेक्टर में कहां? 
आखिरी बात। नौकरशाह सामान्य तौर पर परदे के पीछे रहकर काम करते हैं। उनका आम जनता के साथ संवाद तो होता है, लेकिन उनके और जनता के बीच एक संकोच, एक आड़ हमेशा बनी रहती है। चुनावी राजनीति में आने के बाद एक नौकरशाह को स्वयं अपने आपको पूरी तरह से बदलना होता है।  क्या ओ.पी. चौधरी मसूरी अकादमी से हासिल श्रेष्ठता का दंभ भूलकर आम जनता के साथ तादात्म्य बैठा पाएंगे? अगर वे ऐसा कर सके तो इस युवा नौकरशाह का भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल होगा।
 देशबंधु में 30 अगस्त 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 22 August 2018

अटल: संघ के होकर संघ से दूर 



अटल बिहारी वाजपेयी पिछले एक दशक से नेपथ्य में थे। वे स्मरणशक्ति भूल जाने सहित कुछ अन्य बीमारियों से ग्रस्त थे, इसी कारण बाहरी दुनिया से उनका संपर्क लगभग समाप्त हो चुका था। इसके बावजूद उनकी मृत्यु की खबर आने के बाद सारा देश जिस तरह से शोकाकुल हुआ उससे पता चलता है कि श्री वाजपेयी ने अपने साठ साल के राजनैतिक जीवन में उससे भी परे जाकर जनमानस के बीच एक अलग छवि बनाई थी। किसी व्यक्ति के निधन पर आम चलन में कहा जाता है कि उसके जाने से एक शून्य बन गया है जिसे भरना मुश्किल होगा या फिर हमें उनके बताए मार्ग पर चलना है। इन उद्गारों में अधिकतर समय औपचारिकता निभाने का भाव होता है। अटल बिहारी वाजपेयी के देहांत पर भी इस तरह की रस्म अदायगी की गई लेकिन वह काफी हद तक दिल से की गई बात थी।

श्री वाजपेयी के बारे में कहा गया कि वे पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे जिन्होंने पांच साल का निर्धारित कार्यकाल पूरा किया। मैं इसमें संशोधन करना चाहता हूं। श्री वाजपेयी के पूर्व जो अन्य गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री हुए याने मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर, एच.डी. देवेगौड़ा, आई. के. गुजराल-ये सब के सब कांग्रेस के विद्रोही थे जिनकी राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा कांग्रेस के भीतर हुई थी। इसलिए यह श्रेय भी अटल बिहारी वाजपेयी को देना होगा कि वे देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे। इसमें यह जोड़ना आवश्यक है कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से दीक्षा प्राप्त पहले प्रधानमंत्री थे, आगे चलकर जिनका उत्तराधिकारी बनने का अवसर नरेन्द्र मोदी को मिला। प्रसंगवश उल्लेख किया जा सकता है कि इन दोनों के बीच लालकृष्ण अडवानी के हाथों से सत्ता आते-आते फिसल गई। श्री वाजपेयी के राजनैतिक जीवन का अध्ययन करते समय उनकी संघ की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखे बिना बात पूरी नहीं हो सकती।

यह गंभीर शोध का विषय है कि श्री वाजपेयी ने संघ के होकर भी संघ से स्वतंत्र दिखने वाली छवि कैसे बनाई। फिलहाल मैं वाजपेयी जी के व्यक्तित्व के बारे में दो बातों का उल्लेख करना चाहूंगा। एक तो यह कि उन्हें हंसना खूब आता था। आप उन्हें सदन के भीतर और बाहर, औपचारिक और अनौपचारिक माहौल में ठहाका लगाते हुए सुन सकते थे। आमतौर पर संघ से जुड़े राजनेता मुस्कुराने से परहेज करते हैं। उन्हें शायद यह भारतीय संस्कृति के विपरीत जान पड़ता है! उन्हें आप अक्सर तनाव भरी मुद्रा में ही देखते हैं। वाजपेयी जी इसके अपवाद हैं। दूसरे, उनकी पढ़ने-लिखने में निश्चित रूप से रुचि थी। संघ की पृष्ठभूमि से आए अधिकतर नेता अंग्रेजी साहित्य तो बिल्कुल नहीं पढ़ते। हिन्दी में भी वे रामचरितमानस और हनुमान चालीसा या फिल्मी धुनों पर लिखे भजनों से आगे बढ़ने से परहेज करते हैं। वाजपेयी जी के व्यक्तित्व का अनूठापन यहां भी प्रदर्शित होता है।

दरअसल, हिन्दी क्षेत्र में दो ऐसे राजनेता हुए हैं जिनका लेखकों, पत्रकारों और अकादमिकों से जीवंत संवाद रहा है। डॉ. राम मनोहर लोहिया अपने इसी गुण के कारण हिन्दी जगत में लोकप्रिय और प्रतिष्ठित हुए। उनके संबंध अन्य भारतीय भाषाओं के संस्कृतिकर्मियों के साथ भी घनिष्ठ थे। अटल बिहारी वाजपेयी का रास्ता भी लगभग यही था। वे जब प्रधानमंत्री थे तब हिन्दी लेखकों के अलावा  अली सरदार जाफरी व जावेद अख़्तर जैसे लोकप्रिय साहित्यकारों के साथ उनकी संगत के समाचार पढ़ने में आते थे। वे जब ग्वालियर में विद्यार्थी थे तब शिवमंगल सिंह सुमन उनके अध्यापक थे और वाजपेयी जी ने भिन्न राजनीतिक विचार होने के बावजूद अपने इस गुरु का अंत तक सम्मान ही किया।

यह हम जानते हैं कि वाजपेयी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पत्रिका राष्ट्रधर्म से अपने कॅरियर की शुरूआत की थी। संघ के मुखपत्र पांचजन्य से भी वे जुड़े रहे। उनके सहयोगी लालकृष्ण अडवानी ने भी संघ के अंग्रेजी मुखपत्र आर्गनाइजर में बरसों काम किया था। इसके अलावा वाजपेयी जी ने मंच पर पढ़ी जा सके, ऐसी तुकबंदी वाली कविताएं भी लिखीं। उन्होंने प्रारंभिक दौर में एक कविता लिखी थी वह शायद आज भी संघ की शाखाओं में सुनाई जाती है। इसमें वे अपने हिन्दू होने का गर्वपूर्ण बखान करते हैं। कह सकते हैं कि उनके विचारों की नींव इस कविता से उद्घाटित होती है। बहरहाल, प्रधानमंत्री बनने के बाद उनका कविता संकलन भी प्रकाशित हुआ, उनकी कविताओं के कैसेट आदि भी बने। मुझे लगता है कि वे अपने समय के मंचसिद्ध कवियों में अपना स्थान बना सकते थे! वे पूर्णकालीन कवि नहीं बने यह उनके लिए भी उचित ही हुआ क्योंकि तभी वे देश की राजनीति में परिवर्तनकारी भूमिका निभा सके।

संघ के प्रचारक और सिद्धांतकार गोविंदाचार्य ने एक बार वाजपेयी जी को संघ का मुखौटा कहा था। ऐसा उन्होंने किसी योजना के तहत कहा था या अनायास, कहना मुश्किल  है, लेकिन श्री वाजपेयी के राजनीति के शीर्ष तक पहुंचने के संदर्भ में यह कथन सच मालूम होता है। वे संघ के होकर भी संघ से एक दूरी दिखा सके इसी में उनकी सफलता का राज निहित है। वे शायद बहुत पहले जान गए थे कि भारत का लोकमानस मध्यमार्गी है। यहां अतिरेकवादी राजनीति करने से आगे नहीं बढ़ा जा सकता और इसीलिए उन्होंने जाहिरा तौर पर मध्यमार्गी रास्ता अपना कर जनता के बीच अपनी स्वीकार्यता स्थापित की। यह नीति शायद संघ के भी मनमाफिक थी। उदारवादी वाजपेयी और कट्टरवादी अडवानी- जनता दोनों में से जिसे चाहे पसंद कर ले।

यह कहना आवश्यक होगा कि अटल बिहारी वाजपेयी ने जवाहर लाल नेहरू के दौर में अपने राजनैतिक जीवन की शुरूआत की थी। वह समय बुद्धिजीवी राजनेताओं का और राजनीति में वैचारिक हस्तक्षेप का था। आज जिस तरह की व्यक्ति केन्द्रित राजनीति दिल्ली से लेकर ग्राम पंचायत तक दिखाई दे रही है वह उस दौर के लिए कल्पनातीत थी। इसीलिए जब 1957 में वाजपेयी जी ने लोकसभा के नवनिर्वाचित सदस्य के रूप में अपना पहली बार वक्तव्य दिया तो प्रधानमंत्री नेहरू ने उनकी बेंच तक जाकर उन्हें बधाई देते हुए उम्मीद जाहिर की कि यह नौजवान नेता आगे चलकर देश का प्रधानमंत्री बन सकता है। आज वाजपेयी जी के जाने के बाद एक जो शून्य नजर आ रहा है उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि राजनीति में विचारशीलता, तर्कशीलता, शिष्टाचार और शालीनता जैसे गुण विलुप्त हो चुके हैं।

अटल बिहारी वाजपेयी का मूल्यांकन करते हुए यह तथ्य भी सामने आएगा कि वे एक तरफ संघ के स्वप्न को साकार करने के लिए धैर्यपूर्वक काम कर रहे थे; दूसरी ओर वे तथाकथित उदारीकरण के दौर में वैश्विक पूंजीवाद के एजेण्डा से भी प्रभावित थे और अपने प्रधानमंत्री काल में उन्होंने इसके मुताबिक अनेक निर्णय लिए जिनकी सम्यक समीक्षा आगे चलकर होगी। फिर भी यह उनकी खूबी थी कि प्रधानमंत्री के रूप में उनके जो सर्वाधिक विश्वस्त और निकटतम साथी थे जैसे जार्ज फर्नांडीज, ब्रजेश मिश्रा, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह, इनमें से कोई भी संघ की पृष्ठभूमि वाला नहीं था। तीसरी ओर वे प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी पुरानी नीति छोड़ पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की पहल कर इतिहास के लिए भी अपनी भूमिका निर्धारित करना चाहते थे। इस तरह वे एक नाजुक संतुलन साध रहे थे। उन्होंने जो जमीन तैयार की उसी के परिणामस्वरूप आज नरेन्द्र मोदी इस देश की सत्ता पर काबिज हो सके हैं। विनम्र श्रृद्धांजलि।

देशबंधु में 23 अगस्त 2018 को प्रकाशित

Monday, 20 August 2018

कुंदन सिंह परिहार की कहानियां : सादगी में प्रगल्भता

 
              

साहित्य की हर विधा की भाषा, शैली और विषय निरूपण की अपनी-अपनी विशिष्टताएं होती हैं, इसलिए प्रत्येक विधा पाठक अथवा सहृदय से एक विशिष्ट व्यवहार की प्रत्याशा रखती है। मसलन उपन्यास को ही लें। अगर उपन्यास आकार में छोटा है तब भी उसे पढऩे के लिए सामान्य तौर पर कम से कम एक दिन का वक्त चाहिए और वह भी ऐसा कि पढ़ते समय कोई खलल न पड़े। नाटक को पढ़ा तो जा सकता है, लेकिन उसका रसास्वाद रंगमंच पर प्रस्तुति से ही संभव है। कविता भी पाठक से धैर्य और तल्लीनता की मांग करती है। उसे समाचार पत्र में छपी खबर की तरह नहीं पढ़ा जा सकता। इन सबसे अलग स्थिति कहानी की है। कहानियां अमूमन बहुत लंबी नहीं होती। उन्हें पढऩे में अधिक वक्त नहीं लगता और पढऩे के लिए समय चुराना बहुत कठिन नहीं होता है। इतना सब जो कहा इसके अपवाद भी अवश्य होंगे। एक समय पत्रिकाओं में एकांकी नाटक छपते थे और उनका आनंद उठाना संभव था। कुछेक मूर्धन्य लेखकों के नाटक रंगमंच के लिए कठिन थे लेकिन वे पाठकों के बीच लोकप्रिय हुए थे।

इसी भांति ऐसे उपन्यास भी लिखे गए हैं जिन्हें पढऩे के लिए पाठक समय निकालने के लिए स्वयं मजबूर हो जाता है। उपन्यास की कथावस्तु और निर्वाह यदि रोचक है तो फिर सारे कामधाम छोड़कर पाठक उसमें डूब जाता है। किसी समय मैं खुद लंबी रेलयात्राओं में मोटे-मोटे उपन्यास साथ लेकर चलता था कि आते-जाते आराम से पढ़ सकूंगा। और यहां बात जासूसी उपन्यासों की नहीं बल्कि श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों की हो रही है, विष्णु प्रभाकर का अर्द्धनारीश्वर, गंगाधर गाडगिल का दुर्दम्य या आशापूर्णा देवी का प्रथम प्रतिश्रुति और सुवर्णलता। कविता की बात न्यारी है। एक मंच की कविता है जिसे कोई अगले दिन भी याद नहीं रखता; एक हिन्दी गज़ल है जिसके सिरमौर दुष्यंत की गज़़लें जगह-जगह उद्धृत की जाती हैं; और एक वह कविता है जो पाठक को बार-बार नए सिरे से समझने के लिए आमंत्रित करती है। ऐसी कविता सीधी-सपाट लगकर भी अर्थगंभीर हो सकती है। 
कविता और नाटक प्राचीनकाल से चली आ रही विधाएं हैं। उपन्यास अपेक्षाकृत बहुत नई विधा है, लेकिन कहानी का उद्भव कम पुराना नहीं है। कथासरित्सागर, जातक कथाएं, पंचतंत्र जैसे उदाहरण भारतीय साहित्य में मौजूद हैं। हिन्दी कहानी का मूलस्रोत शायद उनमें ढूंढा जा सकता है। ये तमाम बातें मैं एक साधारण पाठक होने के नाते कर रहा हूं। विद्वान, अध्यापक और आलोचक अगर इन कथनों से सहमत न हों तो मेरी निंदा कर सकते हैं। जहां तक आज की कहानी की बात है उसमें भी शायद कुछ वर्गीकरण संभव है। एक तो वे कहानियां हैं जो कहने को गद्य में है, लेकिन उनका पूरा या आंशिक विन्यास काव्यमय होता है। यह कथाकार की क्षमता पर निर्भर है कि वह अपनी रचना को पठनीय और सराहनीय कैसे बनाता है। फिर वे कहानियां हैं जिनमें कथाकार स्वयं हर समय अपनी उपस्थिति का अहसास करवाते चलता है और अपनी विद्वता से पाठकों को आक्रांत कर  देता है। कहानी का एक रूप वह भी है जिसमें कथाकार मानो किसी फार्मूले के अंतर्गत लिखता है। कथा का प्रारंभ कहीं से भी हो, अंत पूर्व निर्धारित होता है।
इन सबसे हटकर सीधी-सच्ची कहानियां भी लिखी जाती हैं। इनमें कथाकार की दृष्टि का पैनापन उजागर होता है। वह अपने चारों तरफ खुली आंखों से सब कुछ देखता रहता है। उसकी भाषा में पारदर्शिता होती है। इन कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि कथाकार के पास कहने के लिए कितना कुछ है। एक साधारण व्यक्ति अपने आसपास की जिन बातों से बेखबर होता है समर्थ कथाकार उन छोटी-छोटी बातों को उठाकर करीने से पाठक के सामने रख देता है कि लो इसमें अपनी छवि देख लो। ये कहानियां महज मनोविनोद के लिए नहीं लिखी जातीं; इनको लिखने वाला कोई समाज सुधारक, उपदेशक या प्रवचनकर्ता भी नहीं होता; वह तो अहंकार का लबादा ओढ़े बिना जीवन के सत्य को समाज के सामने प्रकट करने का काम करता है। मुझे ऐसी कहानियां पसंद आती है। कुंदन सिंह परिहार का नया संकलन ''कांटा और अन्य कहानियां’’ मेरे सामने आया तो मैं इन कहानियों में डूबते चला गया। सारे कामधाम छोड़कर एकबारगी इनको आद्योपांत पढ़ लिया। फिर अहसास हुआ कि इन्हें दुबारा पढऩा चाहिए। अपने कहन की तमाम सादगी के बावजूद इस संकलन की पच्चीस में से हर कहानी प्रगल्भ है। कुंदन सिंह परिहार एक लम्बे अरसे से लिख रहे हैं। उनकी रचनाएं बीच-बीच में पढऩे का अवसर मुझे मिला है। अक्षर पर्व में भी यदा-कदा उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। इस नए संकलन की रचनाओं से गुजरने के बाद एक अपराधबोध मन में जागा है कि एक समर्थ कथाकार का जैसा परिचय हिन्दी जगत में ऐसा होना चाहिए था वैसा नहीं हो पाया है। वह शायद इसलिए कि श्री परिहार आत्मश्लाघा से से दूर रहकर अपना काम करते चलते हैं। वे यश और प्रतिष्ठा के लोभी नहीं है, यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
यह इन कहानियों को पढ़ते हुए अनुभव कर सकते हैं कि कुंदन सिंह परिहार की कहानियों में व्यंग्य की एक अंतर्धारा प्रवाहित हो रही है। यह क्या इसलिए है कि लेखक जबलपुर का निवासी है? मैं जहां तक जानता हूं परसाई जी ने अपनी ओर से कोई गुरु परंपरा स्थापित नहीं की, लेकिन इसे क्या कहिए कि जबलपुर के सौ-डेढ़ सौ किलोमीटर की परिधि में बसने वाले हर लेखक की कलम में व्यंग्य का पुट आ ही जाता है। सतना, कटनी, दमोह, छिंदवाड़ा, इटारसी, पिपरिया, होशंगाबाद, गाडरवारा, नरसिंहपुर, मंडला, सिवनी, बालाघाट का पूरा क्षेत्र जो मोटे तौर पर महाकौशल में नर्मदा के दोनों किनारों पर फैला हुआ है, में व्यंग्य लेखकों की एक पूरी जमात दिखाई देती है और जो सीधे-सीधे व्यंग्य लेखक नहीं हैं, उनकी भी कोई रचना वक्रोक्ति का आश्रय लिए बिना पूरी नहीं होती।
इन कहानियों को पढ़ते हुए दूसरी प्रमुख बात समझ में आती है कि कथाकार मानव मन के अंर्तद्वंद्वों की सूक्ष्म पड़ताल करने में समर्थ है। वह जानता है कि समाज में किस तबके का व्यक्ति, किस परिस्थिति में, किस तरह का व्यवहार करेगा। मैं इसे परिहार जी की लेखनी की खूबी कहूंगा कि वे कहानी कहते-कहते बहुत सामान्य से लगने वाले प्रसंगों के माध्यम से चरित्र चित्रण कर देते हैं। अपनी तरफ से कोई टिप्पणी नहीं करते। मनुष्य मन के अनेकानेक भाव- मैत्री, स्वार्थ, परमार्थ, उदारता, कृपणता, परनिंदा, पड़ोसी धर्म, पारिवारिक संबंध, अहंकार, इत्यादि अंत आते-आते कुछ यूं व्यक्त होते हैं कि पाठक चमत्कृत हुए बिना नहीं रह सकता। मुझे इन कहानियों को पढ़ते हुए कई जगह ओ हेनरी और जैफरी आर्चर जैसे प्रसिद्ध कथाकारों की लेखक शैली का सहज स्मरण हो आया।
लेखक ने विभिन्न सामाजिक स्तरों और जीवन स्थितियों से विषय उठाए हैं। इनमें कहीं व्यंग्य का भाव है, तो कहीं कोई कहानी पाठक को गहरे विषाद से भर सकती है। इनमें निम्न मध्य वर्ग को लेकर कुछ कहानियां हैं जहां अंत में एक असहायता का बोध घेर लेता है; तो कहीं उस स्वार्थ बुद्धि के दर्शन होते हैं जिस पर मन में आक्रोश उमड़ता है। एक कहानी है जिसमें पड़ोसियों के बीच आत्मीय संबंध हैं, लेकिन अपनी-अपनी सीमाएं हैं जिनके कारण चाहकर भी एक पड़ोसी परिवार दूसरे की मदद करने से बच निकलता है। एक कहानी में मध्यवर्गीय पिता बेटे की फरमाइश के आगे लाचार है। इकलौते बेटे की इच्छा को पूरा करना ही पड़ेगा। खासकर जब पत्नी भी उसका साथ दे रही हो। फिर भले ही घर का बजट क्यों न गड़बड़ा जाए। एक अन्य कहानी में एक व्यक्ति इसलिए परेशान है कि हाल-हाल में रिटायर हुआ मित्र कहीं रुपए पैसे की मांग न कर बैठे। लेकिन वह तो सिर्फ समय बिताने के लिए मिलना चाहता था। जब यह भेद खुलता है तो पहला मित्र तनावमुक्त हो जाता है।
''भुक्खड़’’ और ''पिकनिक’’ ये दो ऐसी कहानियां हैं जहां मध्य वर्ग की अपने से निचले तबके के प्रति सहज हिकारत की भावना है, लेकिन कहानी के अंत पर पहुंचने तक वह आत्मग्लानि में बदल जाती है। एक अन्य कथा में घर की कामकाजी लड़की की सुरक्षा को लेकर चिंता है, लेकिन उसका कोई उपाय न खोज पाने की द्विविधा भी है। लड़की की कमाई की भी आवश्यकता है। ऐसे में जब वह कहती है कि आप चिंता मत कीजिए मैं स्वयं संभाल लूंगी, तो पिता के मन से एक भारी बोझ उठ जाता है। ''एक खुशगवार शाम’’ कहानी में एक ऐसे दोस्त का चरित्र चित्रण है जिसे दोस्तों की सोहबत में खाने-पीने के अलावा और कोई काम नहीं रहता। वह समझने के लिए तैयार नहीं है कि जिस दोस्त के घर आया है उसकी पत्नी बीमार है और उसे तीमारदारी की आवश्यकता है। जब दोस्त साथ देने के लिए तैयार नहीं होता तो उल्टे उसी पर इल्जाम लगाकर बाहर चला आता है कि बीवी की खिदमत में लगे रहो। तुम खुदगर्ज हो। कहने की आवश्यकता नहीं कि यहां खुदगर्ज कौन है।
कांटा जो कि संग्रह की शीर्षक कथा है तथा कुछ अन्य कहानियों में कथित बुद्धिजीवियों की खूब खबर ली गई है। इन कहानियों की शैली व्यंग्यात्मक है। कांटा में जबलपुर से कुछ लेखक एक कार्यक्रम के लिए दूसरे शहर जाते हैं। एक उभरता हुआ लेखक भक्तिभाव से उनके साथ जुड़ गया है। वह वरिष्ठ लेखकों की सेवा-खातिरी में पूरे समय लगा रहता है, लेकिन ये लेखक हैं कि उस युवक को कांटा समझते हैं। उन्हें मन मारकर नवोदित लेखक के सामने सज्जनता का लबादा ओढऩा पड़ता है जबकि उनके मन में इच्छा है कि किसी तरह यह टले तो वे खुलकर आपस में बातें कर सकें। ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं-
आते समय उसके सारे सेवा-भाव के बावजूद उसकी उपस्थिति से हमें निरंतर असुविधा हुई थी। वजह यह थी कि हम सहज होना और खुलना चाहते थे, जो हम उसकी उपस्थिति में नहीं कर पा रहे थे। साहित्यकारों का सबसे प्रिय रस निंदारस होता है। कार्यक्रम में जो दिग्गज आ रहे थे उनमें से कुछ के घटियापन का विस्तार से चर्चा करके हम सुखी और श्रेष्ठ अनुभव करना चाहते थे, लेकिन उस लड़के की उपस्थिति के कारण हम इस सुख से वंचित हो रहे थे। प्रवीण जी साहित्य से आगे बढ़कर साहित्यकारों के निजी जीवन की कुछ अत्यंत अंतरंग बातों का जख़ीरा बहुत जतन से अपने पास रखते थे। वे भी इस यात्रा का लाभ उठाकर हमें कुछ दुर्लभ ज्ञान देकर सुखी होने के लिए कसमसा रहे थे, लेकिन यह लड़का उनके लिए भी कांटा बना हुआ था। हारकर हम सब भद्र ही बने रहे और रात को उसी लादी गई पवित्रता को लिए हुए अपनी-अपनी बर्थ पर सो गए।
इसका दूसरा पहलू हिसाब-किताब कहानी में देखने मिलता है। जहां एक वरिष्ठ प्रोफेसर के साथ उनकी अनिच्छा के बावजूद एक अध्यापक उनकी सेवा करने का ढोंग करता है। इस कहानी का अंत कुछ इस तरह होता है-
उधर से डॉक्टर पाठक का जवाब आया, ''डॉक्टर प्रकाश को पता चल गया है कि आप रिटायर हो गए हैं, इसीलिए अब आपके प्रति उनका प्रेम खत्म हो गया है। अब वे दूसरे पहुंच वाले लोगों की खोज-खबर में लगे रहते हैं, जिनका सत्कार किया जा सके। आप उनके काम के आदमी नहीं रहे, इसलिए आपको पत्र लिखकर वे पैसे बरबाद नहीं करेंगे।‘’
इसी तरह की एक और कहानी ''यवनिका पतन’’ है। कुल मिलाकर कुंदन सिंह परिहार आश्वस्त करते हैं कि कथा लेखन के पारंपरिक सांचे के भीतर भी बिना बड़बोलेपन, बिना विद्वता प्रदर्शन, सहज सरल भाषा में वर्तमान याने इक्कीसवीं सदी के जीवन व्यापार की कहानियां आज भी लिखी जा सकती हैं।

अक्षर पर्व अगस्त 2018 अंक की प्रस्तावना     

Tuesday, 14 August 2018

भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश


  

15 अगस्त 1947 को विश्व इतिहास की दो युगांतरकारी घटनाएं घटित हुईं। एक तो भारत या कहें कि भारतीय उपमहाद्वीप को दो सौ साल की गुलामी के बाद आजादी हासिल हुई और दूसरा यह कि इसी के साथ-साथ देश दो टुकड़ों में बंट कर  पाकिस्तान के नाम से एक नया देश अस्तित्व में आ गया। कालांतर में वह भी टूटा और बांग्लादेश के नाम से एक तीसरा देश बन गया। इतिहास में जो हुआ सो हुआ। उस पर इतिहास और राजनीति के विद्वान माथापच्ची कर सकते हैं। अवसर देखकर दलाईलामा जैसे परम तत्वज्ञानी भी उस पर प्रवचन दे सकते हैं। आम जनता तो अपनी-अपनी बुद्धि से व्याख्या करती ही रहती है। लेकिन मेरे मन में सवाल गूंजता है कि 1947 और 2018 के बीच इकहत्तर साल का अरसा गुजर चुका हैइस लंबे दौर में तीन पीढ़ियां भी बीत गई हैंलेकिन हमने याने भारतीय उपमहाद्वीप की आम जनता ने अपने इतिहास से क्या सबक लिया है और आगे बढ़ने के लिए कौन सा रास्ता चुना है।

 मेरा सीधा सवाल इस बात को लेकर है कि क्या इन तीनों मुल्कों के लोग एक साथ मिलजुल कर प्यार से भाईचारे के साथ नहीं रह सकते। देश तो जो बनना थे बन गए। राजनीति के नक्शे पर खिंची सरहदों को मिटाने की कोई कल्पना नहीं करतालेकिन दुनिया में और भी तो देश हैं जो कभी एक-दूसरे के खून के प्यासे थे और आज दोस्त हैं। यूरोप में पिछले एक हजार साल में न जाने कितनी लड़ाइयां हुई हैं। साम्राज्य बने और बिगड़ेलेकिन मोटे तौर पर इन देशों के बीच अमन चैन और भाईचारा आज की तारीख में कायम है।  इंग्लैंड और आयरलैंड के बीच दो सौ साल से ज्यादा वक्त तक संघर्ष चलालेकिन आज दोनों के बीच दोस्ती है। उत्तरी आयरलैंड में इस लंबे दौर में व्याप्त रही अशांति खत्म हो चुकी है और अब वहां जनजीवन सामान्य है। जर्मनी और आस्ट्रियाफ्रांस और जर्मनीस्वीडन और फिनलैंड- ऐसे दर्जनों उदाहरण मौजूद हैं जहां शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का माहौल कायम है।

बे्रक्जाट के चलते इंग्लैंड यूरोपीय यूनियन से अलग हो गया हैजिसके परिणामस्वरूप स्कॉटलैंड में दूसरा जनमत संग्रह हो सकता है। याद रहे कि कुछ वर्ष पूर्व हुए जनमत संग्रह में स्कॉटलैंड के स्वतंत्र होने का प्रस्ताव बहुत थोड़े अंतर से पराजित हो गया था। इसे राजनैतिक परिपक्वता ही मानेंगे कि यदि स्कॉटलैंड इंग्लैंड से अलग होना चाहता है तो हो जाए। कुछ ऐसा ही परिदृश्य कनाडा में है जहां क्यूबेक में एक बार जनमत संग्रह विफल हो चुका है। ये उदाहरण सिद्ध करते हैं कि देशों और समाजों के बीच खींची गई लकीरें अंतिम और अटल सत्य नहीं है। उनमें नागरिकों की इच्छानुसार परिवर्तन संभव हैं। यदि हमें स्थायी शांति की तलाश है तो देश की सीमाओं को लचीला करते हुए सरहद के आर-पार हाथ बढ़ाने का सिलसिला शुरू करना एक बेहतर उपाय हो सकता है।
आज भारतपाकिस्तान और बांग्लादेश इन तीनों मुल्कों में ऐसी दो पीढ़ियां तो अवश्य हैं जिनके पास पार्टीशन की कोई स्मृति नहीं है। उनके लिए यह बहुत आसान होना चाहिए था कि वे नई स्लेट पर दोस्ती की इबारत लिख सकते। अगर अतीत की बेड़ियों से ही जकड़े रहेंगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे। मैं ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि पिछले सात दशक के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप से लाखों लोग इंग्लैंडअमेरिका जाकर बसे। भारत से विदेश जाने वाले पर्यटकों की संख्या में भी इस बीच काफी बढ़ोतरी हुई है। विदेश की धरती पर इन सब लोगों को एक समान अनुभव अवश्य होता होगा। लंदन हो या न्यूयार्ककाहिरा हो या टोक्योबीजिंग हो या मैक्सिको सिटीवहां हमें भारतीय कहकर ही जाना जाता है। अल हिन्दीइंडस्कीइंडियन यह पहचान न सिर्फ भारतीय बल्कि पाकिस्तानी और बांग्लादेशी पर्यटक की भी होती है। आखिरकार विदेशियों को हमारे पहनावेबोलचालतौर-तरीके में  बहुत ज्यादा फर्क मालूम नहीं होता। 
विदेश में अब तो अनगिनत इंडियन रेस्तोरां खुल गए हैं। इनके नाम हिन्दी या उर्दू में होते हैं। लेकिन अधिकतर आप पाएंगे कि इनके मालिक बांग्लादेश के हैं। न्यूयार्क में किसी टैक्सी ड्रायवर को आप शायद पाकिस्तानी समझें तो वह संभवत: भारत के किसी शहर से गया हो। विदेशों में बसे इन लोगों के बीच काफी हद तक दोस्ती देखने मिलती है और सामान्यत: एक अपरिचित देश की अनजानी सड़क पर जब आपको अपने जैसा दिखने वाला कोई मिल जाता है तो सहज आश्वस्ति का भाव जागता है। मैं यह दावा अपने निजी अनुभवों के आधार पर  कर रहा हूं। मेरे अनेक यात्रा वृत्तांतों में इन घटनाओं का उल्लेख है। पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ श्रीलंका और नेपाल को भी जोड़ लीजिए। बात यही है कि जो भाईचारा विदेश की धरती पर दिखाई देता है वह घर में लागू क्यों नहीं हो सकता
हम लोग देश के हालात पर चर्चा करते हुए अक्सर कहते हैं कि राजनेताओं ने सब कुछ बर्बाद कर दिया है। लेकिन फिर ऐसा क्यों कि एक ऐसे अहम मुद्दे पर जो न सिर्फ हमारी बल्कि हमारी बाद की पीढ़ियों की सुखशांति और सुरक्षा से ताल्लुक रखती है हम राजनेताओं के झांसे में आ जाते हैं। क्या हमें इस बात का कोई इल्म है कि हमारे मुल्क अपने बजट का कितना प्रतिशत प्रतिरक्षा पर खर्च करते हैं। मेरा यह सवाल सिर्फ भारत के लिए नहींपाकिस्तान और बांग्लादेश के लिए भी है। लेकिन मुझे यह देखकर तकलीफ होती है कि पाकिस्तान में जहां अमनपसंद नागरिक सैन्यतंत्र के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत दिखाते हैं वहीं दूसरी ओर हम भारत में सेना पर दिनोंदिन अपनी निर्भरता बढ़ाते जा रहे हैं।
अभी मेरा मानना है कि भारत की जनता को अपने पूर्वाग्रह छोड़करनेताओं की बयानबाजी से प्रभावित हुए बिनाखुद अपने विवेक का इस्तेमाल करखुले मन से विचार करना चाहिए कि हमारे दीर्घकालीन हित में क्या है और वह कैसे संभव होगायदि हम नफरत और अविश्वास की भावना को अपने ऊपर हावी होने देंगे तो उस आंच में झुलसे बिना नहीं रह सकते। हमें यह सच्चाई स्वीकार करना चाहिए कि बांग्लादेशपाकिस्ताननेपालभूटानश्रीलंकाम्यांमार- ये सब हमारे पड़ोसी देश हैं। जिस तरह से यहां अच्छे या बुरेजिम्मेदार या गैरजिम्मेदारसमझदार या सनकी लोग बसते हैं वैसे ही इन देशों में भी बसते हैं। हम अपने पड़ोसियों को नहीं बदल सकतेराजनैतिक सीमाओं को भी मिटा नहीं सकतेलेकिन रहना तो साथ-साथ है। लड़ें-झगड़ेंमारकाट करेंउससे अंतत: क्या मिलना है। दंगों में आम लोग मारे जाते हैंलड़ाइयों में सैनिक मरते हैंलेकिन एक मौत भी अपने आप में एक त्रासदी होती है। एक व्यक्ति के साथ उसका घर-परिवारनाते-रिश्तेदारदोस्तपड़ोसी सब होते हैं। जब अकाल मृत्यु होती है तो वह इन सबको जो न भरने वाले जख्म दे जाती है। जो पीड़ा औरतों और बच्चों को झेलना पड़ती है उसकी कल्पना ही की जा सकती है। क्या हम इस सबसे बच नहीं सकते
मेरा कहना है कि हमारे इन सभी मुल्कों के समझदार लोगों को सामने आने की आवश्यकता है। हमें मैत्री और भाई-चारे के लिए साझा मंच और मोर्चे बनाना चाहिए। हमें अपने-अपने मुल्क में सत्ताधीशों और पाकिस्तान के संदर्भ में खासकरसैन्यतंत्र पर यह दबाव कायम करना चाहिए कि वे विघटनकारी षड़यंत्रों से बाज आएं। हमें शांति से रहने का अधिकार है। उसे छीनने का अधिकार हम इन्हें नहीं दे सकते।
देशबंधु में 15 अगस्त 2018 को प्रकाशित विशेष सम्पादकीय 


Wednesday, 8 August 2018

चुनावी माहौल में कुछ बातें

                                          
चुनाव, चुनाव और चुनाव।  पूरे देश का ध्यान घूम-फिरकर  आगामी लोकसभा चुनावों और आसन्न विधानसभा चुनावों पर आकर ठहर जाता है, फिर मुद्दा कुछ भी क्यों न हो। देश की सुरक्षा, काश्मीर के हालात, असम का नागरिकता रजिस्टर, बिहार के बालिका आश्रयगृह में दुराचार का घिनौना अपराध, छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद, एससी-एसटी कानून में संशोधन, जजों की नियुक्तियां, खाद्यान्न सुरक्षा, गरज यह कि हर चर्चा चुनाव के इर्द-गिर्द होगी और उसमें देखते ही देखते भाजपा बनाम विपक्ष की विभाजक रेखा खिंच जाएगी। आज की तारीख में इसे परिपक्व जनतंत्र की निशानी मानें या राजनीतिक परिदृश्य की विडंबना! यह तो सही है कि चुनावी राजनीति जनतंत्र की अनिवार्य शर्त है, किन्तु लोक महत्व के बुनियादी और आवश्यक प्रश्नों पर भी यदि एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ ही चलती रहे तो इसकी प्रशंसा मुक्त भाव से नहीं की जा सकती। 
यूपीए के दस-साला शासन के दौरान भाजपा द्वारा बार-बार यह तर्क दिया जाता था कि सरकार चलाने की जिम्मेदारी सत्तारूढ़ दल या गठबंधन की है। यह यदि मानने योग्य तर्क था तो आज विपक्ष उसी रास्ते पर चलकर सत्तारूढ़ गठबंधन और उसके नेतृत्व पर निशाना साध रहा है तो इसे गलत कैसे माना जाए! अगर दार्शनिक मुद्रा में विचार करें तो प्रतीत होता है कि भारत में जनतंत्र का यह संक्रमण काल है और इस उथल-पुथल के बीच ही शायद किसी दिन परिपक्व जनतंत्र के लिए आवश्यक मानकों और परंपराओं का निर्माण हो सकेगा! यह एक खामखयाली भी हो सकती है क्योंकि दूसरी तरफ एक डर भी गहराते जा रहा है कि भारत कहीं अधिनायकवाद की दिशा में तो आगे नहीं बढ़ रहा है! कभी-कभी तो संशय से भरी यह आवाज भी सुनाई देती है कि 2019 में आम चुनाव होंगे भी या नहीं! इस बीच सत्ताधीशों का मीडिया व न्यायपालिका के प्रति जो रवैया रहा है उसे देखते हुए यह शंका खारिज करने लायक नहीं लगती।
2014 में जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने एक बड़ा नारा दिया था- मिनिमम गर्वमेंट मैक्जामम गवर्नेंस का जिसका अर्थ था-बेहतर शासन सुनिश्चित करने के लिए सरकार का कम से कम हस्तक्षेप। अगर सचमुच ऐसा हो पाता तो बड़ी बात होती। मेरी दृष्टि में इसका अर्थ यह था कि सरकार विधि-विधान से चलेगी और वह राजनैतिक तथा वैचारिक आग्रहों से जितना संभव है उतना दूर रहेगी। इस नारे पर अमल करते हुए यदि देश को एक पूंजीवादी अनुदारपंथी शासन मिला होता तो शिकायत की कोई बात शायद न होती। इसमें आज जनता को खुलकर अपने विचार सामने रखने का मौका होता। मीडिया के अंग अखबार और चैनल भी अपनी मान्यताओं  के अनुसार काम करते और न्यायपालिका में भी असंतोष की कोई स्थिति न बनती। दुर्भाग्य से यह सब नहीं हो सका। जनतंत्र में जो स्वस्थ परिपाटियां डाली जाना चाहिए उस दिशा में भी देश आगे नहीं बढ़ सका। वर्तमान में हमारा सारा राजनैतिक नेतृत्व चाहे वह किसी भी धारा का हो, कहीं भी अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं है। उल्टे वह हर समय अपने विरुद्ध राजनैतिक षड़यंत्र रचे जाने की दुहाई देते रहता है।
इस चिंतनीय पृष्ठभूमि में आगामी कुछ माह के भीतर चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं उसकी तैयारियां चल रही हैं। तीन राज्यों में भाजपा सत्तासीन है और उसकी तैयारियों में स्वाभाविकत: इसीलिए अधिक मजबूती दिखाई देती है। छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह चुनावपूर्व प्रदेश के सघन सरकारी दौरे का एक चरण पूरा कर चुके हैं, दूसरे की तैयारी में हैं। राजस्थान में वसुंधरा राजे केन्द्रीय नेतृत्व को अपने अनुकूल करने सफल हुई हैं। वे भी चुनावपूर्व सरकारी यात्रा पर निकल पड़ी हैं जिसे हरी झंडी दिखाने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह स्वयं पहुंचे। मध्यप्रदेश के शिवराज सिंह चौहान भी जोर-शोर से यात्रा करने में भिड़े हुए हैं। इन तीनों में सबसे अधिक आश्वस्त रमन सिंह नज़र आते हैं। वे पन्द्रह साल की लंबी पारी खेल चुके हैं और पार्टी के भीतर उन्हें चुनौती देने वाला अब कोई बचा नहीं है। यह बात अलग है कि चुनाव जीतने की स्थिति में पार्टी हाईकमान कोई अप्रत्याशित निर्णय न ले ले जैसा उसने महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, हिमाचल, उत्तराखंड, हरियाणा आदि में पूर्व में किया है!
कांग्रेस की ओर देखें तो मध्यप्रदेश और राजस्थान, इन दो प्रदेशों में उसकी स्थिति मजबूत नजर आती है। मध्यप्रदेश में कुछ समय पहले तक पार्टी के भीतर असमंजस की स्थिति बनी हुई थी वह अब दूर हो चुकी है। ऐसा सुनने में आ रहा है कि कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच ठीक तरह से तालमेल बैठ गया है। यद्यपि कुछ शंका इस बारे में है कि दिग्विजय सिंह अपना रोल किस तरह निभाते हैं! हमारी सलाह तो यही होगी कि दिग्विजय सिंह चुनावी राजनीति छोड़कर एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाएं। वे 72 साल के  हो गए हैं और उनके सुपुत्र वर्तमान में विधायक बने ही हुए हैं। राजस्थान में सचिन पायलट की छवि में दिनोंदिन निखार आ रहा है। उनकी राजनीतिक सूझबूझ की तारीफ आज पूरे देश में होती है। वे यदि जीतने के बाद मुख्यमंत्री बनते हैं तो कांग्रेस राजस्थान में एक बार फिर लंबी पारी खेलने की उम्मीद कर सकती है। याद रहे कि मोहनलाल सुखाड़िया ने सत्रह साल तक मुख्यमंत्री रहकर उस समय राष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित किया था।
अब बात आती है छत्तीसगढ़ की। यहां कांग्रेस में अभी भी आंतरिक तौर पर ऊहापोह का वातावरण बना हुआ है। उसके अनेक कारण हैं। एक तो पार्टी यह तय नहीं कर पा रही है कि उसे अपने बागी पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के प्रति क्या रुख अपनाना चाहिए। आए दिन अटकलें लगती रहती हैं। अभी श्रीमती रेणु जोगी को लेकर कांग्रेस का एक वर्ग शंका में डूबा हुआ है। अजीत जोगी को लेकर कांगे्रस का संदेह समझ में आता है। अमित जोगी ने भी पार्टी से बगावत की इसलिए उनके प्रति भी नरम रुख न रखा जाए इसे भी माना जा सकता है। किन्तु श्रीमती जोगी तो पार्टी में लगातार बनी हुई हैं; उनका सहज, सौम्य व्यक्तित्व भी जनता को प्रभावित करता है। उन्हें टिकट देने में पार्टी को दिक्कत क्यों होना चाहिए? क्या यह संभव नहीं है कि वे कालांतर में जोगीजी को घर लौटने के लिए प्रेरित कर सकें? जैसा कि लगभग साल भर पूर्व डॉ. सत्यभामा आडिल ने देशबन्धु में अपने लेख में इंगित किया था कि एक घर में रहते हुए आचार्य कृपलानी ताजिंदगी नेहरू का विरोध करते रहे जबकि श्रीमती सुचेता कृपलानी ने उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री पद का दायित्व संभाला। मेरी व्यक्तिगत राय है कि यदि अमित जोगी अपनी महत्वाकांक्षा पर काबू पा सकें तो दोनों धड़ों के बीच तालमेल कर बेहतर स्थितियां बन सकती हैं।
कांग्रेस के सामने दूसरी समस्या अन्य दलों के साथ गठबंधन या चुनावी तालमेल को लेकर है। इसका फैसला तो दिल्ली में ही होगा किन्तु पार्टी के प्रादेशिक नेतृत्व को भी राजनैतिक परिपक्वता और समझदारी दिखाते हुए तालमेल की पहल करना चाहिए। मुझे विदित हुआ है कि आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस के साथ छत्तीसगढ़ में तालमेल के लिए तैयार है। आप को इसके और आगे बढ़ने की जरूरत है। रविवार को जंतर-मंतर पर हुए प्रदर्शन में यदि राहुल गांधी के साथ अन्य पार्टियों के नेताओं के अलावा अरविंद केजरीवाल भी यथासमय मंच पर आते तो उससे एक मजबूत संकेत जाता। ऊंट की चोरी निहुरे-निहुरे की नीति पर चलने से श्री केजरीवाल को फायदा नहीं होगा। कांग्रेस को भी दिल्ली में पुराने नेतृत्व को दरकिनार कर नए लोगों को आगे लाना चाहिए ताकि आप के साथ तालमेल की गुंजाइश बढ़ सके। इसके अलावा इन सभी राज्यों में कांग्रेस, बसपा, भाकपा, माकपा, शरद यादव इन सबको साथ लेकर चले तो बेहतर परिणामों की अपेक्षा की जा सकती है।
 देशबंधु में 09 अगस्त 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 1 August 2018

असम का नागरिकता रजिस्टर: भावी के संकेत

                         
अखिल भारतीय समाचारपत्र संपादक सम्मेलन की एक चार सदस्यीय सत्यान्वेषण टीम ने 1980 में असम समस्या के अध्ययन के लिए असम व प. बंगाल की यात्रा की थी। मैं उस टीम का एक सदस्य था।  वहां से लौटकर मैंने जो रिपोर्टिंग की थी उसका एक हिस्सा, जो शायद आज प्रासंगिक है, नीचे प्रस्तुत है-
विदेशियों को भगाने की बात तो की जाती है, लेकिन आखिर विदेशी कौन हैं? पिछले 20 साल से भी ज्यादा समय से रह रहे लोगों को भी क्या विदेशी कहकर बाहर निकाला जा सकता है? जो और पहले आए, उनकी तो बात ही छोड़िए। देश विभाजन के बाद भारी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से मुसलमान आकर कछार जिले में बस गए। हर कोई मानता है कि वे बहुत अच्छे और मेहनती किसान हैं। जनगणना में उन्होंने अपने आपको असमिया दर्ज कराया। उनके बच्चे असमिया ही बोलते-पढ़ते हैं। आज वे कहां जा सकते हैं? 1960 के बाद भारी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से बंगाली हिंदू भी आए। उनके पुनर्वास की प्रक्रिया आज तक चल रही है। असम ही नहीं, देश के अन्य प्रान्तों में भी उन्हें बसाया जा रहा है। 1960 के दशक में पुनर्वास मंत्रालय की एक योजना के अनुसार 15000 बंगाली विस्थापित परिवार असम में बसाए जाने थे, जब कि म.प्र. में पुनर्वास का कोटा 25000 परिवार का था। ऐसे आंकड़ों को आंदोलन के नेता भूल जाना चाहते हैं, क्योंकि वे उनके मकसद के खिलाफ जाते हैं। वे चाहते हैं कि 1951 के बाद जो भी बाहर से आया हो, वह भले ही असम में रहे, लेकिन उसके पास नागरिकता का प्रमाणपत्र हो। क्या यह प्रस्तावित नागरिकता प्रमाणपत्र उसे दूसरे दर्जे का नागरिक नहीं बना देगा? फिर उसके साथ क्या सलूक किया जाएगा? दूसरी बात यह प्रमाणपत्र कौन जारी करेगा- वही सरकारी कर्मचारी। क्या गारंटी है कि प्रमाणपत्र जारी करने में भ्रष्टाचार नहीं होगा! यदि अवैध रूप से आए पूर्वी पाकिस्तानी नागरिकों को जमीन और बैंक ऋण ये अधिकारी दे सकते थे तो प्रमाणपत्र में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता?
दरअसल, केन्द्र और असम में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी हिन्दुत्व के एजेण्डे को लागू करने के लिए जिस तरह काम कर रही है उसमें उसे इस बात की तनिक भी फिक्र नहीं है कि इसकी परिणति कब किस रूप में होगी। मैंने 1980 की अध्ययन यात्रा में पाया था कि असम आंदोलन को उकसाने में संघ से संबंध रखने वाले तत्वों की बड़ी भूमिका थी। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद असम समस्या को सुलझाने के लिए नए सिरे से पहल की गई थी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी व असम आंदोलन के युवा कर्णधार प्रफुल्ल कुमार महंता के बीच वार्ता चली थी, जिसका परिणाम 1985 के असम समझौते के रूप में सामने आया था। इस समझौते में अन्य बातों के अलावा यह प्रावधान भी था कि एक तिथि निश्चित कर उसके बाद विदेश याने बांग्लादेश से आकर बसे लोगों की शिनाख्त कर उन्हें वापिस भेजा जाएगा। यह तिथि 24 मार्च 1971 की तय की गई थी। वह इसलिए कि बांग्लादेश मुक्ति संग्राम प्रारंभ हो गया था; पाकिस्तान की फौजी हुकूमत पूर्वी पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों पर बेशुमार अत्याचार कर रही थी और वे पलायन कर भारत में शरण लेने के लिए मजबूर थे।
जाहिर है कि ये तमाम विस्थापित बंगलाभाषी थे। इन्होंने बड़ी संख्या में पश्चिम बंगाल के शिविरों में शरण ली थी और सिलहट की तरफ से आकर असम में शरण लेने वालों की संख्या भी कम नहीं थी। इन्हें भारत में रखना और कालांतर में स्थायी आवास और अन्य अधिकार प्रदान करना राजनीतिक और मानवीय दोनों दृष्टियों से सही कदम था। ऐसा नहीं कि पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले सभी लोग हिन्दू अल्पसंख्यक ही थे।
उनमें पूर्वी पाकिस्तान के बहुसंख्यक मुसलमानों का वह वर्ग भी था जो शेख मुजीब का समर्थक था। बांग्लादेश एक स्वतंत्र जनतांत्रिक देश बन जाने के बाद उनमें से कई लोग लौट भी गए होंगे। तब यह कल्पना भी थी कि अब आगे शरणार्थी नहीं आएंगे। लेकिन यह तथ्य अपनी जगह पर था कि पूर्वी और पश्चिमी बंगाल दोनों से रोजगार अथवा बेहतर अवसरों की तलाश में असम आने का क्रम तो दो सौ साल से चल रहा था। ऐसा नहीं कि असम में सिर्फ बंगाली ही आकर बसे हों। भारत के अन्य हिस्सों से भी विभिन्न कारणों से विभिन्न कालखंडों में लोग यहां आकर बसते रहे हैं। प्रदेश के चाय बागानों में काम करने वाले मजदूर जिन्हें टी ट्राइब्स के नाम से जाना जाता है उनमें से अधिकतर झारखंड, छत्तीसगढ़ और भोजपुर के इलाके से लगभग डेढ़ सौ साल पहले आकर बसे हैं। अभी-अभी छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग ने असम और छत्तीसगढ़ के इस अंतर्संबंध पर एक पुस्तक प्रकाशित की है। मुश्किल यह है कि अपने आपको असम का मूलनिवासी मानने वाले समूहों को दूसरे प्रांतों से आए इन तमाम समुदायों की उपस्थिति नागवार गुजरती है। यह वर्चस्ववादी तबका संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त है। जिन राजनीतिक शक्तियों ने एक समय असम आंदोलन को प्रत्यक्ष व परोक्ष समर्थन दिया था, आज उनका राज है और उन्हें ही परीक्षा से गुजरना है कि वे कैसे इसका समाधान खोजते हैं।
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के अंतिम मसौदे में चालीस लाख लोगों को अनागरिक घोषित कर दिया गया है। हिन्दुत्ववादी इस भ्रम में बहुत खुश हैं कि ये सब के सब मुसलमान हैं और इन्हें भारत से बाहर निकाल दिया जाएगा। उन्हें यह सच्चाई जान लेना चाहिए कि चालीस लाख में शायद पच्चीस से तीस लाख वे हिन्दू हैं जो दूसरे प्रदेशों से यहां आकर पिछले चार-छह पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं। उन्हें अनागरिक इसलिए घोषित किया गया है क्योंकि अशिक्षा, गरीबी और अन्य कारणों के चलते बाप-दादाओं के जमाने के दस्तावेज उनके पास नहीं हैं। एक विचित्र किस्सा तो असम विश्वविद्यालय के बंगाली हिन्दू उपकुलपति का है जिनका नाम रजिस्टर से काट दिया गया है। अभी ऐसे और न जाने कितने प्रकरण सामने आएंगे। केन्द्र सरकार हो या असम सरकार, एक-एक केस से उन्हें आने वाले समय में जूझना पड़ेगा।
ध्यान देने योग्य दूसरी बात है कि असम में जो बंगाली मुसलमान हैं वे या तो प्रदेश के भूस्वामी वर्ग के खेतों में काम करने आए थे और समय के साथ नागरिकता हासिल कर चुके हैं, या फिर वे जो जीवनयापन के लिए जहां रास्ता दिखे वहां चल पड़ते हैं। आज यदि असम से इन लोगों को निकाला जाता है तो ये कहां जाएंगे? इनके लिए भारत के अलावा कौन सा देश है। सोचना तो यह भी होगा कि देश के अन्य राज्यों में इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी! आज स्वतंत्र देश में हर नागरिक कहीं भी रोजी-रोटी की तलाश में जाकर बस सकता है। कल को असम से प्रेरणा लेकर हर जगह भाषायी, जातीय और सांप्रदायिक तनाव बढ़ता है तो उसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? यह भी विचारणीय है कि विदेशों में भारत की क्या छवि बनती है। आज जो भारतीय अमेरिका और इंग्लैण्ड से लेकर सऊदी अरब और दुबई तक काम कर रहे हैं उनका भविष्य क्या होगा? हम अभी उम्मीद करते हैं कि भारत सरकार स्थिति की गंभीरता को समझेगी और सांप्रदायिक उन्माद में कोई ऐसा कदम नहीं उठाएगी जिससे देश की शांति, सुरक्षा और सद्भाव को नुकसान पहुंचे।
देशबंधु में 02 अगस्त 2018 को प्रकाशित 
 

मलय का जबलपुर: जबलपुर के मलय



आगामी 19 नवम्बर को मलय 90 बरस की दहलीज पर कदम रखेंगे। जबलपुर के लेखकों व सुधी नागरिकों को यह तिथि याद रखकर उनका जन्मदिन धूमधाम से मनाने की तैयारी अभी से शुरू कर देना चाहिए। अगर ऐसा हो पाता है तो जबलपुर को 'संस्कारधानी’ की जो उपाधि मिली है, उसकी सार्थकता उभरकर सामने आएगी। मलयजी का जन्म जबलपुर के ही पास एक छोटे से गांव में हुआ, और उनका अधिकतर जीवन जबलपुर में ही बीता। इसी शहर में आकर उनकी रचनात्मक प्रतिभा खिली। देश के साहित्यिक नक्शे पर जबलपुर की पहिचान जिन सरस्वतीपुत्रों ने कायम की, उनमें आज मलय का नाम प्रमुख है। इसलिए भी है कि वे निरन्तर अपनी साधना में जुटे हैं। थकने का नामोनिशान नहीं। आयु के कारण शरीर कभी-कभार शिथिल भले ही पड़े, मानसिक रूप से तो वे सदा की भांति चैतन्य और सक्रिय हैं। वहां कसावट में कोई कमी नहीं है। आवाज़ भी वैसी ही खनकदार है जैसी कोई साठ साल पहले सुनी थी। यह सचमुच सौभाग्य की बात है कि मलय और कुछ अन्य वयप्राप्त लेखक विद्यमान हैं जो अपनी अनथक रचनाशीलता में हम लोगों को चमत्कृत करने के साथ अनुप्राणित करते हैं।
हिन्दी जगत मलयजी को मुख्यत: एक कवि के रूप में जानता है। वे कहानी विधा में हाथ आजमा चुके हैं और एक गंभीर समीक्षक के नाते भी उन्होंने पहचान बनाई है। लेकिन अभी-अभी उनके संस्मरणों की जो पुस्तक आई है, वह कुछ मायनों में अद्वितीय है। ''यादों की अनन्यता’’ शीर्षक पुस्तक में उन्होंने अपने गृह नगर याने जबलपुर की धरती का कर्ज चुकाया है। मात्र एक सौ बत्तीस पृष्ठ की पुस्तक इसलिए ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण है कि जबलपुर के 'संस्कारधानी’ होने के पुख्ता साक्ष्य इसमें मिलते हैं। मलय जी के कुल जमा सोलह संस्मरण इसमें संकलित हैं जिनमें प्रमुख रूप से चौदह साहित्यकार केन्द्र में हैं, और प्रसंगवश ऐसे अनेक लेखकों के संक्षिप्त विवरण हैं जिन्होंने मोटे तौर पर 1940 के दशक से लेकर 1980-90 तक याने लगभग पचास वर्षों की अवधि में जबलपुर को समाजोन्मुखी, लोकहितकारी साहित्य सृजन की दिशा प्रदान की।
मलयजी का क्रमश: पहला और दूसरा संस्मरण गजानन माधव मुक्तिबोध पर है। यूं तो मुक्तिबोधजी पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, उनकी छह भागों में प्रकाशित रचनावली भी उपलब्ध है, फिर भी महाकवि के जबलपुर में बीते दिनों की चर्चा सामान्य तौर पर नहीं की जाती। पहला लेख ''मुक्तिबोध और जबलपुर’’ इस कमी को दूर करता है। नवंबर 1946 से 1948 के बीच जब मुक्तिबोध जबलपुर में थे, तब तक वहां उनके अनन्य मित्र हरिशंकर परसाई भी नहीं आए थे। उन दो वर्षों में मुक्तिबोध जी कहां-कैसे रहे, उनके मित्र-साथी कौन थे, उनकी साहित्यिक-सामाजिक गतिविधियां क्या थीं, यह सब इस लेख से मालूम पड़ता है। सेठ गोविंद दास के अखबार 'जयहिंद’ में उन्होंने काम किया, 'प्रगतिशील साहित्य गोष्ठी’ नामक संस्था स्थापित की, 'समता’ नाम से पत्रिका प्रारंभ की, जिसके संपादक मंडल में नंददुलारे वाजपेयी व रामेश्वर शुक्ल 'अंचल’ भी थे, जबकि कम्युनिस्ट कार्यकर्ता वसंत पुराणिक पत्रिका के प्रबंध संपादक थे। इस पत्रिका के दो ही अंक निकल सके। तेलंगाना विद्रोह के कारण उन दिनों कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं पर कांग्रेस सरकार की कड़ी नज़र थी। कितने ही गिरफ्तार कर लिये गए थे। ऐसे समय में मुक्तिबोध अपने भूमिगत मित्रों दादा सृष्टिधर मुखर्जी और पी.के. ठाकुर आदि को चुपचाप टिफिन पहुंचाया करते थे,यह मलय जी बतलाते हैं।
यह निर्विवाद है कि मुक्तिबोध जी का जबलपुर से मोह था। वे वहां भले ही कम समय रहे हों, लेकिन हरिशंकर परसाई, प्रमोद वर्मा, रामकृष्ण श्रीवास्तव, जीवनलाल वर्मा 'विद्रोही’जैसे मित्र उन्हें यहीं मिले। 'वसुधा’ में ही 'एक साहित्यिक की डायरी’ के नाम से सौंदर्यशास्त्र पर उनके लेख धारावाहिक प्रकाशित हुए। इसलिए एक तरफ जहां जबलपुर के मित्र उन्हें बार-बार निमंत्रित करते थे, वहीं मुक्तिबोध जी भी यथासंभव निमंत्रण स्वीकार कर जबलपुर आ जाते थे। मलय जी ने ऐसे हर अवसर का लाभ उठाया और मुक्तिबोध जी से सीखने की कोशिश की।  संस्मरण में 16 से 19 दिसंबर 1963 की उनकी अंतिम जबलपुर यात्रा का विवरण भी मलयजी ने दिया है। लेकिन इसमें उन्होंने कुछ तथ्य गड़बड़ कर दिए हैं। हमने 'संगम’ नामक संस्था बनाई थी। मलयजी उसके अध्यक्ष थे और मैं सचिव। हमारे पहले वार्षिक उत्सव में मुक्तिबोधजी मुख्य अतिथि के रूप में आए थे। चार दिन रहे थे और हम सबने उनकी उपस्थिति का भरपूर लाभ उठाया था। इसी अवसर पर फुहारे के निकट दिगंबर जैन पुस्तकालय में कवि गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें मुक्तिबोधजी ने एक अधूरी कविता भी सुनाई थी-
''जल रही थी
लाइब्रेरी पर्सिपोलिस की
मैंने सिर्फ नालिश की
मैंने सिर्फ नालिश की।‘’
मुक्तिबोध जी पर लिखते हुए मलय जी बार-बार उनकी अदम्य इच्छाशक्ति, संकल्पबद्धता, अटूट साहस और आत्मविश्वास का उल्लेख करते हैं। वे एक ओर कहते हैं कि मुक्तिबोध का स्मरण एक आग के करीब आ पहुंचने जैसा है। वहीं दूसरी ओर वे मुक्तिबोध को आदिम चरवाहा निरुपित करते हैं जो विकराल खंदक खाईयों को पार करते हुए जिंदगी के हरेपन की तलाश में भटक रहा है। कहना न होगा कि मलयजी के इस लेख में उनका कवि उनके साथ बराबर चलते रहता है। पुस्तक के अगले दो लेख हरिशंकर परसाई पर हैं। इन दोनों संस्मरणों के शीर्षक उन्होंने सटीक दिए हैं। पहला- रचनाखोजी परसाई के साथ और दूसरा जन-मन के पैरोकार परसाई। मलय परसाई जी से काफी निकट रहे हैं। वे युवावस्था में ही अपने से पांच साल बड़े परसाई की संगत में आ गए थे और शायद तभी से उन्हें भैया का संबोधन देने लगे थे।
मलय जब राजनांदगांव से तबादला होकर जबलपुर गए तब तक परसाई जी का घर से निकलना बंद हो चुका था। पैर के गलत ऑपरेशन के कारण उन्हें चलने में तकलीफ होती थी। उनके स्वाभिमानी मन को शायद यह गंवारा नहीं था कि वे छड़ी लेकर लंगड़ाते हुए सड़क पर चलें। इस तरह उन्होंने स्वयं को घर तक सीमित कर लिया था। जिन्हें परसाई से मिलना हो वे उनके घर जाएं। ऐसे समय मलय उन कुछ लोगों में से थे जो लगभग नियमपूर्वक प्रतिदिन परसाई जी के पास जाकर बैठते थे। इस तरह उन्हें परसाई जी के व्यक्तित्व को निकट से जानने का नायाब अवसर प्राप्त हुआ। परसाई के बारे में बात करते हुए भी मलय कवितासुलभ बिंबों का प्रयोग करते हैं। वे परसाई से मिलने को कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं- ''इस धूप का रंग और हवा का रंग हमारे मन के अंधेरे कोनों में प्रकाश भरता हुआ इसमें हिलोर पैदा करता है और हमसे संवाद करता हुआ कतारों में आजू-बाजू जोड़ता जाता है।‘’
परसाई जी की दिनचर्या का आत्मीय और अंतरंग विवरण इन संस्मरणों से मिलता है। किसी लेखक को जानने के लिए उसकी दिनचर्या को जानना एक महत्वपूर्ण उपादान हो सकता है। परसाई कब चाय-नाश्ता करते हैं, अखबार पढ़ते हैं, अखबारों से नोट्स लेते हैं, चिट्ठियों का जवाब देते हैं, भांजे के बेटे के साथ खिलवाड़ भी करते हैं और दिन में अलग-अलग तरह के लोगों से मिलते हैं तो वे कैसे उनका मनोवैज्ञानिक चरित्र चित्रण करते हैं, यह भी मलय बताते हैं। मेरा भी अनुभव है कि परसाईजी अपने से मिलने वालों को कुछ ही पल में पूरी तरह समझ लेते थे मानो उसके दिल का एक्स-रे उन्होंने निकाल लिया हो। मलय एक जगह परसाई की वाणी की तुलना सचेत और निर्द्वंद्व गजराज से करते हैं। एक दूसरी जगह पर वे कहते हैं कि परसाई मेंढकों को तराजू पर तौलना जानते थे और उनका डिसेक्शन भी कर देते थे। अपने कुछ निजी प्रसंगों का जिक्र करते हुए मलय परसाई जी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन भी करते हैं।
जबलपुर के जिन वरेण्य लेखकों पर मलय ने लिखा है उनमें भवानीप्रसाद मिश्र हैं, भवानी प्रसाद तिवारी हैं, नर्मदा प्रसाद खरे हैं, श्रीबाल पांडे हैं, मायाराम सुरजन हैं, महेन्द्र वाजपेयी हैं और हैं ज्ञानरंजन, सोमदत्त तथा विनोद कुमार शुक्ल। विनोद जी तब जबलपुर कृषि महाविद्यालय के छात्र थे। इन संस्मरणों में प्रसंगवश जबलपुर के और भी अनेक रचनाकारों और बुद्धिजीवियों का जिक्र हुआ है। इनमें महेशदत्त मिश्र, गोविंद प्रसाद तिवारी, रामेश्वर गुरु, श्यामसुंदर मिश्र, नरेश सक्सेना, पुरषोत्तम खरे इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं। भवानीप्रसाद मिश्र पर लिखा संस्मरण अपेक्षाकृत छोटा है। उसमें मिश्र जी का व्यक्तित्व खुलकर सामने नहीं आता। मेरा अनुमान है कि यह लेख मलय ने मिश्र जी के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए लिखा है। मलय बतलाते हैं कि उनका दूसरा कविता संकलन भवानीप्रसाद मिश्र ने अपनी संस्था सरला प्रकाशन से किया था। वे मिश्र जी के परवर्ती जीवन में आए राजनैतिक विचलन पर आश्चर्य और दुख व्यक्त करते हैं, लेकिन यह मानते हैं कि कविता में श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय और धूमिल ने उनका ही अनुकरण किया है।
भवानीप्रसाद तिवारी पर लिखे संस्मरण में लेखक ने उन्हें एक अनोखा व्यक्ति निरुपित किया है। यह सच भी है। तिवारी जी अपनी तरह के अनोखे व्यक्ति थे। वे जेल में थे जब उन्होंने कविगुरु की गीतांजलि का हिन्दी अनुवाद नहीं बल्कि अनुगायन किया था। मूल बंगला की अर्थवत्ता और सांगीतिक लय को तिवारी जी ने अपने अनुगायन में बहुत सहजता से उतारा है। उन्होंने प्रहरी नाम से साप्ताहिक अखबार प्रारंभ किया था। परसाई जी के लेखन की शुरूआत वहीं से हुई थी। तिवारी जी औघड़दानी थे। वे आठ बार जबलपुर से मेयर निर्वाचित हुए। सात बार लगातार और एक बार फिर। लेकिन वे जीवनभर निस्पृह रहे। एक समय ऐसा आया जब घर चलाना मुश्किल हो गया। उस समय तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्र ने पुरानी मित्रता को निभाते हुए उन्हें राज्यसभा भेजा।
भवानीप्रसाद तिवारी, रामेश्वर गुरु, नर्मदाप्रसाद खरे- ये जब जबलपुर की ऐसी विभूतियां हैं जिनके योगदान को ठीक से रेखांकित नहीं किया गया है। मलय का गुरुजी से शायद उतना संपर्क न रहा हो, लेकिन तिवारी जी के साथ उन्होंने नर्मदा प्रसाद खरे को अवश्य याद किया है। खरे जी भी विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे। वे परसाई जी की किताबों के प्रथम प्रकाशक थे। वे एक क्षमतावान कहानीकार, कवि और सहृदय व्यक्ति होने के साथ कुशल व्यापारी भी थे। वे मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधानमंत्री रहे। अतिथि लेखकों के लिए शकुंतला सदन नामक एक विश्रामगृह अवश्य अलग से बनाया। उनके बारे में परसाई जी ने काफी कुछ जिक्र किया है। मलय को अफसोस है कि उनकी बात उनके साथ चली गई। मुझे यहां एक नाम और ध्यान में आ रहा है जिन पर मलय शायद लिख सकते थे- रामानुज लाल श्रीवास्तव। ऊंट उपनाम से व्यंग्य कविताएं लिखते थे। महाकवि गालिब का जो भाष्य उन्होंने रचा वह अब शायद उपलब्ध नहीं है। वे जबलपुर की इस मंडली के ज्येष्ठतम सदस्य थे। हनुमान वर्मा का जिक्र तो हुआ है लेकिन मलय उन पर भी स्वतंत्र लेख लिख सकते थे।
एक भावभीना संस्मरण मायाराम सुरजन पर है। इसकी पहली पंक्ति है- हम सब लोग मायाराम जी को बाबूजी कहा कहते थे। दरअसल, जबलपुर में उन्हें अधिकतर लोग भैया कहकर संबोधित करते थे, लेकिन जिनसे मेरी मित्रता हो गई उनके लिए मायाराम सुरजन बाबूजी बन गए। इस संस्मरण में मलय जी से भ्रमवश कुछ त्रुटियां हुई हैं। मुक्तिबोध जी वाले संस्मरण में भी हुई गलतियों को मैंने नोटिस किया है। इस संस्मरण में छत्तीसगढ़ में प्रगतिशील लेखक संघ के शिविरों का जिक्र है। ये शिविर ललित सुरजन, प्रभाकर चौबे, हरिशंकर शुक्ल और विनोद कुमार शुक्ल के संयुक्त प्रयत्नों से हुए थे। इनमें जल्दी ही मलय, रमाकांत श्रीवास्तव व राजेश्वर सक्सेना जुड़ गए थे। ऐसे तीन दिनी शिविर हमने बहुत से किए लेकिन बाबूजी उनमें से किसी में शामिल नहीं हुए थे। आगे चलकर उनके अध्यक्ष काल में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने जो एक-एक सप्ताह के रचना शिविर आयोजित किए, वे नि:संदेह बाबूजी की प्रेरणा व मार्गदर्शन तथा कमलाप्रसाद की सक्रिय भूमिका के कारण हुए। मेरा मत है कि कमलाप्रसाद को सम्मेलन के शिविरों की प्रेरणा छत्तीसगढ़ प्रलेस के शिविरों से मिली थी।
महेन्द्र वाजपेयी जबलपुर में कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव थे। जबकि सोमदत्त, नरेश सक्सेना और विनोदकुमार शुक्ल के समकालीन छात्र थे। श्रीबाल पांडे व सोमदत्त पर संस्मरण लिख मलयजी ने जबलपुर के साहित्यिक इतिहास के अधूरे चित्र में रंग भरे हैं। मुझे लगता है कि उषादेवी मित्रा का भी नाम आ पाता, तो और अच्छा होता। श्यामसुंदर मिश्र और पुरुषोत्तम खरे उनके निकट मित्र थे। उन पर मलय शायद अभी भी लिख सकते हैं। मैं मलय जी को इस पुस्तक के लिए बधाई देता हूं। लेकिन उचित हो कि वे पुस्तक में आई त्रुटियों को संशोधित कर लें। 
अक्षर पर्व जुलाई 2018 अंक की प्रस्तावना