Wednesday 18 November 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 24



 नए मध्यप्रदेश राज्य का गठन 1 नवम्बर 1956 को हुआ था। तब से लेकर 1985 के दरम्यान सिर्फ डॉ. कैलाशनाथ काटजू ऐसे मुख्यमंत्री रहे जिन्हें पांच साल का एक कार्यकाल पूरा करने का मौका मिला। वे 1962 में विधानसभा चुनाव हार गए। इस हिसाब से अर्जुनसिंह ने रिकॉर्ड बनाया। वे 1985 में लगातार दुबारा मुख्यमंत्री बने, यद्यपि कुछ दिन पश्चात ही उन्हें पंजाब भेज दिया गया। लगातार दस साल मुख्यमंत्री बने रहने का नया रिकॉर्ड दिग्विजय सिंह के नाम है। 1993-98 के मध्य एक पारी पूरी करने के बाद वे 1998 में दुबारा जीतकर आए तथा 2003 तक इस पद पर बने रहे। इस अभूतपूर्व सफलता के पीछे दो-तीन कारण समझ आते हैं। दिग्विजय जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तब उनकी आयु मात्र छियालीस वर्ष थी। याने पिछले मुख्यमंत्रियों के मुकाबले तरुणाई उनकी मददगार हुई। वैसे तो श्यामाचरण और दो साल कम चवालीस की ही उम्र में मुख्यमंत्री बन गए थे, लेकिन इंदिरा जी की अवज्ञा करना उन पर भारी पड़ गई थी। दिग्विजय ने ऐसी कोई गलती नहीं की। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व में जब जो ताकतवर हुआ, वे निष्ठापूर्वक उसके साथ हो गए। 

शायद दूसरा कारण दिग्विजय सिंह के शासन करने की अनोखी शैली में देखा जा सकता है। एक तो उन्होंने तमाम विभाग अपने सहयोगियों में बांट दिए व खुद के पास एक भी विभाग नहीं रखा। इससे उन्हें जाहिरा तौर पर प्रदेश की जनता से सीधा संवाद करने के लिए, विकास की योजनाएं बनाने के लिए अधिक समय मिलने लगा। यद्यपि अनेक अध्येता इससे सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार अपने पास एक भी विभाग न रखना महज एक दिखावा था। कहने को मंत्री ही विभाग के मालिक थे, लेकिन असली कमान मुख्यमंत्री के विश्वस्त विभागीय सचिव के हाथों होती थी जो मुख्यमंत्री से ग्रीन सिग्नल लेने के बाद ही किसी प्रस्ताव को मंजूर होने देते थे। इसी शैली में उन्होंने प्रदेश के हर जिले, संभाग और क्षेत्र से भी अपने आप को मुक्त कर लिया था। मसलन वे घोषित तौर पर कहते थे कि रायपुर में विद्या भैया, दुर्ग में वोराजी, रीवां में श्रीनिवास तिवारी, छिंदवाड़ा में कमलनाथ, इसी तरह अन्यत्र भी जो बड़े नेता कहेंगे वही किया जाएगा। इस कदम से उन्होंने तमाम धुरंधर नेताओं से संभावित विरोध को न सिर्फ जड़ से समाप्त कर दिया, बल्कि उनका सहयोग भी अर्जित कर लिया। यह बात अलग है कि जिलाधीश या संभागायुक्त ने किया वही जो मुख्यमंत्री चाहते थे। रायपुर के बारे में तो मैं कह सकता हूं कि छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की पूर्व संध्या तक वी सी शुक्ल पूरी तरह दिग्विजय सिंह पर निर्भर हो गए थे या कर दिए गए थे।

यह एक अटपटी सच्चाई है कि दिग्विजय सिंह एक ओर जहां नौकरशाहों के सहारे प्रदेश चला रहे थे; वहीं दूसरी तरफ वे संवेदी समाज यानी कि सिविल सोसाइटी के सहयोग से राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी छवि गढ़ने के प्रयास कर रहे थे, जिसमें वे किसी सीमा तक सफल भी हुए। यह मजे की बात है कि इन प्रयासों में नौकरशाही और सिविल सोसाइटी दोनों की समान भागीदारी रही। एकता परिषद के पी वी राजगोपाल जैसे प्रतिष्ठित सिविल सोसाइटी नेता ने दिग्विजय सिंह का खुलकर समर्थन किया। 1998 के विधानसभा चुनावों के समय ऐसे अनेक संगठनों ने कांग्रेस के पक्ष में अपीलें तक जारी कीं। कहते हैं कि पार्टी को इसका लाभ नक्सल प्रभावित बस्तर संभाग में किसी हद तक मिला। और यह तब हुआ जब दिग्विजय सरकार ने सिविल सोसाइटी द्वारा बरसों से चलाए जा रहे ''होशंगाबाद विज्ञान'' जैसे अत्यंत सफल शैक्षणिक प्रयोग को बिना किसी चर्चा या सुनवाई के एकतरफा निर्णय लेते हुए बंद कर दिया था। इसी दौरान मध्यप्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम ने एक गुपचुप निर्णय लेते हुए दुर्ग जिले के बोरई में औद्योगिक जल आपूर्ति हेतु शिवनाथ नदी का लगभग बाईस किलोमीटर का हिस्सा एक निजी कंपनी को सौंप दिया। संयोगवश नदी जल के इस निजीकरण का रहस्योद्घाटन करने का श्रेय छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद 2001 में देशबन्धु को ही मिला। तब तक इसकी भनक भी किसी को नहीं लगी थी। 

पूर्व प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने राजनीति को अंतर्विरोधों के बीच सामंजस्य स्थापित करने की कला निरूपित किया था। दिग्विजय सिंह इसी व्याख्या को आधार बनाकर शासन चला रहे थे। वे एक ओर समाज के वंचित और हाशिए के समुदायों की बेहतरी के लिए महत्वाकांक्षी योजनाएं बना रहे थे, जिसका चरमोत्कर्ष जनवरी 2002 में भोपाल में आयोजित दलित सम्मेलन व उसमें अंगीकृत भोपाल घोषणापत्र में देखने मिलता है; तो दूसरी ओर वे मनुवाद पर आधारित अपनी धार्मिक आस्था का इस तरह खुला प्रदर्शन करते हैं जैसा उनके पहले प्रदेश के किसी बड़े नेता ने नहीं किया। शायद इसे संतुलित करने के उद्देश्य से वे अल्पसंख्यकों की पैरवी में उस हद तक चले जाते हैं जहां बहुसंख्यक समाज के बीच उनकी खलनायक जैसी छवि बनने लगती है, जिसका खामियाजा अंतत: कांग्रेस पार्टी को उठाना पड़ता है।
उन्होंने 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन विधेयक की भावना के अनुरूप प्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था लागू करने में उत्साह दिखाया, लेकिन नौकरशाही ने उसके नियम इस तरह बनाए व बार-बार संशोधित किए जिसमें सत्ता के मौजूदा तंत्र का शिकंजा पूर्ववत कसा रहा और नौबत आई तो दोषारोपण पंचायती राज प्रतिनिधियों पर कर दिया गया। रायपुर के व्याख्यान में इस बारे में सवाल किए जाने पर उन्होंने मजे लेकर उत्तर दिया- भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण ही तो हुआ है, केन्द्रीकरण तो नहीं हुआ न! 

सामान्यत: राजनेताओं की एक बड़ी पूंजी उनकी स्मरण शक्ति होती है। दिग्विजय इस मामले में दूसरों से कई मील आगे दिखते हैं। वे हजारों लोगों को नाम से जानते हैं और कई साल बाद मिलने पर भी उन्हें पहचान लेते हैं। वे अक्सर उन्हें प्रथम नाम से संबोधित करते हैं और युवा कार्यकर्ताओं तथा पत्रकारों आदि से युवकोचित तू-तड़ाक कर उन्हें अपने मोहपाश में बांध लेते हैं। इस लोकप्रियता के बावजूद उनके दस-साला कार्यकाल में पांच-छह बातों के चलते उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ा। एक तो मध्यप्रदेश राज्य विद्युत मंडल अवनति को प्राप्त हुआ। दूसरे, साल के जंगलों में कथित तौर पर  ''साल बोरर'' कीट लग जाने के कारण बड़ी संख्या में कीमती साल वृक्ष काट दिए गए। तीसरे, प्रदेश में एक अत्यंत ताकतवर शराब लॉबी खड़ी हो गई। चौथे, मुलताई गोलीकांड जिसमें बड़ी संख्या में आंदोलनकारी किसान मारे गए और उनके नेता समाजवादी विधायक डॉ सुनीलम को जेल में ठूंस दिया गया। पांचवे, अंबानी घराने से उनकी निकटता की चर्चा होने लगी थी। होशंगाबाद ज़िले में बाबई स्थित विशाल शासकीय कृषि प्रक्षेत्र उसे देना शायद तय भी हो गया था जो रोक दिया गया। छठे, लोकलुभावन राजनीति के चक्कर में उन्होंने सड़क -बिजली-पानी जैसे बुनियादी प्रश्नों की ओर ध्यान देना बंद कर दिया।

दिग्विजय सिंह के शासनकाल की सबसे बड़ी परिघटना छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की है। भारतीय जनता पार्टी के अजेंडे में तीन नए राज्यों की स्थापना का मुद्दा पहले से था। छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस सहित सभी पार्टियां नए राज्य गठन का समर्थन कर रहीं थीं। एकमात्र मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर इसके विरोध में थी। मैं जितना समझ पाया, दिग्विजय सिंह ने मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया। विधानसभा में नए राज्य के लिए प्रस्ताव भी आसानी से पारित हो गया। लेकिन जब राज्य गठन के लिए व्यवहारिक तैयारियां शुरू हुईं तब मुख्यमंत्री का एक नया रुख देखने मिला। परिसंपत्तियों के बंटवारे, अधिकारियों- कर्मचारियों के कैडर आबंटन आदि विषयों पर एक तयशुदा फार्मूले के अंतर्गत काम होना था। उसमें बारंबार बदलाव किए गए। मुख्यमंत्री जिन अधिकारियों से नाराज थे या जो उनकी निगाह में नाकाबिल थे, उन्हें छत्तीसगढ़ भेजने की हर संभव कोशिश की गई और जो चहेते अफसर थे, उन्हें किसी न किसी बहाने भोपाल में रोक लिया गया। परिणामस्वरूप छत्तीसगढ़ आए अफसरों में लंबे समय तक आक्रोश बना रहा। कुछ ने तो अदालत तक की शरण ली। लेकिन इस सब के बीच 31 अक्तूबर 2000 की शाम मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल के निवास ''राधेश्याम भवन'' पर उत्तेजित कांग्रेसजनों के क्रोध का सामना जिस संयम के साथ किया, मुख्यमंत्री होते हुए शारीरिक आक्रमण को भी झेल लिया, और अजीत जोगी को हाईकमान की इच्छानुसार मुख्यमंत्री बनने देने में बाधा उत्पन्न नहीं होने दी, वह उनके राजनीतिक कौशल की सबसे बड़ी परीक्षा थी, जिसमें वे स्वर्ण पदक विजेता सिद्ध हुए। भले ही नए राज्य के इतिहास में यह पूर्व संध्या एक शर्मनाक घटना के रूप में दर्ज की गई हो। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 19 नवंबर 2020 को प्रकाशित

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