Sunday, 29 November 2020

कविता: युद्ध करता है अनथक मेहनत

 


देखो, सचमुच कितना

भव्य है युद्ध!

कितना तत्पर और

कितना कुशल!

अलस्सुबह वह

साइरनों को जगाता है और

एंबुलेंस भेज देता है

दूर-दराज़ तक,

हवा में उछाल देता है

शवोंं को और

घायलों के लिए

बिछा देता है स्ट्रेचर.


वह माताओं की आँखों से

बुलाता है बरसात को,

और धरती में गहरे तक धँस जाता है

कितना कुछ तितर-बितर कर,


उधर खंडहरों में,

कुछ एकदम मुर्दा और चमकदार

कुछ मुरझाए हुए लेकिन

अब भी धड़कते हुए

वह बच्चों के मष्तिष्क में

उपजाता है हज़ारों सवाल,

और आकाश में

राकेट व मिसाइलों की आतिशबाजी कर

देवताओं का दिल बहलाता है,


खेतों में वह बोता है

लैंडमाइन और फिर उनसे

लेता है जख़्मों व नासूरों की फसल,

बह परिवारों को बेघर-विस्थापित

हो जाने के लिए करता है तैयार,

पंडों-पुरोहितों के साथ होता है खड़ा

जब वे  शैतान पर लानत

फेंक रहे होते हों

(बेचारा शैतान,उसे हर घड़ी देनी होती है

अग्नि परीक्षा)


युद्ध काम करता है निरन्तर

क्या दिन और क्या रात,

वह तानाशाहों को

लंबे भाषण देने के लिए

प्रेरित करता है,

सेनापतियों को देता है मैडल

और कवियों को विषय,

वह कृत्रिम अंग बनाने के कारखानों को

करता है कितनी मदद,

मक्खियों तथा कीड़ों के लिए

जुटाता है भोजन,

इतिहास की पुस्तकों में

जोड़ता है पन्ने व अध्याय,

मरने और मारने वालों के बीच

दिखाता है बराबरी,


प्रेमियों को सिखाता है पत्र लिखना

व जवाँ औरतों को इंतज़ार,

अखबारों को भर देता है

लेखों व फोटो से,

अनाथों के लिए बनाता है नए घर,


कफन बनाने वालों की कर देता है चाँदी

कब्र खोदने वालों को देता है शाबासी,

और नेता के चेहरे पर

चिपकाता है मुस्कान,


युद्ध अनथक मेहनत करता है बेजोड़,

फिर भी क्या बात है कि

कोई उसकी तारीफ में

एक शब्द भी नहीं कहता।


ईराकी कविता- दुन्या मिखाइल


(Dunya Mikhail)

 

अंग्रेज़ी से रूपांतर-ललित 

जुलाई 2009

Wednesday, 25 November 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 25

 धर्मवीर भारती का लोकप्रिय उपन्यास 'गुनाहों का देवता' निम्नलिखित वाक्य के साथ प्रारंभ होता है- 'अगर पुराने जमाने की नगरदेवता की और ग्रामदेवता की कल्पनाएं  आज भी मान्य होतीं तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगरदेवता जरूर कोई रोमेंटिक कलाकार है।' मैं उनकी ही तर्ज पर सोचता हूं  कि अगर भूतबंगले की मान्यता आज भी कायम है तो कहना होगा कि रायपुर कलेक्टर बंगले में अवश्य कोई भविष्य देवता निवास करता है। इसका पहला प्रमाण कम से कम सौ साल पुराना है। सी डी देशमुख नए-नए आईसीएस की प्रथम पदस्थापना 1910-20 के बीच कभी रायपुर में हुई थी। वे कलेक्टर नहीं, लेकिन ईएसी यानी डिप्टी कलेक्टर थे। जिलाधीश बंगले पर वे जाते ही होंगे। भविष्य देवता ने उनके बिना जाने उन पर कृपा की। वे आगे चलकर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पहले भारतीय गवर्नर बने। फिर राजनीति में आकर नेहरू सरकार में वित्तमंत्री रहे। प्रसंगवश, उन्होंने रायपुर में रहते हुए यूनियन क्लब की स्थापना की थी, क्योंकि छत्तीसगढ़ क्लब में सिर्फ गोरे साहब जा सकते थे। दिल्ली में उन्होंने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की स्थापना कर एक विश्वस्तरीय बौद्धिक केंद्र बनाया।

उनके बाद किसी समय आर के पाटिल रायपुर के जिलाधीश बनकर आए। महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने आईसीएस के रुतबेदार ओहदे से इस्तीफा दे दिया व स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। सी पी एंड बरार के मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल ने स्वतंत्र देश में अपने मंत्रिमंडल में खादीधारी पाटिलजी को शामिल किया। रायपुर के स्वाधीनता सेनानी कन्हैयालाल बाजारी 'नेताजी' के प्रयत्नों से स्टेशन चौक पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मूर्ति स्थापित हुई तो पाटिलजी के करकमलों से उसका लोकार्पण हुआ। उनके पश्चात 1959-60 में सुशील चंद्र वर्मा जिलाधीश बनकर उसी बंगले में रहने आए। उन्होंने अनेक कल्याणकारी कामों के साथ गुढ़ियारी मोहल्ले में एक कुआं खुदवाया, जिसकी चर्चा कुछ साल पहले तक होती थी। आगे चलकर वे प्रदेश के मुख्य सचिव बने और अवकाशप्राप्ति के उपरांत राजनीति में आ गए। अत्यंत साफ सुथरी छवि के धनी वर्माजी ने लोकसभा में  तीन या चार बार भाजपा की ओर से भोपाल का प्रतिनिधित्व किया। भविष्य देवता के अदृश्य वास वाले इसी बंगले में पहले अजीत जोगी और उनके तुरंत बाद नजीब जंग का आशियाना बना। जोगी को छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिला तथा जंग दिल्ली के उपराज्यपाल नियुक्त किए गए। इस तरह इस बंगले के इतिहास में प्रशासन से शासन में जाने के कम से कम पांच उदाहरण हमारे सामने हैं।

अजीत जोगी जिलाधीश का पद सम्हालने रायपुर आए, उसके कुछ माह पहले वे एक अन्य घटना के चलते रायपुर में चर्चित हो गए थे। रायपुर की एक फुटबॉल टीम किसी टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए वर्ष 1978 में शहडोल गई। वहां किसी कारण से रायपुर के खिलाड़ियों का मेजबान टीम के खिलाड़ियों के साथ झगड़ा हो गया। मारपीट की नौबत आ गई। रायपुर के कुछ खिलाड़ी घायल हो गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। उस समय शहडोल ज़िले के युवा कलेक्टर ने अस्पताल पहुंच कर उन नौजवानों की मिजाजपुर्सी की तथा स्वस्थ होने के बाद उन्हें रायपुर भेजने का प्रबंध किया। यह किस्सा एक रोज मेरे मित्र व लोकप्रिय अस्थिरोग विशेषज्ञ डॉ शंकर दुबे ने सुनाया। उस युवा कलेक्टर का नाम अजीत जोगी था। यह रोचक संयोग था कि कुछ माह बाद उन्हीं जोगी का तबादला रायपुर हुआ। वैसे रायपुर उनके लिए नई जगह नहीं थी। 1967 में वे शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय में व्याख्याता के रूप में कुछ समय तक सेवाएं दे चुके थे। फिर वे 1969 में आईपीएस और उसके एक साल बाद आईएएस के लिए चुन लिए गए। वे जब सन् 2000 में तीसरी बार लौटे तो मुख्यमंत्री के लिए कोई और आलीशान भवन चुनने के बजाय उन्होंने उस सौ साल से अधिक पुराने कलेक्टर बंगले में ही रहना पसंद किया जहां वे पहले लगभग ढाई साल रह चुके थे। इस बार उन्हें यहां तीन साल का समय मिला। फिर भविष्य देवता एकाएक डॉ. रमनसिंह पर मुस्कुराए और बढ़ाते-बढ़ाते उन्हें पंद्रह साल की लीज़ दे दी। बंगला पुराण यहां समाप्त होता है।

मुझे इस बात का कोई इल्म नहीं है कि जोगीजी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा उस वक्त तक जागृत हुई थी या नहीं, लेकिन उनकी कार्यप्रणाली तथा सोच के दो स्पष्ट उदाहरण मेरी समझ में आए। एक दिन किसी काम से मैं उनके निवास पर मिलने गया तो सुबह नौ बजे के आसपास ही एक बड़ा हुजूम अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए वहां मौजूद था और वे शांतिपूर्वक बल्कि प्रसन्नचित्त होकर जनता से मिल रहे थे। 1980 में एक शाम वे मेरे आमंत्रण पर रोटरी क्लब ऑफ रायपुर मिडटाउन में व्याख्यान देने आए। विषय मेरा ही सुझाया था- कलेक्टर ऑर द किंगपिन। इस पर लगभग एक घंटे उन्होंने बात की। उनकी साफ राय थी कि जनतांत्रिक राजनीति में तीन पदों का ही महत्व है- पी एम, सी एम और डी एम अर्थात प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट यानी जिलाधीश। क्या यह उनकी इसी सोच का कमाल था कि वे रायपुर से इंदौर गए तो वहां जिलाधीश के पद पर ही पांच साल गुजार दिए? वे सचिव अथवा संभागायुक्त पद के पात्र हो चुके थे, लेकिन पदोन्नति नहीं ली और 1986 की मई में एकाएक कांग्रेस से राज्यसभा के उम्मीदवार घोषित कर दिए गए। चर्चा चली कि उनके नामांकन के पीछे अर्जुनसिंह का हाथ है, किंतु उस समय मध्यप्रदेश में मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री थे। तो क्या उनकी इस मामले में नहीं चली? वैसे कांग्रेस में तार्किक आधार पर टिकटों या पदों का वितरण कम ही होता है, या कम से कम राजनीतिक प्रेक्षकों को ऐसा ही लगता है। इसलिए इस बारे में सिर खपाने का कोई लाभ नहीं है।

अजीत जोगी के रायपुर जिलाधीश रहते हुए हमारे उनसे उस सीमा तक ही सौजन्यपूर्ण संबंध थे, जितने कि किसी अखबार के प्रशासनिक अधिकारियों के साथ होना चाहिए। इंदौर चले जाने के बाद मेरा उनके साथ कोई खास संपर्क भी नहीं रहा। मेरे एक इंदौर प्रवास पर अवश्य उन्होंने मुझे अपने आवास पर भोजन हेतु आमंत्रित किया था जो शायद ऐसा पहला अवसर था। इसलिए मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि भोपाल में नामांकन दाखिल करने के बाद उसी दिन वे बाबूजी से मिलने के लिए गए कि उनके आशीर्वाद से ही टिकट मिला और आकांक्षा प्रकट की कि इस नई भूमिका में आशीर्वाद मिलते रहेगा। ऐसा नहीं कि यह भावना उन्होंने निजी भेंट में व्यक्त की, बल्कि आगे भी कई बार सार्वजनिक तौर पर दोहराई। मैं इस बारे में अनुमान लगाने की कोशिश करता हूं तो पहली बात समझ आती है कि छत्तीसगढ़ में ही अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने के इरादे से उन्होंने उस अखबार से समर्थन सुनिश्चित करना चाहा होगा जिसकी विश्वसनीयता असंदिग्ध व पहुंच छत्तीसगढ़ के हर कोने में थी!राज्यसभा में पहुंचना तो अंतत: उनके राजनीतिक सफर का पहला कदम था। उनकी महत्वाकांक्षा निश्चय ही यथासमय मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की रही होगी। अपने मनोभाव को जोगीजी ने कभी छिपाया नहीं, अपितु जब-तब उसका सार्वजनिक प्रदर्शन करने में भी संकोच नहीं किया। (तब पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्मित होने की दूर दूर तक कोई स्थिति नहीं थी)। दूसरी बात, वे शायद मन ही मन इस बारे में भी आशंकित थे कि मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा के परिवार द्वारा संचालित अखबार का उनके प्रति मैत्रीपूर्ण रवैया नहीं होगा! उनकी आशंका गलत नहीं थी। उक्त समाचारपत्र में उनके विरुद्ध छपी खबरों का बाज वक्त उन्होंने खिन्न मन से मुझसे उल्लेख भी किया।

मेरे अपने लिए इस संस्मरण का एक रोचक तथ्य यह है कि जिस दिन उनकी उम्मीदवारी घोषित हुई, हम कुछ मित्र इनरव्हील डिस्ट्रिक्ट- 326 की सालाना डिस्ट्रिक्ट असेंबली में शामिल होने सपरिवार सिवनी आए हुए थे। इस मंडली में रायपुर विधायक स्वरूपचंद जैन भी थे। उन्हें याद था कि राज्यसभा उम्मीदवारों की घोषणा उसी दिन होना है। स्वाभाविक उत्सुकतावश स्वरूपजी ने भोपाल किसी परिचित को फोन लगाया तो यह सूचना मिली। हम सबको ही इस खबर पर अचरज हुआ। बहरहाल, वे बाबूजी का आशीर्वाद लेने गए थे, यह जानकारी मुझे दो दिन बाद मिली, जब मैं सिवनी का कार्यक्रम संपन्न होने के पश्चात जबलपुर पहुंचा। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 26 नवंबर 2020 को प्रकाशित


डॉ परिवेश मिश्र से निम्नलिखित पूरक जानकारी प्राप्त हुई है।

इस बंगले का आशीर्वाद पाये कम से कम दो और कलेक्टरों का उल्लेख जोड़ा जा सकता है। 

1. वाय.एन. (यशवंत नारायण) सुखठणकर 1929-30 में कलेक्टर थे। वे 1921 में ICS में चयनित हुए थे। यह वही बैच था जिसमें सुभाष चन्द्र बोस भी चुने गये थे (उन्होंने हालांकि नौकरी जाॅईन करने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था।) आज़ाद भारत में कैबिनेट सेक्रेटरी के पद से रिटायर होने के बाद उड़ीसा के राज्यपाल बने थे। दूसरी पंचवर्षीय योजना बनाने में उनकी भूमिका प्रमुख मानी जाती है। 

2. इसी काल में कुछ आगे-पीछे, सी.एम. (चन्दूलाल माधवलाल) त्रिवेदी भी कलेक्टर रहे। वे सी.पी. एंड बरार के मुख्य सचिव भी बने। आज़ादी और विभाजन के बाद जब पूर्वी पंजाब का हिस्सा भारत को मिला तो इन्हें वहां पहला राज्यपाल बना कर भेजा गया। शिमला में काम काज शुरू हुआ। न घरों के लिये स्थान था न कार्यालयों के लिये। (पंजाब, हिमाचल और हरियाणा के इलाके बाद में विभाजित हुए।) बाद में वे आंध्र प्रदेश के पहले राज्यपाल, योजना आयोग के डिप्टी चेयरमैन आदि भी बनाये गये। 

Tuesday, 24 November 2020

कविता: मांगपत्र

 


हुज़ूर ! 

क्या मुझे इजाज़त है

कि मैं अपने दिल की खिड़कियाँ

रौशनी के कोमल स्पर्श के लिए खोल सकूँ?

और फिर, दूर से ही सही,

जीवन की खूबसूरत नेमतों को निहार सकूँ?


हुज़ूर!

तीन सौै पैंसठ दिन में

सिर्फ एक दिन के लिए,

क्या मैं

आपकी हर वक्त की

यह करो और यह न करो

से मुक्त हो,

अपने आपको पा सकती हूूँ 

अपने औरत होने को?


हुज़ूर !क्या मुझे इजाज़त है

कि मैं हरी घास पर  लेटने की

अपनी आज़ादी हासिल कर सकूँ,

और प्रतीक्षा करती धरती को

अपनी देह और आत्मा की

गरमाहट से सहला सकूँ

सूरज की किरणों से कुछ ज्यादा

मुरव्वत के साथ,

या फिर सुदूर मैदानों में

किसी अकेले पेड़ की डाल पर बैठ

पक्षियों के सुर में सुर मिलाकर गा सकूँ,

या नदियों से एकाकार हो

तैर लूँ उल्लास में भीगी मछलियों के साथ,

और बारिश के साथ अपनी

कानाफूसियाँ याद करते हुए

समर्पित कर दूँ खुद को

अपनी जन्म-जन्मांतर से प्रतीक्षित 

स्वतंत्रता के सामने?


हुज़ूर!

क्या मुझे इजाज़त है

भले ही एक क्षण के लिए, कि

आपकी बनाई चौहद्दी के भीतर

रहते हुए मैं राहत पा सकूँ

बात करो, रुक जाओ, ऐसा नहीं,

और कभी नहीं के आदेशों के दर्द से ?


आला हुज़ूर !

अगर आपकी कृपा हो जाए तो

क्या मैं प्रेम का स्वप्न देख लूँ?

बगावत की पुरानी कविताओं की तड़प,

और एक गहरे चुंबन की उत्तेजना तथा

आज़ादी की खिलती चमक के बीच

घरेलू कामकाज की थकावट

जो औरतजात पर ही थोपी जाती है,

अपने आपको कहीं दूर ले जाऊँ?


हुज़ूर!

क्या मुझे इजाज़त है कि

चंद लम्हों के लिए मैं

सुई और धागे से,

कपड़ों और इस्तरी से

चूल्हे और चौके से

छूट्टी पा लूं,

और प्यार के अनंत आकाश तले

अपने होने को विलीन कर दूँ

भावना और बुद्धि के उन प्यार क्षणों में

जिनकी इजाज़त आपकी संहिता ने मुझे कभी नहीं दी?


हुज़ूर!

हुज़ूर!

क्या मुझे इजाज़त है कि

किसी दिन मैं पड़ौसी से

दुआ-सलाम कर सकूँ

या फिर अपने दबे हुए आँसुओं की लड़ी से

किसी मुसाफिर के लिए

बुन सकूँ एक मफलर?

और क्या मुझे इजाज़त है कि

बिना किसी परमिट के

गुलाबों की वेदी पर चढ़

बसंत के खुशनुमा बागों में भटक सकूँ?


हुज़ूर!

अगर आपकी कृपा हो जाए तो

क्या मैं थोड़ी सी खिल्ली उड़ा लूँ?

हाँ, मेरे आका, हँस लूँ, खिल्ली उड़ते हुए,

और तुम्हारे मुँह पर कह सकूँ

कि तुम्हारी लगाई पाबंदियाँ शर्मनाक हैं

और जिसे तुम न्याय और उचित कहते हो

दरअसल, वह बेहद घटिया शै है।


मूल फारसी व अंग्रेज़ी अनुवाद-

फरीदा हसनज़ाद मुस्तफावी

(Farideh Hassanzade Mostafavi)


अंग्रेजी से रुपांतर: ललित सुरजन

Saturday, 21 November 2020

कविता: लखनऊ के पास सुबह-सुबह

 


अभी-अभी

सरसों के खेत से

डुबकी लगाकर निकला है

आम का एक बिरवा,


अभी-अभी

सरसों के फूलों पर

ओस छिड़क कर गई है

डूबती हुई रात,


अभी-अभी

छोटे भाई के साथ

शरारत करती चुप हुई है

एक नन्हीं बिटिया,


अभी-अभी

बूढ़ी अम्माँ को सहारा दे

बर्थ तक लाई है

एक हँसमुख बहू,


अभी सुबह की धूप में

रेल लाईन के किनारे

उपले थाप रही है

एक कामकाजी औरत,


अभी सुदूर देश में

अपने नवजात शिशु के लिए

किताब लिख रहा है

एक युद्ध संवाददाता,


अभी मोर्चे से लौट रहा है

वीरता का मैडल लेकर

अपने परिवार के पास

एक सकुशल सिपाही,


अभी मैंने

अवध की शाम

नहीं देखी है,

अभी मैं जग रहा हूँ

लखनऊ के पास

अपना पहिला सबेरा, 

और खुद को

तैयार कर रहा हूँ

एक खुशनुमा दिन के लिए।

06.02.1999


·

Wednesday, 18 November 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 24



 नए मध्यप्रदेश राज्य का गठन 1 नवम्बर 1956 को हुआ था। तब से लेकर 1985 के दरम्यान सिर्फ डॉ. कैलाशनाथ काटजू ऐसे मुख्यमंत्री रहे जिन्हें पांच साल का एक कार्यकाल पूरा करने का मौका मिला। वे 1962 में विधानसभा चुनाव हार गए। इस हिसाब से अर्जुनसिंह ने रिकॉर्ड बनाया। वे 1985 में लगातार दुबारा मुख्यमंत्री बने, यद्यपि कुछ दिन पश्चात ही उन्हें पंजाब भेज दिया गया। लगातार दस साल मुख्यमंत्री बने रहने का नया रिकॉर्ड दिग्विजय सिंह के नाम है। 1993-98 के मध्य एक पारी पूरी करने के बाद वे 1998 में दुबारा जीतकर आए तथा 2003 तक इस पद पर बने रहे। इस अभूतपूर्व सफलता के पीछे दो-तीन कारण समझ आते हैं। दिग्विजय जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तब उनकी आयु मात्र छियालीस वर्ष थी। याने पिछले मुख्यमंत्रियों के मुकाबले तरुणाई उनकी मददगार हुई। वैसे तो श्यामाचरण और दो साल कम चवालीस की ही उम्र में मुख्यमंत्री बन गए थे, लेकिन इंदिरा जी की अवज्ञा करना उन पर भारी पड़ गई थी। दिग्विजय ने ऐसी कोई गलती नहीं की। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में जब जो ताकतवर हुआ, वे निष्ठापूर्वक उसके साथ हो गए। 

शायद दूसरा कारण दिग्विजय सिंह के शासन करने की अनोखी शैली में देखा जा सकता है। एक तो उन्होंने तमाम विभाग अपने सहयोगियों में बांट दिए व खुद के पास एक भी विभाग नहीं रखा। इससे उन्हें जाहिरा तौर पर प्रदेश की जनता से सीधा संवाद करने के लिए, विकास की योजनाएं बनाने के लिए अधिक समय मिलने लगा। यद्यपि अनेक अध्येता इससे सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार अपने पास एक भी विभाग न रखना महज एक दिखावा था। कहने को मंत्री ही विभाग के मालिक थे, लेकिन असली कमान मुख्यमंत्री के विश्वस्त विभागीय सचिव के हाथों होती थी जो मुख्यमंत्री से ग्रीन सिग्नल लेने के बाद ही किसी प्रस्ताव को मंजूर होने देते थे। इसी शैली में उन्होंने प्रदेश के हर जिले, संभाग और क्षेत्र से भी अपने आप को मुक्त कर लिया था। मसलन वे घोषित तौर पर कहते थे कि रायपुर में विद्या भैया, दुर्ग में वोराजी, रीवां में श्रीनिवास तिवारी, छिंदवाड़ा में कमलनाथ, इसी तरह अन्यत्र भी जो बड़े नेता कहेंगे वही किया जाएगा। इस कदम से उन्होंने तमाम धुरंधर नेताओं से संभावित विरोध को न सिर्फ जड़ से समाप्त कर दिया, बल्कि उनका सहयोग भी अर्जित कर लिया। यह बात अलग है कि जिलाधीश या संभागायुक्त ने किया वही जो मुख्यमंत्री चाहते थे। रायपुर के बारे में तो मैं कह सकता हूं कि छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की पूर्व संध्या तक वी सी शुक्ल पूरी तरह दिग्विजय सिंह पर निर्भर हो गए थे या कर दिए गए थे।

यह एक अटपटी सच्चाई है कि दिग्विजय सिंह एक ओर जहां नौकरशाहों के सहारे प्रदेश चला रहे थे; वहीं दूसरी तरफ वे संवेदी समाज यानी कि सिविल सोसाइटी के सहयोग से राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी छवि गढ़ने के प्रयास कर रहे थे, जिसमें वे किसी सीमा तक सफल भी हुए। यह मजे की बात है कि इन प्रयासों में नौकरशाही और सिविल सोसाइटी दोनों की समान भागीदारी रही। एकता परिषद के पी वी राजगोपाल जैसे प्रतिष्ठित सिविल सोसाइटी नेता ने दिग्विजय सिंह का खुलकर समर्थन किया। 1998 के विधानसभा चुनावों के समय ऐसे अनेक संगठनों ने कांग्रेस के पक्ष में अपीलें तक जारी कीं। कहते हैं कि पार्टी को इसका लाभ नक्सल प्रभावित बस्तर संभाग में किसी हद तक मिला। और यह तब हुआ जब दिग्विजय सरकार ने सिविल सोसाइटी द्वारा बरसों से चलाए जा रहे ''होशंगाबाद विज्ञान'' जैसे अत्यंत सफल शैक्षणिक प्रयोग को बिना किसी चर्चा या सुनवाई के एकतरफा निर्णय लेते हुए बंद कर दिया था। इसी दौरान मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम ने एक गुपचुप निर्णय लेते हुए दुर्ग जिले के बोरई में औद्योगिक जल आपूर्ति हेतु शिवनाथ नदी का लगभग बाईस किलोमीटर का हिस्सा एक निजी कंपनी को सौंप दिया। संयोगवश नदी जल के इस निजीकरण का रहस्योद्घाटन करने का श्रेय छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद 2001 में देशबन्धु को ही मिला। तब तक इसकी भनक भी किसी को नहीं लगी थी। 

पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने राजनीति को अंतर्विरोधों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की कला निरूपित किया था। दिग्विजय सिंह इसी व्याख्या को आधार बनाकर शासन चला रहे थे। वे एक ओर समाज के वंचित और हाशिए के समुदायों की बेहतरी के लिए महत्वाकांक्षी योजनाएं बना रहे थे, जिसका चरमोत्कर्ष जनवरी 2002 में भोपाल में आयोजित दलित सम्मेलन व उसमें अंगीकृत भोपाल घोषणापत्र में देखने मिलता है; तो दूसरी ओर वे मनुवाद पर आधारित अपनी धार्मिक आस्था का इस तरह खुला प्रदर्शन करते हैं जैसा उनके पहले प्रदेश के किसी बड़े नेता ने नहीं किया। शायद इसे संतुलित करने के उद्देश्य से वे अल्पसंख्यकों की पैरवी में उस हद तक चले जाते हैं जहां बहुसंख्यक समाज के बीच उनकी खलनायक जैसी छवि बनने लगती है, जिसका खामियाजा अंतत: कांग्रेस पार्टी को उठाना पड़ता है।
उन्होंने 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन विधेयक की भावना के अनुरूप प्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था लागू करने में उत्साह दिखाया, लेकिन नौकरशाही ने उसके नियम इस तरह बनाए व बार-बार संशोधित किए जिसमें सत्ता के मौजूदा तंत्र का शिकंजा पूर्ववत कसा रहा और नौबत आई तो दोषारोपण पंचायती राज प्रतिनिधियों पर कर दिया गया। रायपुर के व्याख्यान में इस बारे में सवाल किए जाने पर उन्होंने मजे लेकर उत्तर दिया- भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण ही तो हुआ है, केन्द्रीकरण तो नहीं हुआ न! 

सामान्यत: राजनेताओं की एक बड़ी पूंजी उनकी स्मरण शक्ति होती है। दिग्विजय इस मामले में दूसरों से कई मील आगे दिखते हैं। वे हजारों लोगों को नाम से जानते हैं और कई साल बाद मिलने पर भी उन्हें पहचान लेते हैं। वे अक्सर उन्हें प्रथम नाम से संबोधित करते हैं और युवा कार्यकर्ताओं तथा पत्रकारों आदि से युवकोचित तू-तड़ाक कर उन्हें अपने मोहपाश में बांध लेते हैं। इस लोकप्रियता के बावजूद उनके दस-साला कार्यकाल में पांच-छह बातों के चलते उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ा। एक तो मध्यप्रदेश राज्य विद्युत मंडल अवनति को प्राप्त हुआ। दूसरे, साल के जंगलों में कथित तौर पर  ''साल बोरर'' कीट लग जाने के कारण बड़ी संख्या में कीमती साल वृक्ष काट दिए गए। तीसरे, प्रदेश में एक अत्यंत ताकतवर शराब लॉबी खड़ी हो गई। चौथे, मुलताई गोलीकांड जिसमें बड़ी संख्या में आंदोलनकारी किसान मारे गए और उनके नेता समाजवादी विधायक डॉ सुनीलम को जेल में ठूंस दिया गया। पांचवे, अंबानी घराने से उनकी निकटता की चर्चा होने लगी थी। होशंगाबाद ज़िले में बाबई स्थित विशाल शासकीय कृषि प्रक्षेत्र उसे देना शायद तय भी हो गया था जो रोक दिया गया। छठे, लोकलुभावन राजनीति के चक्कर में उन्होंने सड़क -बिजली-पानी जैसे बुनियादी प्रश्नों की ओर ध्यान देना बंद कर दिया।

दिग्विजय सिंह के शासनकाल की सबसे बड़ी परिघटना छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की है। भारतीय जनता पार्टी के अजेंडे में तीन नए राज्यों की स्थापना का मुद्दा पहले से था। छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस सहित सभी पार्टियां नए राज्य गठन का समर्थन कर रहीं थीं। एकमात्र मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर इसके विरोध में थी। मैं जितना समझ पाया, दिग्विजय सिंह ने मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया। विधानसभा में नए राज्य के लिए प्रस्ताव भी आसानी से पारित हो गया। लेकिन जब राज्य गठन के लिए व्यवहारिक तैयारियां शुरू हुईं तब मुख्यमंत्री का एक नया रुख देखने मिला। परिसंपत्तियों के बंटवारे, अधिकारियों- कर्मचारियों के कैडर आबंटन आदि विषयों पर एक तयशुदा फार्मूले के अंतर्गत काम होना था। उसमें बारंबार बदलाव किए गए। मुख्यमंत्री जिन अधिकारियों से नाराज थे या जो उनकी निगाह में नाकाबिल थे, उन्हें छत्तीसगढ़ भेजने की हर संभव कोशिश की गई और जो चहेते अफसर थे, उन्हें किसी न किसी बहाने भोपाल में रोक लिया गया। परिणामस्वरूप छत्तीसगढ़ आए अफसरों में लंबे समय तक आक्रोश बना रहा। कुछ ने तो अदालत तक की शरण ली। लेकिन इस सब के बीच 31 अक्तूबर 2000 की शाम मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल के निवास ''राधेश्याम भवन'' पर उत्तेजित कांग्रेसजनों के क्रोध का सामना जिस संयम के साथ किया, मुख्यमंत्री होते हुए शारीरिक आक्रमण को भी झेल लिया, और अजीत जोगी को हाईकमान की इच्छानुसार मुख्यमंत्री बनने देने में बाधा उत्पन्न नहीं होने दी, वह उनके राजनीतिक कौशल की सबसे बड़ी परीक्षा थी, जिसमें वे स्वर्ण पदक विजेता सिद्ध हुए। भले ही नए राज्य के इतिहास में यह पूर्व संध्या एक शर्मनाक घटना के रूप में दर्ज की गई हो। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 19 नवंबर 2020 को प्रकाशित

Saturday, 14 November 2020

कविता: बस्तर: सत्य की कथा

 


सुबह पाँच बजे

पूरनमासी के दिन

बहुत से घरों में जब

शुरु हो गई हो तैयारी

सत्यनारायण की कथा की,


बस्तर के विलुप्त वनों में

डूबते चंद्रमा के सामने

अपने सच होने का बयान

देने के लिए खड़े हैं उदास

भूरे, बदरंग, नीलगिरि के वृक्ष,

सब कुछ सच-सच कहने के लिए

बैठी हैं, बरसों से

थकी-प्यासी चट्टानें

नदियों के निर्जल विस्तार में,


इधर पूरब के आकाश में

क्षिप्र उदित हो रहा है

मई का सूरज,

उधर डूब रहा है

उमस भरी रात का सभापति

चौदहवीं का चंद्रमा

भूरा, बदरंग, निस्तेज

उदास और कुम्हलाया हुआ,


नदी, पहाड़, पेड़ और चाँद

नहीं हैं जिनके

सच का सरोकार

सरपट दौड़ रहे हैं

उदीयमान सूरज के साथ।


21.05.2000

Wednesday, 11 November 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 23

 "सो यू वांट स्पेशल ट्रीटमेंट फार देशबन्धु "

"यस, आई डू एंड व्हाई शुड नॉट आई"

मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कुछ तल्ख स्वर में अंग्रेजी में सवाल किया और मैंने अंग्रेजी में ही उन्हें उत्तर दिया। इसके बाद की चर्चा हिंदी में हुई। मैंने कुछ दिन पूर्व उन्हें एक ज्ञापन भेजा था और मिलने जाते समय उसकी प्रति साथ लेते गया था। उसे पढ़कर ही उन्होंने उपरोक्त सवाल किया था। यह किस्सा बहुत संभव 1997 का है। मैंने उन्हें याद दिलाया कि 1992 में उन्होंने जब सांप्रदायिकता के खिलाफ लेख लिखे थे तो इच्छा व्यक्त की थी कि देशबन्धु में ही उनका प्रकाशन हो। मध्यप्रदेश में तब सुंदरलाल पटवा के नेतृत्व में भाजपा की सत्ता थी। ऐसे समय उन लेखों को प्रकाशित करने का मतलब सरकार की नाराजगी मोल लेना था, जिसका प्रतिकूल असर सरकारी विज्ञापनों की कटौती में होना ही था। मेरा सीधा तर्क था कि आपके साथ खड़े रहने से जब हमने नुकसान झेला है तो आज आपके सत्ता में रहते हुए हमें विशेष लाभ भले न मिले, कम से कम अन्याय तो नहीं होना चाहिए। मैंने उनके सामने पिछले एक साल का तुलनात्मक चार्ट रखा कि एक ओर देशबन्धु को वंचित कर दूसरी ओर कैसे भाजपा का साथ देने वाले पत्रों व एक नए अखबार को कितने अधिक विज्ञापन दिए जा रहे हैं। दिग्विजय ने मेरी बात सुन ली। जनसंपर्क सचिव को कहा कि मामला देख लें। बात वहीं खत्म हो गई। अभी इतनी गनीमत थी कि मुख्यमंत्री से मुलाकात का समय मिल गया था।

सन् 1997 के ही जुलाई-अगस्त में दिग्विजय सिंह का एक दिन अचानक फोन आया। वार्तालाप कुछ इस तरह हुआ- 

'ललितजी, सितंबर में पचमढ़ी में कांग्रेस का चिंतन शिविर हो रहा है।'

'जी हां, खबर तो मिली है।'

'इसमें आपका सहयोग चाहिए।'

'जी, बताइए, क्या करना है?'

'बड़ा आयोजन है। आपसे चाहते हैं कि एक लंच या डिनर आपकी तरफ से हो जाए।'

'दिग्विजयजी, यह तो आप उल्टी गंगा बहा रहे हैं। प्रेस वाले क्यों राजनीतिक दल के कार्यक्रम में लंच-डिनर देंगे!'

'लेकिन नवभारत, भास्कर, नई दुनिया तो दे रहे हैं।'

'वे दे रहे होंगे। उनको पद्मश्री चाहिए। राज्यसभा में जाना होगा। और भी कोई काम होगा। मुझे यह सब नहीं चाहिए। सो मुझसे तो यह नहीं होगा।'

इस वार्तालाप के संदर्भ में यह लिखना अनुचित नहीं होगा कि कालांतर में लंच-डिनर के मेजबान अखबारों में से एक के संचालक कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य बने, एक को पद्मश्री से नवाजा गया और दो- तीन अखबारों में मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम ने करोड़ों की राशि फिक्सड डिपॉज़िट के रूप में जमा की। वह राशि नियत समय पर वापस नहीं मिली तो बखेड़ा उठ खड़ा हुआ। इनमें दो अखबार ऐसे भी थे, जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भोपाल में हुए दंगों में सांप्रदायिक ताकतों का साथ दिया था और जिसकी खुली आलोचना अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मुखपत्र 'कांग्रेस संदेश' में हो चुकी थी। 

इन प्रसंगों में मेरा जो रुख था, वह किसी हद तक धृष्टतापूर्ण था। अगर मुख्यमंत्री मेरे कहे का बुरा मानते तो वह स्वाभाविक होता, लेकिन दिग्विजय सिंह ने कम से कम जाहिरा तौर पर ऐसा नहीं किया। हमारे बीच संवाद पूर्ववत कायम रहा तथा मेरे आमंत्रण पर उन्होंने दो-तीन बार रायपुर में विभिन्न कार्यक्रमों में शिरकत भी की। देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष के प्रेस काम्प्लेक्स में प्रस्तावित सांस्कृतिक भवन का भूमिपूजन उनके ही हाथों संपन्न हुआ। चौबे कालोनी स्थित शासकीय विद्यालय का नामकरण मायाराम सुरजन शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय करने की घोषणा भी उन्होंने स्कूल परिसर में आयोजित कार्यक्रम में की। बाबूजी की स्मृति में आयोजित व्याख्यान माला में भी वे आए। इनमें से ही किसी एक अवसर पर उन्होंने स्वयं मेरे निवास पर रात्रिभोज हेतु आने का मंतव्य प्रगट किया और हमने आनन-फानन में जो व्यवस्था हो सकती थी वह की। एक अनायास उत्पन्न कानूनी अड़चन को दूर करने मैंने सहायता मांगी तो उन्होंने अपने कार्यालय में कुछ वरिष्ठ मंत्रियों व अधिकारियों की बैठक बुला ली। 

एक ओर ये सारे उदाहरण थे तो दूसरी ओर यह सच्चाई भी थी कि देशबन्धु को सरकारी विज्ञापन देने में वही पुराना रवैया चलता रहा। हमारा कोई दूसरा व्यापार तो था नहीं, जिससे रकम निकाल कर यहां के घाटे की भरपाई कर लेते। धीरे-धीरे कर हमारी वित्तीय स्थिति डांवाडोल होती गई। इस परिस्थिति में देशबन्धु का सतना संस्करण बंद करने का निर्णय हमें लेना पड़ा। मध्यप्रदेश वित्त निगम के ऋण की किश्तें समय पर पटा नहीं पाने के कारण एक दिन भोपाल दफ्तर पर वित्त निगम ने अपना ताला लगा दिया। किसी तरह मामला सुलझा तो भी एक दिन यह नौबत आ गई कि मैंने खुद होकर भोपाल संस्करण स्थगित करने का फैसला ले लिया। एक बार 1979 में जनसंघ (जनता पार्टी) के राज में भोपाल का अखबार बंद करना पड़ा था तो इस बार कांग्रेस के राज में वैसी ही स्थिति फिर बन गई। उधर जिस कानूनी अड़चन में हमें फंसा दिया गया था, उससे उबरने में अपार मानसिक यातना व भागदौड़ से गुजरना पड़ा। जो आर्थिक आपदा आई, उसके चलते अखबार की प्रगति की कौन कहे, बल्कि हम शायद बीस साल पीछे चले गए। ऐसी विषम परिस्थिति बनने के लिए संस्थान का मुखिया होने के नाते मैं खुद को ही दोषी मानता हूं। 

दरअसल, मैं रायपुर में बैठकर कामकाज सम्हालता था। भोपाल जाना कम ही होता था। राजधानी का कारोबार कैसे चलता है, मैं उससे लगभग अनभिज्ञ था।  देशबन्धु की कार्यप्रणाली भी संभवत: जरूरत से ज्यादा जनतांत्रिक थी। मैं पत्रकारिता की समयसिद्ध परंपरा के अनुरूप मान रहा था कि प्रधान संपादक को मुख्यमंत्री आदि से विशेष अवसरों पर ही मिलना चाहिए। मैंने हमेशा खुले मन से अपने सहयोगियों को प्रोत्साहित किया व उन्हें अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के अवसर दिए। यह भी किसी कदर मेरी नासमझी थी जिसका खामियाजा अखबार को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से भुगतना पड़ा। इसी सिलसिले में एक संंक्षिप्त प्रसंग अनायास स्मरण हो आता है। एक नवोदित राजनेता से, जिनके साथ अच्छे संबंध थे, लंबे समय बाद मुलाकात हुई। मैंने सहज भाव से पूूूछा- बहुत दिनों बाद मिल रहे हो। उनका उत्तर था- आपके संवाददाता (नाम लेकर) से तो मिल लेते हैं। अब आपसे भी मिलना पड़ेगा क्या? इस उत्तर का मर्म आप समझ गए हों तो अच्छा है। न समझे हों तो भी अच्छा है।

दोहराना उचित होगा कि देशबन्धु अपने स्थापना काल से ही  प्रगतिशील, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष नीति का पैरोकार रहा है। सामान्य बोलचाल में हमें कांग्रेस समर्थक मान लिया जाता है। इसके बावजूद वर्ष 1998 में विधानसभा चुनाव के समय जब देशबन्धु को मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के विज्ञापन नहीं मिले तो आश्चर्य हुआ। ऐसा पहली बार हुआ। एक-दो दिन की प्रतीक्षा के बाद मैंने दिग्विजय को फोन किया। उन्होंने विज्ञापन छापने के लिए मौखिक अनुमति दे दी, लेकिन कांग्रेस कमेटी से औपचारिक आदेश अंत तक नहीं आया। फिर विज्ञापन बिल का भुगतान कब, कैसे हुआ  वह अलग कहानी है।बहरहाल, मैं आज तक यह समझने का प्रयास कर रहा हूं कि ऐसा क्यों कर हुआ। मेरा अनुमान है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने लिए राष्ट्रीय मंच पर बड़ी भूमिका निभाने का रास्ता बना रहे थे, जिसमें देशबन्धु जैसे पूंजीविरत, लॉबिंग करने में असमर्थ, मूलत: प्रादेशिक समाचार पत्र की कोई उपयोगिता नहीं थी। उन्हें शायद अर्जुनसिंह के साथ हमारे संबंधों को लेकर भी संशय था, क्योंकि उस समय मध्यप्रदेश से वे ही एक बड़े नेता थे जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर उपस्थिति उनकी महत्वाकांक्षा में बाधा बन सकती थी। दूसरी तरह से कहना हो तो यही कहूंगा कि व्यक्ति केंद्रित राजनीति के नए युग में परंपरा, संबंध, सिद्धांतों की बात करना बेमानी था। यही आज का भी सत्य है। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 12 नवंबर 2020 को प्रकाशित

Saturday, 7 November 2020

कविता: अमेरिका को फिर अमेरिका बनने दो

 

- लैंगस्टन ह्यूज़

(1902-1967)

विख्यात अफ्रीकी-अमेरिकी कवि


अमेरिका को फिर अमेरिका बनने दो,

बनने दो उसे स्वप्न जो वह कभी था, 

कहो कि वह पहल करे, आगे बढ़े और

तलाश करे वह घर जहां वह खुद आज़ाद हो।


(मेरे लिए अमेरिका कभी अमेरिका नहीं था)


ओह! मेरी धरती को बनने दो वह धरती,

जहाँ स्वतंत्रता की देवी पर न चढ़ाए जाते हों 

झूठी राष्ट्रभक्ति के पुष्पहार 

लेकिन जहाँ अवसर हों सचमुच में,

और जीवन हो मुक्त,

समता हो उस हवा में 

जिसे हम पीते हैं।


(यहाँ मेरे लिए समता कभी नहीं थी,

और न स्वतंत्रता, स्वाधीनता के इस अपने घर में)


कहो तो, कौन हो, 

तुम जो अंधेरे में बुदबुदा रहे हो?

कौन हो, तुम जो सितारों को ढांप रहे हो?


मैं गरीब श्वेत हूँ, छला गया और ढकेला गया,

मैं नीग्रो हूँ, गुलामगिरी के निशान ढोता हुआ,

मैं आदिवासी हूँ, अपनी धरती से बेदखल,

मैं अप्रवासी हूँ, मुठ्ठी में आशा का बीज दबाए,

लेकिन घटित होते देखता हूँ

वही पुराना किस्सा हर रोज़, 

एक दूसरे को नोंच खाने और

कमज़ोर पर सितम ढहाने का,


मैं नौजवान हूँ, उम्मीद और शक्ति से लबरेज़ 

लेकिन जकड़ा हुआ हूँ 

उन्हीं पुरानी अंतहीन जंज़ीरों से

मुनाफा, ताकत, संचय और ज़मीन हड़पने की!

या सोना हड़पने की!

या अपने आराम के लिए अवसर हड़पने की!

दफ़्तर में गुलामी की!

वेतन का हिसाब लगाने की!

अपने लालच में सब कुछ हड़प लेने की!


मैं किसान हूँ, अपने गिरवी खेतों का मालिक,

मैं मज़दूर हूँ, मशीन के हाथों बिका,

मैं नीग्रो हूँ, तुम सबका क्रीतदास, 

मैं व्यक्ति हूँ, लाचार, भूखा, क्षुब्ध,

भूखा हूँ आज भी, स्वप्न के बावजूद 

पिटा हूँ मैं आज भी, हे अग्रगामी!

मैं वह हूँ जो कभी आगे नहीं बढ़ पाया-

बोलियाँ लगती रहीं जिस पर साल-दर-साल

मैं वह कमज़ोर कमिया हूँ ।


फिर भी मैं वही हूँ 

जिसने देखा था पहला स्वप्न 

उस पुरानी दुनिया में 

राजाओं की गुलामी करते हुए,

जिसने देखा था सपना

इतना दृढ़, इतना साहसमय, इतना सच्चा कि

उसका संगीत बहता है आज भी 

हर ईंट और पत्थर में,

खेत की हर कतार में,

जिसने अमेरिका को बनाया वह जो आज है।


ओह! मैं वह हूँ जो

सबसे पहले समंदर पार कर

ढूंढने निकला था एक अदद

अपना कह सके ऐसा घर,

मैं वह हूँ जो

आयरलैंड के अंधेरे तटों को

पीछे छोड़ आया था और

पोलैंड के मैदानों को 

और इंग्लैंड की रविशों को,

काले अफ्रीका को छोड़ कर आया था मैं 

स्वाधीनजनों का अपना घर बसाने,


स्वाधीन?


किसने कहा स्वाधीन? मैंने, नहीं?

मैंने निश्चित ही नहीं?

खैरात पर पलते लाखों ने?

रोज़ी के नाम खाली जेबों वाले लाखों ने?

वे सारे स्वप्न जो हमने देखे

वे सारे गीत जो हमने गाए

वे सारी आशाएं जो हमने जगाईं 

वे ध्वज जो हमने फहराए

हम रोज़ी के नाम खाली जेबों वाले लाखों ने 

जेब में सिर्फ वह सपना

जो लगभग मर चुका है आज।


ओह! अमेरिका को फिर बनने दो अमेरिका 

वह धरती जो अभी तक 

बन नहीं पाई है,

लेकिन जिसे बनना ही चाहिए- वह धरती

जहाँ हर मनुष्य हो स्वाधीन 

वह धरती जो मेरी हो

गरीब की, आदिवासी की, नीग्रो की

हाँ, वह धरती हो मेरी,

मैं, जिसने बनाया अमेरिका,

बनाया अमेरिका 

जिसके स्वेद और लहू ने,

जिसके विश्वास और पीड़ा ने,

मशीन पर चले जिसके हाथ,

बरसात में चला जिसका हल,

वही लौटा कर लाएगा हमारा सुनहरा स्वप्न।


मुझे परवाह नहीं, तुम मुझे गालियाँ दो,

किसी भी भाषा में पुकारो,

स्वाधीनता की इस्पाती चादर पर

दाग नहीं पड़ेंगे,

हमारी ज़िंदगी को चूस लिया

जिन्होंने जोंक बन कर,

उनसे वापिस लेना ही है

हमें हमारी धरती

अमेरिका!


हाँ, सचमुच 

मैं साफ-साफ कहता हूँ, 

अमेरिका मेरे लिए कभी

अमेरिका नहीं था,

लेकिन मैं शपथ लेता हूँ 

अमेरिका होगा।


खूनी गिरोहों के विध्वंस और

मौत के नाच के बावजूद,

बलात्कार, झूठ, कदाचार,

षड़यंत्र और रिश्वत की सड़न के बाद भी,

हम, जो जन हैं, लौटा कर लाएंगे 

धरती, खदान, वृक्ष, नदियाँ,

पहाड़ और अंतहीन मैदान और 

हरियाली के सारे दृश्य 

हाँ, वे सारे दृश्य 

और अमेरिका को फिर बनाएंगे ।


रूपांतर-

ललित सुरजन

Wednesday, 4 November 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 22

 

 'आपसे यह उम्मीद नहीं थी।'

'आप ही ऐसा लिखेंगे तो हम और किसके पास जाएंगे?'

'हम तो हमेशा से आप पर भरोसा करते आए हैं।'

वे सात-आठ जन थे और एक स्वर में एक साथ लगभग इन्हीं शब्दों में शिकायत कर रहे थे। सुबह का समय था। स्थान था मेरा तत्कालीन निवास। इस दस्ते का नेतृत्व कर रहे थे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दिग्विजय सिंह। यह वाकया सन् 1987 का है। एक दिन पहले हरियाणा विधानसभा के चुनावी नतीजे घोषित हुए थे। कांग्रेस को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था। देशबन्धु ने अपने संपादकीय में राजीव गांधी को सलाह दी थी कि इन परिणामों को देखते हुए उन्हें प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देते हुए लोकसभा भंग करने व मध्यावधि चुनाव करवाने की सिफारिश कर देना चाहिए। इस संपादकीय को पढ़ कर ही दिग्विजय सहित ये सारे नेता हमें उलाहना देने आए थे। उसी दिन राजीव गांधी की आमसभा रायपुर में होनी थी जो आनन-फानन में स्थगित कर दी गई थी। प्रदेश अध्यक्ष इसी कार्यक्रम के लिए आए थे। मैंने उनके उलाहने के जवाब में यही कहा कि हमारी सलाह कांग्रेस के हित में है। देश का माहौल धीरे-धीरे कांग्रेस के विरोध का बन रहा है। अभी तीन चौथाई बहुमत है। मध्यावधि चुनाव होंगे तो कामचलाऊ बहुमत मिल सकता है, लेकिन 1989 आते तक बहुत देर हो जाएगी। मेरे उत्तर से वे संतुष्ट नहीं दिखे, लेकिन पाठक जानते हैं कि निर्धारित समय पर हुए आम चुनाव में कांग्रेस किस तरह पराजित हुई। कुछ माह बाद मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में भी यही परिणाम निकले।

बहरहाल, 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार भंग कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। 1993 में कुछ महीने बाद विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला तथा दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। मैं उस समय उड़ीसा (अब ओडिशा) के प्रवास पर था। जैसे ही समय मिला, मैंने भोपाल का कार्यक्रम बनाया। नए-नए बने मुख्यमंत्री से उसी उत्साह से मुलाकात हुई जैसी पहले होती रहीं थीं। उन्हें किसी स्वागत समारोह में जाना था। वहां मुझे अपने साथ ही बैठाकर ले गए। साथ में ही वापस लौटे। अपनी आदत के मुताबिक मैं मुख्यमंत्री के लिए प्रदेश के विकास से संबंधित कुछ नोट तैयार करके ले गया था, जो मैंने उन्हें दे दिए कि कार में बैठे-बैठे पढ़ लेंगे। उन्होंने एक सरसरी निगाह उन पर फिराई और कागज की उसी थप्पी में बेपरवाही से रख दिए जिसमें उक्त कार्यक्रम में मिले आवेदन, ज्ञापन इत्यादि भी थे। मुझे थोड़ी शंका हुई जिसे मैंने व्यक्त नहीं किया। लेकिन अगले दिन किसी पत्र में खबर थी कि मुख्यमंत्री के नाम लिखे बहुत से कागजात कचरे के ढेर में मिले।

दिग्विजय सिंह से मिलने के लगभग तुरंत बाद ही अनुभवी विधायक तथा गृह व जनसंपर्क मंत्री चरणदास महंत के साथ भेंट हुई। मेरे वरिष्ठ सहयोगी राज भारद्वाज भी साथ थे। महंतजी के साथ पुराना परिचय था। जैसा मैं समझ पाया, उनकी उत्सुकता यह जानने में थी कि नई सरकार, विशेषकर मुख्यमंत्री, के प्रति देशबन्धु का रुख क्या होगा। मेरे उत्तर का सार यही था कि अखबार की नीति व पुराने संबंधों को देखते हुए उन्हें हमारी ओर से आश्वस्त रहना चाहिए। आखिरकार, दिग्विजय प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त होने के बाद पहली बार रायपुर आए थे तो विमानतल से पहले देशबन्धु ही आए थे। और जब हमारे कोंडागांव संवाददाता प्रेमराज कोटड़िया को भाजपा सरकार ने नक्सली होने के आरोप में टाडा के तहत गिरफ्तार कर लिया था, तब दिग्विजय ही तो थे जो मेरे फोन पर राज्यपाल को रिहाई हेतु ज्ञापन देने गए थे। यही क्यों, एक साल पहले उन्होंने स्वयं अपनी पहल पर सांप्रदायिकता के खिलाफ़ देशबन्धु में लगातार लेख लिखे थे। 

मैंने महंतजी से सिर्फ दो अनुरोध किए- पहला प्रेमराज की रिहाई के लिए। दूसरा कि देशबन्धु के साथ विज्ञापन के मामले में अन्याय न हो। हमारी यह मुलाकात पूरी तरह सद्भावनापूर्ण माहौल में संपन्न हुई।  मैं यह विश्वास लेकर लौटा कि नई सरकार का रवैया हमारे प्रति सकारात्मक रहेगा। इस बात को कुछेक सप्ताह ही बीते होंगे कि एक दुर्घटना में घायल हो जाने के कारण राज भारद्वाज को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। मधुमेह के चलते उनके पैर का घाव भर नहीं रहा था व स्वास्थ्य में गिरावट आ रही थी। उन्हें एम्स, दिल्ली ले जाना एकमात्र विकल्प दिखाई दे रहा था। ऐसे समय दिग्विजय सिंह ने सदाशय का परिचय देते हुए उन्हें शासकीय विमान से दिल्ली भेजने की व्यवस्था की। स्वाभाविक था कि हम उनके प्रति कृतज्ञता अनुभव करते, तथा महंतजी के साथ बातचीत में जो विश्वास जागृत हुआ था उसमें वृद्धि होती। 

अफसोस कि एक साल बीतते न बीतते हमें व्यवहारिक धरातल पर जो अनुभव हुआ वह हमारी अपेक्षा तथा विश्वास से विपरीत दिशा में था। कुछेक व्यवसायिक घरानों द्वारा संचालित पत्रों के अलावा एक नए-नए प्रारंभ हुए अखबार को प्रचुर मात्रा में सरकारी विज्ञापन मिलने लगे व देशबन्धु की अवहेलना होने लगी तो समझ ही नहीं आया कि ऐसा क्यों हो रहा हो! सच तो यह है कि अपने प्रति इस सरकारी बेरुखी का सबब आज भी मेरे लिए एक पहेली ही है। क्या इसका यह कारण था कि शायद तब तक दिग्विजय सिंह ने एक अनोखा निर्णय लेते हुए अपने पास एक भी विभाग न रख अपने विश्वासपात्र अधिकारियों पर सारा कामकाज छोड़ दिया था? बाबूशाही सोच का उन दिनों का एक उदाहरण याद आता है। मैं ठंड के मौसम में दिल्ली-भोपाल में सामान्यत: कोट-पैंट के साथ टाई लगाता था। एक जनसंपर्क संचालक ने मेरी वेशभूषा देखकर कहा- अरे, आप तो बिल्कुल आईएएस लग रहे हैं।  गोया उस ड्रेस पर अफसरों का ही एकाधिकार हो! एक अन्य जनसंपर्क संचालक ने मुझ पर एहसान जताने की कोशिश की- आपको अधिमान्यता समिति में रख लिया है। आपके लिए अच्छा रहेगा। मैंने उनका ज्ञानवर्धन किया- मैं बारह साल से इस कमेटी में हूं। मुझे क्या लाभ होगा पता नहीं लेकिन मेरे रहने से विभाग को कोई लाभ हो सके तो आप देख लीजिए। मेरा उत्तर सुनकर वे झेंप गए। इन दोनों महानुभावों की पदस्थापना तो मुख्यमंत्री ने ही की थी। अगर ऐसे अधिकारियों के निर्देश से देशबन्धु के विज्ञापनों में कटौती हुई हो तो दोष किसे दिया जाए?

लेकिन मुझे संदेह होता है कि मामला इतना सीधा नहीं था। दरअसल, एलपीजी (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) की अवधारणा जिसने 1980 के आसपास भारतीय राजनीति में सेंध लगाना शुरू किया था, दस साल बीतते न बीतते उसका दमदार हस्तक्षेप हमारे नागरिक जीवन के लगभग हर पहलू में होने लगा था। समाचारपत्र व्यवसाय भी उसकी चपेट में आ चुका था। अखबार में संपादक नामक संस्था विलोपित हो रही थी तथा पूंजीपति मालिकों के नुमाइंदे पत्रकार बन सत्ताधीशों से रिश्ते बनाने लगे थे। राजनेता हों या अफसर, उनके दैनंदिन कार्य इन नुमाइंदों की मार्फत सध जाते थे। उधर मालिकों के साथ उनकी व्यापारिक भागीदारी आम बात हो गई थी। दोनों पक्षों के लिए यह इसमें फायदा ही फायदा था। इस अभिनव व्यवस्था में वह अखबार इनके लिए गैर उपयोगी ही था, जिसका कोई अन्य व्यवसायिक हित न हो और जिसकी रुचि ईवेंट मैनेजमेंट की बजाय मुद्दों की पत्रकारिता करने में हो। कहना होगा कि दीर्घकालीन संबंधों की जगह तात्कालिक लाभ पर आधारित रिश्तों को तरजीह मिलने लगी थी। यह बदलाव हमारी समझ में तुरंत नहीं आया।

अपनी नासमझी का किंचित अहसास मुझे 1996 के लोकसभा चुनाव के थोड़े पहले हुआ। दिग्विजय सिंह रायपुर प्रवास पर आए। रात उनका फोन आया कि क्या कल सुबह मैं चाय पर आ सकूंगा। न कहने का सवाल ही नहीं था। दूसरे दिन मैं नियत वक्त पर सर्किट हाउस पहुंच गया। मेरे पहुंचने के पहले एक उदीयमान नेता घर से एक बड़े टिफिन में नाश्ता लेकर आए थे। दिग्विजय ने उनको रवाना किया और मुझसे मुखातिब हुए। चाय पीते-पीते उन्होंने मुझसे कहा- चुनाव में आपका समर्थन चाहिए। मैंने उत्तर दिया- एक सीट छोड़कर। सुनकर उनकी मुखमुद्रा कुछ बदली, फिर जोर से हंसते हुए बोले- अरे, उस सीट की बात कौन कर रहा है। यह एक सीट सतना की थी जहां से इस बार अर्जुनसिंह तिवारी कांग्रेस की टिकट पर किस्मत आजमा रहे थे। सर्किट हाउस से लौटते समय मैंने सोचा कि चुनाव में तो हम सामान्यत: कांग्रेस का ही समर्थन करते हैं। दिग्विजय भी यह जानते हैं फिर उन्होंने यह बात मुझसे क्यों की! तभी जैसे बिजली कौंधी और मुझे समझ आया कि वास्तव में वे इस एक सीट पर ही समर्थन की गारंटी चाहते थे, क्योंकि हमारा झुकाव अर्जुनसिंह की तरफ था। दिग्विजय सिंह ने उस क्षण भले ही बात को हंसकर टाल दिया हो, लेकिन वे भीतर से कहीं आहत अवश्य हुए जिसका परिणाम हमें आने वाले दिनों में देखने मिला। (अगले सप्ताह जारी)