Wednesday 23 July 2014

क्रूर इजराइल : पीडि़त फिलिस्तीन





 1. ''यहूदियों के प्रति मेरी सहानुभूति न्याय की अनदेखी कर नहीं हो सकती। यहूदियों का एक अपना राष्ट्र बनाने के शोर से मैं बहुत प्रभावित नहीं हूं। वे जोर देकर कहते हैं कि बाइबिल में उनके फिलिस्तीन लौटने का आदेश दिया गया है। मैं पूछता हूं कि दुनिया के तमाम लोगों की तरह वे उसी देश को अपना घर क्यों नहीं मानते जहां उनका जन्म हुआ है और जहां उनको आजीविका मिली है।

2. ''मेरी राय में यहूदियों ने अमेरिका व ब्रिटेन की सहायता से और फिर नग्न आतंकवाद के सहारे फिलिस्तीन पर अपने आपको थोपने में बहुत बड़ी गलती की है। क्या जरूरत है कि वे अमेरिकी पैसे या ब्रिटिश हथियारों से जबरदस्ती वहां जाएं जहां उनका स्वागत नहीं हैं। वे क्यों आतंकवाद का सहारा लेकर फिलिस्तीन में जबरदस्ती घुसना चाहते हैं।


ये कथन किसके हैं, यह जानने लेख के अंत तक जाइए।

भारत की विदेश नीति इस समय कसौटी पर है। पिछले दस दिन से इजराइल द्वारा गाजा-पट्टी पर लगातार जो हमले किए जा रहे हैं उसमें भारत किसका साथ दे? निरपराध और निर्दोष फिलिस्तीन नागरिकों की हत्या करने वाले इजराइल का या पिछले साठ साल से हर तरह की तबाही का सामना कर रहे फिलिस्तीनियों का? क्या भारत को पिछले साठ दशक से चली आ रही उस नीति का पूरी तरह से परित्याग कर देना चाहिए जिससे वह धीरे-धीरे व गुपचुप तरीके से किनारा करते आई है? क्या उसे इजराइल का समर्थन सिर्फ इसलिए करना चाहिए कि उसके किए हमलों में मरने वाले तमाम लोग मुसलमान हैं? क्या हमें वृहत्तर हिन्दू समाज के एक छोटे वर्ग द्वारा फैलाई जा रही मुस्लिम घृणा के आधार पर अपनी विदेश नीति तय करना चाहिए? क्या हम अरब जगत के साथ अपने सदियों पुराने रिश्तों को तोड़ देना चाहते हैं? अगर ऐसा है तो फिर यह भी पूछना होगा कि इजराइल के साथ ऐसी एकजुटता दिखलाने से हमें क्या फायदा होने वाला है?

आज भारत इजराइली युद्ध सामग्री का सबसे बड़ा खरीदार है। अब इस मामले में रूस दूसरे नंबर पर आ गया हैं। इजराइल से सैन्य सामग्री खरीदने का मलतब यही होता है कि उसने फिलिस्तीन के खिलाफ जो लड़ाई छेड़ रखी है उसमें हम अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग कर रहे हैं। इजराइल हमसे जो कमाई कर रहा है वह भी तो इस लड़ाई में लग रही है। हम जानते हैं मोरारजी देसाई के समय इजराइल के साथ हमने संबंध बनाना प्रारंभ किया जो आज इस सीमा तक बढ़ गए कि अब फिलिस्तीन  के प्रति जबानी सहानुभूति व्यक्त करने में भी हमारी सरकार को संकोच होने लगा है! ऐसा करते हुए हम शायद जानबूझकर ही इजराइल की स्थापना के इतिहास को भूलने की कोशिश कर रहे हैं। क्यों हमें पता नहीं है कि पश्चिम की पूंजीवादी ताकतों ने इजराइल का निर्माण कर एक तीर से दो निशाने साधने की कोशिश की थी कि यूरोप यहूदियों से मुक्त हो जाए और साथ ही साथ अरब के तेल भंडारों पर कब्जा करने के लिए उनकी सूबेदारी वहां स्थापित हो जाए?

यहां याद कर लेना मुनासिब होगा कि दो हजार साल पहले रोमन साम्राज्य के दौरान जब यहूदियों पर अत्याचार हुए और बड़ी संख्या में उन्हें वतन छोडऩे पर मजबूर होना पड़ा तब एक भारत ही था जहां उन्हें शांति, सुरक्षा और सम्मान मिला। जो यहूदी यूरोप के देशों में जाकर बसे वहां उनके साथ हमेशा दोयम दर्जे का बर्ताव किया गया और वे हमेशा संदिग्ध बने रहे। शेक्सपियर के ''मर्चेन्ट ऑफ वेनिस" का खलनायक एक यहूदी साहूकार ही तो है। यहूदी कौम में चाहे कितने भी वैज्ञानिक, लेखक, कलाकार, उद्यमी पैदा हुए हों, पश्चिमी जगत ने उन्हें कभी सम्मान नहीं दिया।  हिटलर की जर्मनी में यहूदियों का नरसंहार हुआ, लेकिन उन्हें यूरोप से बाहर करने की योजना तो 1917 के बालफोर घोषणापत्र के साथ ही बनने लगी थी। इससे बड़ा राजनीतिक पाखंड और क्या हो सकता था? एक तरफ आप उन्हें अपना ''होमलैण्ड" देने का वायदा कर सहानुभूति दर्शा रहे हैं और दूसरी तरफ उन्हें अपने बीच से उसी तरह उखाड़ कर फेंक रहे हैं जैसे खेत से खरपतवार।

भारत में आज जो लोग इजराइल के प्रति प्रशंसा भाव से भरे हुए हैं और उसके आपराधिक कृत्यों का समर्थन कर रहे हैं उन्हें अपने आपसे पूछना चाहिए कि भारत ने तो यहूदियों के साथ कभी कोई भेदभाव नहीं बरता, उनके धार्मिक अनुष्ठानों में कभी कोई बाधा नहीं डाली, इनके व्यापार करने में कभी कोई रुकावट पैदा नहीं की फिर ऐसा क्या था कि इस देश में सौ पीढिय़ां बीत जाने के बाद भी उन्होंने भारत को अपना घर नहीं समझा और एक-एक करके सब इजराइल चले गए। जिस मिट्टी में उन्होंने जन्म लिया, जहां का पानी उन्होंने पिया वे उस जगह के नहीं हो पाए, यह कौन सी मानसिकता है? इसके साथ याद तो यह भी रखना चाहिए कि जिन यहूदियों ने अपना घर नहीं छोड़ा था उन्हें अपने हमवतन अरबों से कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचा, फिर वे दो हजार साल के अपने पड़ोसियों के दुश्मन क्यों बनते हैं?

हमें इस तथ्य को भी रेखांकित करना चाहिए कि ऐसा नहीं कि समूची यहूदी कौम या पूरा इजराइल देश ही फिलिस्तीनियों के खिलाफ है। इजराइल के तेल अवीव और अन्य शहरों में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं कि वह अपनी युद्धपरस्त नीति छोड़े। इजराइली फौज के कितने ही सैनिक जेलों में बंद हैं कि उन्होंने मासूम फिलिस्तीनियों पर हथियार चलाने से इंकार कर दिया। न्यूयार्क और लंदन में भी नेतान्यहू सरकार के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं। इजराइल समर्थकों को यह तथ्य भी जान लेना चाहिए कि दुनिया के सबसे महान वैज्ञानिक आइंस्टीन को जब इजराइल का प्रथम राष्ट्रपति बनने का न्यौता दिया गया तो उसे उन्होंने ठुकरा दिया था। भारत की दृष्टि से एक व्यवहारिक बिन्दु गौरतलब है कि अरब देशों में बड़ी संख्या में भारतीय नागरिक काम कर रहे हैं। अगर इजराइल से ज्यादा दोस्ती निभाए तो भारतीयों के रोजगार के अवसर भी छिन सकते हैं और बहुमूल्य विदेशी मुद्रा कमाने का अवसर भी गंवा जा सकता है।

भारत में इस्लाम को लेकर एक दहशत का वातावरण बनाने की कोशिश लंबे समय से की जाती रही है। अभी इसके कारणों में हम विस्तार से नहीं जाना चाहते।  फिलहाल यह तथ्य स्मरण करना उचित होगा कि विश्व में आतंकवाद की जो घटनाएं हाल के वर्षों में घटी हैं उसमें कभी किसी भारतीय का नाम नहीं आया। देश के भीतर जो आतंकी घटनाएं हुईं उनमें से अनेक अदालतों ने पाया कि जिन मुसलमानों को अपराधी घोषित किया गया था वे निर्दोष थे। इसका ताजा उदाहरण सूरत बमकांड के अभियुक्तों की रिहाई है। इस पृष्ठभूमि में इजराइल के साथ संबंध गाढ़े करने के प्रति जो उत्साह भारतीय समाज का एक वर्ग प्रदर्शित कर रहा है,  वह प्रकारांतर से अपने पन्द्रह करोड़ अल्पसंख्यक भाई-बहनों का दिल दुखाने का ही काम है। मैं कहूंगा कि जो तथ्यात्मक स्थिति है उसे स्वीकार कर हमें अपनी मानसिकता बदलने के बारे में सोचना चाहिए।

यह हमें पता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ऐसा कोई भी काम करना नहीं चाहते जिस पर जवाहरलाल नेहरू की छाया पड़ती हो, लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि वे और उनकी विदेशमंत्री सुषमा स्वराज महात्मा गांधी के विचारों पर कम से कम एक बार गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे। बापू के उपरोक्त दो उद्धरण हम सबके लिए प्रासंगिक हो सकते हैं।

बहुत गौर से देखिए कि गांधीजी ने आतंकवाद का इस्तेमाल किसके संदर्भ में किया है!
देशबन्धु में 24 जुलाई 2014 को प्रकाशित

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