आज इस कॉलम के प्रकाशित होते तक संभव है कि 7-8 प्रदेशों में राज्यपाल के खाली हुए पदों पर नई नियुक्तियां हो जाएं। प्राय: प्रतिदिन खबरें आ रही हैं कि बस इस बारे में घोषणा होने ही वाली है। खैर, आज नहीं तो कल, यह रुका हुआ काम होना ही है, लेकिन इस समूचे प्रसंग में मोदी सरकार और भाजपा ने अब तक जो रुख अपनाया है, उसमें एक किस्म का उतावलापन और पुराना हिसाब चुकता करने की मानसिकता का परिचय मिलता है, जिसका औचित्य सिद्ध करना कठिन है। भारतीय जनता पार्टी में जिन लोगों ने भी राज्यपाल बदलने की मुहिम छेड़ी, उन्होंने एक जिम्मेदार सरकार से अपेक्षित व्यवहार का निर्वाह नहीं किया। बहरहाल, यह घटनाचक्र हमें दो प्रश्नों पर सोचने का मौका देता है- 1) नियुक्ति, इस्तीफे, तबादले से जुड़े तात्कालिक प्रसंग और 2) राज्यपाल संस्था की आवश्यकता व औचित्य।
पहिले प्रश्न पर विचार करते हुए कुछ बिंदु उभरते हैं। मेरी अपनी राय है कि जिस दिन मोदी सरकार गठित हो गई थी, उसी दिन बिना किसी अपवाद के हरेक राज्यपाल को अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था। इसमें उनकी व्यक्तिगत गरिमा बनी रहती। कारण कि राज्यपाल की नियुक्ति विशुद्धत: राजनैतिक आधार पर की जाती है। जिसकी सरकार, उसका राज्यपाल। इस सच्चाई को जानते हुए पद से चिपके रहने में कोई बड़ाई नहीं है। कांग्रेस द्वारा नियुक्त राज्यपालों को यह भी याद रखना चाहिए था कि भारतीय जनता पार्टी ऐसे मामलों में कुछ ज्यादा ही असहिष्णु है। याद कीजिए कि छत्तीसगढ़ में वाजपेयी सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल दिनेश नंदन सहाय को स्वयं भाजपाईयों ने ही आंदोलन कर हटवा दिया था, सिर्फ इस आरोप पर कि वे मुख्यमंत्री अजीत जोगी से पक्षपात करते हैं। वे जब यहां से गए तो भाजपा नेताओं ने उन्हें विमानतल पर विदा देने का शिष्टाचार तक नहीं निभाया था।
कांग्रेस का यह तर्क सही है कि 2004 में जब उसने भाजपाई राज्यपालों को हटाने की पहल की थी तो भाजपा सुप्रीम कोर्ट चली गई थी, जिसने फैसला दिया कि बिना पर्याप्त कारण के किसी राज्यपाल को नहीं हटाया जा सकता। इसी आधार पर अनेक कांग्रेस राज्यपालों ने अपना पद अभी तक नहीं छोड़ा है। कांग्रेस के पक्ष में यह बात भी जाती है कि उसने वाजपेयी सरकार द्वारा नियुक्त सारे राज्यपालों को नहीं हटाया था। मसलन जनरल के.एम. सेठ, छत्तीसगढ़ के राज्यपाल को अपना कार्यकाल पूरा करने का अवसर दिया गया, जबकि विश्व हिंदू परिषद के साथ उनका जुड़ाव कोई छुपी बात नहीं थी। उनके अलावा कुछ अन्य को भी नहीं छेड़ा गया। इन दोनों बिंदुओं पर कांग्रेस को अपनी पीठ ठोकने का हक तो मिलता है, लेकिन अपने लोगों को इस्तीफा न देने की सलाह देकर उसने एक नैतिक विजय हासिल करने का मौका अवश्य गंवा दिया है।
भारतीय जनता पार्टी और उसकी केंद्र सरकार ने राज्यपालों को हटाने के लिए जो रणनीति अपनाई, उसमें नौसिखियापन परिलक्षित होता है। सरकार जानती थी कि दो-तीन राज्यपालों का कार्यकाल लगभग समाप्त हो रहा था, उन्हें हटाने में हड़बड़ी दिखाने की जरूरत बिल्कुल नहीं थी। कर्नाटक में हंसराज भारद्वाज को फोन कर इस्तीफा मांगने में क्या तुक थी, जिनका अंतिम कार्यदिन ही 29 जून था। शेखर दत्त को सिर्फ 6 माह बचे थे और उनसे छ.ग. की भाजपा सरकार को कोई शिकायत भी नहीं थी। एम. के. नारायणन व बीवी वांचू के राजनिवास पर सीबीआई को भेजने में पर्यवेक्षकों को प्रतिशोध की भावना दिखाई दी। साथ ही यह आरोप भी लग गया कि सीबीआई पिंजरे का तोता ही है। मज़े की बात यह कि आनन-फानन में जिनको हटाया गया उनके स्थान पर पड़ोसी राज्यों के राज्यपालों को प्रभार दे दिया गया। आखिर वे भी तो कांग्रेस द्वारा नियुक्त हैं। गुजरात की कमला बेनीवाल और नरेन्द्र मोदी के बीच शुरू से ही खींचतान चली आ रही थीं। उनका तबादला भी दो दिन पहले किया गया। अगर उनके सहित बाकी अन्य को भी शुरू में ही दूसरे प्रांतों में स्थानांतरित कर दिया होता तो वांछित संदेश अपने आप चला जाता। इस संदर्भ में आखरी बात जो समझ आती है वह यह कि भाजपा में ही कशमकश चल रही है कि राज्यपाल के खाली पदों पर किनको भेजा जाए। शायद इसीलिए नियुक्तियां टल रही हैं।
इस तात्कालिक घटनाचक्र से अलग हटकर यह विचार किया जाना भी प्रासंगिक होगा कि राज्यपाल पद की कितनी अहमियत है और उसकी कितनी आवश्यकता है। चूंकि देश के संविधान के अंतर्गत इस पद का सृजन किया गया है इसलिए इसके औचित्य को एकबारगी तो नहीं नकारा जा सकता, लेकिन राज्यपाल संस्था के इतिहास तथा वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में इस पर पुनर्विचार करना शायद ठीक होगा। यह एक तकनीकी व औपचारिक सच्चाई है कि राज्यपाल राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होता है और वह केन्द्र व राज्य के बीच संपर्क सेतु का काम करता है। उसे प्रोटोकाल में प्रदेश में सबसे ऊंचा ओहदा हासिल है तथा मुख्यमंत्री, मंत्रिमंडल व मुख्य न्यायाधीश की शपथ ग्रहण जैसी गरिमामय औपचारिकताएं उसके ही द्वारा संपन्न होती है। लेकिन व्यवहारिकता में देखें तो राज्यपाल का सीधा सामना केन्द्रीय गृहमंत्रालय से पड़ता है। यह उसके दायित्वों में शामिल है कि प्रदेश की स्थिति पर वह हर माह गृहमंत्रालय को अपनी रिपोर्ट भेजे।
राज्यपाल प्रदेश के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति भी होता है एवं अनुच्छेद-5 और 6 वाले राज्यों में उसे कुछ विशेषाधिकार भी हासिल हैं, लेकिन यहां भी व्यावहारिक परिस्थितियां उसे अपने अधिकारों का पूर्ण उपयोग करने से रोकती हैं। कुलाधिपति होने के नाते वह कुलपतियों की नियुक्ति करता है, लेकिन व्यवहारिकता का तकाजा है कि वह इस बारे में मुख्यमंत्री की इच्छा की अनदेखी न करे अन्यथा अनावश्यक कटुता तथा आरोप-प्रत्यारोप की स्थिति बनते देर नहीं लगती। जहां अनुच्छेद-5 लागू है वहां आदिवासी इलाकों का प्रशासन वह सीधा अपने हाथ में ले सकता है, लेकिन वास्तविकता में यह संभव नहीं है। एक मनोनीत राज्यपाल प्रदेश की निर्वाचित सरकार के निर्णयों में आखिर हस्तक्षेप करे भी तो किस हद तक? वह जो अपना मासिक प्रतिवेदन बराए दस्तूर केन्द्रीय गृहमंत्रालय को भेजता है उसका भी हश्र क्या होता है?
हमारी समझ में तो यही आता है कि संविधान की औपचारिक व्यवस्था जो भी हो, जिस तरह से देश का कामकाज संभालने की जिम्मेदारी मुख्यत: प्रधानमंत्री की होती है वैसे ही प्रदेश में मुख्यमंत्री की। केन्द्र में राष्ट्रपति के पास गो कि ऐसे अधिकार हैं जो राजकाज संतुलन स्थापित करने के लिए आवश्यक हैं। इसके अलावा राष्ट्रपति अप्रत्यक्ष प्रणाली से ही सही, जनता के द्वारा चुना जाता है। इसके बरक्स राज्यपाल एक मनोनीत पदधारी होता है तथा इस पद पर नियुक्ति में अक्सर राजनीतिक अनुग्रह का भाव छुपा होता है। इसके चलते पिछले तीस-चालीस साल में हमने देखा है कि राज्यपाल किस तरह से केन्द्र सरकार के संकेतों पर काम करने में कोई संकोच नहीं बरतते, फिर भले ही उनका ऐसा करना संविधान सम्मत न हो।
इन तथ्यों के बावजूद राज्यपाल प्रदेश में प्रथम नागरिक के रूप में महती भूमिका निभा सकता है। वह प्रदेश सरकार के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है एवं विषम परिस्थितियों में सामंजस्य और संतुलन स्थापित करने में भी खासी भूमिका निभा सकता है, किन्तु यह अपेक्षा ऐसे व्यक्ति से ही की जा सकती है जिसके चयन को लेकर किसी भी पक्ष से कोई आपत्ति न उठे। ऐसा व्यक्ति अपने संवैधानिक ज्ञान, राजनैतिक अनुभव व चारित्रिक गुणों के आधार पर सर्वस्वीकार्य होना चाहिए। प्रारंभ में ऐसे व्यक्तियों की कोई कमी नहीं थी क्योंकि उनको चुनने वाले भी राजेन्द्र प्रसाद, राधाकृष्णन और जवाहरलाल नेहरू जैसे व्यक्ति थे। कमी तो आज भी नहीं है। देखना यही होगा कि क्या नरेन्द्र मोदी अपनी ही पार्टी से ऐसे लोगों को मनोनीत करेंगे जिनका सम्मान पार्टी के बाहर भी हो! आज अगर सोली सोराबजी या कैलाश जोशी जैसे व्यक्ति राज्यपाल बनाए जाते तो उनका स्वागत ही होगा, यदि दोयम दर्जे के सेवानिवृत्त अफसरों और विवादास्पद राजनेताओं को इस पद पर बैठाया जाता है तो इससे मोदीजी की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ेगी।
राज्यपाल गरिमा का पद है, इसकी गरिमा बनाए रखनी चाहिए।
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