अटल बिहारी वाजपेयी पिछले एक दशक से नेपथ्य में थे। वे स्मरणशक्ति भूल जाने सहित कुछ अन्य बीमारियों से ग्रस्त थे, इसी कारण बाहरी दुनिया से उनका संपर्क लगभग समाप्त हो चुका था। इसके बावजूद उनकी मृत्यु की खबर आने के बाद सारा देश जिस तरह से शोकाकुल हुआ उससे पता चलता है कि श्री वाजपेयी ने अपने साठ साल के राजनैतिक जीवन में उससे भी परे जाकर जनमानस के बीच एक अलग छवि बनाई थी। किसी व्यक्ति के निधन पर आम चलन में कहा जाता है कि उसके जाने से एक शून्य बन गया है जिसे भरना मुश्किल होगा या फिर हमें उनके बताए मार्ग पर चलना है। इन उद्गारों में अधिकतर समय औपचारिकता निभाने का भाव होता है। अटल बिहारी वाजपेयी के देहांत पर भी इस तरह की रस्म अदायगी की गई लेकिन वह काफी हद तक दिल से की गई बात थी।
श्री वाजपेयी के बारे में कहा गया कि वे पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे जिन्होंने पांच साल का निर्धारित कार्यकाल पूरा किया। मैं इसमें संशोधन करना चाहता हूं। श्री वाजपेयी के पूर्व जो अन्य गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री हुए याने मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, वी.पी. सिंह, चंद्रशेखर, एच.डी. देवेगौड़ा, आई. के. गुजराल-ये सब के सब कांग्रेस के विद्रोही थे जिनकी राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा कांग्रेस के भीतर हुई थी। इसलिए यह श्रेय भी अटल बिहारी वाजपेयी को देना होगा कि वे देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री थे। इसमें यह जोड़ना आवश्यक है कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से दीक्षा प्राप्त पहले प्रधानमंत्री थे, आगे चलकर जिनका उत्तराधिकारी बनने का अवसर नरेन्द्र मोदी को मिला। प्रसंगवश उल्लेख किया जा सकता है कि इन दोनों के बीच लालकृष्ण अडवानी के हाथों से सत्ता आते-आते फिसल गई। श्री वाजपेयी के राजनैतिक जीवन का अध्ययन करते समय उनकी संघ की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखे बिना बात पूरी नहीं हो सकती।
यह गंभीर शोध का विषय है कि श्री वाजपेयी ने संघ के होकर भी संघ से स्वतंत्र दिखने वाली छवि कैसे बनाई। फिलहाल मैं वाजपेयी जी के व्यक्तित्व के बारे में दो बातों का उल्लेख करना चाहूंगा। एक तो यह कि उन्हें हंसना खूब आता था। आप उन्हें सदन के भीतर और बाहर, औपचारिक और अनौपचारिक माहौल में ठहाका लगाते हुए सुन सकते थे। आमतौर पर संघ से जुड़े राजनेता मुस्कुराने से परहेज करते हैं। उन्हें शायद यह भारतीय संस्कृति के विपरीत जान पड़ता है! उन्हें आप अक्सर तनाव भरी मुद्रा में ही देखते हैं। वाजपेयी जी इसके अपवाद हैं। दूसरे, उनकी पढ़ने-लिखने में निश्चित रूप से रुचि थी। संघ की पृष्ठभूमि से आए अधिकतर नेता अंग्रेजी साहित्य तो बिल्कुल नहीं पढ़ते। हिन्दी में भी वे रामचरितमानस और हनुमान चालीसा या फिल्मी धुनों पर लिखे भजनों से आगे बढ़ने से परहेज करते हैं। वाजपेयी जी के व्यक्तित्व का अनूठापन यहां भी प्रदर्शित होता है।
दरअसल, हिन्दी क्षेत्र में दो ऐसे राजनेता हुए हैं जिनका लेखकों, पत्रकारों और अकादमिकों से जीवंत संवाद रहा है। डॉ. राम मनोहर लोहिया अपने इसी गुण के कारण हिन्दी जगत में लोकप्रिय और प्रतिष्ठित हुए। उनके संबंध अन्य भारतीय भाषाओं के संस्कृतिकर्मियों के साथ भी घनिष्ठ थे। अटल बिहारी वाजपेयी का रास्ता भी लगभग यही था। वे जब प्रधानमंत्री थे तब हिन्दी लेखकों के अलावा अली सरदार जाफरी व जावेद अख़्तर जैसे लोकप्रिय साहित्यकारों के साथ उनकी संगत के समाचार पढ़ने में आते थे। वे जब ग्वालियर में विद्यार्थी थे तब शिवमंगल सिंह सुमन उनके अध्यापक थे और वाजपेयी जी ने भिन्न राजनीतिक विचार होने के बावजूद अपने इस गुरु का अंत तक सम्मान ही किया।
यह हम जानते हैं कि वाजपेयी जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पत्रिका राष्ट्रधर्म से अपने कॅरियर की शुरूआत की थी। संघ के मुखपत्र पांचजन्य से भी वे जुड़े रहे। उनके सहयोगी लालकृष्ण अडवानी ने भी संघ के अंग्रेजी मुखपत्र आर्गनाइजर में बरसों काम किया था। इसके अलावा वाजपेयी जी ने मंच पर पढ़ी जा सके, ऐसी तुकबंदी वाली कविताएं भी लिखीं। उन्होंने प्रारंभिक दौर में एक कविता लिखी थी वह शायद आज भी संघ की शाखाओं में सुनाई जाती है। इसमें वे अपने हिन्दू होने का गर्वपूर्ण बखान करते हैं। कह सकते हैं कि उनके विचारों की नींव इस कविता से उद्घाटित होती है। बहरहाल, प्रधानमंत्री बनने के बाद उनका कविता संकलन भी प्रकाशित हुआ, उनकी कविताओं के कैसेट आदि भी बने। मुझे लगता है कि वे अपने समय के मंचसिद्ध कवियों में अपना स्थान बना सकते थे! वे पूर्णकालीन कवि नहीं बने यह उनके लिए भी उचित ही हुआ क्योंकि तभी वे देश की राजनीति में परिवर्तनकारी भूमिका निभा सके।
संघ के प्रचारक और सिद्धांतकार गोविंदाचार्य ने एक बार वाजपेयी जी को संघ का मुखौटा कहा था। ऐसा उन्होंने किसी योजना के तहत कहा था या अनायास, कहना मुश्किल है, लेकिन श्री वाजपेयी के राजनीति के शीर्ष तक पहुंचने के संदर्भ में यह कथन सच मालूम होता है। वे संघ के होकर भी संघ से एक दूरी दिखा सके इसी में उनकी सफलता का राज निहित है। वे शायद बहुत पहले जान गए थे कि भारत का लोकमानस मध्यमार्गी है। यहां अतिरेकवादी राजनीति करने से आगे नहीं बढ़ा जा सकता और इसीलिए उन्होंने जाहिरा तौर पर मध्यमार्गी रास्ता अपना कर जनता के बीच अपनी स्वीकार्यता स्थापित की। यह नीति शायद संघ के भी मनमाफिक थी। उदारवादी वाजपेयी और कट्टरवादी अडवानी- जनता दोनों में से जिसे चाहे पसंद कर ले।
यह कहना आवश्यक होगा कि अटल बिहारी वाजपेयी ने जवाहर लाल नेहरू के दौर में अपने राजनैतिक जीवन की शुरूआत की थी। वह समय बुद्धिजीवी राजनेताओं का और राजनीति में वैचारिक हस्तक्षेप का था। आज जिस तरह की व्यक्ति केन्द्रित राजनीति दिल्ली से लेकर ग्राम पंचायत तक दिखाई दे रही है वह उस दौर के लिए कल्पनातीत थी। इसीलिए जब 1957 में वाजपेयी जी ने लोकसभा के नवनिर्वाचित सदस्य के रूप में अपना पहली बार वक्तव्य दिया तो प्रधानमंत्री नेहरू ने उनकी बेंच तक जाकर उन्हें बधाई देते हुए उम्मीद जाहिर की कि यह नौजवान नेता आगे चलकर देश का प्रधानमंत्री बन सकता है। आज वाजपेयी जी के जाने के बाद एक जो शून्य नजर आ रहा है उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि राजनीति में विचारशीलता, तर्कशीलता, शिष्टाचार और शालीनता जैसे गुण विलुप्त हो चुके हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी का मूल्यांकन करते हुए यह तथ्य भी सामने आएगा कि वे एक तरफ संघ के स्वप्न को साकार करने के लिए धैर्यपूर्वक काम कर रहे थे; दूसरी ओर वे तथाकथित उदारीकरण के दौर में वैश्विक पूंजीवाद के एजेण्डा से भी प्रभावित थे और अपने प्रधानमंत्री काल में उन्होंने इसके मुताबिक अनेक निर्णय लिए जिनकी सम्यक समीक्षा आगे चलकर होगी। फिर भी यह उनकी खूबी थी कि प्रधानमंत्री के रूप में उनके जो सर्वाधिक विश्वस्त और निकटतम साथी थे जैसे जार्ज फर्नांडीज, ब्रजेश मिश्रा, यशवंत सिन्हा और जसवंत सिंह, इनमें से कोई भी संघ की पृष्ठभूमि वाला नहीं था। तीसरी ओर वे प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी पुरानी नीति छोड़ पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की पहल कर इतिहास के लिए भी अपनी भूमिका निर्धारित करना चाहते थे। इस तरह वे एक नाजुक संतुलन साध रहे थे। उन्होंने जो जमीन तैयार की उसी के परिणामस्वरूप आज नरेन्द्र मोदी इस देश की सत्ता पर काबिज हो सके हैं। विनम्र श्रृद्धांजलि।
देशबंधु में 23 अगस्त 2018 को प्रकाशित
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