Wednesday 1 August 2018

असम का नागरिकता रजिस्टर: भावी के संकेत

                         
अखिल भारतीय समाचारपत्र संपादक सम्मेलन की एक चार सदस्यीय सत्यान्वेषण टीम ने 1980 में असम समस्या के अध्ययन के लिए असम व प. बंगाल की यात्रा की थी। मैं उस टीम का एक सदस्य था।  वहां से लौटकर मैंने जो रिपोर्टिंग की थी उसका एक हिस्सा, जो शायद आज प्रासंगिक है, नीचे प्रस्तुत है-
विदेशियों को भगाने की बात तो की जाती है, लेकिन आखिर विदेशी कौन हैं? पिछले 20 साल से भी ज्यादा समय से रह रहे लोगों को भी क्या विदेशी कहकर बाहर निकाला जा सकता है? जो और पहले आए, उनकी तो बात ही छोड़िए। देश विभाजन के बाद भारी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से मुसलमान आकर कछार जिले में बस गए। हर कोई मानता है कि वे बहुत अच्छे और मेहनती किसान हैं। जनगणना में उन्होंने अपने आपको असमिया दर्ज कराया। उनके बच्चे असमिया ही बोलते-पढ़ते हैं। आज वे कहां जा सकते हैं? 1960 के बाद भारी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से बंगाली हिंदू भी आए। उनके पुनर्वास की प्रक्रिया आज तक चल रही है। असम ही नहीं, देश के अन्य प्रान्तों में भी उन्हें बसाया जा रहा है। 1960 के दशक में पुनर्वास मंत्रालय की एक योजना के अनुसार 15000 बंगाली विस्थापित परिवार असम में बसाए जाने थे, जब कि म.प्र. में पुनर्वास का कोटा 25000 परिवार का था। ऐसे आंकड़ों को आंदोलन के नेता भूल जाना चाहते हैं, क्योंकि वे उनके मकसद के खिलाफ जाते हैं। वे चाहते हैं कि 1951 के बाद जो भी बाहर से आया हो, वह भले ही असम में रहे, लेकिन उसके पास नागरिकता का प्रमाणपत्र हो। क्या यह प्रस्तावित नागरिकता प्रमाणपत्र उसे दूसरे दर्जे का नागरिक नहीं बना देगा? फिर उसके साथ क्या सलूक किया जाएगा? दूसरी बात यह प्रमाणपत्र कौन जारी करेगा- वही सरकारी कर्मचारी। क्या गारंटी है कि प्रमाणपत्र जारी करने में भ्रष्टाचार नहीं होगा! यदि अवैध रूप से आए पूर्वी पाकिस्तानी नागरिकों को जमीन और बैंक ऋण ये अधिकारी दे सकते थे तो प्रमाणपत्र में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता?
दरअसल, केन्द्र और असम में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी हिन्दुत्व के एजेण्डे को लागू करने के लिए जिस तरह काम कर रही है उसमें उसे इस बात की तनिक भी फिक्र नहीं है कि इसकी परिणति कब किस रूप में होगी। मैंने 1980 की अध्ययन यात्रा में पाया था कि असम आंदोलन को उकसाने में संघ से संबंध रखने वाले तत्वों की बड़ी भूमिका थी। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद असम समस्या को सुलझाने के लिए नए सिरे से पहल की गई थी। प्रधानमंत्री राजीव गांधी व असम आंदोलन के युवा कर्णधार प्रफुल्ल कुमार महंता के बीच वार्ता चली थी, जिसका परिणाम 1985 के असम समझौते के रूप में सामने आया था। इस समझौते में अन्य बातों के अलावा यह प्रावधान भी था कि एक तिथि निश्चित कर उसके बाद विदेश याने बांग्लादेश से आकर बसे लोगों की शिनाख्त कर उन्हें वापिस भेजा जाएगा। यह तिथि 24 मार्च 1971 की तय की गई थी। वह इसलिए कि बांग्लादेश मुक्ति संग्राम प्रारंभ हो गया था; पाकिस्तान की फौजी हुकूमत पूर्वी पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों पर बेशुमार अत्याचार कर रही थी और वे पलायन कर भारत में शरण लेने के लिए मजबूर थे।
जाहिर है कि ये तमाम विस्थापित बंगलाभाषी थे। इन्होंने बड़ी संख्या में पश्चिम बंगाल के शिविरों में शरण ली थी और सिलहट की तरफ से आकर असम में शरण लेने वालों की संख्या भी कम नहीं थी। इन्हें भारत में रखना और कालांतर में स्थायी आवास और अन्य अधिकार प्रदान करना राजनीतिक और मानवीय दोनों दृष्टियों से सही कदम था। ऐसा नहीं कि पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले सभी लोग हिन्दू अल्पसंख्यक ही थे।
उनमें पूर्वी पाकिस्तान के बहुसंख्यक मुसलमानों का वह वर्ग भी था जो शेख मुजीब का समर्थक था। बांग्लादेश एक स्वतंत्र जनतांत्रिक देश बन जाने के बाद उनमें से कई लोग लौट भी गए होंगे। तब यह कल्पना भी थी कि अब आगे शरणार्थी नहीं आएंगे। लेकिन यह तथ्य अपनी जगह पर था कि पूर्वी और पश्चिमी बंगाल दोनों से रोजगार अथवा बेहतर अवसरों की तलाश में असम आने का क्रम तो दो सौ साल से चल रहा था। ऐसा नहीं कि असम में सिर्फ बंगाली ही आकर बसे हों। भारत के अन्य हिस्सों से भी विभिन्न कारणों से विभिन्न कालखंडों में लोग यहां आकर बसते रहे हैं। प्रदेश के चाय बागानों में काम करने वाले मजदूर जिन्हें टी ट्राइब्स के नाम से जाना जाता है उनमें से अधिकतर झारखंड, छत्तीसगढ़ और भोजपुर के इलाके से लगभग डेढ़ सौ साल पहले आकर बसे हैं। अभी-अभी छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग ने असम और छत्तीसगढ़ के इस अंतर्संबंध पर एक पुस्तक प्रकाशित की है। मुश्किल यह है कि अपने आपको असम का मूलनिवासी मानने वाले समूहों को दूसरे प्रांतों से आए इन तमाम समुदायों की उपस्थिति नागवार गुजरती है। यह वर्चस्ववादी तबका संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त है। जिन राजनीतिक शक्तियों ने एक समय असम आंदोलन को प्रत्यक्ष व परोक्ष समर्थन दिया था, आज उनका राज है और उन्हें ही परीक्षा से गुजरना है कि वे कैसे इसका समाधान खोजते हैं।
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के अंतिम मसौदे में चालीस लाख लोगों को अनागरिक घोषित कर दिया गया है। हिन्दुत्ववादी इस भ्रम में बहुत खुश हैं कि ये सब के सब मुसलमान हैं और इन्हें भारत से बाहर निकाल दिया जाएगा। उन्हें यह सच्चाई जान लेना चाहिए कि चालीस लाख में शायद पच्चीस से तीस लाख वे हिन्दू हैं जो दूसरे प्रदेशों से यहां आकर पिछले चार-छह पीढ़ियों से यहां रह रहे हैं। उन्हें अनागरिक इसलिए घोषित किया गया है क्योंकि अशिक्षा, गरीबी और अन्य कारणों के चलते बाप-दादाओं के जमाने के दस्तावेज उनके पास नहीं हैं। एक विचित्र किस्सा तो असम विश्वविद्यालय के बंगाली हिन्दू उपकुलपति का है जिनका नाम रजिस्टर से काट दिया गया है। अभी ऐसे और न जाने कितने प्रकरण सामने आएंगे। केन्द्र सरकार हो या असम सरकार, एक-एक केस से उन्हें आने वाले समय में जूझना पड़ेगा।
ध्यान देने योग्य दूसरी बात है कि असम में जो बंगाली मुसलमान हैं वे या तो प्रदेश के भूस्वामी वर्ग के खेतों में काम करने आए थे और समय के साथ नागरिकता हासिल कर चुके हैं, या फिर वे जो जीवनयापन के लिए जहां रास्ता दिखे वहां चल पड़ते हैं। आज यदि असम से इन लोगों को निकाला जाता है तो ये कहां जाएंगे? इनके लिए भारत के अलावा कौन सा देश है। सोचना तो यह भी होगा कि देश के अन्य राज्यों में इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी! आज स्वतंत्र देश में हर नागरिक कहीं भी रोजी-रोटी की तलाश में जाकर बस सकता है। कल को असम से प्रेरणा लेकर हर जगह भाषायी, जातीय और सांप्रदायिक तनाव बढ़ता है तो उसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? यह भी विचारणीय है कि विदेशों में भारत की क्या छवि बनती है। आज जो भारतीय अमेरिका और इंग्लैण्ड से लेकर सऊदी अरब और दुबई तक काम कर रहे हैं उनका भविष्य क्या होगा? हम अभी उम्मीद करते हैं कि भारत सरकार स्थिति की गंभीरता को समझेगी और सांप्रदायिक उन्माद में कोई ऐसा कदम नहीं उठाएगी जिससे देश की शांति, सुरक्षा और सद्भाव को नुकसान पहुंचे।
देशबंधु में 02 अगस्त 2018 को प्रकाशित 
 

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