रायपुर में शहीदे आजम भगत सिंह की प्रतिमा का सिर काटने का जो आपराधिक कृत्य 21 जुलाई को हुआ है उससे हम सबका सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। यह घटना किसी मनचले, सिरफिरे या विक्षिप्त व्यक्ति द्वारा की गई करतूत नहीं है बल्कि इसके पीछे एक सोची समझी साजिश है और अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि ऐसा अपराध करने वालों को राजनीतिक प्रश्रय मिला हुआ है।
स्मरणीय है कि आज से एक वर्ष पूर्व भी अमर शहीद भगतसिंह की हैटधारी प्रतिमा का सिर अलग कर उसकी जगह रातोंरात पगड़ीधारी सिर लगा दिया गया था। इसे लेकर जब हो-हल्ला मचा तो वापिस पुराने हिस्से को लाकर जोड़ दिया गया। उस समय अव्वल तो सिर काटने का काम किसने किया और दुबारा सिर जोडऩे का कार्य कैसे संपन्न हुआ? इसके बारे में राज्य सरकार, नगर निगम, जिला प्रशासन और पुलिस सब खामोश हैं।
आज जब हैटधारी सिर दुबारा काट दिया गया तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि प्रतिमा की निगरानी की जिम्मेदारी किसकी थी? इससे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि जिला प्रशासन ने आनन-फानन में बैठक बुलाकर सिर पर हैट के बजाय पगड़ी वाली प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय क्यों और किसके कहने से ले लिया? हमारे ध्यान में यह बात आती है कि एक वर्ष पूर्व जब पहली बार यह अपराध किया गया था तब विधानसभा चुनावों के लिए अपने-अपने तरीके से माहौल बनाया जा रहा था। आज केंद्र और राज्य दोनों में एक ही पार्टी की सरकार है एवं नगर निगम चुनाव सामने है तब दुबारा वही अपराध होना संदेह को जन्म तो देता ही है।
रायपुर प्रदेश की राजधानी है। यहां राज्यपाल, मुख्यमंत्री और पूरा मंत्रिमंडल रहता है ऐसे आपराधिक कृत्य पर उनका खामोश रहना हमारी राय में उचित नहीं है। रायपुर नगर निगम में पक्ष-विपक्ष के झगड़ों को लेकर शहर की जो दुर्गति हो रही है उससे सभी परिचित हैं। मुख्यमंत्री सहित अनेक प्रभावशाली नेता नगर की दुरावस्था पर विभिन्न अवसरों पर चिंता व्यक्त कर चुके हैं। फिर आज वे भारत के युवाओं के आदर्श भगत सिंह का ऐसा अनादर देखकर भी खामोश क्यों हैं?
मैं याद करना चाहूंगा कि यह वह रायपुर शहर है जहां नागरिक सहयोग से महात्मा गांधी की प्रतिमा आज़ाद चौक पर स्थापित की गई थी। इसी तरह स्टेशन चौक पर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की प्रतिमा भी नागरिकों ने अपनी पहल पर लगाई थी। इन दोनों अनुष्ठानों में उस समय के प्रशासन या नगरपालिका की कोई भूमिका नहीं थी। यह त्यागमूर्ति ठाकुर प्यारेलाल सिंह का नगर है, जिन्होंने रायपुर नगरपालिका के अध्यक्ष रहते हुए कितनी ही स्वस्थ परंपराएं स्थापित की थीं। आज भगत सिंह की प्रतिमा के साथ ऐसा उच्छृंखल व्यवहार देखकर रोने को मन हो आता है कि हमने पुरखों से शायद कुछ सीखा ही नहीं।
हम जानते हैं कि इस देश में महापुरुषों को जाति, धर्म, भाषा इत्यादि के आधार पर बांटने का खेल पिछले तीस-चालीस साल से चल रहा है। हाल के वर्षों में यह प्रवृत्ति और बढ़ी है। क्या महात्मा गांधी और सरदार पटेल सिर्फ गुजराती थे और रवीन्द्रनाथ ठाकुर और नेताजी बंगाली? क्या शिवाजी सिर्फ मराठों के वरेण्य थे या फिर कुर्मी क्षत्रिय समाज के गौरव? क्या दुर्गावती सिर्फ गोंडों की रानी थीं और अवंतीबाई लोधियों की? क्या चंद्रशेखर आजाद सिर्फ कान्यकुब्ज थे और भगत सिंह सरदार?
हम तो अपने बचपन से भगतसिंह की हैट लगी प्रतिमा देखते आए हैं। लेकिन हमारे लिए यह उतना महत्वपूर्ण नहीं था कि वे किस प्रदेश, किस समाज, किस जाति के थे और वे क्या पहनते थे। आज जिन्होंने भगत सिंह का सिर काटा है, काश वे भगत सिंह का लिखा हुआ पढ़ पाते, उनके विचारों को समझ पाते, उनसे कुछ प्रेरणा लेते तो उन्हें इस अपराध का भागी न बनना पड़ता।
यदि समाज का एक वर्ग अमर शहीद को पगड़ी में ही देखना चाहता है तो वे एक मूर्ति बनवाकर शहर में किसी अन्य प्रमुख स्थान पर उसे स्थापित कर सकते हैं, लेकिन सिर काटने का काम जिन्होंने किया है वे किसी तरह के माफी के हकदार नहीं है। हमारी मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह से अपेक्षा है कि वे निजी दिलचस्पी लेकर इसका सम्मानजनक निराकरण करें।
देशबन्धु में 23 जुलाई 2014 को प्रकाशित
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