Wednesday, 26 December 2018

विधानसभा चुनाव: कुछ देखी, कुछ सुनी


मैं अभी कुछ देर पहले ही छत्तीसगढ़ में भूपेश मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण समारोह से लौटा हूं। राजस्थान में सोमवार को शपथ ग्रहण हो गया और मध्यप्रदेश में आज मंगलवार की शाम कार्यक्रम सम्पन्न हो जाएगा। 10 अक्टूबर को चुनाव आयोग द्वारा जारी अधिघोषणा के दिन से आज तक चली आ रही गहमागहमी पर इसके साथ पूर्णविराम लग गया है। अब आगे न बहसें, न विवाद और न अटकलबाजी। अगले एक सप्ताह के भीतर विधानसभा के सत्र आहूत होंगे। मंत्रियों और विधायकों को जनता के प्रति अपना दायित्व निर्वाह करने में पूरे मन से जुट जाना चाहिए। मुझे भी शायद विधानसभा चुनावों पर लगातार लेख लिखने के बजाय अन्य विषयों पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। लेकिन यह शायद अच्छा होगा कि इस दौरान जो बहुत सी छवियां सिनेमा की रील की तरह आंखों के सामने से गुजर गईं हों, उनमें से कुछ को आपके साथ साझा करूं।
इस दृश्यावली में सबसे पहले राजेश्री महंत रामसुंदरदास का ध्यान आता है। वे छत्तीसगढ़ की दो प्रमुख धार्मिक पीठों- शिवरीनारायण और दूधाधारी मठ के पीठाधीश हैं। संस्कृत में डी लिट् उपाधिधारी युवा महंत दो बार कांग्रेस के विधायक रह चुके हैं। उन्हें इस बार कसडोल क्षेत्र से जीतने की पूरी उम्मीद थी और वे इसके लिए लगातार काम कर रहे थे। जो भी राजनीतिक समीकरण बने हों उन्हें टिकट नहीं मिला। ऐसे अनेक उम्मीदवार अवसर चूक गए, लेकिन महंतजी की सराहना करना होगी कि उन्होंने इस प्रसंग को खिलाड़ी भावना से लिया। उन्होंने पत्रकारों से कहा कि धर्म और राजनीति दोनों उनके लिए देश और समाज के सेवा के माध्यम हैं और उनकी इस बात में पारदर्शी सच्चाई है। विशेषकर शिवरीनारायण मठ में शिक्षा प्रसार तथा अन्यान्य कार्यों में उन्होंने जिस लगन के साथ काम किया है वह सबके सामने है। मुझे लगता है कि हमें ऐसे लोगों की बेहद जरूरत है जो कमल के पत्ते की तरह रहें और अभिमान की एक बूंद भी अपने ऊपर टिकने न दें।
मैं जब मध्यप्रदेश के दो प्रसंगों की ओर देखता हूं तो यह दृष्टांत और अधिक अर्थपूर्ण हो जाता है। उल्लेखनीय है कि 1975 से लगातार विधायक रहे और मुख्यमंत्री रह चुके बाबूलाल गौर अपने लिए या अपनी बहू के लिए टिकट पाने आखिरी पल तक लड़ते रहे और अंतत: बहू के लिए टिकट हासिल करके ही माने। कृष्णा गौर जीत गईं उन्हें हमारी शुभकामनाएं। दूसरा प्रकरण जनसंघ के लगभग प्रारंभ से कार्यकर्ता रहे सरताज सिंह का है। वे विधायक रहे, मंत्री पद भी पाया, लोकसभा के सदस्य भी रहे। इस सबके बाद वृद्धावस्था में उन्हें जाने क्या सूझी कि अपना घर छोड़ दूसरे के घर जाकर बैठ गए। याने भाजपा छोड़ कांग्रेस की सदस्यता ले ली। पुरानी मान्यता में हठ के तीन प्रकार बताए गए हैं जिसमें माना गया है कि वृद्धों की जिद भी अक्सर बालहठ के समतुल्य होती है। सरताज सिंह की हठ से भाजपा को तो कोई नुकसान नहीं पहुंचा। वे स्वयं मतदाताओं द्वारा नकार दिए गए।
भारतीय जनता पार्टी के तीन मुख्यमंत्री अब भूतपूर्व हो गए हैं। 17 दिसंबर को नए मुख्यमंत्रियों के शपथ ग्रहण का दृश्य हर तरह से सुंदर था कि वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह और रमन सिंह तीनों अपने-अपने प्रदेश के समारोह में मंच पर उपस्थित थे। ऐसा शिष्टाचार अनुकरणीय है। लेकिन लगता है कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह अपनी हार को नहीं भुला पा रहे हैं। वे इन दिनों लगातार जिस तरह से स्वयं को सुर्खियों में बनाए रखने के यत्न कर रहे हैं उसे देखकर कुछ अच्छा नहीं लगता। शिवराज जी को 'टाइगर अभी जादा है' जैसे फिल्मी डायलागों का सहारा क्यों लेना चाहिए। उनके संवाद पर दिग्विजय सिंह का कटाक्ष मारक था कि कांग्रेस सरकार विलुप्तप्राय जीवों के संरक्षण के लिए संकल्पबद्ध है, फिर भले ही बाघ बिना दांत व नाखून का क्यों न हो। हमारा आशय इतना ही है कि हारने के बाद इतना उतावलापन नहीं दिखाना चाहिए।
एक ओर जहां छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को आशातीत सफलता मिली है वहीं दूसरी ओर राजस्थान व मध्यप्रदेश में कांग्रेस का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा। मध्यप्रदेश के आंकड़े बताते हैं कि विंध्यप्रदेश में पार्टी बुरी तरह हारी है, लेकिन मुझे इस बात पर ज्यादा आश्चर्य है कि महाकौशल प्रांत में नतीजे आशा के अनुकूल क्यों नहीं आए। होशंगाबाद जिले की चारों सीट पर कांग्रेस हार गई। होशंगाबाद में सरताज सिंह, कटनी जिले में पद्मा शुक्ला और बालाघाट जिले में संजय मसानी तीनों हार गए। ये सबके सब ऐन चुनाव के वक्त भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आए थे। संजय मसानी तो शिवराज सिंह के सगे साले हैं। क्या इन नतीजों से यह संदेश नहीं जाता कि दल-बदलुओं को गले लगाना ठीक नहीं है? कमलनाथ महाकौशल के नेता हैं इसलिए इस अंचल में मिली पराजय उनके लिए व्यक्तिगत चिंता और समीक्षा का विषय हो सकती है।
ईवीएम को लेकर चुनाव के पहले आशंकाएं व्यक्त की गई थीं और अभी भी जारी हैं। मुझे प्रदेश अध्यक्ष और अब मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कथन याद आता है। उन्होंने कहा कि अगर आवश्यकता पड़ी तो हमारे कार्यकर्ता ईवीएम से लिपट कर सोएंगे। यह उनकी चुनावी तैयारी का द्योतक था, लेकिन कथन था मजेदार। कुछ शंकालु लोगों का सोचना है कि विधानसभा चुनावों में ईवीएम के साथ जानबूझ कर छेड़छाड़ नहीं की गई ताकि कांग्रेसी गा$िफल हो जाएं और भाजपा इनकी इस ग$फलत का लाभ लोकसभा चुनाव में उठा सके। हमारा सोचना है कि ईवीएम में गड़बड़ी की जो भी खबरें इस बीच सामने आईं वे बुनियादी तौर पर मानवीय चूक का परिणाम थीं या फिर कांग्रेस को दहशत में डालकर मजा लेने का दुष्ट प्रयास। जो भी हो, कांग्रेस बल्कि महागठबंधन को श्री बघेल की उक्ति कि नौबत पड़ने पर ईवीएम के साथ लिपट कर सोएंगे को याद रखना चाहिए।
आज जब भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस में वंशवाद की बात करती है तो हंसी आती है। वे अपने संगठन के चलन को भूल जाते हैं। अतीत के उदाहरणों को छोड़ दें तो भी वर्तमान विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अपने वंशवाद का परिचय देने में कोई कमी नहीं की। बाबूलाल गौर का उदाहरण हम ऊपर दे आए हैं। लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन ने इंदौर से अपने सुपुत्र को टिकट दिलवाने की भरपूर कोशिश की और असफल होने पर दबे स्वर में पार्टी नेतृत्व की आलोचना भी की। वहीं पार्टी अध्यक्ष के विश्वस्त महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय अपने चिरंजीव को टिकट दिलवाने में कामयाब हुए और वे जीत भी गए। छत्तीसगढ़ में सांसद बंसीलाल महतो ने अपने पुत्र को टिकट दिलवाया। इसी तरह भाजपा के अनेक नेताओं ने अपने परिजनों को उम्मीदवार बनाने के लिए सफल-असफल प्रयत्न किए। बाकी सहयोगी दलों में रामविलास पासवान और अनुप्रिया पटेल के उदाहरण भी हमारे सामने है। भाजपा यदि इस भावना से ऊपर उठकर वास्तविक मुद्दों पर राजनीति करें तो बेहतर हो।
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को अपना मंत्रिमंडल गठित करने में कुछ जद्दोजहद करना पड़ी। इसको गणित के सूत्र से समझ सकते हैं। राजस्थान में दो सौ की कुल संख्या पर तीस मंत्री बन सकते हैं वहां कांग्रेस के पास सौ विधायक हैं उनमें से तीस प्रतिशत को अवसर मिलना संभव है। मध्यप्रदेश में दो सौ तीस पर पैंतीस मंत्री बनने की गुंजाइश है। एक सौ पन्द्रह निर्वाचित विधायकों में पैंतीस, याने वहां भी तीस प्रतिशत का आंकड़ा बैठता है। जबकि छत्तीसगढ़ में नब्बे की कुल संख्या पर मात्र तेरह मंत्री बन सकते हैं। याने यहां मंत्री बनने की सीमा मात्र बीस प्रतिशत है। ऐसे में बहुत तरह से गुणा-भाग करना पड़ता है। मेरा ख्याल है कि सारा हिसाब लगाकर जैसा मंत्रिमंडल बना है वह काफी हद तक ठीक है। बाकी जो मजबूत दावे के बावजूद मंत्री नहीं बन सके हैं उनके लिए प्रदेश की सेवा करने के अवसरों में आने वाले दिनों में कमी न होगी।
देशबंधु में 27 दिसम्बर 2018 को प्रकाशित

Tuesday, 25 December 2018

"कौन देस को वासी"


सुप्रसिद्ध कथा-शिल्पी सूर्यबाला की नवीनतम कृति एक उपन्यास के रूप में सामने आई है। ''कौन देस को वासी : वेणु की डायरी’’ लेखिका के लिए तो एक उपलब्धि है; मैं अगर कहूं उन्होंने इसके माध्यम से हिन्दी जगत को एक बेजोड़ उपहार दिया है तो यह शायद अतिशयोक्ति नहीं होगी। एक संपूर्ण उपन्यास होने की कौन सी शर्त यह कृति पूरी नहीं करती? फिर बात भले ही कथावस्तु की हो, भाषा और शैली की हो, चरित्र-चित्रण और संवाद प्रस्तुति की हो, दृश्य विधान की हो या मनोभावों को उकेरने की हो।
उपन्यास विधा को लेकर मेरे अपने कुछ आग्रह हैं। मैं खुद को उस चली आ रही मान्यता से सहमत पाता हूं कि उपन्यास आधुनिक समय का महाकाव्य है। इसका सामान्य अर्थ है कि महाकाव्य की ही भांति उपन्यास में भी एक ओर दृश्य का विस्तार और दूसरी ओर विचार की गहनता अनिवार्य अंग है। यह कठिन साधना है। जहां रचना को विस्तार देने के लिए विहंगम दृष्टि अपेक्षित है जो समय और स्थान की रुकावटों के पार जा सके, वहीं गहराई में उतरने के लिए तीक्ष्ण दृष्टि की दरकार है जो दृश्य और भाव दोनों में भीतर तक धंस जाए। इसके अलावा एक उपन्यास मेरी राय में लेखक (लेखिका) से इस मायने में परिश्रम की मांग करता है कि वह कथानक को समेटने और कलम को विश्राम देने की जल्दबाजी न करे। जिस वृहत् कैनवास पर उपन्यास की रचना होती है, उसमें विषय वस्तु के साथ न्याय करने के लिए कृति का आकार भी पर्याप्त संतोषजनक होना वांछित है। हां, संक्षिप्त आकार में महाकाव्यात्मक आयामों वाला ''ओल्ड मैन एंड द सी'' जैसा उपन्यास भी लिखा गया है, लेकिन यह अद्भुत सर्जना तो कोई अर्नेस्ट हेमिंग्वे ही कर सकता है!
दृश्य का विस्तार, विचार की सघनता और कृति का आकार- इन तीनों कसौटियों पर उपन्यास खरा उतरता है; लेकिन मैं जिस एक अन्य वजह से इस रचना से प्रभावित हुआ वह है लेखिका का विषय चयन, जिसका परिचय फ्लैप के पहले पैराग्राफ से ही मिल जाता है- ''प्रवासी भारतीय होना भारतीय समाज की महत्वाकांक्षा भी है, सपना भी है, कैरियर भी है और सब कुछ मिल जाने के बाद नॉस्टेल्जिया का ड्रामा भी। लेकिन कभी-कभी वह अपने आपको, अपने परिवेश को, अपने देश और समाज को देखने की एक नई दृष्टि का मिल जाना भी होता है। अपनी जन्मभूमि से दूर किसी परायी धरती पर खड़े होकर वे जब अपने आपको और अपने देश को देखते हैं तो वह देखना बिलकुल अलग होता है। भारतभूमि पर पैदा हुए किसी व्यक्ति के लिए यह घटना और भी ज्यादा मानीखेज इसलिए हो जाती है कि हम अपनी सामाजिक परम्पराओं, रुढिय़ों और इतिहास की लम्बी गुंजलकों में घिरे और किसी मुल्क के वासी के मुकाबले कतई अलग ढंग से खुद को देखने के आदी होते हैं। उस देखने में आत्मालोचन बहुत कम होता है। वह धुंधलके में घूरते रहने जैसा कुछ होता है। विदेशी क्षितिज से वह धुंधलका बहुत झीना दीखता है और उसके पार बसा अपना देश ज्यादा साफ।''
विगत तीसेक सालों में भारतीय समाज के एक वर्ग विशेष में अमेरिका के प्रति पहले से किसी मात्रा में चला आ रहा आकर्षण और प्रबल हुआ है। देश के उच्च शिक्षण संस्थानों से पढ़कर निकलने वाले प्रतिभावान युवाओं के मन में बात बैठ गई है कि उनके स्वप्न अमेरिका जाकर ही पूरे हो सकते हैं। जो अमेरिका नहीं जा पाते, वे इंग्लैंड, जर्मनी, सिंगापुर, हांगकांग या आस्ट्रेलिया में अवसर मिलने से संतोष हासिल कर लेते हैं। यह प्रवृत्ति कैसे पनपी है, इसे लेकर खूब विश्लेषण हुआ है और लगातार हो रहा है। फिलहाल वह हमारा विवेच्य बिन्दु नहीं है। भारत और अमेरिका (या उसके प्रतिरूप) में कई तरह के अंतर हैं- निजी स्तर पर, आर्थिक स्तर पर, पारिवारिक माहौल में, कार्यस्थल के वातावरण में, प्राकृतिक परिवेश में, कार्य संस्कृति में और ये सब अपनी-अपनी तरह से नए-नए तनावों को जन्म देते हैं। एक नए माहौल में खुद को ढालने की चुनौती, पीछे छूट गए लेकिन नाभिनालबद्ध परिवेश को संजोने या बिलगाने की द्विविधा, सपना पूरा होने का उल्लास तो कहीं स्वप्न भंग से उपजा अवसाद, ये सब मिलकर एक नया रंगमंच खड़ा कर देते हैं जिसमें हरेक को अपनी भूमिका निभानी पड़ती है।
यह हिंदी साहित्य में एक लगभग अनछुआ विषय है। वर्षों पूर्व महेंद्र भल्ला के दो उपन्यास और एक नाटक इस मानसिक अंतद्र्वंद्व को लेकर लिखे गए थे। उषा प्रियंवदा के उपन्यास ''रुकोगी नहीं राधिका'' को भी शायद इस श्रेणी में रखा जा सकता है, किंतु ये सब सर्वग्रासी वैश्वीकरण का दौर प्रारंभ होने के पहिले की कथाएं हैं। जहां तक मुझे स्मरण है ये रचनाएं निजी अनुभवों पर आधारित थीं, और उनमें सामाजिक जीवन में आए बदलाव व उससे उपजी बेचैनी का वर्णन शायद नहीं था। 1990 के बाद से भारत में आए परिवर्तनों को ममता कालिया, अलका सरावगी आदि की रचनाओं में देखा जा सकता है। अलका सरावगी का उपन्यास ''एक ब्रेक के बाद'' विशेषकर उल्लेखनीय है, किन्तु इन कृतियों का फलक विवेच्य उपन्यास की तुलना में सीमित था। संभव है कि इस दौरान अन्य रचनाएं भी आई हों, जिन्हें पढऩे, समझने का अवसर मुझे न मिल पाया हो। अपने सीमित अध्ययन के बल पर हम कह सकते हैं कि सूर्यबाला ने ''कौन देस को वासी'' में एक नई ज़मीन तोड़ी है। उन्होंने भारत और अमेरिका दोनों के वर्तमान सामाजिक परिवेश का सूक्ष्म अध्ययन करते हुए कथानक को इस विस्तार में खूबी के साथ टांक दिया है।
कथावस्तु के नएपन के अलावा उपन्यास के शिल्प में भी एक नयापन झलकता है। उपन्यास के उपशीर्षक ''वेणु की डायरी'' से भान होता है कि यह डायरी शैली में लिखी गई रचना है। लेकिन यह उपशीर्षक अधूरा है। इसकी आवश्यकता भी नहीं थी। ''कौन देस को वासी'' अपने आप में एक मुकम्मल, रोचक और जिज्ञासा जगाने वाला शीर्षक हो सकता था। मैं कहना चाहूंगा कि ''डायरी'' का संकेत देकर लेखिका ने खुद के साथ अन्याय किया हैा। शैली के स्तर पर उन्होंने जो प्रयोग किए हैं, उसे समझने में यह उपशीर्षक एक तरह से बाधक ही बनता है। दरअसल, रचना में एक नहीं, बल्कि दो डायरियां समानांतर चल रही हैं; और डायरी के बाहर भी बहुत कुछ लिखा या कहा गया है, जिसकी मुख्य सूत्रधार कथानायक वेणु माधव शुक्ल न होकर उसकी मां है जो शायद स्वयं कथा लेखिका भी हो सकती हंै! यह मां ही हैं जो रचना का ताना-बाना बुन रही हैं और उसमें रंग भी भर रही हैं । लेखिका ने उपन्यास को नौ खंडों में विभक्त करने के अलावा उसे बहुत से परिच्छेदों व उप-परिच्छेदों में विभाजित किया है। उसने इनमें से प्रत्येक को एक उपयुक्त शीर्षक दिया है जो कथा को समझने में, उसके मर्म तक पहुंचने में पाठक की सहायता करते हैं।
वैसे ''कौन देस को वासी'' की कहानी सीधी-सरल है। उत्तर भारत के एक मध्यवित्त परिवार का होनहार युवक वेणु अपनी प्रतिभा के बल पर उच्च अध्ययन के लिए अमेरिका चला जाता है और फिर वहीं का होकर रह जाता है। इस कहानी में परिवार के सदस्य हैं, नाते-रिश्तेदार हैं; अमेरिका में मिले अपने जैसे प्रवासी भारतीय और उनके नाते-रिश्तेदार भी हैं; विभिन्न स्तरों पर परिचित होते व संवाद करते अमेरिकी नागरिक हैं, व उनका अबूझा सा जीवन व्यापार है। उपन्यास में पात्रों की संख्या काफी बड़ी है, जिनकी बातों, इशारों, उपालंभों से भारत व अमेरिका के दो विपरीत ध्रुवों के बीच चल रहा मानसिक अंतद्र्वंद्व प्रकट होता है। अमेरिका स्वर्ग है, इंद्र की अमरावती है, जहां पहुंचकर जीवन धन्य हो जाता है। कथानायक ही नहीं, उसके परिवार, रिश्तेदारों के सपने कुंलाचे भरने लगते हैं, जिनका सबसे सशक्त प्रतीक वेणु की नवविवाहिता मेधा है। सपनों को पूरा करने की ख्वाहिश, न पूरा कर पाने की बेबसी, अपने संस्कारों से मुक्त न हो पाने की मौन विवशता- इन सबसे बीच कितने ही मन कांच की तरह दरकने लगे हैं, जिसकी आंशिक क्षतिपूर्ति वेणु के बेटे के अपनी अमेरिकी सहचरी सैंड्रा के साथ काम करने के लिए भारत लौटने से होती है।
भारत और अमेरिका के सामाजिक परिवेश का जिस बारीकी से चित्रण है, वह इस उपन्यास की एक अन्य विशेषता है। एक लेखक अपने चिर-परिचित परिवेश का सूक्ष्म वर्णन कर सके, यह शायद बड़ी बात न हो; किन्तु यहां तो लेखिका ने ऐसे देश के परिदृश्य को चित्रित किया है, जिससे उसका कोई लंबा परिचय नहीं रहा है। यहां सूर्यबाला ने अपनी लेखनी की धाक स्थापित की है। अमेरिका का शैक्षणिक माहौल, कारपोरेट संस्कृति, बाजार, पारिवारिक रिश्ते, स्त्री-पुरुष संबंध, युवा पीढ़ी आशा-निराशा, श्वेत-अश्वेत संबंध आदि और इनको संचालित करते प्रेम, उपेक्षा, अहंकार, घृणा, करुणा, स्वार्थ, मोहभंग जैसे तमाम मनोभावों को लेखिका ने प्रामाणिकता के साथ अभिव्यक्त किया है। और यह संभव हो सका है एक समर्थ, सजीव भाषा के कारण, जिसमें भरपूर व्यंजना व शब्दों का सजग चयन हैं। भाषा प्रयोग में किस्सागोई का तत्व भी है और नाटकीयता का भी। उपन्यास के पात्र, स्थान व परिस्थिति के अनुरूप भाषा अपनाएं और उनके उच्चारण भी उसके अनुकूल हों, यह रंगमंचीय विशेषता भी नज़र आए बिना नहीं रहती।
मैंने उपन्यास के अनेक अंशों को रेखांकित कर रखा था कि इस आलेख में उन्हें उद्धृत करूंगा। यह मोह मुझे छोडऩा पड़ा। इतने सारे उद्धरण एक छोटे से निबंध में कैसे समाएंगे? इसलिए मैं अपनी बात इतना कहकर समाप्त करूंगा कि उपन्यास का अंत मुझे एक तरह से एंटी-क्लाइमैक्स प्रतीत हुआ। यथार्थ की भूमि पर लिखी गई रचना का अंत यदि आदर्शवादी नहीं होता तो बेहतर था। इसी अंत में सत्य का कितना अंश है और लेखिका के अपने मनोगत का कितना प्रभाव है, यह मैं नहीं जानता। बहरहाल, मैं इस उपन्यास को पढऩे की पुरजोर सिफारिश करता हूं जो अपने समय को खंड-खंड में समझने की बजाय एक सुदीर्घ पटल पर आज की नई वास्तविकताओं को सामने रखता है।
अक्षर पर्व नवम्बर 2018 अंक की प्रस्तावना
  
 

Wednesday, 19 December 2018

ये संकेत क्या कहते हैं?


तीन-चार दिन पहले एक फोटो जारी हुआ जिसमें गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर किसी पुल का निरीक्षण कर रहे हैं। मुख्यमंत्री अपने प्रदेश में किसी कार्य का जायजा लेने जाएं तो यह सामान्य घटना होना चाहिए। लेकिन यह फोटो एक असामान्य स्थिति की ओर संकेत करता है। मनोहर पर्रिकर विगत एक वर्ष से गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं। वे पहले इलाज करवाने के लिए विदेश गए, वहां से लौटकर लंबे समय तक एम्स दिल्ली में भर्ती रहे और आज भी वे गोवा के एक अस्पताल में दाखिल हैं। वे इस बीच विधानसभा की कार्रवाईयों में भाग लेने में असमर्थ रहे हैं; मंत्रिमंडल की एकाध बैठक हुई भी है तो अस्पताल में ही। सच पूछिए तो कोई नहीं जानता कि इस वक्त गोवा का शासन कौन चला रहा है। भाजपा के विधायक हैरान-परेशान हैं, सहयोगी दल आंखें दिखा रहे हैं और कांग्रेस के विधायकों को खरीदकर भाजपा किसी तरह अपना बहुमत बचाने का भीष्म प्रयत्न कर रही है। इस पृष्ठभूमि में बीमार मुख्यमंत्री को कार्यस्थल पर जाकर फोटो क्यों खिंचाना पड़ा?
इस प्रश्न का जवाब पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों में मिलता है। छत्तीसगढ़ में भाजपा की अप्रत्याशित दुर्गति हुई; तेलंगाना के मतदाताओं ने उसे भाव नहीं दिया; मिजोरम में उसके मंसूबे सफल नहीं हो पाए; राजस्थान में पराजय का सामना करना पड़ा और मध्यप्रदेश में हारने के बावजूद वह प्रतिष्ठा बचाने में सफल हुई। इन नतीजों से विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस का उत्साहवर्द्धन होना ही था। कांग्रेस जानती है कि भाजपा शासित प्रदेशों में गोवा में ही भाजपा की स्थिति सबसे कमजोर है। इस तथ्य के मद्देनज़र कांग्रेस की कोशिशें हैं कि भाजपा सरकार को अपदस्थ कर दिया जाए। मनोहर पर्रिकर अपने प्रदेश के एक लोकप्रिय नेता रहे हैं। वहां के विधायकों को अन्य किसी का नेतृत्व कुबूल नहीं है। पर्रिकर हटते हैं तो भाजपा का साम्राज्य ताश के पत्तों की तरह बिखरते देर न लगेगी। एक छोटे राज्य में सत्ता का यह लोभ दयनीय है। और इसलिए अमानवीय भी है कि आप एक बीमार आदमी को जिसकी नाक में नली लगी हो अस्पताल के बिस्तर से उठाकर उसके स्वस्थ होने का स्वांग पेश कर रहे हैं।
11 दिसम्बर को आए चुनाव परिणामों का दूरगामी असर होते दिखने लगा है। मेरा कयास है कि उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी इसका प्रतिकूल प्रभाव भाजपा की राजनीति पर पड़ेगा। गैरभाजपाई दलों को इन परिणामों ने एक नई ऊर्जा से भर दिया है। यह भावना लुप्त हो गई है कि नरेन्द्र मोदी अपराजेय हैं। अब यह तुलना भी कोई स्वीकार करने तैयार नहीं है कि अमित शाह चाणक्य हैं। बसपा और सपा ने अपने-अपने कारणों से कांग्रेस से फिलहाल दूरी बना रखी है, लेकिन अब लोकसभा चुनाव में तीन माह का समय भी शेष नहीं है। मार्च-अप्रैल के बीच में आम चुनाव हो जाएंगे और उस प्रत्याशा में बहुत सारे विपक्षी दल कांग्रेस की धुरी पर एकत्र हो गए हैं। यह उम्मीद की जा रही है कि तेलंगाना में कांग्रेस और टीडीपी का गठबंधन, आंध्र में कमाल दिखाएगा । डीएमके नेता स्टालिन ने राहुल गांधी को खुला समर्थन दे दिया है। शरद पवार, फारूख अब्दुल्ला, लालू प्रसाद आदि भी अपना समर्थन घोषित कर चुके हैं और मैं जहां तक समझ पाता हूं संसदीय राजनीति के वरिष्ठतम नेताओं में से एक शरद यादव यूपीए-3 को सफल बनाने में महती भूमिका अदा कर रहे हैं। मेरा मानना है कि वामदलों को भी लोकसभा चुनाव में महागठबंधन में शामिल होना चाहिए।
मैं अनुमान लगाता हूं कि इन चुनाव परिणामों का असर देश की नौकरशाही पर भी पड़ना शुरू हो गया है। वे पिछले पौने पांच साल से लगातार एक आतंक के साए में काम करते आए हैं। पाठकों को शायद याद हो कि मोदी सरकार के प्रारंभिक दिनों में मंत्रियों तक को इस बात का डर था कि उनकी हर कदम पर निगरानी हो रही है। जब भाजपा के मंत्री ही डर रहे हों तो फिर अफसर किस खेत की मूली हैं? जैसा कि सुनने मिलता है, अनेक अधिकारी जो डेपुटेशन पर दिल्ली गए थे वे लौटने के लिए उत्सुक हैं, और जो जाना चाहते थे उनका मन बदल गया है। अब अनेकानेक अधिकारी मोदी सरकार के प्रति निष्ठा दिखाकर आने वाली सरकार की नाराजगी मोल लेने से बचना चाहते हैं। यह एक शुभ लक्षण है। अधिकारियों को दलगत राजनीति से दूर रहकर प्रशासनिक मानदंडों पर ही निर्णय लेना चाहिए। यह परिपाटी हमारे यहां लंबे समय से बनी हुई थी। इंदिरा गांधी के दिनों में कमिटेड ब्यूरोक्रेसी की बात होती थी, लेकिन उस समय भी अफसरशाही पर वैसा दबाव नहीं था जो पिछले चार सालों में देखा गया है। कितने ही सेवानिवृत्त आईएएस/आईपीएस अधिकारियों ने अपनी आत्मकथाएं प्रकाशित की हैं जिनसे पता चलता है कि कांग्रेस शासन में वे अपनी स्वतंत्र राय देने में सक्षम थे, फिर भले ही प्रधानमंत्री या मंत्री उनकी राय को खारिज कर दें। जिन्होंने बीबीसी पर 'यस मिनिस्टर' को देखा या पुस्तक रूप में पढ़ा है वे शायद मेरी बात की ताईद करेंगे।
इन चुनाव परिणामों में एक संकेत तथाकथित राजनैतिक विश्लेषकों के लिए भी छुपा हुआ है। मैंने पिछले हफ्ते के कॉलम में सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार के लेख का उल्लेख किया था, लेकिन वे अकेले नहीं हैं। हमारे यहां एक तथाकथित ''लैफ्ट लिबरल'' वर्ग है। मैं इस संज्ञा से असहमत हूं। जो लैफ्ट में हैं याने वामपंथी हैं उनकी अपनी एक सोच है जो लिबरल याने उदारवादी सोच से मेल नहीं खाती। उदारवादी सही अर्थों में वे हैं जो नेहरू नीति के हिमायती हैं और जिनकी सोच जाति, धर्म, भाषा, प्रांत की संकीर्णता न होकर वैश्विक मानवतावादी है। जबकि किसी दुर्योग से हमारे यहां उदारवादी उन्हें मान लिया गया है जो एक तरफ वामविरोधी और दूसरी तरफ नेहरूविरोधी हैं। ये भारत की राजनीति को संकीर्ण खांचों में बांटकर देखते हैं। आजकल चुनावों में अक्सर जो जातिगत आधार की बात होती है वह इसी संकीर्ण सोच से उपजी है। राजनैतिक दल कई बार इसके झांसे में आ जाते हैं और टिकट वितरण आदि में बुनियादी मुद्दों को छोड़कर जातिगत समीकरण इत्यादि पर ध्यान केन्द्रित हो जाता है। मेरे आकलन में इससे कोई वास्तविक लाभ हासिल नहीं होता बल्कि अनावश्यक रूप से सामाजिक संबंधों में कटुता उत्पन्न हो जाती है। पिछली हर बार की तरह इसीलिए इस बार भी एक भी एक्जाट पोल सही सिद्ध नहीं हुआ। ये तो अपनी करनी से बाज नहीं आएंगे, लेकिन जनता को समझदारी दिखाते हुए इन पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
क्या मीडिया के लिए भी विधानसभा चुनावों के ये परिणाम कोई संकेत देते हैं? उत्तर हां में है और संकेत यह है कि मीडिया को अपनी लुट गई साख को दुबारा हासिल करने के लिए नए सिरे से जुट जाना चाहिए। मुझे ध्यान आता है कि किसी चैनल ने कांग्रस की चौतरफा पराजय की घोषणा कर दी और फिर अपनी गलती सुधारने के लिए कथित तौर पर पत्रकारों का एक एक्जाट पोल करवा कर कांग्रेस की विजय की भविष्यवाणी कर दी। लार्ड मेघनाद देसाई हर रविवार को इंडियन एक्सप्रेस में कॉलम लिखते हैं। वे लंबे समय से कांग्रेस की आलोचना करते आए हैं जबकि एक समय उन्हें उदारवादी माना जाता था। इस रविवार को लार्ड देसाई ने अपने कॉलम में स्वीकार किया कि भारत के राजनीतिक हालात का आकलन करने में उनसे गलती हुई और वे आज अपनी गलती सुधार रहे हैं।
मुझे इस बात पर बिल्कुल भी आपत्ति नहीं है कि चैनल, अखबार और पत्रकार अपनी राजनैतिक सोच के अनुसार विचार प्रकट करें। यह तो उनका धर्म है। लेकिन जब दबाव या प्रलोभन में आकर वे इस या उस पक्ष की तरफदारी करते हैं तो पत्रकार धर्म के साथ बेइमानी करते हैं। मैंने पहले भी लिखा है कि अमेरिका, इंग्लैंड में अखबार खुलकर पार्टी अथवा प्रत्याशी का समर्थन व विरोध करते हैं। यह उनका अधिकार है। इसके लिए वे अपनी ओर से तर्क भी देते हैं जो कि बिल्कुल ठीक है। ऐसा करने से उन पर वे आरोप नहीं लगते जिनका हमारे पत्रजगत को सामना करना पड़ता है। पत्रकार ''हिज मास्टर्स वायस'' बनकर रहेंगे तो अपने आपको पत्रकार कहने का हक वे खो बैठते हैं। मैं हैरत में हूं कि ताजा नतीजों के बाद कैसे समाचार माध्यमों ने रातोंरात अपनी निष्ठा बदली है।
ये विधानसभा चुनाव देश की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन लेकर आए हैं। हर बड़ा परिवर्तन अपने साथ कुछ महत्वपूर्ण संकेत लेकर भी आता है। हमें इनको पढ़ने की कोशिश करना चाहिए।
देशबंधु में 20 दिसंबर 2018 को प्रकाशित

Sunday, 16 December 2018

कांग्रेस के तीन नए मुख्यमंत्री

                                              
मध्यप्रदेश में कमलनाथ, राजस्थान में अशोक गहलोत और अंत में छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल कांग्रेस विधायक दल के नेता याने कि अपने-अपने प्रदेश के नए मुख्यमंत्री चुन लिए गए हैं। हम इन तीनों को जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने की अपेक्षा के साथ अपनी शुभकामनाएं व बधाईयां देते हैं। इन तीनों नेताओं का निर्वाचन किसी हद तक सस्पेंस भरा लेकिन दिलचस्प रहा। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तीनों प्रदेशों के मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के साथ अलग-अलग तस्वीरें खिंचवाई और उनके कैप्शन देते हुए निर्वाचन प्रक्रिया को एक खूबसूरत दार्शनिक अंदाज दे दिया। यह इस बात की कोशिश थी कि चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री पद की दौड़ में मुकाबला तो हो लेकिन दावेदारों के बीच किसी तरह की कड़वाहट को न पनपने दिया जाए। इन नेताओं के समर्थकों की अपनी भावनाएं हो सकती हैं, लेकिन उन्हें ज्योतिरादित्य सिंधिया के बयान, सचिन पायलट की शालीनता और टी.एस. सिंहदेव की निश्छल हंसी को ध्यान में रखना चाहिए।
मध्यप्रदेश में कमलनाथ का मुख्यमंत्री बनना हर दृष्टि से स्वाभाविक और उचित था। उन्हें एक साल से कुछ ज्यादा समय हुए प्रदेशाध्यक्ष का गुरुतर दायित्व देकर मध्यप्रदेश भेजा गया था। उनकी मेहनत रंग लाई है और चुनावी रणनीति बड़ी हद तक कामयाब हुई है। कमलनाथ के बारे में प्रसंगवश यह तथ्य जानना रोचक होगा कि वे द्वारिकाप्रसाद मिश्र के बाद महाकौशल क्षेत्र से बनने वाले पहले मुख्यमंत्री हैं। याने पैंतालीस वर्ष बाद महाकौशल प्रदेश को यह सौभाग्य मिला है। अभी उन्हें विधानसभा का चुनाव जीतना बाकी है। कमलनाथ 1980 में छिंदवाड़ा लोकसभा क्षेत्र में पैराशूट उम्मीदवार के रूप में आए थे। उस समय यह कोई असामान्य घटना नहीं थी, लेकिन पूरे भारत में तथाकथित बाहरी उम्मीदवारों में एकमात्र कमलनाथ ही निकले जिन्होंने अपने लोकसभा क्षेत्र से कभी मुंह नहीं मोड़ा, कोई बेवफाई नहीं की और इसलिए छिंदवाड़ा की जनता का प्यार और विश्वास उन्हें बार-बार मिलता रहा। बहत्तर वर्ष के कमल केन्द्र में एक सफल मंत्री रह चुके हैं। अब उन्हें खाली खजाने वाले मध्यप्रदेश में अपनी प्रशासनिक क्षमता का परिचय देना होगा।
अशोक गहलोत का मुख्यमंत्री चुना जाना पहली नजर में अटपटा लगता है। विगत पांच वर्ष से सचिन पायलट जिस तरह से लगातार संघर्ष कर रहे थे, उसका उचित फल उन्हें नहीं मिला और कहा जा रहा है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। लेकिन इस मुद्दे पर थोड़ी गहराई में जाने की आवश्यकता है। ऐसा माना जाता था कि राजस्थान में कांग्रेस को इस बार भारी-भरकम विजय मिलेगी। उसे स्पष्ट और सुविधाजनक बहुमत तो मिला लेकिन अपेक्षा से कम। अशोक गहलोत यदि चुनाव मैदान में नहीं होते तो कांग्रेस को अभी मिली सफलता पाने में भी शायद तकलीफ होती! वे चुनाव मैदान के पुराने खिलाड़ी हैं। एक साफ सुथरी छवि वाले मजबूत प्रशासक के रूप में उनकी पहचान रही है। उन्होंने पिछले दिनों गुजरात और कर्नाटक के चुनावों में भी कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाने में अपने राजनैतिक कौशल का परिचय दिया है। इस तरह देखें तो राजस्थान में कांग्रेस की विजय का श्रेय संयुक्त रूप से गहलोत और पायलट की जोड़ी को मिलता है। कांग्रेस आलाकमान ने मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री का फार्मूला अपनाकर स्थिति को संभाला वह उचित हुआ।
छत्तीसगढ़ का मामला इन दोनों से अधिक दिलचस्प है, जिसका प्रमाण कांग्रेस को यहां प्राप्त तीन चौथाई बहुमत से मिलता है। यह एक अभूतपूर्व विजय रही है। इस जीत का श्रेय बराबरी से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल और नेता प्रतिपक्ष टी.एस. सिंहदेव को जाता है। इन दोनों ने लगातार बिना थके, बिना रुके मेहनत की। भूपेश बघेल को इस दौरान जिन मानसिक यंत्रणाओं से गुजरना पड़ा, वह इस प्रदेश के राजनीतिक इतिहास का एक दुखद अध्याय है। नया राज्य बनने के बाद जब वे जोगी सरकार में मंत्री थे तब उनके पिता को कारावास भुगतना पड़ा था। इस बार स्वयं उन्हें जेल में कुछ समय बिताना पड़ा और उनकी वृद्धा माता और पत्नी को भी पेशियों पर तलब किया गया। श्री बघेल के व्यक्तित्व में एक तरह की तुर्शी और आनन फानन में निर्णय लेने की प्रवृत्ति है, लेकिन उनकी संघर्षशीलता में कोई कमी नहीं है।
ये संक्षिप्त व्यक्तिचित्र हमें इन तीनों नए मुख्यमंत्रियों की नेतृत्व क्षमता के प्रति आश्वस्त करते हैं। जो यह अभीष्ट पद पाने से वंचित रह गए, उनके लिए अपनी योग्यता प्रदर्शित करने हेतु अवसरों की कमी नहीं है। मैं याद करना चाहूंगा कि सोनिया गांधी चाहतीं तो प्रधानमंत्री बन सकती थीं। राहुल गांधी चाहते तो उनके मंत्री बनने में कोई बाधा नहीं थी। देश के सभी कांग्रेसजनों को अपने शीर्ष नेतृत्व के ये दोनों उदाहरण हमेशा याद रखना उपयुक्त होगा। इसी बात को राहुल गांधी ने अपने तीनों फोटो कैप्शन में अलग-अलग तरह से व्यक्त किया है। हम यह भी रेखांकित करेंगे कि राजनीति में वरिष्ठता और अनुभव ही हमेशा काम में नहीं आते। पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह राजनीति को विरोधाभासों का समन्वय करने की कला करार देते थे। वह एकदम सटीक परिभाषा है।
जनतंत्र में बहुत सारे अंतर्विरोधों को समझते हुए, समेटते हुए काम करना होता है। इसलिए टी.एस. सिंहदेव, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, ताम्रध्वज साहू, चरणदास महंत इन सबमें से किसी को भी निराश होने की आवश्यकता नहीं है, इनकी योग्यता पर किसी तरह का संदेह नहीं है। इन्होंने अपने-अपने प्रदेश में जैसे एकजुट होकर विधानसभा चुनाव में काम किया उसकी आवश्यकता तीन महीने बाद लोकसभा चुनावों के समय भी पड़ेगी। उसकी तैयारी में सबको अभी से जुट जाना चाहिए। मैं ब्रिटिश जनतंत्र के एक सुंदर दृष्टांत से अपनी बात खत्म करूंगा। अलेक्स डगलस होम 1963-64 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री थे, लेकिन इसके बाद 1970 से 74 के बीच वे अपने देश के विदेश मंत्री भी रहे; याने पद नहीं, पार्टी द्वारा सौंपा गया दायित्व  उन्होंने अधिक महत्वपूर्ण माना।
 
देशबंधु में 17 दिसंबर 2018 को प्रकाशित विशेष सम्पादकीय 

Thursday, 13 December 2018

छत्तीसगढ़ में सुनामी


देश की राजधानी में बैठे राजनीतिक धुरंधरों का मानना था कि जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है वहां छत्तीसगढ़ में भाजपा की स्थिति सबसे मजबूत है और शायद यही सोच कर चुनाव प्रक्रिया सबसे पहले छत्तीसगढ़ में ही शुरू हुई। छत्तीसगढ़ में भाजपा जीत रही है, यह संदेश मध्यप्रदेश और राजस्थान जाएगा तो वहां भी भाजपा की स्थिति में सुधार होगा, शायद यह आकलन किया गया होगा। लेकिन दांव उल्टा पड़ गया। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस प्रचंड बहुमत से जीत रही है यह संकेत जाने से मध्यप्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस का मनोबल बढ़ा और उसे उसका लाभ भी मिला। दिल्ली में बैठकर जब विश्लेषण होता है तो उनमें अक्सर मैदानी हकीकत का संज्ञान नहीं लिया जाता। ऐसे ही परिणाम सामने आते हैं। इसलिए सारे एक पोल एक तरफ रह गए। सीएसडीएस जैसी ख्यातिप्राप्त संस्था के निदेशक डॉ. संजय कुमार का वह लेख अब शायद उन्हें ही मुंह चिढ़ा रहा होगा जिसमें विद्वान अध्येता ने भविष्यवाणी की थी कि कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ जीतने का अवसर गंवा दिया है।
बहरहाल, छत्तीसगढ़ की राजनीति को जानने वाले अनेक लोगों का अनुमान था कि प्रदेश में माहौल कांग्रेस के पक्ष में है। लेकिन यह कल्पना तो बमुश्किल तमाम एक दर्जन लोगों के अलावा किसी ने भी न की थी कि कांग्रेस को दो-तिहाई बहुमत से भी अधिक सीटें मिल जाएंगी और भाजपा बीस का आंकड़ा भी नहीं छू पाएगी। अजीत जोगी अपनी पार्टी बनाकर सोच रहे थे कि वे किंग नहीं तो किंगमेकर अवश्य बनेंगे, लेकिन कांग्रेस के पक्ष में जो सुनामी उठी उसने उनके सपनों का महल चकनाचूर कर दिया। प्रसंगवश कह दूं कि सेवानिवृत्त वरिष्ठ आईएएस अधिकारी बी.के.एस. रे ने 20 नवंबर को दूसरे मतदान के दिन मुझसे कहा था कि कांग्रेस के पक्ष में सुनामी है। मेरा अपना आकलन भी यही था कि भाजपा बीस सीटों में सिमट जाएगी और स्वतंत्र रूप से यही अनुमान पत्रकारों में युवा तुर्क राजकुमार सोनी का था।
फिलहाल यह विश्लेषण का विषय है कि भाजपा को इतनी शर्मनाक पराजय का सामना क्यों करना पड़ा? विगत दो माह में इसी जगह पर मेरे जो कॉलम छपे हैं उनमें कुछ-कुछ उत्तर मिल सकते हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि प्रदेश में प्रशासन नाम की कोई चीज नहीं रह गई थी। मंत्री और अफसर अपनी मनमानी कर रहे थे। वे आम जनता को ही नहीं, भाजपा के कार्यकर्ताओं तक को अपमानित कर रहे थे। सरगुजा से लेकर बस्तर तक पत्रकारों को या तो खरीदा जा रहा था या नए-नए तरीकों से प्रताड़ित किया जा रहा था। कुछेक मनपसंद अफसरों के अलावा बाकी अफसर घुटन महसूस कर रहे थे। सरकारी कर्मचारियों में भय और निराशा, और उत्साहहीनता की भावना पनप रही थी। कितने ही लोग तो इस डर से जी रहे थे कि उनके फोन टेप किए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री ने इन सारी बातों को जानते हुए भी आंखें मूंद लेना बेहतर समझा। क्यों? यह तो वे ही बेहतर बता सकते हैं।
इस सरकार ने, जैसी हर सरकार से अपेक्षा होती है, बहुत सी कल्याणकारी योजनाएं जारी रखीं, नई योजनाएं शुरू कीं, लेकिन सारा ध्यान योजनाओं के बजट पर केन्द्रित रहा। आम जनता के कान सुन-सुन कर पक गए कि उन्हें आज एक, कल दूसरी, परसों तीसरी सौगात मिल रही है। जनता ने मन ही मन पूछा कि टैक्स का पैसा तो जनता का है, फिर सौगात किस बात की? आप कोई अपने घर से तो पैसा लाकर दे नहीं रहे हैं। अनेक योजनाएं जैसे अमृत नमक, चरण पादुका, सरस्वती साइकिल इत्यादि तो कुछ व्यवसायिक मित्रों को सीधे-सीधे लाभ पहुंचाने के लिए बनाई गई थीं। शराबबंदी के नाम पर जो हुआ वह प्रहसन ही माना जाएगा। स्टेडियम के बाद स्टेडियम, आडिटोरियम के बाद आडिटोरियम, ये सब किसके लिए और क्यों बने? रायपुर का तथाकथित स्काई वॉक तो जैसे जनता की छाती पर लोट रहा अजगर है, जिसे देखकर भाजपा सरकार के प्रति जनता के मन से बद्दुआ ही निकलती थी। यह तस्वीर का एक पहलू है जिसमें अंतर्निहित और भी बहुत से तथ्य हैं।
इस तस्वीर के दूसरे पहलू में कांग्रेस की छवि है। छत्तीसगढ़ बुनियादी तौर पर कांग्रेस का गढ़ रहा है। अजीत जोगी ने पहले मुख्यमंत्री रहते हुए अपनी ही बुद्धिमत्ता से कांग्रेस का नुकसान किया। आगे चलकर विद्याचरण शुक्ल ने भी कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने में कोई कमी नहीं की। पिछले पन्द्रह साल में बार-बार यह भी सुनने को मिलता रहा कि भाजपा सरकार ने कांग्रेस के किन-किन नेताओं को उपकृत किया है। कांग्रेस ने अपनी संघर्षशीलता और जुझारूपन जैसे खो दिए थे। जिस दिन अजीत जोगी को कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखाया गया, उस दिन मानो पार्टी ने जीत की कुंजी हासिल कर ली। विगत तीन वर्षों में भूपेश बघेल और टी.एस. सिंहदेव की जोड़ी ने कांग्रेस का कायाकल्प करने में दिन-रात मेहनत की और कोई कसर बाकी नहीं रखी। एक पत्रकार के नाते मुझे लगता था कि कांग्रेस ने उससे अपेक्षित अनेक मुद्दे नहीं उठाए; इसके बावजूद विपक्षी दल के रूप में जितनी सक्रियता दिखाई, वह कम नहीं थी।
इस बीच राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने का भी अनुकूल प्रभाव पार्टी पर पड़ा है। उन्होंने नरेन्द्र मोदी के बरक्स अपनी एक शिष्ट, शालीन छवि बनाई है जिससे जनता के हृदय में उनकी स्वीकार्यता धीरे-धीरे कर बढ़ती गई। इन विधानसभा चुनावों के बारे में भी एक बात जनमानस में काफी हद तक बैठ गई कि असली लड़ाई तो मोदी बनाम राहुल है। कहना गलत न होगा कि तीनों राज्यों में मिली सफलता के पीछे राहुल गांधी की छवि का बड़ा योगदान है, लेकिन सिर्फ छवि से तो काम चलता नहीं है। आप जनता के लिए क्या कर सकते हैं? और क्या करेंगे? यह बड़ा सवाल हर पार्टी व नेता के सामने होता है। इस मुकाम पर राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने जिस सूझबूझ का परिचय दिया वह काबिले तारीफ है। मैं कांग्रेस के घोषणापत्र की बात कर रहा हूं। एक युवा मित्र ने मुझसे कुछ दिन पहले कहा था कि जिस तरह मनुष्य का जीवन आशा से संचालित होता है उसी तरह चुनावी जीत भी आशा पर अवलंबित होती है। कांग्रेस ने इस मनोवैज्ञानिक बिन्दु को भलीभांति जान लिया था।
कांग्रेस के घोषणापत्र में जिस बात का सबसे अधिक असर पड़ा वह किसानों से संबंधित है। कर्जा माफी, दो साल का बकाया बोनस, पच्चीस सौ रुपए समर्थन मूल्य, बिजली बिल हाफ- ये सारे मुद्दे किसानों और आम जनता के मन को छू गए। भाजपा ने घोषणाओं को झूठा ठहराने की कोशिश की, इसको लेकर कुछ वीडियो बने और वायरल हुए, लेकिन आम जनता ने राहुल गांधी के वायदे पर जो एतबार कर लिया था सो वह उससे हटी नहीं। घोषणापत्र में समाज के अन्य वर्गों के लिए भी जो वायदे किए गए उनका भी कुछ न कुछ असर तो हुआ ही है। मेरे विचार में पुलिसकर्मियों को साप्ताहिक अवकाश देने व काम के घंटे निर्धारित करने का वायदा इनमें महत्वपूर्ण है।
यह याद रखना भी उचित होगा कि नोटबंदी और जीएसटी के दुष्परिणाम अब दिखाई देने लगे हैं। पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त ओ.पी. रावत तो 1 दिसंबर को जाते-जाते कह गए कि विमुद्रीकरण के बावजूद कालेधन में कमी नहीं आई है। मतलब साफ है कि जनता को अकथ परेशानियां अकारण झेलना पड़ी हैं। दुबले और दो असाढ़ की कहावत जीएसटी ने चरितार्थ की है। आम नागरिकों के अलावा छोटे-मोटे व्यापारी भी त्रस्त हैं। कोल ब्लाक आदि को लेकर श्रीमान विनोद राय की रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उद्योग जगत के लिए अप्रत्याशित और अवांछित मुसीबतें खड़ी कर दीं।
फिलहाल मोदी जी हार के लिए मुख्यमंत्रियों को दोषी ठहरा सकते हैं लेकिन लोकसभा चुनावों के समय बलि का बकरा कौन बनेगा?
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की विजय पर एक बार फिर बधाई।
देशबंधु में 13 दिसम्बर 2018 को प्रकाशित

Wednesday, 12 December 2018

परिवर्तन


एक नई करवट। एक नई राह। एक बड़ा बदलाव। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के आज घोषित नतीजे यही संदेश देते हैं। देश की जनता का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर से विश्वास धीरे-धीरे उठता जा रहा है और भारतीय जनता पार्टी से कहीं कम, कहीं अधिक उसका मोहभंग होने लगा है। जनता ने यह भी साफ-साफ बता दिया है कि वह जुमलेबाजी से ऊब चुकी है, घृणा की राजनीति अब उसकी बर्दाश्त से बाहर हो गई है और सड़क छाप राजनीति को उसने नकार दिया है। आज तक जो कांग्रेस को डेढ़ राज्य की पार्टी कहकर तिरस्कार किया करते थे आज देश की तीन प्रमुख राज्यों में कांग्रेस की शानदार वापसी के बाद उन्हें अपनी ही अभद्र टिप्पणियों पर देश की जनता से माफी मांगना चाहिए और नहीं तो कम से कम आत्मावलोकन करना ही चाहिए कि वे देश को कहां ले जाना चाहते थे। विगत पांच वर्षों में राहुल गांधी और सोनिया गांधी का जिस भाषा और भाव-भंगिमा से उपहास, तिरस्कार और अपमान किया गया उस पर भी उन्हें अपने आप पर शर्मिन्दा होना चाहिए।
इन चुनावों में सबसे शानदार नतीजे छत्तीसगढ़ के रहे। पन्द्रह साल के वनवास के बाद कांग्रेस दो तिहाई बहुमत के साथ लौटकर सत्ता में आई है। कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं ने अपने आपसी मतभेदों को दरकिनार कर अभूतपूर्व एकजुटता का परिचय दिया, अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में पूरी मेहनत के साथ काम किया और हर कदम पर आवश्यक सतर्कता बरती। अजीत जोगी की कांग्रेस से विदाई एक साहसिक, लेकिन आवश्यक कदम था जिसका सुपरिणाम कांग्रेस को मिला है। कांग्रेस की रणनीति तय करने में स्वयं राहुल गांधी और प्रदेश के प्रभारी महासचिव पी.एल. पुनिया ने जो प्रयत्न किए और जिस सूझबूझ का परिचय दिया वह भी अनिवार्य रूप से रेखांकित करने योग्य है। कांग्रेस ने जो घोषणापत्र जारी किया उसने प्रदेश के किसानों के मन में आशा का संचार किया है। यह कांग्रेस के पक्ष में एक बड़ा सकारात्मक बिन्दु था। नई सरकार को बिना समय गंवाए घोषणापत्र पर अमल करना होगा।
दूसरी ओर भाजपा के मुखिया डॉ. रमन सिंह इस बार जनता के मन को नहीं पढ़ पाए। वे अपने इर्द-गिर्द के कुछ अफसरों पर सीमा से अधिक विश्वास कर बैठे। सत्तारूढ़ भाजपा और उसके नेताओं का अहंकार, सीमाहीन भ्रष्टाचार और नेताओं की एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति ने भी भाजपा का नुकसान करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। मुझे आश्चर्य और अफसोस है कि डॉ. रमन सिंह जैसे जमीन से जुड़े हुए व्यक्ति ने कैसे जमीनी सच्चाइयों से मुंह मोड़ लिया। भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने करेला पर नीम चढ़ा की कहावत सिद्ध की। चुनाव लड़ा जा रहा था रमन सिंह के नेतृत्व में, लेकिन टिकट वितरण में उनकी नहीं चली और योगी आदित्यनाथ जैसे कथित स्टार प्रचारक की दो दर्जन सभाएं भी किसी काम नहीं आई। वैसे भी प्रदेश की जनता पिछले पन्द्रह साल में भाजपा के निरंतर बढ़ते हुए कुशासन से आजिज आ चुकी थी। इस तरह कहें तो एक ओर कांग्रेस और उसकी नेताओं की सकारात्मक सोच और दूसरी ओर भाजपा की नकारात्मक छवि और तीसरी ओर जनता की परिवर्तन की आकांक्षा ने देखते ही देखते मंजर बदल दिया।
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मध्यप्रदेश की स्थिति पूरी तरह स्पष्ट नहीं हुई है, लेकिन वहां भी कांग्रेस एक नए उत्साह और एक नए संकल्प के साथ चुनाव मैदान में उतरी जिसका अनुकूल परिणाम देखने मिल रहा है। यही स्थिति राजस्थान के बारे में कही जा सकती है। तीन हिन्दी प्रदेशों में कांग्रेस की विजय स्वागत योग्य है क्योंकि इससे हमें उम्मीद बंधती है कि आज के बाद राजनीति में एक तत्काल आवश्यक संतुलन स्थापित हो सकेगा। तेलंगाना और मिजोरम के परिणाम कांग्रेस के लिए निराशाजनक रहे। तेलंगाना के मतदाताओं को कांग्रेस का टीडीपी के साथ गठजोड़ करना पसंद नहीं आया। यद्यपि लोकसभा के समय शायद यह गठबंधन उपयोगी हो सके। मिजोरम में एनएमएफ की जीत आश्चर्यजनक नहीं है। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस की पराजय हुई है, लेकिन यहां भाजपा के मंसूबे धरे के धरे रह गए।
इस त्वरित टिप्पणी में चुनाव परिणामों का विस्तृत विश्लेषण संभव नहीं है। फिलहाल हम कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व व तीनों प्रदेशों के नेताओं को बधाई देना चाहेंगे। भाजपा के विजयी उम्मीदवारों को भी हम बधाई देते हैं, इस उम्मीद के साथ कि वे उत्तरदायी विपक्ष की भूमिका निभाएंगे। यह बधाई और यह उम्मीद अजीत जोगी, बसपा, सपा, गोगंपा व अन्य सभी दलों और सभी जीते हुए प्रत्याशियों के प्रति भी है।

#देशबंधु में 12 दिसम्बर 2018 को प्रकाशित विशेष सम्पादकीय

Wednesday, 5 December 2018

परिवर्तन या ईवीएम?



पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की मतगणना में अब सिर्फ पांच दिन शेष रह गए हैं। छत्तीसगढ़ में 12 नवंबर को पहले चुनाव के मतदान के साथ जो सिलसिला शुरू हुआ वह 11 दिसंबर को थम जाएगा। वैसे तो यह कुल तीस दिन का मामला है, लेकिन हमें और पीछे जाकर चुनाव तिथियों की घोषणा तथा आचार संहिता लागू होने के दिन से इस सिलसिले की शुरूआत मानना चाहिए। बहरहाल सबकी निगाहें नतीजों पर टिकी हैं। कांग्रेस इस बारे में बेहद आश्वस्त नजर आ रही है कि चार राज्यों में वह फिर सत्ता में लौटेगी और मिजोरम के मतदाताओं का लगातार तीसरी बार उस पर विश्वास प्रकट होगा। लगभग अचानक रूप से ही परिवर्तन शब्द आम लोगों की जुबान पर चढ़ गया है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के अपने दावे और अपना विश्वास है। उनका कहना है कि परिवर्तन की बात ऊपरी-ऊपरी है।  वे जिस दम-खम के साथ अपनी जीत सुनिश्चित बताते हैं उसे देखकर कांग्रेसजन भी विचलित दिखाई पड़ते हैं।

एक तरफ कांग्रेसी खेमों में अगली सरकार बनाने को लेकर गुणा-भाग चल रहा है, वहीं दूसरी ओर पार्टी चुनावों में भाजपा द्वारा धांधली किए जाने की आशंका से भी ग्रस्त है। उसकी चिंता चुनाव के दौरान घटित कुछ प्रसंगों के चलते वाजिब प्रतीत होती है। छत्तीसगढ़ के जशपुर में कुछ स्थानों पर कांग्रेस के एजेंटों को ईवीएम पर अपनी सील लगाने से रोक दिया गया, वहीं धमतरी में पार्टियों को सूचित किए बिना तहसीलदार अपने अमले को लेकर स्ट्रांगरूम में चले गए और तीन घंटे तक कथित रूप से विद्युत लाइन ठीक करवाते रहे। उधर मध्यप्रदेश में एक जगह होटल में वोटिंग मशीनें मिलीं, तो अन्यत्र तकरीबन अड़तालीस घंटे देरी से मशीनें जमा करवाई गईं।  एक और जगह कथित विद्युत अवरोध के कारण सीसीटीवी कैमरा बंद हो गए। इन सारी बातों की शिकायतें कांग्रेस ने चुनाव आयोग से की हैं। भाजपा कांग्रेस के भय को निर्मूल बताकर उनकी खिल्ली उड़ा रही है, लेकिन ये सारे प्रसंग गंभीर अव्यवस्था की ओर संकेत करते हैं।

इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इन प्रदेशों के अपने कार्यकर्ताओं को हर तरह से सावधान और सतर्क रहने की सलाह दी है। छत्तीसगढ़ में प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल ने अपने उम्मीदवारों को आगाह किया है कि विजयी घोषित होने के बाद वे जुलूस वगैरह न निकालें और यहां-वहां जाने के बजाय एक पूर्व निर्दिष्ट स्थान पर एकत्र हों। समझ आता है कि पार्टी किसी भी तरह की जोखिम नहीं उठाना चाहती। पिछले साल-दो-साल में भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए जो हथकंडे अपनाए हैं उन्हें देखते हुए ये आशंकाएं खारिज नहीं की जा सकतीं।   गोवा भले ही छोटा सा प्रदेश हो, लेकिन वहां सरकार बनाने के लिए और सरकार में बने रहने के लिए भाजपा ने जो कुछ भी किया उसे जनतंत्र की हत्या ही कहा जाएगा। मेघालय में भी ऐसा ही हुआ। यदि अभी के चुनावों में कांग्रेस को किसी राज्य में विजय मिलती है और वह बहुमत से बहुत अधिक नहीं होती तो आशंका बनती है कि भाजपा वहां खरीद-फरोख्त से बाज नहीं आएगी।

जनतंत्र में हार-जीत लगी रहती है।  इसे जीवन-मरण का प्रश्न बना लेना किसी भी दृष्टि से वांछित नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है कि श्रीमान मोदी और श्रीमान शाह की जुगल जोड़ी पर हर हालत में जीत चाहने का भूत सवार है। मेरी समझ में नहीं आता कि ऐसा क्यों है? हमने यह देखा है कि पिछले सत्तर साल में केन्द्र और राज्य दोनों में बार-बार सत्ता परिवर्तन होते रहा है। जब तक जनता संतुष्ट है तब तक ठीक है; और जनता जब असंतुष्ट होती है तो वह सरकार बदल देती है। आज आप भीतर हैं, कल बाहर हैं, लेकिन परसों फिर भीतर आ सकते हैं। इसी आशा पर चुनावी राजनीति होना चाहिए। जो राजनेता अनंत काल तक राज करने का स्वप्न संजोते हैं उनकी प्रवृत्ति तानाशाही की होती है और वे भूल जाते हैं कि वे अमृत फल खाकर इस दुनिया में नहीं आए हैं। मुझे बशीर बद्र का शेर याद आता है- 'लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई।' हमारे राजपुरुषों को इसका मर्म समझना चाहिए।

ऐसा नहीं कि भारतीय जनता पार्टी का वर्तमान नेतृत्व ही सत्तामोह से इस तरह ग्रस्त हो। हम जिसे दुनिया का सबसे पुराना जनतांत्रिक देश मानते हैं और जिसके साथ अपने देश को सबसे बड़े जनतांत्रिक देश घोषित कर आत्मश्लाघा करते हैं उस संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी समय-समय पर इस मनोभाव का परिचय दिया है।  1972 का चुनाव बहुत पुरानी बात नहीं है। राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने दुबारा चुनाव जीतने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए। उन्होंने विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी की  जासूसी ही नहीं करवाई बल्कि उनके मुख्यालय में सेंधमारी भी करवाई। वह शोचनीय प्रसंग वाटरगेट कांड के नाम से कुख्यात है। वाशिंगटन पोस्ट अखबार ने इसका खुलासा किया तो निक्सन को दूसरी पारी के बीच में ही इस्तीफा देना पड़ा और उपराष्ट्रपति स्पेरो एग्न्यू शेष अवधि के लिए कार्यवाहक राष्ट्रपति बने। निक्सन किसी तरह महाभियोग से तो बच गए, लेकिन देश और दुनिया की जनता की निगाह से जो गिरे तो फिर गिरे ही रह गए।

अमेरिका में ही दूसरा प्रकरण इस सदी के प्रारंभ में घटित हुआ जब पूर्व राष्ट्रपति जार्ज एच. डब्ल्यू बुश के पुत्र जार्ज डब्ल्यू बुश जूनियर रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी बन कर मैदान में उतरे। उनके सामने डेमोक्रेटिक पार्टी के उपराष्ट्रपति रह चुके अल गोर थे। इस चुनाव को जीतने के लिए बुश बाप-बेटे ने धांधली की। उन्होंने अमेरिका की जटिल चुनाव प्रणाली का फायदा उठाया। अल गोर को बुश जूनियर से अधिक मत (पापुलर वोट) मिले थे, लेकिन फ्लोरिडा राज्य की मतगणना में धांधली कर बुश को जिता दिया गया। ध्यान देने योग्य है कि बुश जूनियर के बड़े भाई जेब बुश उस समय फ्लोरिडा राज्य के गवर्नर थे। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, लेकिन वहां भी बुश सीनियर द्वारा मनोनीत जजों ने मामला खारिज कर दिया। इन दोनों प्रकरणों के चलते अमेरिका क्रमशः सीनेटर जॉन मैक्गवर्न और सीनेटर अल गोर जैसे बुद्धिजीवी, सुयोग्य और प्रतिष्ठित राजनेताओं की राष्ट्रपति पद पर सेवा पाने से वंचित रह गया।

मैं यहां सुप्रसिद्ध अमेरिकी उपन्यासकार अपटन सिंक्लेयर के उपन्यास 'द जंगल' का एक अंश उद्धृत करना चाहूंगा-

"एक या दो माह बाद युर्गिस को वह व्यक्ति मिला जिसने उसे अपना नाम मतदाता सूची में रजिस्टर्ड कराने की सलाह दी। जिस दिन मतदान होना था, उसे सूचना मिली कि सुबह नौ बजे तक वह कहीं बाहर रहे। फिर वह व्यक्ति युर्गिस और उसके झुंड को मतदान केंद्र तक ले गया और एक-एक को समझाया कि उन्हें कैसे और किसे वोट देना है। जब वे वोट देकर बाहर निकले तो उस व्यक्ति ने उन्हें दो-दो डॉलर दिए।  युर्गिस इस अतिरिक्त कमाई से बेहद खुश था, लेकिन जब बस्ती में वापिस लौटा तो योनास ने यह बताकर उसकी खुशी छीन ली कि उसने तो तीन वोट डाले जिसकी एवज में उसे चार डॉलर की कमाई हुई।"

यह उपन्यास 1906 में प्रकाशित हुआ था। मतलब यह हुआ कि यह दृश्य सन् 1900 या 1904 के राष्ट्रपति चुनाव के समय होगा। आप इसी उपन्यास का एक और अंश देखिए-

"और फिर यूनियन दफ्तर में युर्गिस को वही व्यक्ति फिर मिला जिसने उसे समझाया कि अमेरिका किस तरह रूस से अलग है। अमेरिका में जनतंत्र है और वहां जो भी व्यक्ति राज करता है, तथा घूस लेने का अधिकारी बनता है, उसे पहले चुनाव जीतना होता है। इस तरह घूसखोरों के दो पक्ष होते हैं, जिन्हें राजनीतिक दल के नाम से जाना जाता है। जीतता वह है जो सबसे अधिक वोट खरीद पाता है। कभी-कभी मुकाबला कांटे का होता है। तब गरीब लोगों की जरूरत पड़ती है।"

इसे पढ़कर हम कह सकते हैं कि अमेरिका हो या भारत, बीसवीं सदी हो या इक्कीसवीं सदी, जब तक जनता जागरूक नहीं होगी, हम इस तरह की सरकार चुनने के लिए अभिशप्त रहेंगे।

#देशबंधु में 06 दिसंबर 2018 को प्रकाशित

Sunday, 2 December 2018

अपनी सरकार से अपेक्षाएं- 3



यह बात सैकड़ों मंचों से लाखों बार कही गई है कि राज्य की बुनियादी जिम्मेदारी जनता के लिए, उत्तम शिक्षा और उत्तम स्वास्थ्य सेवा की व्यवस्था करना है। पूंजीवादी जनतांत्रिक देश भी इस धारणा में विश्वास रखते हैं। हमारे देश में भी राजनेता इन दो मुद्दों पर अपनी प्रतिबद्धता आए दिन व्यक्त करते हैं। इनके अनुरूप नीतियां भी बनाई जाती हैं। शिक्षा के अधिकार व स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकारों के दायरे में लाना इसका प्रमाण है। लेकिन नीतिगत स्तर पर तय की गई बात को अमल में लाने के लिए जिस राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है, उसका अभाव यहां से वहां तक दिखाई देता है। इसीलिए जिन राज्यों के चुनाव परिणाम सिर्फ पांच दिन बाद घोषित होना है, वहां की चुनी सरकारों से हमारी उम्मीद है कि वे जनादेश का सम्मान करते हुए इन दो बुनियादी प्रश्नों पर मन-वचन-कर्म से अनुकूल आचरण करेंगे।

सबसे पहले शिक्षा को लें। मेरी राय है कि प्रदेश में शिक्षामंत्री एक ही होना चाहिए। अभी जो उच्च शिक्षा और शालेय शिक्षा के दो अलग-अलग मंत्रालय हैं, वे शिक्षा को वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखने से रोकते हैं। हां, दोनों के लिए अलग-अलग निदेशालय हो सकते हैं। वह एक प्रशासनिक आवश्यकता है। अगली बात स्कूली शिक्षा के लिए शिक्षा का अधिकार कानून सही भावना से लागू करने की है। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में एक गलत वायदा किया है कि आठवीं कक्षा में परीक्षा ली जाएगी। शिक्षाशास्त्र से अपरिचित अभिभावकों व शिक्षकों की यह राय हो सकती है, लेकिन इसमें समाजशास्त्रीय एवं मनोवैज्ञानिक दोनों पहलुओं को नजरअंदाज कर दिया गया है। जिन बच्चों को पढ़ाई में कमजोर मान परीक्षा में फेल कर दिया जाता है, वे हीनभावना से ग्रस्त हो जाते हैं; उनके अन्य गुणों का विकास करने से वे वंचित हो जाते हैं, और स्कूल से निकाल देने के बाद उनके अराजक हो जाने की भयावह आशंका भी बन जाती है। दरअसल, आवश्यकता बच्चों के सर्वांगीण विकास, उनके अंतर्निहित गुणों की परख तथा उनके सतत आंतरिक मूल्यांकन की है। हमारी समझ में वह पुरानी पद्धति बेहतर थी जब एक ही कक्षा शिक्षक पहली से पांचवीं तक व छठवीं से आठवीं तक अपनी कक्षा के साथ लगातार चलता था।

आरटीई कानून ने विभाग के लिए एक नई समस्या खड़ी कर दी है कि निजी विद्यालयों में पहली से शुरू कर बारहवीं कक्षा तक साधनहीन परिवारों के बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाए। कानून की मंशा ठीक है, किंतु शिक्षा विभाग की ही नहीं, आरटीई फोरम जैसे स्वैच्छिक संगठनों का भी बहुत सारा समय इसी में चला जाता है। इसका विकल्प है कि सरकारी स्कूलों को सुविधासंपन्न बनाया जाए, ताकि पालकों के मन में बच्चों को निजी स्कूल में भेजने का विचार ही न आए। इस बिंदु पर नई सरकारें दिल्ली की आप सरकार से प्रेरणा ले सकती हैं। राजनीतिक पूर्वाग्रह से मुक्त होकर देखिए कि दिल्ली में सरकारी स्कूलों का कैसा कायाकल्प केजरीवाल सरकार ने कर दिया है। मेरा अपना अनुभव है कि यदि स्थानीय निवासी व पालक रुचि लें व सरकार थोड़ी सी मदद कर दे तो सरकारी स्कूलों में कहीं बेहतर पढ़ाई हो सकती है। हां, सत्ताधीशों को अभिजात मानसिकता को छोड़ना होगा।

उच्च शिक्षा की बात की जाए तो फिलहाल वहां भी बंटाधार है। जब राज्यपालों पर लाखों रुपया दक्षिणा लेकर कुलपति नियुक्त करने का आरोप लगे; अथवा मुख्यमंत्री दलीय निष्ठा के आधार पर कुलपति, कार्यपरिषद सदस्य, प्राध्यापक, अधिष्ठाता आदि पदों पर मनोनयन अथवा नियुक्ति करने पर विवश हों तो फिर शिक्षा में गुणवत्ता कहां से आए? नई सरकार को याद दिलाएं कि जवाहरलाल नेहरू ने मात्र चालीस वर्ष आयु के रवि मथाई को आईआईएम अहमदाबाद का प्रथम डायरेक्टर नियुक्त किया था। आईआईएम-ए भारत का सर्वोपरि उच्च शिक्षण संस्थान व विश्वख्याति का गौरव प्राप्त है। क्या आने वाली राज्य सरकारें कुछ ऐसा साहसिक  प्रयोग कर सकेंगी? एक समय था जब पं. कुंजीलाल दुबे व द्वारिकाप्रसाद मिश्र जैसे विद्वान राजनेता क्रमश: नागपुर व सागर विवि के कुलपति थे। आज शायद ऐसे प्रयोग नए सिरे से करने का समय आ गया है। विद्वान कुलपति, उत्तम प्रशासन के लिए रैक्टर व दैनंदिन प्रशासन के लिए रजिस्ट्रार की पुरानी पद्धति बुरी नहीं थी। सागर में तो कुलपति का निर्वाचन करने की परंपरा थी जो अभी कलकत्ता में चल रही है। यह भी विचारयोग्य है।

शिक्षा का स्तर ऊपर उठाने के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है सुयोग्य तथा प्रशिक्षित शिक्षकों की। जब विश्वविद्यालय की बात आए तो वहां ऐसे शिक्षक चाहिए जो मौलिक शोध में रुचि रखते हों व अन्य विद्यार्थियों को उस ओर प्रवृत्त कर सकें। लेकिन फिलहाल स्कूल हो या कॉलेज या विश्वविद्यालय- स्थिति क्या है? शिक्षकों के लाखों पद रिक्त पड़े हैं। निविदा भर्ती से काम चलाया जा रहा है, जिसकी सीमाएं स्पष्ट हैं। छत्तीसगढ़ में, और शायद मध्यप्रदेश में भी, ये हाल है कि सरकारी कॉलेज तक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से मिलने वाला अनुदान उठाने में अक्षम हैं क्योंकि शिक्षकों की कमी के कारण उन्हें स्थायी मान्यता नहीं मिल पाती जो अनुदान पाने की अनिवार्य शर्त है। अनुदान प्राप्त निजी महाविद्यालय में और दयनीय स्थिति है। वहां शिक्षक एक के बाद एक सेवानिवृत्त होते जा रहे हैं और राज्य सरकार नई नियुक्तियों के लिए अनुदान नहीं दे रही है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि पैंतीस साल पहले कोई युवा सहायक प्राध्यापक या लेक्चरर नियुक्त हुआ तो आज भी उसका पदनाम वही है। इन महाविद्यालयों में पूर्णकालिक प्राचार्य तक नहीं है। फिर भी आप गुणवत्ता की अपेक्षा करते हैं।

बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं पर चर्चा करते हुए सबसे पहले ध्यान आता है कि स्वास्थ्य बीमा योजना को बंद कर देना चाहिए। मुझे नहीं पता कि राज्य सरकार ऐसा करने में सक्षम है या नहीं। लेकिन यह कड़वी सच्चाई अपनी जगह है कि इस योजना से न मरीज खुश हैं और न डॉक्टर। डॉक्टरी पेशे में जो गड़बड़झाला है, वह एक गंभीर नैतिक प्रश्न है, लेकिन यह स्थान उस चर्चा के लिए नहीं है। मैं पूर्व में दिए कुछ सुझावों को दोहराना चाहूंगा। अव्वल तो नए-नए मेडिकल स्नातकों को ग्रामीण व दूरस्थ क्षेत्रों में हर हाल में सेवा देने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई में सरकार शायद पचास लाख रुपए प्रति विद्यार्थी निवेश करती होगी। संभव है कि यह राशि ज्यादा ही हो। अभी की व्यवस्था में नया गे्रजुएट दो लाख या पांच लाख की बांड राशि भरकर गांव जाने से छुटकारा पा लेता है। यह गरीब जनता के साथ क्रूर मजाक है। बांड याने अनुबंध की राशि पढ़ाई के पूरे खर्च के समतुल्य होना चाहिए, ताकि नया डॉक्टर कोई बहानेबाजी किए बिना ग्रामीण अंचल में न्यूनतम तीन साल तक सेवाएं दे सके।

इसके साथ सरकार को शहरी क्षेत्र में निजी अस्पताल खोलने पर बैंकों से ऋण देने पर पूरी तरह रोक लगाना उचित होगा। बैंक ऋण केंद्रीय विषय है, लेकिन राज्य सरकार यह तो कर ही सकती है कि, दूरस्थ अंचल में अस्पताल खोलने में ब्याज राशि पर सब्सिडी का प्रावधान करे, ताकि युवा डॉक्टर गांवों में जाकर सेवा करने की ओर आकर्षित हो सकें। मैं इस बात पर भी आश्चर्य करता हूं कि एम्स याने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में सेवारत डॉक्टर निजी पै्रक्टिस क्यों नहीं कर पाते! उसके लिए क्या नियम और कैसा वातावरण है, नई सरकार को इसका अध्ययन करना चाहिए। यहां पुन: दिल्ली की आप सरकार द्वारा की गई मोहल्ला क्लीनिक पहल का जिक्र करना उचित होगा। हमारे नीति-निर्माता चाहें तो सुदूर क्यूबा से भी प्रेरणा ले सकते हैं, जहां सर्वप्रथम शहरी क्षेत्रों में पॉलीक्लीनिक स्थापित किए गए। इनमें पांच डॉक्टर होते थे- जीपी याने जनरल पै्रक्टिशनर, शिशु रोग विशेषज्ञ, मातृरोग विशेषज्ञ, दंतचिकित्सक एवं जनस्वास्थ विशेषज्ञ। इससे भारी लाभ हुआ और धीरे-धीरे कर दूर-दराज के अंचलों तक पॉलीक्लीनिक सेवा का विस्तार किया गया।

भारत में जनस्वास्थ्य अभियान के प्रमुख कार्यकर्ता डॉ. अमित सेनगुप्ता का पंद्रह दिन पहले समुद्र में डूब जाने से निधन हो गया। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए मैं याद करता हूं कि छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य अभियान की शुरूआत की गई थी। यह इस मिशन की पहल तथा तत्कालीन स्वास्थ्य सचिव डॉ. आलोक शुक्ला की सक्रिय साझेदारी थी, जिससे मितानिन की अवधारणा स्थापित हुई। छत्तीसगढ़ के बाहर मितानिन को हम ''आशा'' वर्कर के नाम से जानते हैं। छत्तीसगढ़ में ही गनियारी में जनस्वास्थ्य सहयोग व दल्ली राजहरा में शहीद अस्पताल ने स्वास्थ्य सेवा में जिस निस्वार्थ भावना के साथ बेहतरीन उदाहरण पेश किए हैं, उनका न सिर्फ अभिनंदन हो, बल्कि उनसे प्रेरणा, मार्गदर्शन भी लेना होगा। सीधी-सच्ची बात है कि जिस राज्य में शिक्षा व स्वास्थ्य पर समुचित ध्यान दिया जाएगा, उसकी जनता को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता।  लेकिन यदि हमारी रुचि पुलिस राज्य कायम करने में हो तो बात अलग है।

#देशबंधु में 03 दिसंबर 2018 को प्रकाशित

Thursday, 29 November 2018

अपनी सरकार से अपेक्षाएं-2

                       
विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान इस बार इंदौर, ग्वालियर और उज्जैन में बंद पड़ी कपड़ा मिलों का मुद्दा भी मतदाताओं ने उठाया। एक समय बीमार कर दी गईं इन मिलों का राष्ट्रीयकरण कर उन्हें पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया गया था, लेकिन वह अन्तत: असफल सिद्ध हुआ। मालवा अंचल में व्यापक पैमाने पर कपास की खेती होती थी जिससे मिलों को कच्चा माल मिलता था। धीरे-धीरे रासायनिक प्रक्रिया से निर्मित वस्त्रों ने सूती वस्त्रों को चलन से लगभग बाहर कर दिया। छत्तीसगढ़ में राजनांदगांव में बीएनसी मिल्स की बनी मच्छरदानियां भारत प्रसिद्ध थीं।  इसके लिए कपास कवर्धा व आसपास के क्षेत्र से आता था। कवर्धा में कपास साफ करने के लिए जिनिंग फैक्टरी थी, जो न जाने कब बंद हो गई। मैं कुछ दिन पहले चुनावों का जायजा लेने निकला तो बेमेतरा, बेरला, नवागढ़ क्षेत्र में कपास के खेत यहां-वहां दिखे।
कपास की नए सिरे से खेती एक नई संभावना को जन्म देती है। छत्तीसगढ़ में बीएनसी मिल्स तो थी, उसके साथ-साथ छुईखदान से लेकर पेंड्रावन तक हाथकरघे पर बुनकरी भी खूब होती थी, और आज भी किसी सीमा तक चल रही है। पुराने मध्यप्रदेश में नागपुर, जबलपुर, रायपुर हाथकरघा उद्योग के प्रमुख केंद्र थे और सहकारी क्षेत्र में इनका संचालन होता था। मेरा नई सरकारों को सुझाव होगा कि मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ दोनों में हाथकरघा को प्रोत्साहन दिया जाए। इससे रोजगार के विपुल अवसर उत्पन्न होंगे तथा सहकारी क्षेत्र का भी विकास हो सकेगा। कहना न होगा कि कपास उत्पादक किसानों को भी नकदी फसल के रूप में आय का एक बेहतर स्रोत मिलेगा। इस पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या हाथकरघा याने हैंडलूम के समानांतर पावरलूम का विकास संभव और व्यवहारिक है। छत्तीसगढ़ का कोसा तो प्रसिद्ध है ही। संबलपुरी वस्त्रों, खासकर साड़ी के नाम से विख्यात कपड़ों की बुनाई का बड़ा काम छत्तीसगढ़ से ही होता है। फिर भी प्रदेश को उसकी पहचान नहीं मिल पाई। इसलिए कि डिजाइन और कलात्मकता में हम अपनी प्रतिभा का पर्याप्त परिचय नहीं दे पाए। ध्यान दिया जाए तो वह भी एक आर्थिक लाभकारी गतिविधि हो सकती है।
रोजगार के अवसर सृजित करने में पर्यटन उद्योग की अहम भूमिका हो सकती है। राजस्थान इस दिशा में अपनी पहचान कायम कर चुका है, लेकिन मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में पर्यटन की जो अपार संभावनाएं हैं उनका शायद दस प्रतिशत भी हासिल नहीं किया जा सका है। सच कहें तो भारत में कहीं भी पर्यटन उद्योग का सही ढंग से विकास नहीं हुआ है। इस बारे में जो भी नीतियां बनती हैं उनका लक्ष्य अभिजात, सुखविलासी वर्ग को संतुष्ट रखना होता है। औसत भारतीय नागरिक भी एक पर्यटक होता है, इस पर ध्यान नहीं दिया जाता। हमारी समझ में अगली सरकार को घरेलू पर्यटन को बढ़ावा देने पर विचार करना चाहिए। आवश्यकता है कि तीर्थयात्री, विद्यार्थी और नौजवान और सीमित आय वाले पर्यटकों को ध्यान में रख सुविधाएं निर्मित की जाएं। पर्यटन स्थलों पर स्थानीय निवासियों के बीच पेईंगगेस्ट जैसी अवधारणा समझाई जाए। स्थानीय होटलों और ढाबों और गाइड आदि को भी समुचित प्रशिक्षण देना उपयोगी होगा।  कुल मिलाकर स्थानीय जनता को यह समझाना होगा कि पर्यटन उद्योग उनके लिए आय बढ़ाने का एक बेहतरीन माध्यम हो सकता है। इस हेतु उन्हें तकनीकी सहायता व वित्तीय सहयोग भी देने पर विचार करना होगा।
इसी सिलसिले में मैं छत्तीसगढ़ के पूर्व राज्यपाल शेखर दत्त की लगभग तीस बरस पहले की गई बात याद करता हूं। अमरकंटक हो या शिवरीनारायण, मांडू हो या सिरपुर, ऐसे पर्यटन स्थलों पर यदि वृद्धजनों के लिए आवासीय परिसर इस तरह विकसित किए जा सकें कि वहां पर्यटक भी आकर ठहर सकें तो इससे वृद्धजनों का एकाकीपन  दूर होगा, साथ ही पर्यटकों को भी साफ-सुथरा, सुरक्षित व स्थानीय संस्कृति के अनुरूप माहौल मिल सकेगा। उत्तराखंड, मेघालय व कोड़ुगू अंचल में इसके अच्छे परिणाम सामने आए हैं।
मैं किसी अन्य विषय को उठाने के पूर्व यहां मीडिया पर चर्चा करने की अनुमति पाठकों से चाहूंगा।  यह दुर्भाग्य है कि गलत सरकारी नीतियों के कारण देश में मीडिया की विश्वसनीयता लगातार घटी है। वैसे तो 1990-91 में वैश्वीकरण के पदार्पण के साथ यह गिरावट शुरू हो गई थी, लेकिन इधर जो स्थिति बनी है वह अत्यन्त शोचनीय है। एक तरफ कारपोरेट और पूंजीमुखी मीडिया है, जिसकी सत्ताधारियों के साथ सांठगांठ रहती है। दूसरी तरफ चरण चुंबन करने वाला मीडिया है जिसने अपने पेशे को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, लेकिन सत्ताधीशों का वरदहस्त इस पर बना रहता है। नई सरकार से हम अपेक्षा करना चाहेंगे कि मीडिया के स्वस्थ विकास की पहल की जाए।  छोटे-छोटे केन्द्रों से प्रकाशित पत्रों के साथ भी न्याय किया जाए।  विज्ञापन नीति एकाधिकार याने मोनोपली प्रेस को बढ़ावा देने वाली न हो।
ऑनलाइन मीडिया का आकलन उसकी विश्वसनीयता के आधार पर हो। याद रखना चाहिए कि मीडिया की भूमिका सरकार और जनता के बीच में पुल बनाने की है।  जो सत्ताधीश आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सकते वे चाटुकारों से घिर जाते हैं और फिर उन्हें पता भी नहीं चलता कि उनके राज में क्या हो रहा है। हम याद करना चाहेंगे कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले तक हर सरकार बड़े-छोटे का भेद किए बिना अमूमन मीडिया के साथ बराबरी से व्यवहार रखती थी। रिजर्व बैंक की तो घोषित नीति थी कि समाचारपत्रों को लघु उद्योग का दर्जा देकर उसके अनुरूप सुविधाएं दी जाएं।
यह हमारा अनुभव है कि मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में प्रशासन व्यक्तिकेन्द्रित हो चुका है। एक अंग्रेजी कहावत है- 'यू शो मी द मैन, आई विल शो यू द रूल'। इसका अर्थ है कि सरकार कानून- कायदे से नहीं बल्कि व्यक्तिगत पसंद-नापसंद से चलती है। इस प्रवृत्ति को पूरी तरह खत्म तो नहीं किया जा सकता, फिर भी चुनी हुई सरकार से यह अपेक्षा जनता करती है कि देश-प्रदेश में कानून का राज हो और किसी व्यक्ति या समूह के बारे में जो फैसला हो वह पूर्वाग्रह से मुक्त हो। इसके लिए आवश्यक होगा कि प्रशासन की सभी शाखाओं में अधिकतम सीमा तक अधिकारों का विकेन्द्रीकरण हो और छोटे से छोटा अधिकारी भी राग, द्वेष और भय से मुक्त होकर निर्णय लेने में सक्षम हो। कांस्टेबल हो या शिक्षक, पटवारी हो या डॉक्टर, तबादला या पोस्टिंग में मंत्री की क्यों चले? 
यह सर्वविदित है कि किसी प्रदेश की पहचान बनाने में उसके सांस्कृतिक परिदृश्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भोपाल में भारत भवन बना तो मध्यप्रदेश की चर्चा सारी दुनिया में होने लगी। आज दुर्भाग्य से स्थिति ठीक इसके विपरीत है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों में सांस्कृतिक आयोजन तो बहुत होते हैं, लेकिन उनमें से अधिकतर फूहड़ और ऊबाऊ तमाशे ही होते हैं। स्थानीय जनता को संतुष्ट करने के लिए बिना सोचे-विचारे उत्सव स्थापित हो जाते हैं, फर्जी संस्थाओं को सरकारी अनुदान मिल जाता है। अधिकारियों और उनके चाटुकारों के परिजन स्वयंभू संस्कृतिकर्मी बन बैठते हैं। दर्जनों पुरस्कार दिए जाते हैं, लेकिन उनकी कोई प्रतिष्ठा नहीं होती। यह पराभव देखकर जी बहुत दुखता है। हमारी राय में संस्कृति के व्यापार की समीक्षा करना आवश्यक है।
मुख्यमंत्री को यह समझना चाहिए कि रेवड़ियां बांटने से उनकी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ती। खासकर छत्तीसगढ़ में नई सरकार से मेरी अपेक्षा है कि सबसे पहले वह राजिम कुंभ के नाम पर होने वाले तमाशे को बंद करे। छत्तीसगढ़ पुरातात्विक संपदा का धनी प्रदेश है फिर भी दुखद है कि यहां आज तक पुरातत्व के लिए अलग से विभाग या निदेशालय नहीं बनाया गया है। साहित्य- संस्कृति के नाम पर जो पीठें बनीं उनमें एक के बाद एक अयोग्य लोग बैठाए गए हैं। मध्यप्रदेश की हालत भी अच्छी नहीं कही जा सकती। जबकि दोनों प्रदेशों में संस्कृति के विभिन्न आयामों से जुड़े ऐसे विद्वतजनों की कमी नहीं है जिन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक ख्याति पाई है। इस पहलू पर एक सम्यक सोच विकसित करना आवश्यक है।
अभी मुद्दे और भी हैं। उन पर यथासमय विचार करेंगे।
 देशबंधु में 30 नवंबर 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 28 November 2018

अपनी सरकार से अपेक्षाएं-1

                                       

 इस वक्त क्या यह बेहतर नहीं होगा कि विधानसभा चुनावों में जीत-हार के बारे में अटकलबाजी करने के बजाय बात इस पर की जाए कि हम सरकार बनाने के लिए जिन्हें चुनेंगे उनसे भविष्य के प्रति हमारी क्या अपेक्षाएं हैं? सरकार कांग्रेस की बने या भाजपा की या किसी गठजोड़ की, उसमें लोग तो वही होंगे जिन्हें हमने चुना होगा। मैंने इसी कॉलम में कुछ समय पूर्व 'मेरा चुनावी घोषणापत्र' और 'रोशनी का घोषणापत्र' शीर्षक से दो लेख लिखे थे।  इनमें मैंने  संक्षेप में और अधिकतर संकेतों में आगामी सरकार के विचारार्थ कुछ बिन्दु रखे थे। आज उनमें से कुछ बिन्दुओं पर मैं विस्तारपूर्वक बात करना चाहूंगा। मकसद यही है कि हम एक सजग और सतर्क नागरिक समुच्य के रूप में अपनी भूमिका निभाएं। सिर्फ वोट डाल कर आ जाने से हमारा काम पूरा नहीं होता। हमें स्वयं याद रखना चाहिए और सत्ताधीशों को समय-समय पर स्मरण कराते रहना चाहिए कि हम सिर्फ मतदाता या मूकदर्शक नहीं हैं; और यह भी कि जनतंत्र के स्वास्थ्य के लिए पांच साल तक चुप बैठे रहना ठीक नहीं है।

मेरा पहला प्रस्ताव छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में है और यह इस प्रदेश में दशकों से विद्यमान नक्सल समस्या को लेकर है। मैं चाहूंगा कि अगली सरकार जिस भी पार्टी की हो, वह इस जटिल मुद्दे पर पूरी ईमानदारी और गंभीरता के साथ विचार करे। एक नई पहल के लिए मैं एक उच्चस्तरीय समिति के गठन की सिफारिश करता हूं जिसमें सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति ए.के. पटनायक अध्यक्ष हों तथा सदस्य के रूप में प्रोफेसर दीपक नैय्यर (दिल्ली वि.वि. के पूर्व कुलपति व अर्थशास्त्री), एम.एल. कुमावत (पूर्व महानिदेशक सीमा सुरक्षा बल) व प्रोफेसर नदीम हसनैन (विख्यात समाजशास्त्री) शामिल हों।  ये सभी अपने-अपने क्षेत्र की जानी-मानी हस्तियां हैं व इनकी विवेक बुद्धि व विवेचन क्षमता असंदिग्ध है।
यह समिति छत्तीसगढ़ में नक्सल मोर्चे पर की गई अब तक की तमाम नीतियों व कार्रवाईयों का पुनरीक्षण करे और बस्तर में शांति के लिए अपने सुझाव दे। सलवा जुड़ूम, पुलिस व अर्द्धसैनिक बलों द्वारा की गई कार्रवाईयां, आदिवासियों की गिरफ्तारियां, पत्रकारों व नागरिक समूहों के साथ टकराव, प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, निर्मला बुच कमेटी के समक्ष आए सुझाव जैसे तमाम मुद्दों पर यह समिति विचार करे। मैं इसमें एक प्रस्ताव अपनी ओर से  भी जोड़ना चाहूंगा कि बस्तर में मुख्य सचिव स्तर का एक शक्तिसम्पन्न अधिकारी पदस्थ किया जाए ताकि स्थानीय स्तर पर आवश्यकता पड़ने पर अविलंब निर्णय लिए जा सकें।
अगला बिंदु स्थानीय स्वशासन के बारे में है। इसमें 73वां व 74वां दोनों संविधान संशोधन विधेयक शामिल हैं।  चूंकि ये विधेयक राज्य सरकारों को अपने स्तर पर नियम-उपनियम बनाने की शक्ति देते हैं, इसलिए यहां पुनर्विचार करना वांछित है कि प्रदेशों में जो नियम लागू हैं वे संविधान की भावनाओं के अनुकूल हैं या नहीं। मुझे दो बड़े अंतर्विरोध स्पष्ट दिखाई देते हैं। जब केन्द्र और राज्य में मुखिया का निर्वाचन चुने हुए प्रतिनिधि करते हैं तो नगरीय निकायों और पंचायतीराज संस्थाओं में सरपंच से लेकर महापौर तक के चुनाव सीधे करने में क्या तुक है? इनके चुनाव भी पंचों और पार्षदों के बीच में से होना चाहिए। दूसरे पंचायती राज संस्थाओं में गैरदलीय पद्धति से चुनाव करवाना भी वांछित नहीं है। अगर गांव-गांव में पंचों के चुनाव दलगत आधार पर हो तो इससे जमीनी स्तर पर पार्टी भी मजबूत होगी और पंचायत के प्रबंध में भी किसी हद तक अनुशासन बना रहेगा। यह भी विवेचना का विषय है कि स्थानीय स्वशासी संस्थाओं को आगे और कैसे मजबूत किया जाए।
कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में धान का समर्थन मूल्य पच्चीस सौ रुपया और सोयाबीन का पांच हजार रुपए करने का वचन दिया है। किसानों की कर्जा माफी की बात तो की ही गई है। वह खैर, एक बार की बात है। इससे अधिक महत्वपूर्ण घोषणा समुचित समर्थन मूल्य की है। इस बारे में निरंतर समीक्षा होते रहना चाहिए ताकि किसानों को बिना आंदोलन किए यथासमय युक्तिसंगत कीमत प्राप्त होती रहे। छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय कृषि मूल्य आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. दिनेश मरोठिया जैसे विशेषज्ञ उपलब्ध हैं। ऐसे विद्वानों की राय से कृषि क्षेत्र के लिए एक दीर्घकालीन नीति बनाई जा सकती है ताकि किसानों को बार-बार ऋणग्रस्तता के दलदल में न फंसना पड़े और न उन्हें क्षणिक लाभ के लिए बीच-बीच में झुनझुने पकड़ाने की जरूरत आन पड़े। गैरकृषक निम्न आय वर्ग को सस्ता अनाज कैसे उपलब्ध हो अर्थात सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सही ढंग से लागू करना  इसी विषय का दूसरा एवं अनिवार्य पहलू है। 
हमारे यहां एक कहावत चली आ रही है-पैडी एण्ड पावर्टी गो टूगेदर अर्थात धान और गरीबी साथ-साथ चलते हैं। यह बात सरासर झूठ है। अन्यथा चावल मिल मालिक कैसे करोड़पति और अरबपति हो जाते हैं? मैं अपने पुराने सुझाव को दोहराऊंगा कि राईस मिल को जॉब वर्क की तरह सिर्फ मिलिंग करना चाहिए जिसका एक रेट तय किया जा सकता है। धान से लेकर चावल तक पर किसान का अधिकार हो। उसमें पंचायत, सहकारी बैंक, ग्रामीण बैंक, सहकारी संस्थाएं, भारतीय खाद्य निगम और वेयरहाउसिंग कार्पोरेशन नीतिगत मदद करें ताकि किसान को खाद, बीज खरीदने से लेकर चावल बेचने तक किसी तरह की अनावश्यक कठिनाई का सामना न करना पड़े। इसे सुनिश्चित करने में ग्राम पंचायत की भूमिका महत्वपूर्ण होगी।
भारत एक कृषिप्रधान देश होने के अलावा पशुप्रधान देश भी है। गोवंश का पालन और संरक्षण आम भारतीय की भावनाओं से जुड़ा हुआ मुद्दा है, लेकिन यहां भी जनता सब कुछ सरकार पर छोड़ कर अपना पल्ला झाड़ लेती है।  दूसरी ओर गोवंश संरक्षण के नाम पर देश में गौ-गुंडों की एक फौज खड़ी हो गई है। मेरा मानना है कि हरेक ग्राम पंचायत को एक वृहद गौशाला परिसर का निर्माण करना चाहिए जिसमें हर स्तर पर मवेशियों की देखभाल हो। एक तरफ दुग्ध उत्पादन, दूसरी ओर गोबर गैस से बिजली का उत्पादन, दो तरह से लाभकारी आर्थिक गतिविधियां संचालित हो सकती हैं। महात्मा गांधी ने तो मरे हुए जानवरी की खाल और हड्डी के उपयोग को भी स्वीकार किया था। अभी आवारा मवेशियों के कारण जो सड़क दुर्घटनाएं होती हैं वे बहुत चिंताजनक हैं। सुचारु गौशाला परिसर होने से इस पर रोक लगेगी। गोबर गैस का उपयोग होने से बिजली उत्पादन में पर्यावरण को होने वाली क्षति में भी कमी आएगी।
कांग्रेस और भाजपा दोनों शराबबंदी के लिए अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त कर चुके हैं, लेकिन यह काम सरल नहीं है क्योंकि हर व्यक्ति को कोई न कोई व्यसन होता है। भारत में एक समय अफीम, भांग, गांजा, चरस इन पर कोई रोक नहीं थी। किसी समय हमने अमेरिका की देखा-देखी इन पर रोक लगा दी थी। ये व्यसन न तो महंगे हैं और न ही बहुत ज्यादा नुकसानदायक। अब मैक्सिको, कोलंबिया, बोलीविया इत्यादि देशों के अलावा अमेरिका के भी अनेक राज्यों में भांग और चरस के उपभोग की आंशिक अनुमति दे दी गई है। इस बारे में राज्यों और केन्द्र को मिलकर विचार करना चाहिए कि शराब के विकल्प के रूप में क्या भांग इत्यादि के सीमित उपभोग की अनुमति दी जा सकती है? वृद्धजन, पर्यटन, मीडिया, उद्योग, कुटीर उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि पर भी सुझाव हैं, वे अगले अंक में। (कल जारी)
देशबंधु में 29 नवंबर 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 21 November 2018

गुरुजी याने डॉ. हरिशंकर शुक्ल

                              
मई 1976 का कोई दिन। तारीख याद नहीं। भोपाल बस स्टैण्ड। विदिशा जाने वाली बस में कुछ सवारियां बैठ चुकी थीं। कुछ यात्री मोटर चालू होने के इंतजार में बाहर खड़े थे। बस पर सामान चढ़ रहा था। उसमें तरबूज का एक भारी-भरकम पिटारा भी था। एक व्यक्ति नीचे से तरबूज ऊपर फेंक रहा था और बस की छत पर चढ़ा उसका साथी लपक रहा था। इस बीच एक मजेदार वाकया हुआ। कोई चालीस साल का औसत कद-काठी का व्यक्ति देखते ही देखते छत पर चढ़ गया और उसने नीचे से आ रहे तरबूजों को बड़ी कुशलता से झेलकर ऊपर के पिटारे में रखना शुरू कर दिया। उस व्यक्ति के नीचे जो साथी थे वे इस खेल को देखकर कुछ हैरान से थे लेकिन अपने साथी के करतब पर प्रशंसा भाव भी उनकी आंखों से झलक रहा था। ये सभी लोग छत्तीसगढ़ के विभिन्न नगरों के लेखक मित्र थे जो मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के ऐतिहासिक विदिशा अधिवेशन में भाग लेने जा रहे थे। उनके ये बिंदास साथी थे- डॉ. हरिशंकर शुक्ल, दुर्गा महाविद्यालय रायपुर में हिन्दी के प्राध्यापक और इलाहाबाद वि.वि. में तैराकी के स्वर्ण पदक विजेता होने के साथ अनेक खेलों के ब्लेजरधारी।
डॉ. हरिशंकर शुक्ल की ख्याति एक लोकप्रिय और विद्वान अध्यापक की थी, किन्तु उनके खिलाड़ी रूप से साथी लोग अपरिचित ही थे। उनके स्वभाव में एक संकोच सा था जो उन्हें आत्मप्रचार करने से रोकता था। यहां तक कि अपने लिखे उपन्यासों और गीतों की चर्चा भी वे नहीं करते थे। वे एक ऐसे शिक्षक थे जो नए-पुराने नोट्स देखकर नहीं बल्कि दिल से पढ़ाते थे। उन्हें क्लासिक से लेकर आधुनिक कवियों तक की सैकड़ों कविताएं कंठस्थ थीं। निराला की 'राम की शक्ति पूजा' जैसी कठिन और लंबी कविता भी उन्हें कंठस्थ थीं जिसे वे पूरे आरोह-अवरोह के साथ सुनाते थे। कविता हो या कहानी या उपन्यास, व्याख्या करने के लिए उन्हें किसी उपकरण की आवश्यकता नहीं होती थी। इसकी प्रमुख वजह शायद यह थी कि वे एक अत्यन्त अध्ययनशील व्यक्ति थे। मैं अगर कहूं कि वे ज्ञानपिपासु थे तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।
डॉ. हरिशंकर शुक्ल को किताबों से बेपनाह मोहब्बत थी। उस समय निजी म.वि. के सीमित वेतन और बाद में सीमित पेंशन से यथासंभव वे पुस्तकें खरीदा करते थे। उन्होंने बहुत सुचारु ढंग से अपनी निजी लाइब्रेरी बना ली थी।  हर किताब पर पढ़ने के पहले वे कवर चढ़ाते थे और उन्हें पता होता था कि किस अलमारी में कौन सी किताब कहां रखी है। पुस्तक संचय का यह शौक उन्हें अंतत: बना रहा। मुझे जितना मालूम है परीक्षा कार्य से उन्हें जो भी आय होती थी उसे पूरा का पूरा वे पुस्तक खरीदने में लगा देते थे। वे अन्य पुस्तक-प्रेमी मित्रों से पुस्तकें उधार लेकर भी पढ़ते थे, लेकिन उनकी बड़ी खूबी थी कि पढ़ने के बाद नियमत: उसे लौटा देते थे। उनके बारे में कहा जा सकता है कि अगर पत्नी उनका पहला प्रेम थीं तो पुस्तकें दूसरा। इसके अलावा वे हिन्दी की तमाम साहित्यिक पत्रिकाएं भी खरीद कर पढ़ते थे और इस तरह हिन्दी साहित्य की नवीनतम प्रवृत्तियों से खुद को परिचित रखते थे।
मैं जब 1964 में एम.ए. करने के लिए रायपुर लौटा तब कुछ ही दिनों के भीतर जिन लोगों से मेरा परिचय हो गया था उनमें हरि ठाकुर, नरेन्द्र देव वर्मा, प्रभाकर चौबे, जमालुद्दीन आदि के अलावा डॉ. हरिशंकर शुक्ल भी थे। इन सबसे मेरा परिचय दा याने राजनारायण मिश्र ने कराया था। मैं राजनीति शास्त्र में एम.ए. करना चाहता था। डॉ. शुक्ल ने सलाह दी- हिन्दी में तुम्हारे डिस्टिंक्शन मार्क (75 प्रतिशत से ऊपर) हैं तो तुम्हें हिन्दी में एम.ए. करना चाहिए। मैंने पूछा- पढ़ाएगा कौन? उनका उत्तर था- हम पढ़ाएंगे। मैंने प्रत्युत्तर में कहा- तब तो आपको शुक्लाजी कहने के बजाय गुरुजी कहना पड़ेगा। उन्होंने जवाब दिया- हां, ठीक है। हम तुम्हारे गुरुजी हो जाएंगे। मैंने उन्हें कभी सर कहकर संबोधित नहीं किया। वे धीरे-धीरे मेरे ही नहीं, छत्तीसगढ़ के  तमाम साहित्यिक मित्रों के बीच गुरुजी के नाम से ही लोकप्रिय हो गए। 
गुरुजी से मित्रता तो 1964 के ग्रीष्मावकाश में साथ-साथ ताश खेलने के साथ हुई थी। लेकिन फिर वे मेरे अध्यापक बन गए। कई मायनों में मार्गदर्शक रहे। हम पारिवारिक मित्र तो क्या, एक-दूसरे के परिवार के सदस्य ही बन गए और प्रदेश की साहित्यिक व सामाजिक गतिविधियों में हम लोगों ने मिलकर बरसों काम किया और देश-प्रदेश की अनेक यात्राओं में हम सहयात्री भी रहे। मैंने हिन्दी साहित्य में एम.ए. तो उनकी प्रेरणा से किया ही, दो अन्य मौकों पर उनका मार्गदर्शन बेहद कीमती साबित हुआ। मैंने एम.ए. करने के बाद पीएचडी करने की ठानी। पंजीयन करवा लिया। कुलपति डॉ. बाबूराम सक्सेना ने साक्षात्कार भी ले लिया, लेकिन गुरुजी ने यह कहकर मुझे रोक दिया कि तुम्हें अखबार के काम में बाबूजी का हाथ बंटाना चाहिए। कुछ समय बाद मन में आई.ए.एस. बनने की लहर उठी। तब भी गुरुजी ने बड़े भाई के अधिकार से मुझे रोक दिया। आज मैं यदि पत्रकारिता में कहीं हूं तो गुरुजी की समयोचित प्रेरणा भी इसका एक कारण है।
1974-75 में जब राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक संघ पुनर्जीवित हुआ तो प्रारंभ में छत्तीसगढ़ में हम चार साथियों ने उसका बीड़ा उठाया था- प्रभाकर चौबे, डॉ. हरिशंकर शुक्ल, विनोद कुमार शुक्ल और ललित सुरजन। आगे चलकर मलय, राजेश्वर सक्सेना और रमाकांत श्रीवास्तव भी साथ में जुड़ गए थे।  हमने 4-5-6 मार्च 1978 को चंपारण में प्रलेस का पहला रचना शिविर आयोजित किया था। इसे लेकर हम सबके मन में बहुत उत्साह था। इस अवसर पर हमने चंपारण घोषणापत्र जारी करने के बारे में सोचा और उसका मसौदा तैयार करने का दायित्व डॉ. हरिशंकर शुक्ल को सौंपा गया। उन्होंने घोषणापत्र तैयार किया। उस पर पन्द्रह दिन तक हम चार लोगों ने बैठकर लगातार चर्चा की और 4 मार्च 1978 की सुबह शिविर के प्रारंभ में उसे जारी किया गया। 
गुरुजी प्रगतिशील लेखक संघ से तो जुड़े ही रहे। रायपुर में इप्टा के गठन और आगे की गतिविधियों में भी उन्होंने लंबे समय तक दिलचस्पी ली। वे मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से भी रायपुर आने के बाद से ही जुड़े रहे और सम्मेलन के विभिन्न कार्यक्रमों में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। मुझे जहां तक पता है, वे सम्मेलन के एक समय महामंत्री रहे ठाकुर हरिहर बख्श सिंह हरीश के मार्गदर्शन में संचालित, हिन्दी साहित्य मंडल की गोष्ठियों में नियमित भाग लेते थे। बहरहाल, नया राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संरक्षक सदस्य बने और इसके लिए आवश्यक राशि भी उन्होंने अपने मन से दी। यह सम्मेलन और साहित्य से उनके आत्मिक जुड़ाव का ही उदाहरण था। 
1985 में जब भारतीय सांस्कृतिक निधि (इंटैक) के रायपुर अध्याय की स्थापना हुई, तो वे उसके भी सदस्य बने। इतिहास और पुरातत्व में उनकी बेहद रुचि थी। विगत पचास वर्षों में वे भारत-सोवियत मैत्री संघ (इस्कस) अखिल भारतीय शांति और एकजुटता संघ (एप्सो) में भी सक्रिय रहे। जब तक उनका स्वास्थ्य साथ देता रहा वे इन प्रगतिशील संस्थाओं के कार्यक्रमों में भागीदारी निभाते रहे। गुरुजी के बारे में लिखने के लिए बहुत कुछ है।  वे जहां मैदान के खिलाड़ी थे वहीं इंडोर गेम्स में भी उन्हें महारत हासिल थी। शतरंज, ताश, चाइनीज़ चेकर जैसे खेलों में मैंने उन्हें कभी हारते नहीं देखा। उनका व्यक्तित्व निर्मल और पारदर्शी था।  संतोष, संतुलन और संयम उनके जीवन के अमूल्य मंत्र जैसे थे। उनका छोटा सा परिवार था, जिसमें हमारी भौजी श्रीमती मनोरमा शुक्ल और दोनों बेटियां पारमिता और संगीता ने सुख-शांतिमय बनाए रखने में अपनी भूमिका अच्छे से निभाई। 13 नवम्बर 2018 को गुरुजी के जाने के बाद छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक परिवेश में और मेरे अपने जीवन में सूनापन कुछ और बढ़ गया है। लेकिन मुझे विश्वास है कि गुरुजी ने स्वर्गलोक पहुंचकर देवताओं को चाइनीज़ चेकर सिखाना प्रारंभ कर दिया होगा।
 देशबंधु में 22 नवंबर 2018 को प्रकाशित 

Wednesday, 14 November 2018

बदलाव की बयार बनाम इलेक्शन मैनेजमेंट



छत्तीसगढ़ की नब्बे विधानसभा सीटों में से अठारह पर 12 नवंबर को मतदान के साथ विधानसभा चुनावों का पहला चरण सम्पन्न हुआ। बस्तर संभाग के पांच जिलों और राजनांदगांव जिले की इन सीटों के बारे में राजनीतिक पर्यवेक्षकों को  खासी दिलचस्पी थी। इसका एक कारण तो राजनांदगांव क्षेत्र से मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का स्वयं उम्मीदवार होना था जहां उनके मुकाबले में भाजपा छोड़ कांग्रेस में आईं पूर्व सांसद और अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी करुणा शुक्ला मैदान में थीं। जहां तक बस्तर की बात है अबूझमाड़ इस विशाल प्रांतर का एक हिस्सा ही है, लेकिन बाकी दुनिया के लिए समूचा बस्तर ही अबूझ और रहस्यमय इलाका है। बस्तर अनेक कारणों से दिलचस्पी का केन्द्र रहा है, लेकिन चुनावी संदर्भ में यह मान्यता बन गई है कि छत्तीसगढ़ में राजनीति की दिशा बस्तर के चुनाव परिणामों से तय होती है। यह कुछ-कुछ वैसी ही बात है जैसे कभी कहा जाता था कि बंगाल की राजनीति भारत की दिशा तय करती है।
बस्तर के बारे में यह मान्यता शायद 2003 के विधानसभा चुनाव परिणामों के चलते बन गई और अभी तक चली आ रही है। यही वजह है कि दिल्ली हो या चेन्नई, कोलकाता हो या मुंबई, जो भी पत्रकार या शोधार्थी छत्तीसगढ़ आता है तो सबसे पहले बस्तर का रुख करता है। इस इलाके में लंबे अरसे से चली आ रही नक्सली गतिविधियों ने भी बस्तर के प्रति एक रूमानियत का भाव सा जगा दिया है। राजनांदगांव जिला चूंकि बस्तर की सरहद को छूता है इसीलिए वहां भी नक्सलियों की उपस्थिति लगातार बनी हुई है। इस मुकाम पर विषयांतर की जोखिम लेकर भी एक ताजा किस्सा पाठकों से साझा करने के लोभ से मैं नहीं बच पा रहा हूं। पिछले दिनों एक नामी-गिरामी चैनल के एक वरिष्ठ पत्रकार ने रिपोर्ट जारी की कि उसने कैसे सीआरपीएफ के साथ घूमकर अपनी जान को खतरे में डालकर नक्सली क्षेत्र की रिपोर्टिंग की। बाद में खुलासा हुआ कि यह एक पूरा नाटक रचा गया था और इसमें वास्तविकता का लेशमात्र भी नहीं था। मैंने जिस रूमानियत की बात की यह उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
बहरहाल पहले चरण का मतदान सम्पन्न हो गया। बस्तर में शायद चौबीस हजार सुरक्षाकर्मी तैनात किए गए थे ताकि चुनाव निर्विघ्न सम्पन्न हो सके। मतदान दलों को बीहड़ इलाकों में हेलीकाप्टर से भेजा गया। जिन गांवों में नक्सली वारदातों का खतरा था उनके लिए कई किलोमीटर दूर सुरक्षित समझे जाने वाले इलाके पर मतदान केन्द्र बनाए गए और पुलिस की भारी चौकसी के बीच मतदाताओं को वहां तक लाने के प्रबंध किए गए। छत्तीसगढ़ अकेला राज्य है जहां दो चरणों में मतदान हो रहा है उसकी वजह यही है कि बस्तर के संवेदनशील इलाकों की सुरक्षा प्रबंध करना लाजिमी था। पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। नक्सलवादी हर आम चुनाव के पहले बदस्तूर मतदान बहिष्कार की अपील करते हैं। उसके जवाब में सरकार जनता को उसके मताधिकार का प्रयोग करने के लिए हरसंभव प्रयत्न करती है।
इस बार के प्रबंध पिछली बार के मुकाबले कहीं ज्यादा सघन थे। उम्मीद की गई थी कि इन प्रबंधों को देखते हुए मतदान प्रतिशत में अच्छी खासी बढ़ोतरी होगी। प्रारंभिक रिपोर्टों में बताया गया कि नक्सलियों के चुनाव बहिष्कार के आह्वान का कोई फर्क नहीं पड़ा और मतदाताओं ने बढ़-चढ़ कर मतदान में भाग लिया। मतदान के एक-दो दिन पहले छुटपुट हिंसक वारदातें भी हुईं, जो पिछली बार भी हुई थीं। लेकिन 2013 और 2018 की तुलना करें तो ऐसा लगता नहीं है कि इस बार पहले के मुकाबले मतदान के प्रतिशत में कोई अधिक बढ़ोतरी हुई हो; बल्कि पहले कम मतदान की सूचना आई थी और बाद में मिले संशोधित आंकड़े पिछली बार के आसपास ही हैं।
मतदान के एक दिन पहले याने 11 नवंबर की रात को एकाएक खबर फैली कि सत्तारूढ़ पार्टी मतदान में भारी धांधली करवाने जा रही है। यह खबर क्यों और कैसे फैली इसका कोई सिरा पकड़ में नहीं आया। एक जानकारी अवश्य यह मिली कि नक्सली खेमे से ही खबर फैलाई गई थी, जिसे छत्तीसगढ़ तो क्या दिल्ली के भी कुछ पत्रकारों ने लपक लिया। सोशल मीडिया पर खबर फैल गई। कुल मिलाकर इससे कांग्रेस खेमे में एकाएक हड़कंप मच गया। मेरा अनुमान है कि यह अफवाह कांग्रेसियों का मनोबल गिराने के लिए फैलाई गई थी। वरना मेरे सूत्रों का कहना है कि छोटी-मोटी गड़बड़ियां तो चलती रहती हैं, बड़े पैमाने पर कहीं कोई गड़बड़ियां नहीं हुई हैं। चूंकि चुनावों के समय विरोधियों को पस्त करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं तो मानना चाहिए कि यह खबर या अफवाह भी उसी तरह की एक चाल थी। आने वाले दिनों में  ऐसे नजारे और भी देखने मिलेंगे!
खैर! अब सबका ध्यान दूसरे चरण के मतदान और शेष चार प्रदेशों के चुनावों पर लग गया है। इस बीच यह जानना दिलचस्प होगा कि हार-जीत की भविष्यवाणियों के परे प्रदेश और प्रदेश के बाहर के पत्रकारों ने इस पहले चरण को किस तरह देखा है। मेरी जितने लोगों से बात हुई है उन सभी का लगभग एक स्वर से कहना है कि परिवर्तन की बयार बह रही है। वे इसके कुछ कारण भी गिनाते हैं जो उन्होंने चुनावी दौरों में आम जनता से बातचीत कर समझे हैं। सबका कहना है कि भ्रष्टाचार इस बार एक बहुत बड़ा मुद्दा है। नरेन्द्र मोदी भ्रष्टाचार खत्म करने के चाहे जितने दावे करते रहें, छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार चरम पर है और डॉ. रमन सिंह अपने तमाम नेक इरादों के बावजूद उस पर रोक नहीं लगा सके हैं।
भ्रष्टाचार के साथ अहंकार भी एक गंभीर मुद्दा बन कर उभरा है। भाजपा के छुटभैया नेताओं ने आम जनता को ही नहीं, सरकारी कर्मचारियों को भी त्रस्त कर रखा है। मंत्रियों का तो कहना ही क्या! एकाध को छोड़कर कोई सीधे मुंह बात नहीं करता। सुनते हैं कि डॉ. रमन सिंह इस बार बहुत से मंत्रियों और विधायकों के टिकट काट देना चाहते थे, लेकिन उनकी बात नहीं मानी गई। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने अपने अलग पैमाने बनाए और उस आधार पर टिकटों का वितरण हुआ। युवाओं के बीच में बेरोजगारी का प्रश्न भारी है। पिछले कुछ समय में अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ी है, कितने ही कारखाने बंद हो गए हैं या ले-दे कर चल रहे हैं, व्यापार-व्यवसाय में दीपावली के बाद भी चमक नहीं आई है। ऐसे में नौजवान या तो ताश खेलकर समय काट रहे हैं या स्मार्टफोन से मन बहला रहे हैं। उनका आंतरिक क्षोभ क्या रंग लाएगा यह देखने वाली बात होगी।
एक दिलचस्प बात यह सुनने को मिली कि छत्तीसगढ़ में नरेन्द्र मोदी का कोई जादू नहीं है। उनकी बातों पर जनता ने एतबार करना बंद कर दिया है। वे जनसभाओं में जिस तरह बात करते हैं वह छत्तीसगढ़ की जनता के मिजाज के खिलाफ है। वही हाल अमित शाह का है। चुनाव में अगर भाजपा का कोई चेहरा है तो वह रमन सिंह का है। वे कल तक तो राजनांदगांव में ही फंसे हुए थे। अगले पांच-सात दिनों में वे अपनी पार्टी के लिए जितनी मेहनत संभव है करेंगे ही, लेकिन भाजपा ने स्टार प्रचारकों की जो फौज उतारी है वह नाकाम हो रही है। नोटबंदी और जीएसटी के कारण व्यापारी वर्ग त्रस्त है। टिकट वितरण में भी व्यापारी समाज से नए चेहरों को सामने न लाने की नाराजगी ही दिखाई दे रही है। जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो कुछेक ''सै'' प्रत्याशी आराम फरमा रहे हैं; कहीं-कहीं तीसरी ताकत की चुनौती है; कुछ अभी से खुद को मुख्यमंत्री मान बैठे हैं। ऐसे में सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि भाजपा कितनी दक्षतापूर्वक इलेक्शन मैनेजमेंट कर पाती है!
 देशबंधु में 15 नवंबर 2018 को प्रकाशित 

Friday, 9 November 2018

चुनावी हार को जीत में बदलने की तरकीबें

   
                              
इतना तो तय है कि जब भी चुनाव होंगे, किसी एक उम्मीदवार की जीत होगी और बाकी जितने, एक या अधिक, हों, हार का सामना करेंगे। अधिकतर अवसरों पर मतदाता जिसके पक्ष में राय बना लेते हैं, वही प्रत्याशी या दल जीतता है। लेकिन देखने में ऐसा आता है कि जीतते-जीतते कोई प्रत्याशी हार जाता है और मतदाता अविश्वास से सिर हिलाने के अलावा और कुछ नहीं कर पाते। लंबे समय से राजनैतिक शब्दावली में ''इलेक्शन मैनेजमेंट'' के नाम की शै चलन में है, यह जीतना-हारना उसी का परिणाम है। इलेक्शन मैनेजमेंट यानी चुनाव प्रबंध के मुख्यत: तीन अंग या सोपान हैं- टिकिट मिलने तक पहला ; चुनाव संपन्न होने तक दूसरा; और मतगणना के समय या उसके भी बाद तक तीसरा चरण। इन सभी चरणों में हारी हुई बाजी को जीत में बदलने के अनेकानेक उदाहरण हमने देखे हैं। हाल के समय में इस प्रबंध कौशल को एक आदर्श अनिवार्यता का दर्जा हासिल हो गया है। इसकी विवेचना करने के पूर्व नब्बे के दशक की एक सत्यकथा को फिर से जान लेते हैं।
तत्कालीन मध्यप्रदेश की एक लोकसभा सीट पर कांटे की टक्कर थी। एक तरफ एक पार्टी के सचमुच दिग्गज कहे जा सकने वाले नेता थे, उनके सामने एक अपेक्षाकृत युवा किंतु अनुभवी उम्मीदवार था। युवा प्रत्याशी के जीतने की पूरी उम्मीद थी, लेकिन अंतत: वह लगभग एक हजार वोट से हार गया। निर्वाचन अधिकारी याने जिला कलेक्टर ने मतगणना के दौरान उसके खाते के कोई दस हजार वोट थोड़े-थोड़े कर दस-बारह निर्दलीय प्रत्याशियों के खाते में दर्ज करवा दिए और इस चाल को समझने में प्रत्याशी ने चूक कर दी। पुर्नमतगणना की मांग भी नहीं की।  इस तरह चुनाव अधिकारी के सहयोग से दिग्गज नेता ले-देकर जीत गए। इस पुरस्कारोचित सहयोग भावना का उन्नत स्वरूप अभी देखने मिला, जब एक राज्य में निर्वाचन अधिकारी ने निवर्तमान मुख्यमंत्री का नामांकन पत्र निरस्त कर दिया। आशय यह कि नामांकन दाखिले से लेकर नतीजा आने के बीच कुछ भी हो सकता है। कहावत है न- देयर आर मैनी स्लिप्स, बिटवीन द कप एंड द लिप्स। 
हाथ में चाय का प्याला है, लेकिन ओठों तक पहुंचते-पहुंचते किसी का धक्का लग सकता है, हाथ कांप सकते हैं, चाय छलक सकती है। आवश्यकता सावधान रहने की है। पांच साल पहिले की ही तो बात है। एक प्रमुख दल के प्रत्याशी ने नाम वापिसी के आखिरी क्षण में अपना नाम वापिस लेकर विपक्षी उम्मीदवार को वाक ओवर दे दिया था। ऐसे प्रकरण भी तो हैं जब ऐन मौके पर बी-फार्म किसी और को दे दिया गया हो। इसके आगे बढ़ें तो सुनने मिलता है कि साधन-संपन्न प्रत्याशी अपने प्रतिद्वंद्वी को अच्छी खासी रकम पहुंचा देते हैं कि तुम घर में मौज करो, इस धन से अपनी जिंदगी संवारो; और जिनका चुनाव में उतरने का मकसद ही धन कमाना होता है, वे खुशी-खुशी ऑफर स्वीकार लेते हैं। कोई-कोई प्रत्याशी तो इसलिए भी जीती बाजी हार जाते हैं कि चुनावी खर्च के लिए पार्टी से जो धनराशि मिलती है, उसका इस्तेमाल करने के बजाय भविष्य की सुरक्षा के लिए एफडीआर में निवेश कर देते हैं। काश कि फलाने ने यह बुद्धिमता (!) न दिखाई होती! 
जाहिर है कि नामांकन के बाद चुनाव प्रचार के दौरान भी ऐसे खेल चलते रहते हैं। जो पैराशूट प्रत्याशी होते हैं, वे तो अपने कार्यकर्ताओं को भी ठीक से नहीं पहचानते। विरोधी खेमे का कौन जासूस आपके दरबार में हाज़िरी लगा रहा है, यहां की खबरें वहां पहुंचा रहा है, इसका भेद जब खुलता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वैसे तो आचार संहिता के अनुसार मतदाता को किसी भी तरह का प्रलोभन नहीं दिया जा सकता, किंतु इसका पालन वही करता है, जिसके पास राजनैतिक अनुभव की कमी है। जिन पर आचार संहिता लागू करवाने का दायित्व है, वे भी तो आखिर इंसान हैं, और ऐसे प्रकरणों की कमी नहीं है, जब वे दबाव या प्रलोभन के सामने झुक गए हों। एक तरफ अनुभवी उम्मीदवार खैरातें बांटते घूम रहे होते हैं, तो दूसरी ओर कच्चे उम्मीदवार मतदाताओं तक अपनी पर्चियां भी नहीं पहुंचा पाते। 
और मतदान के दिन क्या होता है? पोलिंग बूथ के भीतर पार्टी का एजेंट यदि परिपक्व न हुआ तो उसे बहकाना बहुत आसान होता है। वह यदि अपने मतदाताओं को नहीं पहचानता तो सामने वाला किसी का वोट किसी के नाम से डलवा देता है। फिर शिकायत करते रहिए फर्जी मतदान की। कुछेक गुणी नेताओं के बारे में तो कहा जाता है कि वे पड़ोसी प्रदेशों से लोगों को बुलाकर पांच-सात हजार फर्जी वोट डलता देते हैं। इनसे भी शायद एक कदम आगे वे चतुर नेता हैं जो मतदान की पूर्व रात्रि पर खैरात बांटने के साथ-साथ कहीं से जुगाड़ कर अमिट स्याही भी लगा देते हैं कि बंदा अगली सुबह वोट डालने ही न जा पाए। एक ही नाम के पांच-दस निर्दलीय उम्मीदवारों को मैदान में उतार भ्रम  पैदा करना भी इस चतुर नीति का ही एक और उदाहरण है। ऐसे तमाम नेतागण हमारे लिए प्रणम्य हैं। आखिरकार, चुनाव जीतने को इन्होंने एक खूबसूरत कला में परिवर्तित जो कर दिया है।
चुनाव के दौरान अपने पक्ष में माहौल तो बनाना ही पड़ता है। यह काम भी अब सीधे-सादे तरीके से कोई नहीं करता। अनेक चतुर सुजान अपने दूतों को विरोधी पक्ष के मतदाताओं के पास पठाते हैं। वे जाकर बताते हैं कि उनकी तो हार हो रही है, भैयाजी या नेताजी बात ही नहीं सुनते, इत्यादि। इससे सामने वाले के गफलत में पड़ जाने की संभावना बन जाती है। जब उनके ही लोग हार मान बैठे हैं तो हमें कुछ करने की क्या जरूरत है? हमें तो जनता खुद ही जिता रही है। बस, इसी खुशफहमी में पत्ता साफ। यह तो एक तरकीब है। इससे बढ़कर महीन तरकीब चुनाव पूर्व सर्वे के इस्तेमाल की है। पहले किसी पार्टी या प्रत्याशी की जीत का अनुमान पेश करो, फिर कुछ दिन बाद उस के हारने का अनुमान घोषित कर दो। प्रत्याशी का और उसके पक्षधर मतदाताओं का मनोबल तोड़ने, उन्हें हतोत्साह करने की यह तरकीब कई बार सफलतापूर्वक आजमाई गई है। राजनैतिक दल इन सर्वे करने वालों और उन्हें प्रकाशित-प्रचारित करने वालों का ऐहसान चुकाने में कोई कमी नहीं रखते।
आप सोच रहे होंगे कि ईवीएम का मुद्दा अभी तक क्यों नहीं उठा। इस बारे में प्रामाणिक रूप से कुछ कहना कठिन है, यद्यपि व्यापक जनभावना बन चुकी है कि ईवीएम में धांधली होती है। सवाल यह है कि क्या पुरानी मतदाता पर्ची वाली प्रक्रिया दोषरहित थी? वोटरों की बढ़ती हुई संख्या को देखकर निर्धारित अवधि में मतदान सुचारु संपन्न करा पाना आज एक असंभव कार्य प्रतीत होता है। फिर मतपेटियों की लूट, मतगणना के दौरान टेबुलेशन चार्ट में हेराफेरी आदि गड़बड़ियां नए सिरे से लौट सकती हैं। इसलिए यही शायद बेहतर होगा कि ईवीएम से ही वोट डाले जाएं और उसमें कोई धांधली न हो पाए, इस ओर उम्मीदवार व उनकी पार्टियां पर्याप्त सतर्कता बरतें।
सभी को इस ओर भी सतर्क रहना चाहिए कि जीती हुई बाजी येन-केन-प्रकारेण हार में तब्दील न हो जाए। जिनके सिर पर सत्ता का नशा चढ़कर नाच रहा है, उनके लिए नैतिक-अनैतिक का फर्क मायने नहीं रखता, किंतु आम मतदाता के  लिए तो चुनाव लोकतंत्र का एक पवित्र पर्व है। इसमें जीत या हार नहीं, बल्कि दोनों ही स्थितियों में लोक कल्याण के लिए काम करने की प्रतिबद्धता ही मायने रखती है। मतदाताओं की खरीद-फरोख्त से लेकर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की नीलामी, दल-बदल, मंत्री पद का झुनझुना- ये सब घृणित कार्य हैं। अगर जनता सतर्कता नहीं बरतेगी तो इस देश में फासीवाद आने से कोई नहीं रोक सकता।
देशबंधु में 10 नवंबर 2018 को प्रकाशित