Wednesday 16 July 2014

वैदिक-सईद मुलाकात के निहितार्थ





यह
1991-92 की बात है। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के प्रधान संपादक दिलीप पडग़ांवकर ने एक लाइफस्टाइल पत्रिका को साक्षात्कार देते हुए कहा कि वे देश में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का पद संभाल रहे हैं। उसका अभिप्राय यह निकाला गया कि वे अपनी हैसियत प्रधानमंत्री के तुरंत बाद समझते हैं। श्री पडग़ांवकर एक गंभीर अध्ययनशील पत्रकार हैं और यह बात उन्होंने असावधानी के किसी क्षण में कही होगी जिसके फलस्वरूप उन्हें अपना पद छोडऩे पर बाध्य होना पड़ा। इसके बाद से अखबारों में पत्रकार को प्रधान संपादक बनाए जाना ही समाप्त हो गया। यह पुराना प्रसंग सहसा स्मरण हो आया जब सोमवार की रात अर्णब गोस्वामी के एक कार्यक्रम में मैंने पत्रकार बंधु वेदप्रताप वैदिक को यह कहते हुए सुना कि पी.वी. नरसिम्हाराव के शासनकाल में उन्हें इतना महत्व प्राप्त था कि लोग-बाग उन्हें उपप्रधानमंत्री के विशेषण से अभिहित करने लगे थे। श्री वैदिक ने इसके अलावा आत्मश्लाघा में और भी बहुत सी बातें कहीं। मेरी समझ में नहीं आता कि पत्रकारों को राजनेताओं के साथ इतनी निकटता प्रदर्शित करने में क्या सुख मिलता है!

यह तो पाठक जान ही रहे हैं कि श्री वैदिक ने इसी 2 जुलाई को अपनी पाकिस्तान यात्रा के अंतिम दिन दुर्दान्त आतंकवादी हाफिज मोहम्मद सईद से मुलाकात की और उसकी खबर जारी होते ही मानों कहर टूट पड़ा। सब लोग अपने-अपने ढंग से इस अप्रत्याशित घटना की चीर-फाड़ करने में लगे हुए हैं, लेकिन वास्तविकता क्या है इसे लेकर एक राय नहीं बन पाई है। वेदप्रताप वैदिक को लंबे समय से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी समर्थक माना जाता है। यह एक सामान्य सी बात है जिसका कोई नोटिस लेने की जरूरत नहीं समझी गई। श्री वैदिक 'पीटीआई भाषा' व 'नवभारत टाइम्स' में संपादक रह चुके हैं, लेकिन इधर कुछ वर्षों से वे सक्रिय पत्रकारिता में नहीं हैं। उनका एक कॉलम अवश्य समय-समय पर कुछ पत्रों में प्रकाशित होता है। संघ और भाजपा के करीबी होने के कारण इतना अवश्य है कि छत्तीसगढ़ जैसे भाजपा शासित राज्य में वे साल में एक-दो बार यहां शासकीय-अशासकीय कार्यक्रमों में आ जाते हैं। इसके अलावा पत्रकार हलकों में उनकी कोई खास चर्चा नहीं होती।

हां! जब से बाबा रामदेव का 'कांग्रेस हटाओ'  आंदोलन प्रारंभ हुआ तब से वे टीवी के परदे पर बाबा के साथ अक्सर दिखाई देने लगे थे। उन्होंने बाबा की सभाओं में जोशीले भाषण भी दिए तथा उनकी ओर से वे टी.वी. की बहसों में भी आए। इससे प्रेक्षकों की यह धारणा बनी कि वे बाबा रामदेव के विश्वस्त अथवा समर्थक हैं। लेकिन वैदिकजी ऐसा कहने का बुरा मानते हैं। मुझसे उन्होंने कहा कि वे बाबा रामदेव के लिए पितृतुल्य हैं। यह कथन, हो सकता है कि वास्तविक हो और संभव है कि इसमें आत्मप्रशंसा का पुट हो! जो भी हो, इस नाजुक घड़ी में बाबा रामदेव ने उनका साथ ठीक से निभाया है, यह कहकर कि वे शायद हाफिज सईद का हृदय परिवर्तन करने के लिए उससे मिलने गए होंगे। बाबा की इस मासूमियत पर भला कौन न फिदा हो जाए! कितना अच्छा होता कि वे वैदिकजी को कालेधन पर बैठे तक्षकों का हृदय परिवर्तन करने की प्रेरणा या सलाह देते तो उनका एक और मिशन पूरा हो जाता।

बहरहाल इस वैदिक-सईद मुलाकात ने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को बैठे बिठाए अड़धप में डाल दिया है। सुषमा स्वराज व अरुण जेटली को बयान देने पड़े कि श्री वैदिक के इस कार्य से सरकार का दूर-दूर तक प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई संबंध नहीं है। वरिष्ठ नेता वेंकैय्या नायडू आदि ने भी इसी कथन को दोहराया है। लेकिन संघ से भाजपा में प्रतिनियुक्ति पर भेजे जा रहे राम माधव इस मुद्दे की पेचीदगियां नहीं समझ पाए। उन्होंने पूछा कि श्री वैदिक सलमान खुर्शीद और मणिशंकर अय्यर जैसे कांग्रेसियों के साथ पाकिस्तान यात्रा पर गए थे तो क्या ये कांग्रेस नेता भी आर.एस.एस. के हैं। यह बेमतलब का कथन है और श्री वैदिक से उधार लिया हुआ है। वैदिकजी ने अपने पक्ष में यह अधूरा सत्य सामने रखा कि वे इन लोगों के साथ यात्रा पर गए थे। इसका दूसरा हिस्सा उन्होंने जानबूझकर छोड़ दिया कि बाकी लोग एक दिन के सम्मेलन में भाग लेकर वापिस आ गए थे जबकि वैदिकजी वहीं अगले दो हफ्ते के लिए रुक गए थे।

प्रश्न उठता है कि श्री वैदिक को पाकिस्तान में इतने लंबे समय तक रुकने की क्या आवश्यकता थी? वे चूंकि विद्यार्थी जीवन से अफगान मामलों के अध्येता रहे हैं इसलिए इस प्रश्न का समाधान इस तर्क से किया जा सकता है कि वे अपने प्रिय विषय पर ताजा अध्ययन करने के लिए वहां ठहरे थे। लेकिन फिर हाफिज सईद से मिलने का विचार कैसे आया? इसकी आवश्यकता उन्होंने क्यों समझी,  इसके प्रबंध कैसे हुए व किसने किए? यह जगजाहिर है कि सईद को पाकिस्तान की कुख्यात आईएसआई का संरक्षण प्राप्त है। वहां की चुनी सरकार उस पर हाथ नहीं डाल सकती। अदालतें भी उसके खिलाफ कार्रवाई करने में लाचारी महसूस करती है। ऐसे व्यक्ति से मिलना निश्चित ही एक कठिन काम है। संघ परिवार से सीधा ताल्लुक रखने वाले एक भारतीय पत्रकार को आईएसआई ने अपने संरक्षण प्राप्त एक विश्व अपराधी से मिलने की अनुमति किस आधार पर दी? किस के कहने पर दी और उससे क्या हासिल होने की उम्मीद थी?

वेदप्रताप वैदिक जोर देकर कहते हैं कि वे एक पत्रकार की हैसियत से उससे मिले थे। एक बार पत्रकार सो जीवन भर पत्रकार- यह तर्क श्री वैदिक अपने ऊपर लागू कर रहे हैं। सच यह है कि वे सक्रिय पत्रकारिता बरसों पहले छोड़ चुके हैं। वे स्वयं को एक समाजचिंतक के रूप में देखते हैं व उनके लेख एवं भाषण इस दूसरे रोल के मुताबिक ही होते हैं। अगर वे पत्रकार के रूप में मिलने गए थे तो इतने महत्वपूर्ण और सनसनीखेज साक्षात्कार को उन्होंने तुरंत ही किसी अखबार में प्रकाशित क्यों नहीं किए? ऐसा करने में उनकी धाक ही जमना थी। फिर उन्होंने स्वयं ही अपनी चर्चा का जितना भी खुलासा किया है उसमें किसी पत्रकार से अपेक्षित सवालों की झलक दिखाई नहीं देती। यह देखकर हमें दो ही अनुमान होते हैं। एक तो यह कि उनकी भेंट आधिकारिक स्तर पर प्रायोजित की गई थी और अगर ऐसा नहीं है तो फिर यह उन्होंने अतिउत्साह में किया है!

श्री वैदिक ने सोमवार को विभिन्न चैनलों पर चर्चाओं में बार-बार यह बखान किया कि, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, नरसिंहराव, अटल बिहारी वाजपेयी, चन्द्रशेखर, चरणसिंह, वी.पी.सिंह आदि सबके साथ उनके निकट संबंध थे और ये लोग उनसे सलाह लिया करते थे। इस तरह की बातें उन्होंने अपने लेखों में भी की हैं। मैं दुख के साथ कहना चाहता हूं कि ऐसा करके वे बड़बोलेपन का परिचय देते हैं। यह ठीक है कि पचास साल से दिल्ली में रहते हुए देश-विदेश के राजनेताओं से उनके संपर्क बने होंगे। वे कई बार पाकिस्तान जा चुके हैं तथा खुद उनके कथनानुसार नवाज शरीफ भी उनके मित्र हैं। ऐसे में यह संभावना बनती है कि उन्होंने पाकिस्तान की सरकार या आईएसआई में अपने संपर्कों पर भारत में अपनी पहुंच और हैसियत के बारे में रौब गालिब किया हो तथा उनसे प्रभावित हो उनकी इच्छानुसार यह भेंट तय कर दी गई हो। उन्होंने शायद वैदिकजी की  बातों पर भरोसा किया हो कि भारत-पाक संबंधों को सुधारने में सहायक हो सकते हैं! वैसे हमें यह संभावना क्षीण लगती है।

इस बात की संभावना अधिक है कि वेदप्रताप वैदिक की सेवाओं का उपयोग भारत सरकार ने प्रत्यक्ष न सही अपने किसी आनुषांगिक संगठन या थिंक टैंक के माध्यम से करने की सोची हो। जैसी कि खबरें आई हैं श्री वैदिक 'विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन' नामक संस्था से ताल्लुक रखते हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल व प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव नृपेन्द्र मिश्रा इस थिंक टैंक के पदाधिकारी रहे हैं। श्री वैदिक ने श्री डोभाल के साथ मिलकर कोई पुस्तक लिखी है, यह बात भी खबरों में आई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की महत्वाकांक्षा हो सकती है कि जो काम अब तक कोई पूर्ववर्ती नहीं कर पाया उसे वे कर दिखाएं। याने भारत-पाकिस्तान के बीच स्थायी तौर पर अच्छे संबंध कायम हो जाएं व कश्मीर समस्या सुलझ जाए।

गौरतलब है कि श्री वैदिक ने भेंट के उपरांत पाकिस्तान के मीडिया समूह डॉन के साथ बातचीत में कहा कि कश्मीर को आजाद कर देना चाहिए। अगर यह बात कोई गैर-संघी या गैर-भाजपाई करता तो उस पर देशद्रोह का आरोप लगाने में देरी न लगती। तो क्या श्री वैदिक ने ऐसा जानबूझ कर कहा और क्या ऐसा करने के लिए उन्हें निर्देशित किया गया था? आज अवश्य सरकार श्री वैदिक की भेंट व कथनों से अपना पल्ला झाड़ रही है, लेकिन यह कल्पना करना लगभग असंभव है कि वेदप्रताप वैदिक ने अपनी निजी पहल पर इतना बड़ करतब किया होगा। उनसे शायद एक ही गलती अनजाने में हुई है या क्या मालूम कि वह भी जानबूझ कर की गई है कि इस भेंट को सार्वजनिक कर दिया गया!
देशबन्धु में 17 जुलाई 2014 को प्रकाशित

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