मैं अभी कुछ देर पहले ही छत्तीसगढ़ में भूपेश मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण समारोह से लौटा हूं। राजस्थान में सोमवार को शपथ ग्रहण हो गया और मध्यप्रदेश में आज मंगलवार की शाम कार्यक्रम सम्पन्न हो जाएगा। 10 अक्टूबर को चुनाव आयोग द्वारा जारी अधिघोषणा के दिन से आज तक चली आ रही गहमागहमी पर इसके साथ पूर्णविराम लग गया है। अब आगे न बहसें, न विवाद और न अटकलबाजी। अगले एक सप्ताह के भीतर विधानसभा के सत्र आहूत होंगे। मंत्रियों और विधायकों को जनता के प्रति अपना दायित्व निर्वाह करने में पूरे मन से जुट जाना चाहिए। मुझे भी शायद विधानसभा चुनावों पर लगातार लेख लिखने के बजाय अन्य विषयों पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। लेकिन यह शायद अच्छा होगा कि इस दौरान जो बहुत सी छवियां सिनेमा की रील की तरह आंखों के सामने से गुजर गईं हों, उनमें से कुछ को आपके साथ साझा करूं।
इस दृश्यावली में सबसे पहले राजेश्री महंत रामसुंदरदास का ध्यान आता है। वे छत्तीसगढ़ की दो प्रमुख धार्मिक पीठों- शिवरीनारायण और दूधाधारी मठ के पीठाधीश हैं। संस्कृत में डी लिट् उपाधिधारी युवा महंत दो बार कांग्रेस के विधायक रह चुके हैं। उन्हें इस बार कसडोल क्षेत्र से जीतने की पूरी उम्मीद थी और वे इसके लिए लगातार काम कर रहे थे। जो भी राजनीतिक समीकरण बने हों उन्हें टिकट नहीं मिला। ऐसे अनेक उम्मीदवार अवसर चूक गए, लेकिन महंतजी की सराहना करना होगी कि उन्होंने इस प्रसंग को खिलाड़ी भावना से लिया। उन्होंने पत्रकारों से कहा कि धर्म और राजनीति दोनों उनके लिए देश और समाज के सेवा के माध्यम हैं और उनकी इस बात में पारदर्शी सच्चाई है। विशेषकर शिवरीनारायण मठ में शिक्षा प्रसार तथा अन्यान्य कार्यों में उन्होंने जिस लगन के साथ काम किया है वह सबके सामने है। मुझे लगता है कि हमें ऐसे लोगों की बेहद जरूरत है जो कमल के पत्ते की तरह रहें और अभिमान की एक बूंद भी अपने ऊपर टिकने न दें।
मैं जब मध्यप्रदेश के दो प्रसंगों की ओर देखता हूं तो यह दृष्टांत और अधिक अर्थपूर्ण हो जाता है। उल्लेखनीय है कि 1975 से लगातार विधायक रहे और मुख्यमंत्री रह चुके बाबूलाल गौर अपने लिए या अपनी बहू के लिए टिकट पाने आखिरी पल तक लड़ते रहे और अंतत: बहू के लिए टिकट हासिल करके ही माने। कृष्णा गौर जीत गईं उन्हें हमारी शुभकामनाएं। दूसरा प्रकरण जनसंघ के लगभग प्रारंभ से कार्यकर्ता रहे सरताज सिंह का है। वे विधायक रहे, मंत्री पद भी पाया, लोकसभा के सदस्य भी रहे। इस सबके बाद वृद्धावस्था में उन्हें जाने क्या सूझी कि अपना घर छोड़ दूसरे के घर जाकर बैठ गए। याने भाजपा छोड़ कांग्रेस की सदस्यता ले ली। पुरानी मान्यता में हठ के तीन प्रकार बताए गए हैं जिसमें माना गया है कि वृद्धों की जिद भी अक्सर बालहठ के समतुल्य होती है। सरताज सिंह की हठ से भाजपा को तो कोई नुकसान नहीं पहुंचा। वे स्वयं मतदाताओं द्वारा नकार दिए गए।
भारतीय जनता पार्टी के तीन मुख्यमंत्री अब भूतपूर्व हो गए हैं। 17 दिसंबर को नए मुख्यमंत्रियों के शपथ ग्रहण का दृश्य हर तरह से सुंदर था कि वसुंधरा राजे, शिवराज सिंह और रमन सिंह तीनों अपने-अपने प्रदेश के समारोह में मंच पर उपस्थित थे। ऐसा शिष्टाचार अनुकरणीय है। लेकिन लगता है कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह अपनी हार को नहीं भुला पा रहे हैं। वे इन दिनों लगातार जिस तरह से स्वयं को सुर्खियों में बनाए रखने के यत्न कर रहे हैं उसे देखकर कुछ अच्छा नहीं लगता। शिवराज जी को 'टाइगर अभी जादा है' जैसे फिल्मी डायलागों का सहारा क्यों लेना चाहिए। उनके संवाद पर दिग्विजय सिंह का कटाक्ष मारक था कि कांग्रेस सरकार विलुप्तप्राय जीवों के संरक्षण के लिए संकल्पबद्ध है, फिर भले ही बाघ बिना दांत व नाखून का क्यों न हो। हमारा आशय इतना ही है कि हारने के बाद इतना उतावलापन नहीं दिखाना चाहिए।
एक ओर जहां छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को आशातीत सफलता मिली है वहीं दूसरी ओर राजस्थान व मध्यप्रदेश में कांग्रेस का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा। मध्यप्रदेश के आंकड़े बताते हैं कि विंध्यप्रदेश में पार्टी बुरी तरह हारी है, लेकिन मुझे इस बात पर ज्यादा आश्चर्य है कि महाकौशल प्रांत में नतीजे आशा के अनुकूल क्यों नहीं आए। होशंगाबाद जिले की चारों सीट पर कांग्रेस हार गई। होशंगाबाद में सरताज सिंह, कटनी जिले में पद्मा शुक्ला और बालाघाट जिले में संजय मसानी तीनों हार गए। ये सबके सब ऐन चुनाव के वक्त भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आए थे। संजय मसानी तो शिवराज सिंह के सगे साले हैं। क्या इन नतीजों से यह संदेश नहीं जाता कि दल-बदलुओं को गले लगाना ठीक नहीं है? कमलनाथ महाकौशल के नेता हैं इसलिए इस अंचल में मिली पराजय उनके लिए व्यक्तिगत चिंता और समीक्षा का विषय हो सकती है।
ईवीएम को लेकर चुनाव के पहले आशंकाएं व्यक्त की गई थीं और अभी भी जारी हैं। मुझे प्रदेश अध्यक्ष और अब मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कथन याद आता है। उन्होंने कहा कि अगर आवश्यकता पड़ी तो हमारे कार्यकर्ता ईवीएम से लिपट कर सोएंगे। यह उनकी चुनावी तैयारी का द्योतक था, लेकिन कथन था मजेदार। कुछ शंकालु लोगों का सोचना है कि विधानसभा चुनावों में ईवीएम के साथ जानबूझ कर छेड़छाड़ नहीं की गई ताकि कांग्रेसी गा$िफल हो जाएं और भाजपा इनकी इस ग$फलत का लाभ लोकसभा चुनाव में उठा सके। हमारा सोचना है कि ईवीएम में गड़बड़ी की जो भी खबरें इस बीच सामने आईं वे बुनियादी तौर पर मानवीय चूक का परिणाम थीं या फिर कांग्रेस को दहशत में डालकर मजा लेने का दुष्ट प्रयास। जो भी हो, कांग्रेस बल्कि महागठबंधन को श्री बघेल की उक्ति कि नौबत पड़ने पर ईवीएम के साथ लिपट कर सोएंगे को याद रखना चाहिए।
आज जब भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस में वंशवाद की बात करती है तो हंसी आती है। वे अपने संगठन के चलन को भूल जाते हैं। अतीत के उदाहरणों को छोड़ दें तो भी वर्तमान विधानसभा चुनावों में भाजपा ने अपने वंशवाद का परिचय देने में कोई कमी नहीं की। बाबूलाल गौर का उदाहरण हम ऊपर दे आए हैं। लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन ने इंदौर से अपने सुपुत्र को टिकट दिलवाने की भरपूर कोशिश की और असफल होने पर दबे स्वर में पार्टी नेतृत्व की आलोचना भी की। वहीं पार्टी अध्यक्ष के विश्वस्त महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय अपने चिरंजीव को टिकट दिलवाने में कामयाब हुए और वे जीत भी गए। छत्तीसगढ़ में सांसद बंसीलाल महतो ने अपने पुत्र को टिकट दिलवाया। इसी तरह भाजपा के अनेक नेताओं ने अपने परिजनों को उम्मीदवार बनाने के लिए सफल-असफल प्रयत्न किए। बाकी सहयोगी दलों में रामविलास पासवान और अनुप्रिया पटेल के उदाहरण भी हमारे सामने है। भाजपा यदि इस भावना से ऊपर उठकर वास्तविक मुद्दों पर राजनीति करें तो बेहतर हो।
छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को अपना मंत्रिमंडल गठित करने में कुछ जद्दोजहद करना पड़ी। इसको गणित के सूत्र से समझ सकते हैं। राजस्थान में दो सौ की कुल संख्या पर तीस मंत्री बन सकते हैं वहां कांग्रेस के पास सौ विधायक हैं उनमें से तीस प्रतिशत को अवसर मिलना संभव है। मध्यप्रदेश में दो सौ तीस पर पैंतीस मंत्री बनने की गुंजाइश है। एक सौ पन्द्रह निर्वाचित विधायकों में पैंतीस, याने वहां भी तीस प्रतिशत का आंकड़ा बैठता है। जबकि छत्तीसगढ़ में नब्बे की कुल संख्या पर मात्र तेरह मंत्री बन सकते हैं। याने यहां मंत्री बनने की सीमा मात्र बीस प्रतिशत है। ऐसे में बहुत तरह से गुणा-भाग करना पड़ता है। मेरा ख्याल है कि सारा हिसाब लगाकर जैसा मंत्रिमंडल बना है वह काफी हद तक ठीक है। बाकी जो मजबूत दावे के बावजूद मंत्री नहीं बन सके हैं उनके लिए प्रदेश की सेवा करने के अवसरों में आने वाले दिनों में कमी न होगी।
देशबंधु में 27 दिसम्बर 2018 को प्रकाशित