सुबह पाँच बजे
पूरनमासी के दिन
बहुत से घरों में जब
शुरु हो गई हो तैयारी
सत्यनारायण की कथा की,
बस्तर के विलुप्त वनों में
डूबते चंद्रमा के सामने
अपने सच होने का बयान
देने के लिए खड़े हैं उदास
भूरे, बदरंग, नीलगिरि के वृक्ष,
सब कुछ सच-सच कहने के लिए
बैठी हैं, बरसों से
थकी-प्यासी चट्टानें
नदियों के निर्जल विस्तार में,
इधर पूरब के आकाश में
क्षिप्र उदित हो रहा है
मई का सूरज,
उधर डूब रहा है
उमस भरी रात का सभापति
चौदहवीं का चंद्रमा
भूरा, बदरंग, निस्तेज
उदास और कुम्हलाया हुआ,
नदी, पहाड़, पेड़ और चाँद
नहीं हैं जिनके
सच का सरोकार
सरपट दौड़ रहे हैं
उदीयमान सूरज के साथ।
21.05.2000
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