साहित्य की हर विधा की भाषा, शैली और विषय निरूपण की अपनी-अपनी विशिष्टताएं होती हैं, इसलिए प्रत्येक विधा पाठक अथवा सहृदय से एक विशिष्ट व्यवहार की प्रत्याशा रखती है। मसलन उपन्यास को ही लें। अगर उपन्यास आकार में छोटा है तब भी उसे पढऩे के लिए सामान्य तौर पर कम से कम एक दिन का वक्त चाहिए और वह भी ऐसा कि पढ़ते समय कोई खलल न पड़े। नाटक को पढ़ा तो जा सकता है, लेकिन उसका रसास्वाद रंगमंच पर प्रस्तुति से ही संभव है। कविता भी पाठक से धैर्य और तल्लीनता की मांग करती है। उसे समाचार पत्र में छपी खबर की तरह नहीं पढ़ा जा सकता। इन सबसे अलग स्थिति कहानी की है। कहानियां अमूमन बहुत लंबी नहीं होती। उन्हें पढऩे में अधिक वक्त नहीं लगता और पढऩे के लिए समय चुराना बहुत कठिन नहीं होता है। इतना सब जो कहा इसके अपवाद भी अवश्य होंगे। एक समय पत्रिकाओं में एकांकी नाटक छपते थे और उनका आनंद उठाना संभव था। कुछेक मूर्धन्य लेखकों के नाटक रंगमंच के लिए कठिन थे लेकिन वे पाठकों के बीच लोकप्रिय हुए थे।
इसी भांति ऐसे उपन्यास भी लिखे गए हैं जिन्हें पढऩे के लिए पाठक समय निकालने के लिए स्वयं मजबूर हो जाता है। उपन्यास की कथावस्तु और निर्वाह यदि रोचक है तो फिर सारे कामधाम छोड़कर पाठक उसमें डूब जाता है। किसी समय मैं खुद लंबी रेलयात्राओं में मोटे-मोटे उपन्यास साथ लेकर चलता था कि आते-जाते आराम से पढ़ सकूंगा। और यहां बात जासूसी उपन्यासों की नहीं बल्कि श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों की हो रही है, विष्णु प्रभाकर का अर्द्धनारीश्वर, गंगाधर गाडगिल का दुर्दम्य या आशापूर्णा देवी का प्रथम प्रतिश्रुति और सुवर्णलता। कविता की बात न्यारी है। एक मंच की कविता है जिसे कोई अगले दिन भी याद नहीं रखता; एक हिन्दी गज़ल है जिसके सिरमौर दुष्यंत की गज़़लें जगह-जगह उद्धृत की जाती हैं; और एक वह कविता है जो पाठक को बार-बार नए सिरे से समझने के लिए आमंत्रित करती है। ऐसी कविता सीधी-सपाट लगकर भी अर्थगंभीर हो सकती है।
कविता और नाटक प्राचीनकाल से चली आ रही विधाएं हैं। उपन्यास अपेक्षाकृत बहुत नई विधा है, लेकिन कहानी का उद्भव कम पुराना नहीं है। कथासरित्सागर, जातक कथाएं, पंचतंत्र जैसे उदाहरण भारतीय साहित्य में मौजूद हैं। हिन्दी कहानी का मूलस्रोत शायद उनमें ढूंढा जा सकता है। ये तमाम बातें मैं एक साधारण पाठक होने के नाते कर रहा हूं। विद्वान, अध्यापक और आलोचक अगर इन कथनों से सहमत न हों तो मेरी निंदा कर सकते हैं। जहां तक आज की कहानी की बात है उसमें भी शायद कुछ वर्गीकरण संभव है। एक तो वे कहानियां हैं जो कहने को गद्य में है, लेकिन उनका पूरा या आंशिक विन्यास काव्यमय होता है। यह कथाकार की क्षमता पर निर्भर है कि वह अपनी रचना को पठनीय और सराहनीय कैसे बनाता है। फिर वे कहानियां हैं जिनमें कथाकार स्वयं हर समय अपनी उपस्थिति का अहसास करवाते चलता है और अपनी विद्वता से पाठकों को आक्रांत कर देता है। कहानी का एक रूप वह भी है जिसमें कथाकार मानो किसी फार्मूले के अंतर्गत लिखता है। कथा का प्रारंभ कहीं से भी हो, अंत पूर्व निर्धारित होता है।
इन सबसे हटकर सीधी-सच्ची कहानियां भी लिखी जाती हैं। इनमें कथाकार की दृष्टि का पैनापन उजागर होता है। वह अपने चारों तरफ खुली आंखों से सब कुछ देखता रहता है। उसकी भाषा में पारदर्शिता होती है। इन कहानियों को पढ़ते हुए लगता है कि कथाकार के पास कहने के लिए कितना कुछ है। एक साधारण व्यक्ति अपने आसपास की जिन बातों से बेखबर होता है समर्थ कथाकार उन छोटी-छोटी बातों को उठाकर करीने से पाठक के सामने रख देता है कि लो इसमें अपनी छवि देख लो। ये कहानियां महज मनोविनोद के लिए नहीं लिखी जातीं; इनको लिखने वाला कोई समाज सुधारक, उपदेशक या प्रवचनकर्ता भी नहीं होता; वह तो अहंकार का लबादा ओढ़े बिना जीवन के सत्य को समाज के सामने प्रकट करने का काम करता है। मुझे ऐसी कहानियां पसंद आती है। कुंदन सिंह परिहार का नया संकलन ''कांटा और अन्य कहानियां’’ मेरे सामने आया तो मैं इन कहानियों में डूबते चला गया। सारे कामधाम छोड़कर एकबारगी इनको आद्योपांत पढ़ लिया। फिर अहसास हुआ कि इन्हें दुबारा पढऩा चाहिए। अपने कहन की तमाम सादगी के बावजूद इस संकलन की पच्चीस में से हर कहानी प्रगल्भ है। कुंदन सिंह परिहार एक लम्बे अरसे से लिख रहे हैं। उनकी रचनाएं बीच-बीच में पढऩे का अवसर मुझे मिला है। अक्षर पर्व में भी यदा-कदा उनकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। इस नए संकलन की रचनाओं से गुजरने के बाद एक अपराधबोध मन में जागा है कि एक समर्थ कथाकार का जैसा परिचय हिन्दी जगत में ऐसा होना चाहिए था वैसा नहीं हो पाया है। वह शायद इसलिए कि श्री परिहार आत्मश्लाघा से से दूर रहकर अपना काम करते चलते हैं। वे यश और प्रतिष्ठा के लोभी नहीं है, यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
यह इन कहानियों को पढ़ते हुए अनुभव कर सकते हैं कि कुंदन सिंह परिहार की कहानियों में व्यंग्य की एक अंतर्धारा प्रवाहित हो रही है। यह क्या इसलिए है कि लेखक जबलपुर का निवासी है? मैं जहां तक जानता हूं परसाई जी ने अपनी ओर से कोई गुरु परंपरा स्थापित नहीं की, लेकिन इसे क्या कहिए कि जबलपुर के सौ-डेढ़ सौ किलोमीटर की परिधि में बसने वाले हर लेखक की कलम में व्यंग्य का पुट आ ही जाता है। सतना, कटनी, दमोह, छिंदवाड़ा, इटारसी, पिपरिया, होशंगाबाद, गाडरवारा, नरसिंहपुर, मंडला, सिवनी, बालाघाट का पूरा क्षेत्र जो मोटे तौर पर महाकौशल में नर्मदा के दोनों किनारों पर फैला हुआ है, में व्यंग्य लेखकों की एक पूरी जमात दिखाई देती है और जो सीधे-सीधे व्यंग्य लेखक नहीं हैं, उनकी भी कोई रचना वक्रोक्ति का आश्रय लिए बिना पूरी नहीं होती।
इन कहानियों को पढ़ते हुए दूसरी प्रमुख बात समझ में आती है कि कथाकार मानव मन के अंर्तद्वंद्वों की सूक्ष्म पड़ताल करने में समर्थ है। वह जानता है कि समाज में किस तबके का व्यक्ति, किस परिस्थिति में, किस तरह का व्यवहार करेगा। मैं इसे परिहार जी की लेखनी की खूबी कहूंगा कि वे कहानी कहते-कहते बहुत सामान्य से लगने वाले प्रसंगों के माध्यम से चरित्र चित्रण कर देते हैं। अपनी तरफ से कोई टिप्पणी नहीं करते। मनुष्य मन के अनेकानेक भाव- मैत्री, स्वार्थ, परमार्थ, उदारता, कृपणता, परनिंदा, पड़ोसी धर्म, पारिवारिक संबंध, अहंकार, इत्यादि अंत आते-आते कुछ यूं व्यक्त होते हैं कि पाठक चमत्कृत हुए बिना नहीं रह सकता। मुझे इन कहानियों को पढ़ते हुए कई जगह ओ हेनरी और जैफरी आर्चर जैसे प्रसिद्ध कथाकारों की लेखक शैली का सहज स्मरण हो आया।
लेखक ने विभिन्न सामाजिक स्तरों और जीवन स्थितियों से विषय उठाए हैं। इनमें कहीं व्यंग्य का भाव है, तो कहीं कोई कहानी पाठक को गहरे विषाद से भर सकती है। इनमें निम्न मध्य वर्ग को लेकर कुछ कहानियां हैं जहां अंत में एक असहायता का बोध घेर लेता है; तो कहीं उस स्वार्थ बुद्धि के दर्शन होते हैं जिस पर मन में आक्रोश उमड़ता है। एक कहानी है जिसमें पड़ोसियों के बीच आत्मीय संबंध हैं, लेकिन अपनी-अपनी सीमाएं हैं जिनके कारण चाहकर भी एक पड़ोसी परिवार दूसरे की मदद करने से बच निकलता है। एक कहानी में मध्यवर्गीय पिता बेटे की फरमाइश के आगे लाचार है। इकलौते बेटे की इच्छा को पूरा करना ही पड़ेगा। खासकर जब पत्नी भी उसका साथ दे रही हो। फिर भले ही घर का बजट क्यों न गड़बड़ा जाए। एक अन्य कहानी में एक व्यक्ति इसलिए परेशान है कि हाल-हाल में रिटायर हुआ मित्र कहीं रुपए पैसे की मांग न कर बैठे। लेकिन वह तो सिर्फ समय बिताने के लिए मिलना चाहता था। जब यह भेद खुलता है तो पहला मित्र तनावमुक्त हो जाता है।
''भुक्खड़’’ और ''पिकनिक’’ ये दो ऐसी कहानियां हैं जहां मध्य वर्ग की अपने से निचले तबके के प्रति सहज हिकारत की भावना है, लेकिन कहानी के अंत पर पहुंचने तक वह आत्मग्लानि में बदल जाती है। एक अन्य कथा में घर की कामकाजी लड़की की सुरक्षा को लेकर चिंता है, लेकिन उसका कोई उपाय न खोज पाने की द्विविधा भी है। लड़की की कमाई की भी आवश्यकता है। ऐसे में जब वह कहती है कि आप चिंता मत कीजिए मैं स्वयं संभाल लूंगी, तो पिता के मन से एक भारी बोझ उठ जाता है। ''एक खुशगवार शाम’’ कहानी में एक ऐसे दोस्त का चरित्र चित्रण है जिसे दोस्तों की सोहबत में खाने-पीने के अलावा और कोई काम नहीं रहता। वह समझने के लिए तैयार नहीं है कि जिस दोस्त के घर आया है उसकी पत्नी बीमार है और उसे तीमारदारी की आवश्यकता है। जब दोस्त साथ देने के लिए तैयार नहीं होता तो उल्टे उसी पर इल्जाम लगाकर बाहर चला आता है कि बीवी की खिदमत में लगे रहो। तुम खुदगर्ज हो। कहने की आवश्यकता नहीं कि यहां खुदगर्ज कौन है।
कांटा जो कि संग्रह की शीर्षक कथा है तथा कुछ अन्य कहानियों में कथित बुद्धिजीवियों की खूब खबर ली गई है। इन कहानियों की शैली व्यंग्यात्मक है। कांटा में जबलपुर से कुछ लेखक एक कार्यक्रम के लिए दूसरे शहर जाते हैं। एक उभरता हुआ लेखक भक्तिभाव से उनके साथ जुड़ गया है। वह वरिष्ठ लेखकों की सेवा-खातिरी में पूरे समय लगा रहता है, लेकिन ये लेखक हैं कि उस युवक को कांटा समझते हैं। उन्हें मन मारकर नवोदित लेखक के सामने सज्जनता का लबादा ओढऩा पड़ता है जबकि उनके मन में इच्छा है कि किसी तरह यह टले तो वे खुलकर आपस में बातें कर सकें। ये पंक्तियां दृष्टव्य हैं-
आते समय उसके सारे सेवा-भाव के बावजूद उसकी उपस्थिति से हमें निरंतर असुविधा हुई थी। वजह यह थी कि हम सहज होना और खुलना चाहते थे, जो हम उसकी उपस्थिति में नहीं कर पा रहे थे। साहित्यकारों का सबसे प्रिय रस निंदारस होता है। कार्यक्रम में जो दिग्गज आ रहे थे उनमें से कुछ के घटियापन का विस्तार से चर्चा करके हम सुखी और श्रेष्ठ अनुभव करना चाहते थे, लेकिन उस लड़के की उपस्थिति के कारण हम इस सुख से वंचित हो रहे थे। प्रवीण जी साहित्य से आगे बढ़कर साहित्यकारों के निजी जीवन की कुछ अत्यंत अंतरंग बातों का जख़ीरा बहुत जतन से अपने पास रखते थे। वे भी इस यात्रा का लाभ उठाकर हमें कुछ दुर्लभ ज्ञान देकर सुखी होने के लिए कसमसा रहे थे, लेकिन यह लड़का उनके लिए भी कांटा बना हुआ था। हारकर हम सब भद्र ही बने रहे और रात को उसी लादी गई पवित्रता को लिए हुए अपनी-अपनी बर्थ पर सो गए।
इसका दूसरा पहलू हिसाब-किताब कहानी में देखने मिलता है। जहां एक वरिष्ठ प्रोफेसर के साथ उनकी अनिच्छा के बावजूद एक अध्यापक उनकी सेवा करने का ढोंग करता है। इस कहानी का अंत कुछ इस तरह होता है-
उधर से डॉक्टर पाठक का जवाब आया, ''डॉक्टर प्रकाश को पता चल गया है कि आप रिटायर हो गए हैं, इसीलिए अब आपके प्रति उनका प्रेम खत्म हो गया है। अब वे दूसरे पहुंच वाले लोगों की खोज-खबर में लगे रहते हैं, जिनका सत्कार किया जा सके। आप उनके काम के आदमी नहीं रहे, इसलिए आपको पत्र लिखकर वे पैसे बरबाद नहीं करेंगे।‘’
इसी तरह की एक और कहानी ''यवनिका पतन’’ है। कुल मिलाकर कुंदन सिंह परिहार आश्वस्त करते हैं कि कथा लेखन के पारंपरिक सांचे के भीतर भी बिना बड़बोलेपन, बिना विद्वता प्रदर्शन, सहज सरल भाषा में वर्तमान याने इक्कीसवीं सदी के जीवन व्यापार की कहानियां आज भी लिखी जा सकती हैं।
अक्षर पर्व अगस्त 2018 अंक की प्रस्तावना
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