Wednesday, 8 August 2018

चुनावी माहौल में कुछ बातें

                                          
चुनाव, चुनाव और चुनाव।  पूरे देश का ध्यान घूम-फिरकर  आगामी लोकसभा चुनावों और आसन्न विधानसभा चुनावों पर आकर ठहर जाता है, फिर मुद्दा कुछ भी क्यों न हो। देश की सुरक्षा, काश्मीर के हालात, असम का नागरिकता रजिस्टर, बिहार के बालिका आश्रयगृह में दुराचार का घिनौना अपराध, छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद, एससी-एसटी कानून में संशोधन, जजों की नियुक्तियां, खाद्यान्न सुरक्षा, गरज यह कि हर चर्चा चुनाव के इर्द-गिर्द होगी और उसमें देखते ही देखते भाजपा बनाम विपक्ष की विभाजक रेखा खिंच जाएगी। आज की तारीख में इसे परिपक्व जनतंत्र की निशानी मानें या राजनीतिक परिदृश्य की विडंबना! यह तो सही है कि चुनावी राजनीति जनतंत्र की अनिवार्य शर्त है, किन्तु लोक महत्व के बुनियादी और आवश्यक प्रश्नों पर भी यदि एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ ही चलती रहे तो इसकी प्रशंसा मुक्त भाव से नहीं की जा सकती। 
यूपीए के दस-साला शासन के दौरान भाजपा द्वारा बार-बार यह तर्क दिया जाता था कि सरकार चलाने की जिम्मेदारी सत्तारूढ़ दल या गठबंधन की है। यह यदि मानने योग्य तर्क था तो आज विपक्ष उसी रास्ते पर चलकर सत्तारूढ़ गठबंधन और उसके नेतृत्व पर निशाना साध रहा है तो इसे गलत कैसे माना जाए! अगर दार्शनिक मुद्रा में विचार करें तो प्रतीत होता है कि भारत में जनतंत्र का यह संक्रमण काल है और इस उथल-पुथल के बीच ही शायद किसी दिन परिपक्व जनतंत्र के लिए आवश्यक मानकों और परंपराओं का निर्माण हो सकेगा! यह एक खामखयाली भी हो सकती है क्योंकि दूसरी तरफ एक डर भी गहराते जा रहा है कि भारत कहीं अधिनायकवाद की दिशा में तो आगे नहीं बढ़ रहा है! कभी-कभी तो संशय से भरी यह आवाज भी सुनाई देती है कि 2019 में आम चुनाव होंगे भी या नहीं! इस बीच सत्ताधीशों का मीडिया व न्यायपालिका के प्रति जो रवैया रहा है उसे देखते हुए यह शंका खारिज करने लायक नहीं लगती।
2014 में जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने एक बड़ा नारा दिया था- मिनिमम गर्वमेंट मैक्जामम गवर्नेंस का जिसका अर्थ था-बेहतर शासन सुनिश्चित करने के लिए सरकार का कम से कम हस्तक्षेप। अगर सचमुच ऐसा हो पाता तो बड़ी बात होती। मेरी दृष्टि में इसका अर्थ यह था कि सरकार विधि-विधान से चलेगी और वह राजनैतिक तथा वैचारिक आग्रहों से जितना संभव है उतना दूर रहेगी। इस नारे पर अमल करते हुए यदि देश को एक पूंजीवादी अनुदारपंथी शासन मिला होता तो शिकायत की कोई बात शायद न होती। इसमें आज जनता को खुलकर अपने विचार सामने रखने का मौका होता। मीडिया के अंग अखबार और चैनल भी अपनी मान्यताओं  के अनुसार काम करते और न्यायपालिका में भी असंतोष की कोई स्थिति न बनती। दुर्भाग्य से यह सब नहीं हो सका। जनतंत्र में जो स्वस्थ परिपाटियां डाली जाना चाहिए उस दिशा में भी देश आगे नहीं बढ़ सका। वर्तमान में हमारा सारा राजनैतिक नेतृत्व चाहे वह किसी भी धारा का हो, कहीं भी अपनी नैतिक जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं है। उल्टे वह हर समय अपने विरुद्ध राजनैतिक षड़यंत्र रचे जाने की दुहाई देते रहता है।
इस चिंतनीय पृष्ठभूमि में आगामी कुछ माह के भीतर चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं उसकी तैयारियां चल रही हैं। तीन राज्यों में भाजपा सत्तासीन है और उसकी तैयारियों में स्वाभाविकत: इसीलिए अधिक मजबूती दिखाई देती है। छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह चुनावपूर्व प्रदेश के सघन सरकारी दौरे का एक चरण पूरा कर चुके हैं, दूसरे की तैयारी में हैं। राजस्थान में वसुंधरा राजे केन्द्रीय नेतृत्व को अपने अनुकूल करने सफल हुई हैं। वे भी चुनावपूर्व सरकारी यात्रा पर निकल पड़ी हैं जिसे हरी झंडी दिखाने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह स्वयं पहुंचे। मध्यप्रदेश के शिवराज सिंह चौहान भी जोर-शोर से यात्रा करने में भिड़े हुए हैं। इन तीनों में सबसे अधिक आश्वस्त रमन सिंह नज़र आते हैं। वे पन्द्रह साल की लंबी पारी खेल चुके हैं और पार्टी के भीतर उन्हें चुनौती देने वाला अब कोई बचा नहीं है। यह बात अलग है कि चुनाव जीतने की स्थिति में पार्टी हाईकमान कोई अप्रत्याशित निर्णय न ले ले जैसा उसने महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, हिमाचल, उत्तराखंड, हरियाणा आदि में पूर्व में किया है!
कांग्रेस की ओर देखें तो मध्यप्रदेश और राजस्थान, इन दो प्रदेशों में उसकी स्थिति मजबूत नजर आती है। मध्यप्रदेश में कुछ समय पहले तक पार्टी के भीतर असमंजस की स्थिति बनी हुई थी वह अब दूर हो चुकी है। ऐसा सुनने में आ रहा है कि कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच ठीक तरह से तालमेल बैठ गया है। यद्यपि कुछ शंका इस बारे में है कि दिग्विजय सिंह अपना रोल किस तरह निभाते हैं! हमारी सलाह तो यही होगी कि दिग्विजय सिंह चुनावी राजनीति छोड़कर एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाएं। वे 72 साल के  हो गए हैं और उनके सुपुत्र वर्तमान में विधायक बने ही हुए हैं। राजस्थान में सचिन पायलट की छवि में दिनोंदिन निखार आ रहा है। उनकी राजनीतिक सूझबूझ की तारीफ आज पूरे देश में होती है। वे यदि जीतने के बाद मुख्यमंत्री बनते हैं तो कांग्रेस राजस्थान में एक बार फिर लंबी पारी खेलने की उम्मीद कर सकती है। याद रहे कि मोहनलाल सुखाड़िया ने सत्रह साल तक मुख्यमंत्री रहकर उस समय राष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित किया था।
अब बात आती है छत्तीसगढ़ की। यहां कांग्रेस में अभी भी आंतरिक तौर पर ऊहापोह का वातावरण बना हुआ है। उसके अनेक कारण हैं। एक तो पार्टी यह तय नहीं कर पा रही है कि उसे अपने बागी पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी के प्रति क्या रुख अपनाना चाहिए। आए दिन अटकलें लगती रहती हैं। अभी श्रीमती रेणु जोगी को लेकर कांग्रेस का एक वर्ग शंका में डूबा हुआ है। अजीत जोगी को लेकर कांगे्रस का संदेह समझ में आता है। अमित जोगी ने भी पार्टी से बगावत की इसलिए उनके प्रति भी नरम रुख न रखा जाए इसे भी माना जा सकता है। किन्तु श्रीमती जोगी तो पार्टी में लगातार बनी हुई हैं; उनका सहज, सौम्य व्यक्तित्व भी जनता को प्रभावित करता है। उन्हें टिकट देने में पार्टी को दिक्कत क्यों होना चाहिए? क्या यह संभव नहीं है कि वे कालांतर में जोगीजी को घर लौटने के लिए प्रेरित कर सकें? जैसा कि लगभग साल भर पूर्व डॉ. सत्यभामा आडिल ने देशबन्धु में अपने लेख में इंगित किया था कि एक घर में रहते हुए आचार्य कृपलानी ताजिंदगी नेहरू का विरोध करते रहे जबकि श्रीमती सुचेता कृपलानी ने उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री पद का दायित्व संभाला। मेरी व्यक्तिगत राय है कि यदि अमित जोगी अपनी महत्वाकांक्षा पर काबू पा सकें तो दोनों धड़ों के बीच तालमेल कर बेहतर स्थितियां बन सकती हैं।
कांग्रेस के सामने दूसरी समस्या अन्य दलों के साथ गठबंधन या चुनावी तालमेल को लेकर है। इसका फैसला तो दिल्ली में ही होगा किन्तु पार्टी के प्रादेशिक नेतृत्व को भी राजनैतिक परिपक्वता और समझदारी दिखाते हुए तालमेल की पहल करना चाहिए। मुझे विदित हुआ है कि आम आदमी पार्टी भी कांग्रेस के साथ छत्तीसगढ़ में तालमेल के लिए तैयार है। आप को इसके और आगे बढ़ने की जरूरत है। रविवार को जंतर-मंतर पर हुए प्रदर्शन में यदि राहुल गांधी के साथ अन्य पार्टियों के नेताओं के अलावा अरविंद केजरीवाल भी यथासमय मंच पर आते तो उससे एक मजबूत संकेत जाता। ऊंट की चोरी निहुरे-निहुरे की नीति पर चलने से श्री केजरीवाल को फायदा नहीं होगा। कांग्रेस को भी दिल्ली में पुराने नेतृत्व को दरकिनार कर नए लोगों को आगे लाना चाहिए ताकि आप के साथ तालमेल की गुंजाइश बढ़ सके। इसके अलावा इन सभी राज्यों में कांग्रेस, बसपा, भाकपा, माकपा, शरद यादव इन सबको साथ लेकर चले तो बेहतर परिणामों की अपेक्षा की जा सकती है।
 देशबंधु में 09 अगस्त 2018 को प्रकाशित 

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