Tuesday, 14 August 2018

भारत-पाकिस्तान-बांग्लादेश


  

15 अगस्त 1947 को विश्व इतिहास की दो युगांतरकारी घटनाएं घटित हुईं। एक तो भारत या कहें कि भारतीय उपमहाद्वीप को दो सौ साल की गुलामी के बाद आजादी हासिल हुई और दूसरा यह कि इसी के साथ-साथ देश दो टुकड़ों में बंट कर  पाकिस्तान के नाम से एक नया देश अस्तित्व में आ गया। कालांतर में वह भी टूटा और बांग्लादेश के नाम से एक तीसरा देश बन गया। इतिहास में जो हुआ सो हुआ। उस पर इतिहास और राजनीति के विद्वान माथापच्ची कर सकते हैं। अवसर देखकर दलाईलामा जैसे परम तत्वज्ञानी भी उस पर प्रवचन दे सकते हैं। आम जनता तो अपनी-अपनी बुद्धि से व्याख्या करती ही रहती है। लेकिन मेरे मन में सवाल गूंजता है कि 1947 और 2018 के बीच इकहत्तर साल का अरसा गुजर चुका हैइस लंबे दौर में तीन पीढ़ियां भी बीत गई हैंलेकिन हमने याने भारतीय उपमहाद्वीप की आम जनता ने अपने इतिहास से क्या सबक लिया है और आगे बढ़ने के लिए कौन सा रास्ता चुना है।

 मेरा सीधा सवाल इस बात को लेकर है कि क्या इन तीनों मुल्कों के लोग एक साथ मिलजुल कर प्यार से भाईचारे के साथ नहीं रह सकते। देश तो जो बनना थे बन गए। राजनीति के नक्शे पर खिंची सरहदों को मिटाने की कोई कल्पना नहीं करतालेकिन दुनिया में और भी तो देश हैं जो कभी एक-दूसरे के खून के प्यासे थे और आज दोस्त हैं। यूरोप में पिछले एक हजार साल में न जाने कितनी लड़ाइयां हुई हैं। साम्राज्य बने और बिगड़ेलेकिन मोटे तौर पर इन देशों के बीच अमन चैन और भाईचारा आज की तारीख में कायम है।  इंग्लैंड और आयरलैंड के बीच दो सौ साल से ज्यादा वक्त तक संघर्ष चलालेकिन आज दोनों के बीच दोस्ती है। उत्तरी आयरलैंड में इस लंबे दौर में व्याप्त रही अशांति खत्म हो चुकी है और अब वहां जनजीवन सामान्य है। जर्मनी और आस्ट्रियाफ्रांस और जर्मनीस्वीडन और फिनलैंड- ऐसे दर्जनों उदाहरण मौजूद हैं जहां शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का माहौल कायम है।

बे्रक्जाट के चलते इंग्लैंड यूरोपीय यूनियन से अलग हो गया हैजिसके परिणामस्वरूप स्कॉटलैंड में दूसरा जनमत संग्रह हो सकता है। याद रहे कि कुछ वर्ष पूर्व हुए जनमत संग्रह में स्कॉटलैंड के स्वतंत्र होने का प्रस्ताव बहुत थोड़े अंतर से पराजित हो गया था। इसे राजनैतिक परिपक्वता ही मानेंगे कि यदि स्कॉटलैंड इंग्लैंड से अलग होना चाहता है तो हो जाए। कुछ ऐसा ही परिदृश्य कनाडा में है जहां क्यूबेक में एक बार जनमत संग्रह विफल हो चुका है। ये उदाहरण सिद्ध करते हैं कि देशों और समाजों के बीच खींची गई लकीरें अंतिम और अटल सत्य नहीं है। उनमें नागरिकों की इच्छानुसार परिवर्तन संभव हैं। यदि हमें स्थायी शांति की तलाश है तो देश की सीमाओं को लचीला करते हुए सरहद के आर-पार हाथ बढ़ाने का सिलसिला शुरू करना एक बेहतर उपाय हो सकता है।
आज भारतपाकिस्तान और बांग्लादेश इन तीनों मुल्कों में ऐसी दो पीढ़ियां तो अवश्य हैं जिनके पास पार्टीशन की कोई स्मृति नहीं है। उनके लिए यह बहुत आसान होना चाहिए था कि वे नई स्लेट पर दोस्ती की इबारत लिख सकते। अगर अतीत की बेड़ियों से ही जकड़े रहेंगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे। मैं ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं कि पिछले सात दशक के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप से लाखों लोग इंग्लैंडअमेरिका जाकर बसे। भारत से विदेश जाने वाले पर्यटकों की संख्या में भी इस बीच काफी बढ़ोतरी हुई है। विदेश की धरती पर इन सब लोगों को एक समान अनुभव अवश्य होता होगा। लंदन हो या न्यूयार्ककाहिरा हो या टोक्योबीजिंग हो या मैक्सिको सिटीवहां हमें भारतीय कहकर ही जाना जाता है। अल हिन्दीइंडस्कीइंडियन यह पहचान न सिर्फ भारतीय बल्कि पाकिस्तानी और बांग्लादेशी पर्यटक की भी होती है। आखिरकार विदेशियों को हमारे पहनावेबोलचालतौर-तरीके में  बहुत ज्यादा फर्क मालूम नहीं होता। 
विदेश में अब तो अनगिनत इंडियन रेस्तोरां खुल गए हैं। इनके नाम हिन्दी या उर्दू में होते हैं। लेकिन अधिकतर आप पाएंगे कि इनके मालिक बांग्लादेश के हैं। न्यूयार्क में किसी टैक्सी ड्रायवर को आप शायद पाकिस्तानी समझें तो वह संभवत: भारत के किसी शहर से गया हो। विदेशों में बसे इन लोगों के बीच काफी हद तक दोस्ती देखने मिलती है और सामान्यत: एक अपरिचित देश की अनजानी सड़क पर जब आपको अपने जैसा दिखने वाला कोई मिल जाता है तो सहज आश्वस्ति का भाव जागता है। मैं यह दावा अपने निजी अनुभवों के आधार पर  कर रहा हूं। मेरे अनेक यात्रा वृत्तांतों में इन घटनाओं का उल्लेख है। पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ श्रीलंका और नेपाल को भी जोड़ लीजिए। बात यही है कि जो भाईचारा विदेश की धरती पर दिखाई देता है वह घर में लागू क्यों नहीं हो सकता
हम लोग देश के हालात पर चर्चा करते हुए अक्सर कहते हैं कि राजनेताओं ने सब कुछ बर्बाद कर दिया है। लेकिन फिर ऐसा क्यों कि एक ऐसे अहम मुद्दे पर जो न सिर्फ हमारी बल्कि हमारी बाद की पीढ़ियों की सुखशांति और सुरक्षा से ताल्लुक रखती है हम राजनेताओं के झांसे में आ जाते हैं। क्या हमें इस बात का कोई इल्म है कि हमारे मुल्क अपने बजट का कितना प्रतिशत प्रतिरक्षा पर खर्च करते हैं। मेरा यह सवाल सिर्फ भारत के लिए नहींपाकिस्तान और बांग्लादेश के लिए भी है। लेकिन मुझे यह देखकर तकलीफ होती है कि पाकिस्तान में जहां अमनपसंद नागरिक सैन्यतंत्र के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत दिखाते हैं वहीं दूसरी ओर हम भारत में सेना पर दिनोंदिन अपनी निर्भरता बढ़ाते जा रहे हैं।
अभी मेरा मानना है कि भारत की जनता को अपने पूर्वाग्रह छोड़करनेताओं की बयानबाजी से प्रभावित हुए बिनाखुद अपने विवेक का इस्तेमाल करखुले मन से विचार करना चाहिए कि हमारे दीर्घकालीन हित में क्या है और वह कैसे संभव होगायदि हम नफरत और अविश्वास की भावना को अपने ऊपर हावी होने देंगे तो उस आंच में झुलसे बिना नहीं रह सकते। हमें यह सच्चाई स्वीकार करना चाहिए कि बांग्लादेशपाकिस्ताननेपालभूटानश्रीलंकाम्यांमार- ये सब हमारे पड़ोसी देश हैं। जिस तरह से यहां अच्छे या बुरेजिम्मेदार या गैरजिम्मेदारसमझदार या सनकी लोग बसते हैं वैसे ही इन देशों में भी बसते हैं। हम अपने पड़ोसियों को नहीं बदल सकतेराजनैतिक सीमाओं को भी मिटा नहीं सकतेलेकिन रहना तो साथ-साथ है। लड़ें-झगड़ेंमारकाट करेंउससे अंतत: क्या मिलना है। दंगों में आम लोग मारे जाते हैंलड़ाइयों में सैनिक मरते हैंलेकिन एक मौत भी अपने आप में एक त्रासदी होती है। एक व्यक्ति के साथ उसका घर-परिवारनाते-रिश्तेदारदोस्तपड़ोसी सब होते हैं। जब अकाल मृत्यु होती है तो वह इन सबको जो न भरने वाले जख्म दे जाती है। जो पीड़ा औरतों और बच्चों को झेलना पड़ती है उसकी कल्पना ही की जा सकती है। क्या हम इस सबसे बच नहीं सकते
मेरा कहना है कि हमारे इन सभी मुल्कों के समझदार लोगों को सामने आने की आवश्यकता है। हमें मैत्री और भाई-चारे के लिए साझा मंच और मोर्चे बनाना चाहिए। हमें अपने-अपने मुल्क में सत्ताधीशों और पाकिस्तान के संदर्भ में खासकरसैन्यतंत्र पर यह दबाव कायम करना चाहिए कि वे विघटनकारी षड़यंत्रों से बाज आएं। हमें शांति से रहने का अधिकार है। उसे छीनने का अधिकार हम इन्हें नहीं दे सकते।
देशबंधु में 15 अगस्त 2018 को प्रकाशित विशेष सम्पादकीय 


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