Tuesday, 24 November 2020

कविता: मांगपत्र

 


हुज़ूर ! 

क्या मुझे इजाज़त है

कि मैं अपने दिल की खिड़कियाँ

रौशनी के कोमल स्पर्श के लिए खोल सकूँ?

और फिर, दूर से ही सही,

जीवन की खूबसूरत नेमतों को निहार सकूँ?


हुज़ूर!

तीन सौै पैंसठ दिन में

सिर्फ एक दिन के लिए,

क्या मैं

आपकी हर वक्त की

यह करो और यह न करो

से मुक्त हो,

अपने आपको पा सकती हूूँ 

अपने औरत होने को?


हुज़ूर !क्या मुझे इजाज़त है

कि मैं हरी घास पर  लेटने की

अपनी आज़ादी हासिल कर सकूँ,

और प्रतीक्षा करती धरती को

अपनी देह और आत्मा की

गरमाहट से सहला सकूँ

सूरज की किरणों से कुछ ज्यादा

मुरव्वत के साथ,

या फिर सुदूर मैदानों में

किसी अकेले पेड़ की डाल पर बैठ

पक्षियों के सुर में सुर मिलाकर गा सकूँ,

या नदियों से एकाकार हो

तैर लूँ उल्लास में भीगी मछलियों के साथ,

और बारिश के साथ अपनी

कानाफूसियाँ याद करते हुए

समर्पित कर दूँ खुद को

अपनी जन्म-जन्मांतर से प्रतीक्षित 

स्वतंत्रता के सामने?


हुज़ूर!

क्या मुझे इजाज़त है

भले ही एक क्षण के लिए, कि

आपकी बनाई चौहद्दी के भीतर

रहते हुए मैं राहत पा सकूँ

बात करो, रुक जाओ, ऐसा नहीं,

और कभी नहीं के आदेशों के दर्द से ?


आला हुज़ूर !

अगर आपकी कृपा हो जाए तो

क्या मैं प्रेम का स्वप्न देख लूँ?

बगावत की पुरानी कविताओं की तड़प,

और एक गहरे चुंबन की उत्तेजना तथा

आज़ादी की खिलती चमक के बीच

घरेलू कामकाज की थकावट

जो औरतजात पर ही थोपी जाती है,

अपने आपको कहीं दूर ले जाऊँ?


हुज़ूर!

क्या मुझे इजाज़त है कि

चंद लम्हों के लिए मैं

सुई और धागे से,

कपड़ों और इस्तरी से

चूल्हे और चौके से

छूट्टी पा लूं,

और प्यार के अनंत आकाश तले

अपने होने को विलीन कर दूँ

भावना और बुद्धि के उन प्यार क्षणों में

जिनकी इजाज़त आपकी संहिता ने मुझे कभी नहीं दी?


हुज़ूर!

हुज़ूर!

क्या मुझे इजाज़त है कि

किसी दिन मैं पड़ौसी से

दुआ-सलाम कर सकूँ

या फिर अपने दबे हुए आँसुओं की लड़ी से

किसी मुसाफिर के लिए

बुन सकूँ एक मफलर?

और क्या मुझे इजाज़त है कि

बिना किसी परमिट के

गुलाबों की वेदी पर चढ़

बसंत के खुशनुमा बागों में भटक सकूँ?


हुज़ूर!

अगर आपकी कृपा हो जाए तो

क्या मैं थोड़ी सी खिल्ली उड़ा लूँ?

हाँ, मेरे आका, हँस लूँ, खिल्ली उड़ते हुए,

और तुम्हारे मुँह पर कह सकूँ

कि तुम्हारी लगाई पाबंदियाँ शर्मनाक हैं

और जिसे तुम न्याय और उचित कहते हो

दरअसल, वह बेहद घटिया शै है।


मूल फारसी व अंग्रेज़ी अनुवाद-

फरीदा हसनज़ाद मुस्तफावी

(Farideh Hassanzade Mostafavi)


अंग्रेजी से रुपांतर: ललित सुरजन

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