Wednesday, 4 November 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 22

 

 'आपसे यह उम्मीद नहीं थी।'

'आप ही ऐसा लिखेंगे तो हम और किसके पास जाएंगे?'

'हम तो हमेशा से आप पर भरोसा करते आए हैं।'

वे सात-आठ जन थे और एक स्वर में एक साथ लगभग इन्हीं शब्दों में शिकायत कर रहे थे। सुबह का समय था। स्थान था मेरा तत्कालीन निवास। इस दस्ते का नेतृत्व कर रहे थे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दिग्विजय सिंह। यह वाकया सन् 1987 का है। एक दिन पहले हरियाणा विधानसभा के चुनावी नतीजे घोषित हुए थे। कांग्रेस को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था। देशबन्धु ने अपने संपादकीय में राजीव गांधी को सलाह दी थी कि इन परिणामों को देखते हुए उन्हें प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देते हुए लोकसभा भंग करने व मध्यावधि चुनाव करवाने की सिफारिश कर देना चाहिए। इस संपादकीय को पढ़ कर ही दिग्विजय सहित ये सारे नेता हमें उलाहना देने आए थे। उसी दिन राजीव गांधी की आमसभा रायपुर में होनी थी जो आनन-फानन में स्थगित कर दी गई थी। प्रदेश अध्यक्ष इसी कार्यक्रम के लिए आए थे। मैंने उनके उलाहने के जवाब में यही कहा कि हमारी सलाह कांग्रेस के हित में है। देश का माहौल धीरे-धीरे कांग्रेस के विरोध का बन रहा है। अभी तीन चौथाई बहुमत है। मध्यावधि चुनाव होंगे तो कामचलाऊ बहुमत मिल सकता है, लेकिन 1989 आते तक बहुत देर हो जाएगी। मेरे उत्तर से वे संतुष्ट नहीं दिखे, लेकिन पाठक जानते हैं कि निर्धारित समय पर हुए आम चुनाव में कांग्रेस किस तरह पराजित हुई। कुछ माह बाद मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में भी यही परिणाम निकले।

बहरहाल, 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार भंग कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। 1993 में कुछ महीने बाद विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला तथा दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। मैं उस समय उड़ीसा (अब ओडिशा) के प्रवास पर था। जैसे ही समय मिला, मैंने भोपाल का कार्यक्रम बनाया। नए-नए बने मुख्यमंत्री से उसी उत्साह से मुलाकात हुई जैसी पहले होती रहीं थीं। उन्हें किसी स्वागत समारोह में जाना था। वहां मुझे अपने साथ ही बैठाकर ले गए। साथ में ही वापस लौटे। अपनी आदत के मुताबिक मैं मुख्यमंत्री के लिए प्रदेश के विकास से संबंधित कुछ नोट तैयार करके ले गया था, जो मैंने उन्हें दे दिए कि कार में बैठे-बैठे पढ़ लेंगे। उन्होंने एक सरसरी निगाह उन पर फिराई और कागज की उसी थप्पी में बेपरवाही से रख दिए जिसमें उक्त कार्यक्रम में मिले आवेदन, ज्ञापन इत्यादि भी थे। मुझे थोड़ी शंका हुई जिसे मैंने व्यक्त नहीं किया। लेकिन अगले दिन किसी पत्र में खबर थी कि मुख्यमंत्री के नाम लिखे बहुत से कागजात कचरे के ढेर में मिले।

दिग्विजय सिंह से मिलने के लगभग तुरंत बाद ही अनुभवी विधायक तथा गृह व जनसंपर्क मंत्री चरणदास महंत के साथ भेंट हुई। मेरे वरिष्ठ सहयोगी राज भारद्वाज भी साथ थे। महंतजी के साथ पुराना परिचय था। जैसा मैं समझ पाया, उनकी उत्सुकता यह जानने में थी कि नई सरकार, विशेषकर मुख्यमंत्री, के प्रति देशबन्धु का रुख क्या होगा। मेरे उत्तर का सार यही था कि अखबार की नीति व पुराने संबंधों को देखते हुए उन्हें हमारी ओर से आश्वस्त रहना चाहिए। आखिरकार, दिग्विजय प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त होने के बाद पहली बार रायपुर आए थे तो विमानतल से पहले देशबन्धु ही आए थे। और जब हमारे कोंडागांव संवाददाता प्रेमराज कोटड़िया को भाजपा सरकार ने नक्सली होने के आरोप में टाडा के तहत गिरफ्तार कर लिया था, तब दिग्विजय ही तो थे जो मेरे फोन पर राज्यपाल को रिहाई हेतु ज्ञापन देने गए थे। यही क्यों, एक साल पहले उन्होंने स्वयं अपनी पहल पर सांप्रदायिकता के खिलाफ़ देशबन्धु में लगातार लेख लिखे थे। 

मैंने महंतजी से सिर्फ दो अनुरोध किए- पहला प्रेमराज की रिहाई के लिए। दूसरा कि देशबन्धु के साथ विज्ञापन के मामले में अन्याय न हो। हमारी यह मुलाकात पूरी तरह सद्भावनापूर्ण माहौल में संपन्न हुई।  मैं यह विश्वास लेकर लौटा कि नई सरकार का रवैया हमारे प्रति सकारात्मक रहेगा। इस बात को कुछेक सप्ताह ही बीते होंगे कि एक दुर्घटना में घायल हो जाने के कारण राज भारद्वाज को अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। मधुमेह के चलते उनके पैर का घाव भर नहीं रहा था व स्वास्थ्य में गिरावट आ रही थी। उन्हें एम्स, दिल्ली ले जाना एकमात्र विकल्प दिखाई दे रहा था। ऐसे समय दिग्विजय सिंह ने सदाशय का परिचय देते हुए उन्हें शासकीय विमान से दिल्ली भेजने की व्यवस्था की। स्वाभाविक था कि हम उनके प्रति कृतज्ञता अनुभव करते, तथा महंतजी के साथ बातचीत में जो विश्वास जागृत हुआ था उसमें वृद्धि होती। 

अफसोस कि एक साल बीतते न बीतते हमें व्यवहारिक धरातल पर जो अनुभव हुआ वह हमारी अपेक्षा तथा विश्वास से विपरीत दिशा में था। कुछेक व्यवसायिक घरानों द्वारा संचालित पत्रों के अलावा एक नए-नए प्रारंभ हुए अखबार को प्रचुर मात्रा में सरकारी विज्ञापन मिलने लगे व देशबन्धु की अवहेलना होने लगी तो समझ ही नहीं आया कि ऐसा क्यों हो रहा हो! सच तो यह है कि अपने प्रति इस सरकारी बेरुखी का सबब आज भी मेरे लिए एक पहेली ही है। क्या इसका यह कारण था कि शायद तब तक दिग्विजय सिंह ने एक अनोखा निर्णय लेते हुए अपने पास एक भी विभाग न रख अपने विश्वासपात्र अधिकारियों पर सारा कामकाज छोड़ दिया था? बाबूशाही सोच का उन दिनों का एक उदाहरण याद आता है। मैं ठंड के मौसम में दिल्ली-भोपाल में सामान्यत: कोट-पैंट के साथ टाई लगाता था। एक जनसंपर्क संचालक ने मेरी वेशभूषा देखकर कहा- अरे, आप तो बिल्कुल आईएएस लग रहे हैं।  गोया उस ड्रेस पर अफसरों का ही एकाधिकार हो! एक अन्य जनसंपर्क संचालक ने मुझ पर एहसान जताने की कोशिश की- आपको अधिमान्यता समिति में रख लिया है। आपके लिए अच्छा रहेगा। मैंने उनका ज्ञानवर्धन किया- मैं बारह साल से इस कमेटी में हूं। मुझे क्या लाभ होगा पता नहीं लेकिन मेरे रहने से विभाग को कोई लाभ हो सके तो आप देख लीजिए। मेरा उत्तर सुनकर वे झेंप गए। इन दोनों महानुभावों की पदस्थापना तो मुख्यमंत्री ने ही की थी। अगर ऐसे अधिकारियों के निर्देश से देशबन्धु के विज्ञापनों में कटौती हुई हो तो दोष किसे दिया जाए?

लेकिन मुझे संदेह होता है कि मामला इतना सीधा नहीं था। दरअसल, एलपीजी (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) की अवधारणा जिसने 1980 के आसपास भारतीय राजनीति में सेंध लगाना शुरू किया था, दस साल बीतते न बीतते उसका दमदार हस्तक्षेप हमारे नागरिक जीवन के लगभग हर पहलू में होने लगा था। समाचारपत्र व्यवसाय भी उसकी चपेट में आ चुका था। अखबार में संपादक नामक संस्था विलोपित हो रही थी तथा पूंजीपति मालिकों के नुमाइंदे पत्रकार बन सत्ताधीशों से रिश्ते बनाने लगे थे। राजनेता हों या अफसर, उनके दैनंदिन कार्य इन नुमाइंदों की मार्फत सध जाते थे। उधर मालिकों के साथ उनकी व्यापारिक भागीदारी आम बात हो गई थी। दोनों पक्षों के लिए यह इसमें फायदा ही फायदा था। इस अभिनव व्यवस्था में वह अखबार इनके लिए गैर उपयोगी ही था, जिसका कोई अन्य व्यवसायिक हित न हो और जिसकी रुचि ईवेंट मैनेजमेंट की बजाय मुद्दों की पत्रकारिता करने में हो। कहना होगा कि दीर्घकालीन संबंधों की जगह तात्कालिक लाभ पर आधारित रिश्तों को तरजीह मिलने लगी थी। यह बदलाव हमारी समझ में तुरंत नहीं आया।

अपनी नासमझी का किंचित अहसास मुझे 1996 के लोकसभा चुनाव के थोड़े पहले हुआ। दिग्विजय सिंह रायपुर प्रवास पर आए। रात उनका फोन आया कि क्या कल सुबह मैं चाय पर आ सकूंगा। न कहने का सवाल ही नहीं था। दूसरे दिन मैं नियत वक्त पर सर्किट हाउस पहुंच गया। मेरे पहुंचने के पहले एक उदीयमान नेता घर से एक बड़े टिफिन में नाश्ता लेकर आए थे। दिग्विजय ने उनको रवाना किया और मुझसे मुखातिब हुए। चाय पीते-पीते उन्होंने मुझसे कहा- चुनाव में आपका समर्थन चाहिए। मैंने उत्तर दिया- एक सीट छोड़कर। सुनकर उनकी मुखमुद्रा कुछ बदली, फिर जोर से हंसते हुए बोले- अरे, उस सीट की बात कौन कर रहा है। यह एक सीट सतना की थी जहां से इस बार अर्जुनसिंह तिवारी कांग्रेस की टिकट पर किस्मत आजमा रहे थे। सर्किट हाउस से लौटते समय मैंने सोचा कि चुनाव में तो हम सामान्यत: कांग्रेस का ही समर्थन करते हैं। दिग्विजय भी यह जानते हैं फिर उन्होंने यह बात मुझसे क्यों की! तभी जैसे बिजली कौंधी और मुझे समझ आया कि वास्तव में वे इस एक सीट पर ही समर्थन की गारंटी चाहते थे, क्योंकि हमारा झुकाव अर्जुनसिंह की तरफ था। दिग्विजय सिंह ने उस क्षण भले ही बात को हंसकर टाल दिया हो, लेकिन वे भीतर से कहीं आहत अवश्य हुए जिसका परिणाम हमें आने वाले दिनों में देखने मिला। (अगले सप्ताह जारी)

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