Wednesday, 11 November 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 23

 "सो यू वांट स्पेशल ट्रीटमेंट फार देशबन्धु "

"यस, आई डू एंड व्हाई शुड नॉट आई"

मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने कुछ तल्ख स्वर में अंग्रेजी में सवाल किया और मैंने अंग्रेजी में ही उन्हें उत्तर दिया। इसके बाद की चर्चा हिंदी में हुई। मैंने कुछ दिन पूर्व उन्हें एक ज्ञापन भेजा था और मिलने जाते समय उसकी प्रति साथ लेते गया था। उसे पढ़कर ही उन्होंने उपरोक्त सवाल किया था। यह किस्सा बहुत संभव 1997 का है। मैंने उन्हें याद दिलाया कि 1992 में उन्होंने जब सांप्रदायिकता के खिलाफ लेख लिखे थे तो इच्छा व्यक्त की थी कि देशबन्धु में ही उनका प्रकाशन हो। मध्यप्रदेश में तब सुंदरलाल पटवा के नेतृत्व में भाजपा की सत्ता थी। ऐसे समय उन लेखों को प्रकाशित करने का मतलब सरकार की नाराजगी मोल लेना था, जिसका प्रतिकूल असर सरकारी विज्ञापनों की कटौती में होना ही था। मेरा सीधा तर्क था कि आपके साथ खड़े रहने से जब हमने नुकसान झेला है तो आज आपके सत्ता में रहते हुए हमें विशेष लाभ भले न मिले, कम से कम अन्याय तो नहीं होना चाहिए। मैंने उनके सामने पिछले एक साल का तुलनात्मक चार्ट रखा कि एक ओर देशबन्धु को वंचित कर दूसरी ओर कैसे भाजपा का साथ देने वाले पत्रों व एक नए अखबार को कितने अधिक विज्ञापन दिए जा रहे हैं। दिग्विजय ने मेरी बात सुन ली। जनसंपर्क सचिव को कहा कि मामला देख लें। बात वहीं खत्म हो गई। अभी इतनी गनीमत थी कि मुख्यमंत्री से मुलाकात का समय मिल गया था।

सन् 1997 के ही जुलाई-अगस्त में दिग्विजय सिंह का एक दिन अचानक फोन आया। वार्तालाप कुछ इस तरह हुआ- 

'ललितजी, सितंबर में पचमढ़ी में कांग्रेस का चिंतन शिविर हो रहा है।'

'जी हां, खबर तो मिली है।'

'इसमें आपका सहयोग चाहिए।'

'जी, बताइए, क्या करना है?'

'बड़ा आयोजन है। आपसे चाहते हैं कि एक लंच या डिनर आपकी तरफ से हो जाए।'

'दिग्विजयजी, यह तो आप उल्टी गंगा बहा रहे हैं। प्रेस वाले क्यों राजनीतिक दल के कार्यक्रम में लंच-डिनर देंगे!'

'लेकिन नवभारत, भास्कर, नई दुनिया तो दे रहे हैं।'

'वे दे रहे होंगे। उनको पद्मश्री चाहिए। राज्यसभा में जाना होगा। और भी कोई काम होगा। मुझे यह सब नहीं चाहिए। सो मुझसे तो यह नहीं होगा।'

इस वार्तालाप के संदर्भ में यह लिखना अनुचित नहीं होगा कि कालांतर में लंच-डिनर के मेजबान अखबारों में से एक के संचालक कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य बने, एक को पद्मश्री से नवाजा गया और दो- तीन अखबारों में मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम ने करोड़ों की राशि फिक्सड डिपॉज़िट के रूप में जमा की। वह राशि नियत समय पर वापस नहीं मिली तो बखेड़ा उठ खड़ा हुआ। इनमें दो अखबार ऐसे भी थे, जिन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भोपाल में हुए दंगों में सांप्रदायिक ताकतों का साथ दिया था और जिसकी खुली आलोचना अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के मुखपत्र 'कांग्रेस संदेश' में हो चुकी थी। 

इन प्रसंगों में मेरा जो रुख था, वह किसी हद तक धृष्टतापूर्ण था। अगर मुख्यमंत्री मेरे कहे का बुरा मानते तो वह स्वाभाविक होता, लेकिन दिग्विजय सिंह ने कम से कम जाहिरा तौर पर ऐसा नहीं किया। हमारे बीच संवाद पूर्ववत कायम रहा तथा मेरे आमंत्रण पर उन्होंने दो-तीन बार रायपुर में विभिन्न कार्यक्रमों में शिरकत भी की। देशबन्धु प्रतिभा प्रोत्साहन कोष के प्रेस काम्प्लेक्स में प्रस्तावित सांस्कृतिक भवन का भूमिपूजन उनके ही हाथों संपन्न हुआ। चौबे कालोनी स्थित शासकीय विद्यालय का नामकरण मायाराम सुरजन शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय करने की घोषणा भी उन्होंने स्कूल परिसर में आयोजित कार्यक्रम में की। बाबूजी की स्मृति में आयोजित व्याख्यान माला में भी वे आए। इनमें से ही किसी एक अवसर पर उन्होंने स्वयं मेरे निवास पर रात्रिभोज हेतु आने का मंतव्य प्रगट किया और हमने आनन-फानन में जो व्यवस्था हो सकती थी वह की। एक अनायास उत्पन्न कानूनी अड़चन को दूर करने मैंने सहायता मांगी तो उन्होंने अपने कार्यालय में कुछ वरिष्ठ मंत्रियों व अधिकारियों की बैठक बुला ली। 

एक ओर ये सारे उदाहरण थे तो दूसरी ओर यह सच्चाई भी थी कि देशबन्धु को सरकारी विज्ञापन देने में वही पुराना रवैया चलता रहा। हमारा कोई दूसरा व्यापार तो था नहीं, जिससे रकम निकाल कर यहां के घाटे की भरपाई कर लेते। धीरे-धीरे कर हमारी वित्तीय स्थिति डांवाडोल होती गई। इस परिस्थिति में देशबन्धु का सतना संस्करण बंद करने का निर्णय हमें लेना पड़ा। मध्यप्रदेश वित्त निगम के ऋण की किश्तें समय पर पटा नहीं पाने के कारण एक दिन भोपाल दफ्तर पर वित्त निगम ने अपना ताला लगा दिया। किसी तरह मामला सुलझा तो भी एक दिन यह नौबत आ गई कि मैंने खुद होकर भोपाल संस्करण स्थगित करने का फैसला ले लिया। एक बार 1979 में जनसंघ (जनता पार्टी) के राज में भोपाल का अखबार बंद करना पड़ा था तो इस बार कांग्रेस के राज में वैसी ही स्थिति फिर बन गई। उधर जिस कानूनी अड़चन में हमें फंसा दिया गया था, उससे उबरने में अपार मानसिक यातना व भागदौड़ से गुजरना पड़ा। जो आर्थिक आपदा आई, उसके चलते अखबार की प्रगति की कौन कहे, बल्कि हम शायद बीस साल पीछे चले गए। ऐसी विषम परिस्थिति बनने के लिए संस्थान का मुखिया होने के नाते मैं खुद को ही दोषी मानता हूं। 

दरअसल, मैं रायपुर में बैठकर कामकाज सम्हालता था। भोपाल जाना कम ही होता था। राजधानी का कारोबार कैसे चलता है, मैं उससे लगभग अनभिज्ञ था।  देशबन्धु की कार्यप्रणाली भी संभवत: जरूरत से ज्यादा जनतांत्रिक थी। मैं पत्रकारिता की समयसिद्ध परंपरा के अनुरूप मान रहा था कि प्रधान संपादक को मुख्यमंत्री आदि से विशेष अवसरों पर ही मिलना चाहिए। मैंने हमेशा खुले मन से अपने सहयोगियों को प्रोत्साहित किया व उन्हें अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के अवसर दिए। यह भी किसी कदर मेरी नासमझी थी जिसका खामियाजा अखबार को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से भुगतना पड़ा। इसी सिलसिले में एक संंक्षिप्त प्रसंग अनायास स्मरण हो आता है। एक नवोदित राजनेता से, जिनके साथ अच्छे संबंध थे, लंबे समय बाद मुलाकात हुई। मैंने सहज भाव से पूूूछा- बहुत दिनों बाद मिल रहे हो। उनका उत्तर था- आपके संवाददाता (नाम लेकर) से तो मिल लेते हैं। अब आपसे भी मिलना पड़ेगा क्या? इस उत्तर का मर्म आप समझ गए हों तो अच्छा है। न समझे हों तो भी अच्छा है।

दोहराना उचित होगा कि देशबन्धु अपने स्थापना काल से ही  प्रगतिशील, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष नीति का पैरोकार रहा है। सामान्य बोलचाल में हमें कांग्रेस समर्थक मान लिया जाता है। इसके बावजूद वर्ष 1998 में विधानसभा चुनाव के समय जब देशबन्धु को मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के विज्ञापन नहीं मिले तो आश्चर्य हुआ। ऐसा पहली बार हुआ। एक-दो दिन की प्रतीक्षा के बाद मैंने दिग्विजय को फोन किया। उन्होंने विज्ञापन छापने के लिए मौखिक अनुमति दे दी, लेकिन कांग्रेस कमेटी से औपचारिक आदेश अंत तक नहीं आया। फिर विज्ञापन बिल का भुगतान कब, कैसे हुआ  वह अलग कहानी है।बहरहाल, मैं आज तक यह समझने का प्रयास कर रहा हूं कि ऐसा क्यों कर हुआ। मेरा अनुमान है कि मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने लिए राष्ट्रीय मंच पर बड़ी भूमिका निभाने का रास्ता बना रहे थे, जिसमें देशबन्धु जैसे पूंजीविरत, लॉबिंग करने में असमर्थ, मूलत: प्रादेशिक समाचार पत्र की कोई उपयोगिता नहीं थी। उन्हें शायद अर्जुनसिंह के साथ हमारे संबंधों को लेकर भी संशय था, क्योंकि उस समय मध्यप्रदेश से वे ही एक बड़े नेता थे जिनकी राष्ट्रीय स्तर पर उपस्थिति उनकी महत्वाकांक्षा में बाधा बन सकती थी। दूसरी तरह से कहना हो तो यही कहूंगा कि व्यक्ति केंद्रित राजनीति के नए युग में परंपरा, संबंध, सिद्धांतों की बात करना बेमानी था। यही आज का भी सत्य है। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 12 नवंबर 2020 को प्रकाशित

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