"इस संबंध में श्रीयुत
गांधी का परिश्रम और अध्यवसाय सर्वथा प्रशंसनीय है। आपने ही अफरीका के
हिन्दुस्तानियों में जीवन का संचार किया है। आप जूनागढ़ के निवासी हैं।
बैरिस्टर हैं। तो भी आप जेल जाने, नाना प्रकार की यातनाएं भोगने और
तिरस्कार पाने पर भी अपने कर्तव्य से च्युत नहीं हुए। आपकी धर्म-पत्नी,
आपके सुयोग्य पुत्र-सभी आपके व्रत के व्रती हुए। आपके सहायकों ने भी आपका
पूरा साथ दिया। उनमें से मिस्टर पोलक और मिस्टर कालनबाक आदि विदेशी सज्जनों
तथा 2500 से ऊपर हिन्दुस्तानियों ने कड़ी जेल की सजा भी भुगती।
हमें दक्षिणी अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों के मुख-पत्र इंडियन ओपिनियन का एक विशेष अंक (गोल्डन नंबर) मिला है। यह पत्र श्रीयुत गांधी ही का निकाला हुआ है। फीनिक्स नामक स्थान से अंगरेजी और गुजराती में निकलता है। उसके इस अंक में पूर्वोक्त निष्क्रिय-प्रतिरोध की बड़ी ही हृदय-द्रावक कहानी है। मिस्टर गांधी और अन्यान्य नामी आदमियों की सम्मतियां भी हैं। जेल में जाने तथा अन्य प्रकार की सहायता देने वाले नर-नारियों के छोटे-मोटे 138 चित्रों से यह अंक विभूषित है। यह मिस्टर गांधी के निष्क्रिय प्रतिरोध की यादगार में निकाला गया है। दिव्य है। पढऩे और संग्रह में रखने की चीज है।
पाठकों को यह मालूम ही होगा कि श्रीयुत गांधी अब भारतवर्ष लौट आए हैं।"
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अप्रैल 1915 में 'निष्क्रिय प्रतिरोध का परिणाम शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया था, जिसके अंतिम अंश ऊपर उद्धृत किए गए हैं। इस लेख से एक तो यह पता चलता है कि महात्मा गांधी को इस समय तक "महात्मा" की उपाधि नहीं मिली थी और दूसरे यह कि ''सविनय अवज्ञा" संज्ञा भी उस समय तक प्रचलन में नहीं आई थी। द्विवेदी जी ने इसके स्थान पर "निष्क्रिय प्रतिरोध" संज्ञा का इस्तेमाल किया है। इस पूरे लेख को पढऩे से एक अधिक महत्वपूर्ण तथ्य स्थापित होता है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी निरे साहित्य संपादक नहीं थे। आमतौर पर उन्हें सरस्वती के संपादक के रूप में जाना जाता है और सामान्य समझ यही है कि सरस्वती अपने समय की श्रेष्ठतम साहित्यिक पत्रिका थी और उसने भविष्य के लिए उज्ज्वल प्रतिमान स्थापित किए हैं। यह लेख दर्शाता है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि साहित्य तक सीमित नहीं थी बल्कि उनका विचार फलक लगभग निस्सीम था।
इस वर्ष महावीर प्रसाद द्विवेदी की साद्र्धशती है। 15 मई 1864 को उनका जन्म हुआ था। यह एक उचित अवसर पर है कि हिन्दी के इस पुरोधा के व्यक्तित्व और कृतित्व से एक बार फिर नए सिरे से परिचय कर लिया जाए। मेरे लिए सौभाग्य की बात थी कि देशबन्धु लाइब्रेरी में द्विवेदी जी द्वारा लगभग सौ वर्ष पूर्व लिखी गई कुछ किताबों के प्रथम संस्करण आज भी सुरक्षित हैं जिनके पीले जर्जर हो चुके पन्नों को बहुत धीरज और सावधानी के साथ पलटते हुए मैं उपरोक्त लेख जैसी उनकी कुछ ऐसी रचनाएं पढ़ सका जो मैंने पहले नहीं पढ़ी थी। परवर्तीकाल में अन्य विद्वानों ने उनका जो मूल्यांकन किया उसमें से भी कुछ सामग्री इस लाइब्रेरी में उपलब्ध है। मैं पिछले एक सप्ताह से इन पुस्तकों के पन्ने उलट-पलट रहा हूं और यह देखकर सचमुच विस्मृत हूं कि एक शताब्दी पूर्व जब सूचनाओं का आदान-प्रदान आज जैसा सरल व त्वरित नहीं था तब परिश्रम व मनोयोग से उन्होंने देश-दुनिया के तमाम विषयों के बारे में गहन अध्ययन किया था।
महावीर प्रसाद द्विवेदी "सरस्वती" के पहले संपादक नहीं थे। पत्रिका प्रारंभ होने के तीन वर्ष बाद उन्हें यह दायित्व मिला था। रेल विभाग की नौकरी करते हुए उन्होंने सरस्वती का संपादन हाथ में लिया था। साल दो साल बाद सरकारी नौकरी छोड़कर उन्होंने पूर्णकालिक संपादन भार ले लिया था। वे लगभग दो दशक तक सरस्वती के संपादक रहे तथा इसे हिन्दी जगत में उन्होंने वैचारिक उद्वेलन के एक मजबूत मंच के रूप में स्थापित कर दिया। आगे बढऩे के पहले मैं दो संयोगों का जिक्र करना चाहता हूं। एक तो उन्होंने पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को अपना उत्तराधिकारी बनाया जो छत्तीसगढ़ के थे तथा इसी छत्तीसगढ़ के मुकुटधर पाण्डेय को सरस्वती में प्रकाशित अपनी कविता ''कुररि के प्रति" के प्रकाशन से छायावाद के प्रथम कवि होने का सम्मान नसीब हुआ। मैं मूल विषय पर वापिस लौटता हूं।
नंदकिशोर नवल ने साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ''भारतीय साहित्य के निर्माता" पुस्तकमाला के अंतर्गत लिखी अपनी पुस्तक ''महावीर प्रसाद द्विवेदी" में एक सुदीर्घ अध्याय ''नवचेतना के संवाहक" शीर्षक से लिखा है। इसमें उन्होंने सप्रमाण स्थापना की है कि द्विवेदी जी प्रगतिशील दृष्टिकोण रखते थे। उन्होंने अपने अनेक लेखों में किसानों के हक में आवाज उठाई। खेती की बुरी दशा, किसानों का संगठन इत्यादि लेखों व संपत्ति शास्त्र पुस्तक का जिक्र श्री नवल इस सिलसिले में करते हैं। ''खेती की बुरी दशा" शीर्षक लेख का एक अंश यहां दृष्टव्य हैं- ''इन जमींदारों का जमीन पर क्या हक है, कुछ समझ में नहीं आता? बीच में इन्हें डालकर क्यों गवर्नमेंट इनका घर भरती और काश्तकारों का मुना$फा कम करती है? जो काश्तकार जेठ की प्रचंड धूप और सावन-भादो की निरंतर झड़ी में खेतों में परिश्रम करते हैं वे उन खेतों से होने वाले नफे के मुस्तहक हैं या आराम-कुरसी पर लेटने और मोटरकार पर दौड़ लगाने वाले जमींदार?" इसके अलावा वे द्विवेदी जी द्वारा सरस्वती में प्रकाशित कुछ अन्य लेखकों यथा ईश्वर दास मारवाड़ी व गंगाधर पंत के लेखों का भी हवाला देते हैं।
नंदकिशोर नवल एक अन्य संदर्भ में भी द्विवेदी जी की प्रगतिशील सोच को रेखांकित करते हुए उनके निरीश्वरवाद, श्री हर्ष का कलयुग, वेद, इत्यादि लेखों के उद्धरण देते हैं। ''श्री हर्ष का कलयुग" लेख का एक अंश यहां प्रस्तुत है- ''आपके वेदों में लिखा है कि यज्ञ करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। लिखा है न? जरा बताइए तो सही, किस-किस ने यज्ञ करके स्वर्ग पाया है। वेदों में अगर लिखा हो कि पत्थर फेंकने से वे पानी पर तैरने लगते हैं, तो क्या आप वेदों की इस उक्ति को भी सच मान लेंगे?"
द्विवेदी जी द्वारा मैथिलीशरण गुप्त को लिखे एक पत्र की पंक्तियां भी इसके समर्थन में उद्धृत हैं- ''बुद्ध को आप ही ने अवतार माना है। वेदों को भी आप ही ने ईश्वरकृत मान रक्खा है। ईश्वर के यहां से इन विषयों में कोई दस्तावेज हम लोगों के पास नहीं।"
नंदकिशोर नवल के लेख में की गई स्थापनाएं हमें प्रसन्न कर सकती हैं, लेकिन मैंने जितना कुछ पढ़ा है उस आधार पर कहना होगा कि यह स्थापना एक अधूरी सच्चाई बयान करती हैं। सन् 1927 में इंडियन प्रेस, प्रयाग से द्विवेदी जी की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी, जिसका शीर्षक ही ''आध्यात्मिकी" है। इस पुस्तक में बारह लेख हैं जिनमें से कुछ के शीर्षक जान लीजिए- आत्मा के अमरत्व का वैज्ञानिक प्रमाण, पुनर्जन्म, पुनर्जन्म के प्रत्यक्ष प्रमाण, कुंडलिनी इत्यादि। नवलजी ने निरीश्वरवाद शीर्षक जिस लेख का जिक्र किया है वह भी इस पुस्तक में संकलित है। इस लेख में द्विवेदी जी चार्वाक, बौद्ध एवं जैन मतों का खंडन ही करते हैं। द्विवेदी जी का पुनर्जन्म पर अटूट विश्वास था तथा इस बारे में उन्होंने भारत और अन्यत्र वर्णित पुनर्जन्म की अनेक घटनाओं का विस्तारपूर्वक जिक्र किया है। उन्होंने ईश्वर शीर्षक लेख में ''आस्तिक" और ''नास्तिक" के बीच एक लम्बी बहस चलाई है, जिसके अंत में आस्तिक, नास्तिक से कहता है-
''इसलिए आप अब अपने घर पधारिए : कुछ दिन सत्संग कीजिए, सद्विद्या पढि़ए, तब आप इस विषय में वाद्-प्रतिवाद् करने के लिए कमर कसिए। अभी आप इस लायक ही नहीं।" यह लेख उन्होंने 1904 में लिखा था।
महावीर प्रसाद द्विवेदी के ईश्वर और आध्यात्म के संबंध में क्या विचार थे, इससे उनका मूल्यांकन करने में हमें कोई फर्क नहीं पडऩा चाहिए। हमें पता है कि विश्व के बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी गहरी धार्मिक आस्था रखते रहे हैं। दरअसल यह एक जटिल प्रश्न है। एक व्यक्ति की वैज्ञानिक-सामाजिक सोच और उसकी निजी आस्था के बीच क्या अंतर्विरोध तथा सामंजस्य होता है या हो सकता है इसे कम से कम मैं तो नहीं समझ पाता। खैर! इस प्रसंग को यही छोड़ देते हैं। इतना हम जान चुके हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी किसानों की दुर्दशा से चिंतित थे तथा उनके प्रति वे गहरी सहानुभूति रखते थे। गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार के विरुद्ध जिस आंदोलन की अगुवाई की उसका भी उल्लेख हमने शुरू में किया है। इसी तरह से इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, विज्ञान, पर्यटन शिक्षा जैसे भांति-भांति के विषयों में उनकी रुचि थी। वे बहुपठित व्यक्ति थे तथा निश्चित ही उस समय उपलब्ध अंग्रेजी पुस्तकों व पत्र-पत्रिकाओं का वे नियमित अध्ययन करते होंगे तभी ऐसे तमाम विषयों पर वे अपने पाठकों को नवीनतम जानकारियां दे सके। इस तरह लेखन और संपादन दोनों में वे अपनी समाज सजगता का परिचय देते हैं।
मैथिलीशरण गुप्त के निजी प्रकाशन गृह साहित्य सदन, चिरगांव, झांसी से 1929 में उनकी ''प्रबंध पुष्पांजलि" नामक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इसमें एक लंबा लेख ''शिक्षा" शीर्षक से है। जिसमें वे कहते हैं कि सिर्फ किताबों का ज्ञान शिक्षा नहीं है तथा बच्चों को शिक्षित करने के लिए माता-पिता का क्या धर्म है इस पर नसीहत देते हैं। वे चाहते हैं कि शिक्षा ऐसी हो जो आदमी को सार्वजनिक कर्तव्य करने के योग्य बनाए। मजेदार बात यह है कि इस पुस्तक का अगला लेख भारत में 1921 में हुई चौथी जनगणना पर है जिसे वे मनुष्य गणना लिखते हैं तथा प्राचीनकाल से जनगणना का इतिहास बताते हुए उसकी उपयोगिता की हिमायत करते हैं। इसके बाद का लेख उत्तरप्रदेश के बलरामपुर जिले में हाथियों के खेदा पर है जिसमें जंगली हाथियों को पकड़कर पालतू बनाने का विवरण है। याने तीन लेख और तीनों के विषय एक दूसरे से बिलकुल अलग। चौथा लेख युद्ध संबंधी अन्र्तजातीय नियम पर है। आज जिसे हम जिनेवा कन्वेन्शन के नाम से जानते हैं, यह लेख उसकी पृष्ठभूमि को विस्तार में समझाता है। इस पुस्तक के अन्य लेख उत्तरध्रुव व दक्षिणध्रुव के खोज अभियानों व इटली के विसूवियस में ज्वालामुखी विस्फोट पर हैं।
द्विवेदीजी की एक और पुस्तक है जिसका सरल सा शीर्षक है- "संकलन"। नब्बे वर्ष पूर्व प्रकाशित इस पुस्तक में भी विविध विषयों पर लिखे गए लेख संकलित किए गए हैं। ''अमेरिका के गांव" शीर्षक लेख की पहली पंक्ति है- ''जिस तरह भारत वर्ष अत्यंत दरिद्र है उसी तरह अमेरिका अत्यंत धनवान है।" इसके बाद वे कहते हैं- ''हमारे देश के गांव दरिद्रता और मूर्खता के केन्द्र स्थान हैं... यदि गांवों के झोपड़ों के अधिकारियों को दरिद्रता और अविद्या का मूर्तिमान अवतार कहा जाए तो कुछ अत्युक्ति नहीं।" इस लेख को पढ़कर पाठक चौंक सकते हैं। वे लोग जिन्हें गांवों का जीवन रोमांटिक लगता है वे नाराज भी हो सकते हैं, किन्तु आगे चलकर बाबा साहेब आम्बेडकर ने भारत के गांवों के बारे में जो विचार प्रगट किए वे उनसे भिन्न नहीं हैं। इस पुस्तक के एक लेख में वे पनडुब्बी की बनावट और उसके उपयोग का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं, तो एक अन्य लेख में वे हवाई जहाज द्वारा यात्रा का रोचक वर्णन प्रस्तुत करते हैं। 1912 में प्रकाशित यह लेख उस समय लिखा गया था जब यात्रा एकदम शुरूआती दौर में थी और बड़ी हद तक अजूबा थी। इस लेख का शीर्षक ''व्योमयान से मुसाफिरी" है। इस पुस्तक में भारत, चीन और जापान में प्रचलित शिक्षा व्यवस्था पर स्वतंत्र लेख तो हैं ही, एक अच्छा लेख ''गूंगों और बहरों के लिए स्कूल" शीर्षक से भी है।
इस तरह हम देख सकते हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती के संपादन तथा निज लेखन दोनों माध्यमों से हिन्दी समाज में एक तरफ इतिहासबोध जागृत करने का प्रयत्न किया तथा दूसरी तरफ समसामयिक घटनाचक्र के प्रति उसकी रुचि जगाने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। वे इस मायने में सचमुच प्रगतिशील थे कि भाषा तथा साहित्य को वे सिर्फ मनोविनोद का साधन नहीं मानते थे। उनकी दृष्टि में साहित्य का एक महत्तर उद्देश्य है। वह आत्मनेपद नहीं है और चूंकि वह समाज के लिए है और इसलिए उसकी भाषा में भी सरलता होनी चाहिए। उनके समकालीन माधवराव सप्रे प्रभृत्ति लेखक- संपादक भी यही भावना रखते थे जिसका प्रमाण ''छत्तीसगढ़ मित्र" में देख सकते हैं। अभी कुछ समय पहले तक भारत की हिन्दी पत्रकारिता कमोबेश इसी सोच पर विकसित होते आई है तथा द्विवेदी युग से आज तक का हिन्दी साहित्य का बहुलांश इसका ही प्रमाण है। भाषा व साहित्य पर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जो विचार प्रगट किए हैं उसके कुछ अंश हम नीचे देते हुए अपनी बाात खत्म करते हैं।
''यदि कोई यह कहे कि हिन्दी के साहित्य का मैदान बिलकुल ही सूना पड़ा है तो उसके कहने को अत्युक्ति न समझना चाहिए। दस पांच की किस्से, कहानियां, उपन्यास या काव्य आदि पढऩे लायक पुस्तकों का होना साहित्य नहीं कहलाता और न कूड़े-कचरे से भरी हुई पुस्तकों ही का नाम साहित्य है। इस अभाव का कारण हिन्दी पढऩे-लिखने में लोगों की अरुचि है। हमने देखा है कि जो लोग अच्छी अंग्रेजी जानते हैं, अच्छी तनख्वाह पाते हैं और अच्छी जगहों पर काम करते हैं, वे हिन्दी के मुख्य ग्रंथों और अखबारों का नाम तक नहीं जानते। आश्चर्य यह है कि अपनी इस अनभिज्ञता पर वे लज्जित भी नहीं होते।"
''इस दशा में हमारी राय यह है कि इस समय हिन्दी में जितनी पुस्तकें लिखी जायं, खूब सरल भाषा में लिखी जायं। यथासंभव उनमें संस्कृत के कठिन शब्द न आने पावें। क्योंकि जब लोग सीधी सादी भाषा की पुस्तकों को ही क्यों नहीं पढ़ते, तब वे स्क्रिप्ट भाषा की पुस्तकों को क्यों छूने लगे। अतएव जो शब्द बोलचाल में आते हैं- फिर चाहे वे फारसी के हों, चाहे अरबी के हों, चाहे अंग्रेजी के हों- उनका प्रयोग बुरा नहीं कहा जा सकता। पुस्तक लिखने का मतलब सिर्फ यह है कि उसमें जो कुछ लिखा गया है उसे लोग समझ सकें। यदि वह समझ में न आया अथवा निष्कृष्ठता के कारण उसे किसी ने न पढ़ा, तो लेखक की मेहनत ही बरबाद हो जाती है। पहले लोगों में साहित्य-प्रेम पैदा करना चाहिए। भाषा-पद्धति पीछे से ठीक होती रहेगी।"
हमें दक्षिणी अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों के मुख-पत्र इंडियन ओपिनियन का एक विशेष अंक (गोल्डन नंबर) मिला है। यह पत्र श्रीयुत गांधी ही का निकाला हुआ है। फीनिक्स नामक स्थान से अंगरेजी और गुजराती में निकलता है। उसके इस अंक में पूर्वोक्त निष्क्रिय-प्रतिरोध की बड़ी ही हृदय-द्रावक कहानी है। मिस्टर गांधी और अन्यान्य नामी आदमियों की सम्मतियां भी हैं। जेल में जाने तथा अन्य प्रकार की सहायता देने वाले नर-नारियों के छोटे-मोटे 138 चित्रों से यह अंक विभूषित है। यह मिस्टर गांधी के निष्क्रिय प्रतिरोध की यादगार में निकाला गया है। दिव्य है। पढऩे और संग्रह में रखने की चीज है।
पाठकों को यह मालूम ही होगा कि श्रीयुत गांधी अब भारतवर्ष लौट आए हैं।"
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अप्रैल 1915 में 'निष्क्रिय प्रतिरोध का परिणाम शीर्षक से एक लेख प्रकाशित किया था, जिसके अंतिम अंश ऊपर उद्धृत किए गए हैं। इस लेख से एक तो यह पता चलता है कि महात्मा गांधी को इस समय तक "महात्मा" की उपाधि नहीं मिली थी और दूसरे यह कि ''सविनय अवज्ञा" संज्ञा भी उस समय तक प्रचलन में नहीं आई थी। द्विवेदी जी ने इसके स्थान पर "निष्क्रिय प्रतिरोध" संज्ञा का इस्तेमाल किया है। इस पूरे लेख को पढऩे से एक अधिक महत्वपूर्ण तथ्य स्थापित होता है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी निरे साहित्य संपादक नहीं थे। आमतौर पर उन्हें सरस्वती के संपादक के रूप में जाना जाता है और सामान्य समझ यही है कि सरस्वती अपने समय की श्रेष्ठतम साहित्यिक पत्रिका थी और उसने भविष्य के लिए उज्ज्वल प्रतिमान स्थापित किए हैं। यह लेख दर्शाता है कि महावीर प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि साहित्य तक सीमित नहीं थी बल्कि उनका विचार फलक लगभग निस्सीम था।
इस वर्ष महावीर प्रसाद द्विवेदी की साद्र्धशती है। 15 मई 1864 को उनका जन्म हुआ था। यह एक उचित अवसर पर है कि हिन्दी के इस पुरोधा के व्यक्तित्व और कृतित्व से एक बार फिर नए सिरे से परिचय कर लिया जाए। मेरे लिए सौभाग्य की बात थी कि देशबन्धु लाइब्रेरी में द्विवेदी जी द्वारा लगभग सौ वर्ष पूर्व लिखी गई कुछ किताबों के प्रथम संस्करण आज भी सुरक्षित हैं जिनके पीले जर्जर हो चुके पन्नों को बहुत धीरज और सावधानी के साथ पलटते हुए मैं उपरोक्त लेख जैसी उनकी कुछ ऐसी रचनाएं पढ़ सका जो मैंने पहले नहीं पढ़ी थी। परवर्तीकाल में अन्य विद्वानों ने उनका जो मूल्यांकन किया उसमें से भी कुछ सामग्री इस लाइब्रेरी में उपलब्ध है। मैं पिछले एक सप्ताह से इन पुस्तकों के पन्ने उलट-पलट रहा हूं और यह देखकर सचमुच विस्मृत हूं कि एक शताब्दी पूर्व जब सूचनाओं का आदान-प्रदान आज जैसा सरल व त्वरित नहीं था तब परिश्रम व मनोयोग से उन्होंने देश-दुनिया के तमाम विषयों के बारे में गहन अध्ययन किया था।
महावीर प्रसाद द्विवेदी "सरस्वती" के पहले संपादक नहीं थे। पत्रिका प्रारंभ होने के तीन वर्ष बाद उन्हें यह दायित्व मिला था। रेल विभाग की नौकरी करते हुए उन्होंने सरस्वती का संपादन हाथ में लिया था। साल दो साल बाद सरकारी नौकरी छोड़कर उन्होंने पूर्णकालिक संपादन भार ले लिया था। वे लगभग दो दशक तक सरस्वती के संपादक रहे तथा इसे हिन्दी जगत में उन्होंने वैचारिक उद्वेलन के एक मजबूत मंच के रूप में स्थापित कर दिया। आगे बढऩे के पहले मैं दो संयोगों का जिक्र करना चाहता हूं। एक तो उन्होंने पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी को अपना उत्तराधिकारी बनाया जो छत्तीसगढ़ के थे तथा इसी छत्तीसगढ़ के मुकुटधर पाण्डेय को सरस्वती में प्रकाशित अपनी कविता ''कुररि के प्रति" के प्रकाशन से छायावाद के प्रथम कवि होने का सम्मान नसीब हुआ। मैं मूल विषय पर वापिस लौटता हूं।
नंदकिशोर नवल ने साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित ''भारतीय साहित्य के निर्माता" पुस्तकमाला के अंतर्गत लिखी अपनी पुस्तक ''महावीर प्रसाद द्विवेदी" में एक सुदीर्घ अध्याय ''नवचेतना के संवाहक" शीर्षक से लिखा है। इसमें उन्होंने सप्रमाण स्थापना की है कि द्विवेदी जी प्रगतिशील दृष्टिकोण रखते थे। उन्होंने अपने अनेक लेखों में किसानों के हक में आवाज उठाई। खेती की बुरी दशा, किसानों का संगठन इत्यादि लेखों व संपत्ति शास्त्र पुस्तक का जिक्र श्री नवल इस सिलसिले में करते हैं। ''खेती की बुरी दशा" शीर्षक लेख का एक अंश यहां दृष्टव्य हैं- ''इन जमींदारों का जमीन पर क्या हक है, कुछ समझ में नहीं आता? बीच में इन्हें डालकर क्यों गवर्नमेंट इनका घर भरती और काश्तकारों का मुना$फा कम करती है? जो काश्तकार जेठ की प्रचंड धूप और सावन-भादो की निरंतर झड़ी में खेतों में परिश्रम करते हैं वे उन खेतों से होने वाले नफे के मुस्तहक हैं या आराम-कुरसी पर लेटने और मोटरकार पर दौड़ लगाने वाले जमींदार?" इसके अलावा वे द्विवेदी जी द्वारा सरस्वती में प्रकाशित कुछ अन्य लेखकों यथा ईश्वर दास मारवाड़ी व गंगाधर पंत के लेखों का भी हवाला देते हैं।
नंदकिशोर नवल एक अन्य संदर्भ में भी द्विवेदी जी की प्रगतिशील सोच को रेखांकित करते हुए उनके निरीश्वरवाद, श्री हर्ष का कलयुग, वेद, इत्यादि लेखों के उद्धरण देते हैं। ''श्री हर्ष का कलयुग" लेख का एक अंश यहां प्रस्तुत है- ''आपके वेदों में लिखा है कि यज्ञ करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। लिखा है न? जरा बताइए तो सही, किस-किस ने यज्ञ करके स्वर्ग पाया है। वेदों में अगर लिखा हो कि पत्थर फेंकने से वे पानी पर तैरने लगते हैं, तो क्या आप वेदों की इस उक्ति को भी सच मान लेंगे?"
द्विवेदी जी द्वारा मैथिलीशरण गुप्त को लिखे एक पत्र की पंक्तियां भी इसके समर्थन में उद्धृत हैं- ''बुद्ध को आप ही ने अवतार माना है। वेदों को भी आप ही ने ईश्वरकृत मान रक्खा है। ईश्वर के यहां से इन विषयों में कोई दस्तावेज हम लोगों के पास नहीं।"
नंदकिशोर नवल के लेख में की गई स्थापनाएं हमें प्रसन्न कर सकती हैं, लेकिन मैंने जितना कुछ पढ़ा है उस आधार पर कहना होगा कि यह स्थापना एक अधूरी सच्चाई बयान करती हैं। सन् 1927 में इंडियन प्रेस, प्रयाग से द्विवेदी जी की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी, जिसका शीर्षक ही ''आध्यात्मिकी" है। इस पुस्तक में बारह लेख हैं जिनमें से कुछ के शीर्षक जान लीजिए- आत्मा के अमरत्व का वैज्ञानिक प्रमाण, पुनर्जन्म, पुनर्जन्म के प्रत्यक्ष प्रमाण, कुंडलिनी इत्यादि। नवलजी ने निरीश्वरवाद शीर्षक जिस लेख का जिक्र किया है वह भी इस पुस्तक में संकलित है। इस लेख में द्विवेदी जी चार्वाक, बौद्ध एवं जैन मतों का खंडन ही करते हैं। द्विवेदी जी का पुनर्जन्म पर अटूट विश्वास था तथा इस बारे में उन्होंने भारत और अन्यत्र वर्णित पुनर्जन्म की अनेक घटनाओं का विस्तारपूर्वक जिक्र किया है। उन्होंने ईश्वर शीर्षक लेख में ''आस्तिक" और ''नास्तिक" के बीच एक लम्बी बहस चलाई है, जिसके अंत में आस्तिक, नास्तिक से कहता है-
''इसलिए आप अब अपने घर पधारिए : कुछ दिन सत्संग कीजिए, सद्विद्या पढि़ए, तब आप इस विषय में वाद्-प्रतिवाद् करने के लिए कमर कसिए। अभी आप इस लायक ही नहीं।" यह लेख उन्होंने 1904 में लिखा था।
महावीर प्रसाद द्विवेदी के ईश्वर और आध्यात्म के संबंध में क्या विचार थे, इससे उनका मूल्यांकन करने में हमें कोई फर्क नहीं पडऩा चाहिए। हमें पता है कि विश्व के बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी गहरी धार्मिक आस्था रखते रहे हैं। दरअसल यह एक जटिल प्रश्न है। एक व्यक्ति की वैज्ञानिक-सामाजिक सोच और उसकी निजी आस्था के बीच क्या अंतर्विरोध तथा सामंजस्य होता है या हो सकता है इसे कम से कम मैं तो नहीं समझ पाता। खैर! इस प्रसंग को यही छोड़ देते हैं। इतना हम जान चुके हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी किसानों की दुर्दशा से चिंतित थे तथा उनके प्रति वे गहरी सहानुभूति रखते थे। गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार के विरुद्ध जिस आंदोलन की अगुवाई की उसका भी उल्लेख हमने शुरू में किया है। इसी तरह से इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, विज्ञान, पर्यटन शिक्षा जैसे भांति-भांति के विषयों में उनकी रुचि थी। वे बहुपठित व्यक्ति थे तथा निश्चित ही उस समय उपलब्ध अंग्रेजी पुस्तकों व पत्र-पत्रिकाओं का वे नियमित अध्ययन करते होंगे तभी ऐसे तमाम विषयों पर वे अपने पाठकों को नवीनतम जानकारियां दे सके। इस तरह लेखन और संपादन दोनों में वे अपनी समाज सजगता का परिचय देते हैं।
मैथिलीशरण गुप्त के निजी प्रकाशन गृह साहित्य सदन, चिरगांव, झांसी से 1929 में उनकी ''प्रबंध पुष्पांजलि" नामक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इसमें एक लंबा लेख ''शिक्षा" शीर्षक से है। जिसमें वे कहते हैं कि सिर्फ किताबों का ज्ञान शिक्षा नहीं है तथा बच्चों को शिक्षित करने के लिए माता-पिता का क्या धर्म है इस पर नसीहत देते हैं। वे चाहते हैं कि शिक्षा ऐसी हो जो आदमी को सार्वजनिक कर्तव्य करने के योग्य बनाए। मजेदार बात यह है कि इस पुस्तक का अगला लेख भारत में 1921 में हुई चौथी जनगणना पर है जिसे वे मनुष्य गणना लिखते हैं तथा प्राचीनकाल से जनगणना का इतिहास बताते हुए उसकी उपयोगिता की हिमायत करते हैं। इसके बाद का लेख उत्तरप्रदेश के बलरामपुर जिले में हाथियों के खेदा पर है जिसमें जंगली हाथियों को पकड़कर पालतू बनाने का विवरण है। याने तीन लेख और तीनों के विषय एक दूसरे से बिलकुल अलग। चौथा लेख युद्ध संबंधी अन्र्तजातीय नियम पर है। आज जिसे हम जिनेवा कन्वेन्शन के नाम से जानते हैं, यह लेख उसकी पृष्ठभूमि को विस्तार में समझाता है। इस पुस्तक के अन्य लेख उत्तरध्रुव व दक्षिणध्रुव के खोज अभियानों व इटली के विसूवियस में ज्वालामुखी विस्फोट पर हैं।
द्विवेदीजी की एक और पुस्तक है जिसका सरल सा शीर्षक है- "संकलन"। नब्बे वर्ष पूर्व प्रकाशित इस पुस्तक में भी विविध विषयों पर लिखे गए लेख संकलित किए गए हैं। ''अमेरिका के गांव" शीर्षक लेख की पहली पंक्ति है- ''जिस तरह भारत वर्ष अत्यंत दरिद्र है उसी तरह अमेरिका अत्यंत धनवान है।" इसके बाद वे कहते हैं- ''हमारे देश के गांव दरिद्रता और मूर्खता के केन्द्र स्थान हैं... यदि गांवों के झोपड़ों के अधिकारियों को दरिद्रता और अविद्या का मूर्तिमान अवतार कहा जाए तो कुछ अत्युक्ति नहीं।" इस लेख को पढ़कर पाठक चौंक सकते हैं। वे लोग जिन्हें गांवों का जीवन रोमांटिक लगता है वे नाराज भी हो सकते हैं, किन्तु आगे चलकर बाबा साहेब आम्बेडकर ने भारत के गांवों के बारे में जो विचार प्रगट किए वे उनसे भिन्न नहीं हैं। इस पुस्तक के एक लेख में वे पनडुब्बी की बनावट और उसके उपयोग का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं, तो एक अन्य लेख में वे हवाई जहाज द्वारा यात्रा का रोचक वर्णन प्रस्तुत करते हैं। 1912 में प्रकाशित यह लेख उस समय लिखा गया था जब यात्रा एकदम शुरूआती दौर में थी और बड़ी हद तक अजूबा थी। इस लेख का शीर्षक ''व्योमयान से मुसाफिरी" है। इस पुस्तक में भारत, चीन और जापान में प्रचलित शिक्षा व्यवस्था पर स्वतंत्र लेख तो हैं ही, एक अच्छा लेख ''गूंगों और बहरों के लिए स्कूल" शीर्षक से भी है।
इस तरह हम देख सकते हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती के संपादन तथा निज लेखन दोनों माध्यमों से हिन्दी समाज में एक तरफ इतिहासबोध जागृत करने का प्रयत्न किया तथा दूसरी तरफ समसामयिक घटनाचक्र के प्रति उसकी रुचि जगाने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखी। वे इस मायने में सचमुच प्रगतिशील थे कि भाषा तथा साहित्य को वे सिर्फ मनोविनोद का साधन नहीं मानते थे। उनकी दृष्टि में साहित्य का एक महत्तर उद्देश्य है। वह आत्मनेपद नहीं है और चूंकि वह समाज के लिए है और इसलिए उसकी भाषा में भी सरलता होनी चाहिए। उनके समकालीन माधवराव सप्रे प्रभृत्ति लेखक- संपादक भी यही भावना रखते थे जिसका प्रमाण ''छत्तीसगढ़ मित्र" में देख सकते हैं। अभी कुछ समय पहले तक भारत की हिन्दी पत्रकारिता कमोबेश इसी सोच पर विकसित होते आई है तथा द्विवेदी युग से आज तक का हिन्दी साहित्य का बहुलांश इसका ही प्रमाण है। भाषा व साहित्य पर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जो विचार प्रगट किए हैं उसके कुछ अंश हम नीचे देते हुए अपनी बाात खत्म करते हैं।
''यदि कोई यह कहे कि हिन्दी के साहित्य का मैदान बिलकुल ही सूना पड़ा है तो उसके कहने को अत्युक्ति न समझना चाहिए। दस पांच की किस्से, कहानियां, उपन्यास या काव्य आदि पढऩे लायक पुस्तकों का होना साहित्य नहीं कहलाता और न कूड़े-कचरे से भरी हुई पुस्तकों ही का नाम साहित्य है। इस अभाव का कारण हिन्दी पढऩे-लिखने में लोगों की अरुचि है। हमने देखा है कि जो लोग अच्छी अंग्रेजी जानते हैं, अच्छी तनख्वाह पाते हैं और अच्छी जगहों पर काम करते हैं, वे हिन्दी के मुख्य ग्रंथों और अखबारों का नाम तक नहीं जानते। आश्चर्य यह है कि अपनी इस अनभिज्ञता पर वे लज्जित भी नहीं होते।"
''इस दशा में हमारी राय यह है कि इस समय हिन्दी में जितनी पुस्तकें लिखी जायं, खूब सरल भाषा में लिखी जायं। यथासंभव उनमें संस्कृत के कठिन शब्द न आने पावें। क्योंकि जब लोग सीधी सादी भाषा की पुस्तकों को ही क्यों नहीं पढ़ते, तब वे स्क्रिप्ट भाषा की पुस्तकों को क्यों छूने लगे। अतएव जो शब्द बोलचाल में आते हैं- फिर चाहे वे फारसी के हों, चाहे अरबी के हों, चाहे अंग्रेजी के हों- उनका प्रयोग बुरा नहीं कहा जा सकता। पुस्तक लिखने का मतलब सिर्फ यह है कि उसमें जो कुछ लिखा गया है उसे लोग समझ सकें। यदि वह समझ में न आया अथवा निष्कृष्ठता के कारण उसे किसी ने न पढ़ा, तो लेखक की मेहनत ही बरबाद हो जाती है। पहले लोगों में साहित्य-प्रेम पैदा करना चाहिए। भाषा-पद्धति पीछे से ठीक होती रहेगी।"
अक्षर पर्व जुलाई 2014 में प्रकाशित
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