धर्मवीर भारती का लोकप्रिय उपन्यास 'गुनाहों का देवता' निम्नलिखित वाक्य के साथ प्रारंभ होता है- 'अगर पुराने जमाने की नगरदेवता की और ग्रामदेवता की कल्पनाएं आज भी मान्य होतीं तो मैं कहता कि इलाहाबाद का नगरदेवता जरूर कोई रोमेंटिक कलाकार है।' मैं उनकी ही तर्ज पर सोचता हूं कि अगर भूतबंगले की मान्यता आज भी कायम है तो कहना होगा कि रायपुर कलेक्टर बंगले में अवश्य कोई भविष्य देवता निवास करता है। इसका पहला प्रमाण कम से कम सौ साल पुराना है। सी डी देशमुख नए-नए आईसीएस की प्रथम पदस्थापना 1910-20 के बीच कभी रायपुर में हुई थी। वे कलेक्टर नहीं, लेकिन ईएसी यानी डिप्टी कलेक्टर थे। जिलाधीश बंगले पर वे जाते ही होंगे। भविष्य देवता ने उनके बिना जाने उन पर कृपा की। वे आगे चलकर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के पहले भारतीय गवर्नर बने। फिर राजनीति में आकर नेहरू सरकार में वित्तमंत्री रहे। प्रसंगवश, उन्होंने रायपुर में रहते हुए यूनियन क्लब की स्थापना की थी, क्योंकि छत्तीसगढ़ क्लब में सिर्फ गोरे साहब जा सकते थे। दिल्ली में उन्होंने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की स्थापना कर एक विश्वस्तरीय बौद्धिक केंद्र बनाया।
उनके बाद किसी समय आर के पाटिल रायपुर के जिलाधीश बनकर आए। महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने आईसीएस के रुतबेदार ओहदे से इस्तीफा दे दिया व स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। सी पी एंड बरार के मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल ने स्वतंत्र देश में अपने मंत्रिमंडल में खादीधारी पाटिलजी को शामिल किया। रायपुर के स्वाधीनता सेनानी कन्हैयालाल बाजारी 'नेताजी' के प्रयत्नों से स्टेशन चौक पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की मूर्ति स्थापित हुई तो पाटिलजी के करकमलों से उसका लोकार्पण हुआ। उनके पश्चात 1959-60 में सुशील चंद्र वर्मा जिलाधीश बनकर उसी बंगले में रहने आए। उन्होंने अनेक कल्याणकारी कामों के साथ गुढ़ियारी मोहल्ले में एक कुआं खुदवाया, जिसकी चर्चा कुछ साल पहले तक होती थी। आगे चलकर वे प्रदेश के मुख्य सचिव बने और अवकाशप्राप्ति के उपरांत राजनीति में आ गए। अत्यंत साफ सुथरी छवि के धनी वर्माजी ने लोकसभा में तीन या चार बार भाजपा की ओर से भोपाल का प्रतिनिधित्व किया। भविष्य देवता के अदृश्य वास वाले इसी बंगले में पहले अजीत जोगी और उनके तुरंत बाद नजीब जंग का आशियाना बना। जोगी को छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिला तथा जंग दिल्ली के उपराज्यपाल नियुक्त किए गए। इस तरह इस बंगले के इतिहास में प्रशासन से शासन में जाने के कम से कम पांच उदाहरण हमारे सामने हैं।
अजीत जोगी जिलाधीश का पद सम्हालने रायपुर आए, उसके कुछ माह पहले वे एक अन्य घटना के चलते रायपुर में चर्चित हो गए थे। रायपुर की एक फुटबॉल टीम किसी टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए वर्ष 1978 में शहडोल गई। वहां किसी कारण से रायपुर के खिलाड़ियों का मेजबान टीम के खिलाड़ियों के साथ झगड़ा हो गया। मारपीट की नौबत आ गई। रायपुर के कुछ खिलाड़ी घायल हो गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। उस समय शहडोल ज़िले के युवा कलेक्टर ने अस्पताल पहुंच कर उन नौजवानों की मिजाजपुर्सी की तथा स्वस्थ होने के बाद उन्हें रायपुर भेजने का प्रबंध किया। यह किस्सा एक रोज मेरे मित्र व लोकप्रिय अस्थिरोग विशेषज्ञ डॉ शंकर दुबे ने सुनाया। उस युवा कलेक्टर का नाम अजीत जोगी था। यह रोचक संयोग था कि कुछ माह बाद उन्हीं जोगी का तबादला रायपुर हुआ। वैसे रायपुर उनके लिए नई जगह नहीं थी। 1967 में वे शासकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय में व्याख्याता के रूप में कुछ समय तक सेवाएं दे चुके थे। फिर वे 1969 में आईपीएस और उसके एक साल बाद आईएएस के लिए चुन लिए गए। वे जब सन् 2000 में तीसरी बार लौटे तो मुख्यमंत्री के लिए कोई और आलीशान भवन चुनने के बजाय उन्होंने उस सौ साल से अधिक पुराने कलेक्टर बंगले में ही रहना पसंद किया जहां वे पहले लगभग ढाई साल रह चुके थे। इस बार उन्हें यहां तीन साल का समय मिला। फिर भविष्य देवता एकाएक डॉ. रमनसिंह पर मुस्कुराए और बढ़ाते-बढ़ाते उन्हें पंद्रह साल की लीज़ दे दी। बंगला पुराण यहां समाप्त होता है।
मुझे इस बात का कोई इल्म नहीं है कि जोगीजी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा उस वक्त तक जागृत हुई थी या नहीं, लेकिन उनकी कार्यप्रणाली तथा सोच के दो स्पष्ट उदाहरण मेरी समझ में आए। एक दिन किसी काम से मैं उनके निवास पर मिलने गया तो सुबह नौ बजे के आसपास ही एक बड़ा हुजूम अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए वहां मौजूद था और वे शांतिपूर्वक बल्कि प्रसन्नचित्त होकर जनता से मिल रहे थे। 1980 में एक शाम वे मेरे आमंत्रण पर रोटरी क्लब ऑफ रायपुर मिडटाउन में व्याख्यान देने आए। विषय मेरा ही सुझाया था- कलेक्टर ऑर द किंगपिन। इस पर लगभग एक घंटे उन्होंने बात की। उनकी साफ राय थी कि जनतांत्रिक राजनीति में तीन पदों का ही महत्व है- पी एम, सी एम और डी एम अर्थात प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट यानी जिलाधीश। क्या यह उनकी इसी सोच का कमाल था कि वे रायपुर से इंदौर गए तो वहां जिलाधीश के पद पर ही पांच साल गुजार दिए? वे सचिव अथवा संभागायुक्त पद के पात्र हो चुके थे, लेकिन पदोन्नति नहीं ली और 1986 की मई में एकाएक कांग्रेस से राज्यसभा के उम्मीदवार घोषित कर दिए गए। चर्चा चली कि उनके नामांकन के पीछे अर्जुनसिंह का हाथ है, किंतु उस समय मध्यप्रदेश में मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री थे। तो क्या उनकी इस मामले में नहीं चली? वैसे कांग्रेस में तार्किक आधार पर टिकटों या पदों का वितरण कम ही होता है, या कम से कम राजनीतिक प्रेक्षकों को ऐसा ही लगता है। इसलिए इस बारे में सिर खपाने का कोई लाभ नहीं है।
अजीत जोगी के रायपुर जिलाधीश रहते हुए हमारे उनसे उस सीमा तक ही सौजन्यपूर्ण संबंध थे, जितने कि किसी अखबार के प्रशासनिक अधिकारियों के साथ होना चाहिए। इंदौर चले जाने के बाद मेरा उनके साथ कोई खास संपर्क भी नहीं रहा। मेरे एक इंदौर प्रवास पर अवश्य उन्होंने मुझे अपने आवास पर भोजन हेतु आमंत्रित किया था जो शायद ऐसा पहला अवसर था। इसलिए मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि भोपाल में नामांकन दाखिल करने के बाद उसी दिन वे बाबूजी से मिलने के लिए गए कि उनके आशीर्वाद से ही टिकट मिला और आकांक्षा प्रकट की कि इस नई भूमिका में आशीर्वाद मिलते रहेगा। ऐसा नहीं कि यह भावना उन्होंने निजी भेंट में व्यक्त की, बल्कि आगे भी कई बार सार्वजनिक तौर पर दोहराई। मैं इस बारे में अनुमान लगाने की कोशिश करता हूं तो पहली बात समझ आती है कि छत्तीसगढ़ में ही अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने के इरादे से उन्होंने उस अखबार से समर्थन सुनिश्चित करना चाहा होगा जिसकी विश्वसनीयता असंदिग्ध व पहुंच छत्तीसगढ़ के हर कोने में थी!राज्यसभा में पहुंचना तो अंतत: उनके राजनीतिक सफर का पहला कदम था। उनकी महत्वाकांक्षा निश्चय ही यथासमय मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की रही होगी। अपने मनोभाव को जोगीजी ने कभी छिपाया नहीं, अपितु जब-तब उसका सार्वजनिक प्रदर्शन करने में भी संकोच नहीं किया। (तब पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्मित होने की दूर दूर तक कोई स्थिति नहीं थी)। दूसरी बात, वे शायद मन ही मन इस बारे में भी आशंकित थे कि मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा के परिवार द्वारा संचालित अखबार का उनके प्रति मैत्रीपूर्ण रवैया नहीं होगा! उनकी आशंका गलत नहीं थी। उक्त समाचारपत्र में उनके विरुद्ध छपी खबरों का बाज वक्त उन्होंने खिन्न मन से मुझसे उल्लेख भी किया।
मेरे अपने लिए इस संस्मरण का एक रोचक तथ्य यह है कि जिस दिन उनकी उम्मीदवारी घोषित हुई, हम कुछ मित्र इनरव्हील डिस्ट्रिक्ट- 326 की सालाना डिस्ट्रिक्ट असेंबली में शामिल होने सपरिवार सिवनी आए हुए थे। इस मंडली में रायपुर विधायक स्वरूपचंद जैन भी थे। उन्हें याद था कि राज्यसभा उम्मीदवारों की घोषणा उसी दिन होना है। स्वाभाविक उत्सुकतावश स्वरूपजी ने भोपाल किसी परिचित को फोन लगाया तो यह सूचना मिली। हम सबको ही इस खबर पर अचरज हुआ। बहरहाल, वे बाबूजी का आशीर्वाद लेने गए थे, यह जानकारी मुझे दो दिन बाद मिली, जब मैं सिवनी का कार्यक्रम संपन्न होने के पश्चात जबलपुर पहुंचा। (अगले सप्ताह जारी)
#देशबंधु में 26 नवंबर 2020 को प्रकाशित
डॉ परिवेश मिश्र से निम्नलिखित पूरक जानकारी प्राप्त हुई है।
इस बंगले का आशीर्वाद पाये कम से कम दो और कलेक्टरों का उल्लेख जोड़ा जा सकता है।
1. वाय.एन. (यशवंत नारायण) सुखठणकर 1929-30 में कलेक्टर थे। वे 1921 में ICS में चयनित हुए थे। यह वही बैच था जिसमें सुभाष चन्द्र बोस भी चुने गये थे (उन्होंने हालांकि नौकरी जाॅईन करने से पहले ही इस्तीफा दे दिया था।) आज़ाद भारत में कैबिनेट सेक्रेटरी के पद से रिटायर होने के बाद उड़ीसा के राज्यपाल बने थे। दूसरी पंचवर्षीय योजना बनाने में उनकी भूमिका प्रमुख मानी जाती है।
2. इसी काल में कुछ आगे-पीछे, सी.एम. (चन्दूलाल माधवलाल) त्रिवेदी भी कलेक्टर रहे। वे सी.पी. एंड बरार के मुख्य सचिव भी बने। आज़ादी और विभाजन के बाद जब पूर्वी पंजाब का हिस्सा भारत को मिला तो इन्हें वहां पहला राज्यपाल बना कर भेजा गया। शिमला में काम काज शुरू हुआ। न घरों के लिये स्थान था न कार्यालयों के लिये। (पंजाब, हिमाचल और हरियाणा के इलाके बाद में विभाजित हुए।) बाद में वे आंध्र प्रदेश के पहले राज्यपाल, योजना आयोग के डिप्टी चेयरमैन आदि भी बनाये गये।
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