सोलहवीं लोकसभा के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने प्रामाणिक व असंदिग्ध रूप से जीत हासिल की है तथा कांग्रेस को शोचनीय ढंग से पराजय का सामना करना पड़ा है। भाजपा (जनसंघ) के बासठ साल के जीवन में यह पहला अवसर है जब उसे ऐसा स्पष्ट जनादेश प्राप्त हुआ है। जबकि कांग्रेस को इतनी कम सीट मिलना आश्चर्यजनक ही नहीं, अप्रत्याशित भी है। पहली नज़र में ऐसा प्रतीत होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व भारतीय जनता पार्टी ने नरेन्द्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में सामने करने की जो रणनीति बनाई यह जीत उसका परिणाम है। श्री मोदी को एक कुशल प्रशासक व एक दृढ़निश्चयी नेता के रूप में प्रस्तुत किया गया, जिसका लाभ इस जीत के रूप में मिला। दूसरी तरफ कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों ने श्री मोदी को रोकने के लिए जो भी दांव चले वे एक के बाद एक उल्टे पड़ते गए। इसके साथ यह ध्यान देने योग्य है कि नरेन्द्र मोदी को देश के कारपोरेट घरानों का व पूंजीमुखी मीडिया का भी खुला समर्थन मिला। संघ के सदस्यों ने भी पूरे उत्साह के साथ रणनीति के तहत काम किया एवं कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी।
कांग्रेस की जो दुर्गति हुई है उसके लिए वह स्वयं जिम्मेदार है, ऐसा कहना गलत नहीं होगा। हमने पिछले सालों में बार-बार कहा है कि कांग्रेस जब हारती है तो हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाती है कि जनता खुद-ब-खुद किसी दिन उसके पास आएगी और गद्दी सौंप देगी। और जब जीतती है तो उसके नेताओं का अहंकार सिर चढ़ कर बोलने लगता है। यूपीए-1 और यूपीए-2 की तुलना करें तो यही समझ आता है कि 2009 की जीत के बाद कांग्रेस के अहंकार की मानो कोई सीमा ही नहीं रही थी। 2010-2011 में भ्रष्टाचारों के अभूतपूर्व प्रकरण सामने आने पर हमने एकाधिक बार लिखा था कि डॉ. मनमोहन सिंह को नैतिकता के आधार पर प्रधानमंत्री पद छोड़ देना चाहिए, लेकिन वैसा नहीं हुआ। इसके अलावा न कांग्रेस अध्यक्ष और न प्रधानमंत्री दोनों ही ने जनता के साथ सीधे संवाद करने की, यहां तक कि पत्रवार्ता करने की, कोई जरूरत समझी। कुल मिलाकर वे अपने ही बनाए घेरे में कैद होकर रह गए, जिसकी पहरेदारी कुछ चाटुकार कांग्रेसी करते रहे। परिणाम सामने है।
नरेन्द्र मोदी की ऐतिहासिक जीत के तीन प्रमुख तथ्य दिखाई देते हैं। एक तो ये चुनाव संसदीय प्रणाली के बजाय राष्ट्रपति प्रणाली की शैली में हुए हैं। ऐसा पहली बार हुआ। पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों में भी कद्दावर छवि के नेता हुए, लेकिन श्री मोदी ने जिस तरह पार्टी को अप्रासंगिक बना दिया वैसा पहली बार हुआ। इससे आशंका उपजती है कि आगे चलकर कहीं संविधान संशोधित करने की बात तो नहीं होगी! यह तथ्य गौरतलब है कि देश के सबसे बड़े प्रांत उत्तरप्रदेश में नरेन्द्र मोदी ने चुनाव की कमान किसी स्थानीय नेता के बजाय अपने विश्वस्त अमित शाह को दी। इसके अलावा उन्होंने पार्टी के पुराने अनुभवी नेताओं की एक तरह से लगातार अनसुनी की और यह सिद्ध किया कि वे अपनी मर्जी के मालिक हैं। दूसरे शब्दों में चुनाव व्यक्ति-केन्द्रित सिद्ध हुए। दूसरे, युवा मतदाताओं ने नरेन्द्र मोदी की बदलाव लाने की क्षमता पर विश्वास करते हुए उन्हें भरपूर समर्थन दिया। कहना होगा कि कांग्रेस युवा पीढ़ी की भावनाएं समझने में असफल हुई।
तीसरे, श्री मोदी ने प्रसार माध्यमों व सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल किया। यह काम बहुत योजनाबद्ध तरीके से हुआ। कांग्रेस ने इसका जवाब देने की कोशिश की, लेकिन आधे-अधूरे ढंग से। कांग्रेस के प्रवक्ता आत्मुग्धता की स्थिति से बाहर नहीं निकल पाए। मोदी टीम के आक्रमणों का जवाब विचार और भाषा दोनों स्तर पर कैसे दिया जाए यह उनको आखरी तक समझ नहीं पड़ा। कांग्रेस से सहानुभूति रखते हुए इतना जरूर कहा जा सकता है कि समाचार चैनलों ने उसका साथ नहीं दिया। यूं इसमें शिकायत की कोई बात नहीं होना चाहिए। चैनल को अधिकार है कि वह अपनी इच्छा से किसी पार्टी या दल का समर्थन या विरोध करे, लेकिन फिर उसे निष्पक्षता का नाटक नहीं करना चाहिए।
बहरहाल, 1984 के बाद याने पूरे तीस साल बाद कोई एक पार्टी पूर्ण बहुमत लेकर लोकसभा में आ रही है। यह किसी हद तक संतोषदायक है। भाजपा को अथवा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अब अपनी नीतियों और सिद्धांतों के अनुसार दैनंदिन निर्णय लेने में सुविधा होगी व समर्थक दलों के हस्तक्षेप अथवा भयादोहन (ब्लैकमेल) की आशंका नहीं रहेगी। चूंकि भाजपा ने एनडीए के बैनर तले चुनाव लड़ा था इसलिए सरकार में सहयोगी दलों का प्रतिनिधित्व तो रहेगा, किन्तु अनुचित दबाव की क्षमता नहीं होगी। यह अवसर भी बीस साल बाद आया है कि क्षेत्रीय दल अपने प्रदेश के बाहर और अपने को मिले जनादेश के बाहर जाकर व्यर्थ की उलझनें खड़ी करने की स्थिति में नहीं होंगे। (ममता बनर्जी जैसे उद्धत नेता का स्मरण यहां अनायास हो आता है।) क्या आज के नतीजों से द्विदलीय राजनीति की बुनियाद पड़ेगी? अभी कुछ नहीं कहा जा सकता।
आज वामपंथी दलों व आम आदमी पार्टी के रोल की भी चर्चा कर लेना चाहिए। यह स्पष्ट दिख रहा है कि 'आप के कारण कांग्रेस को कई जगहों पर सीधे-सीधे नुकसान उठाना पड़ा है। यूं तो इस पार्टी के उंगलियों पर गिने जाने वाले उम्मीदवार जीत कर आ गए हैं, लेकिन पूछना लाजिमी है कि आखिर आपका उद्देश्य क्या था और आप चुनाव क्यों लड़ रहे थे? आम आदमी पार्टी के प्रमुख भाष्यकार लोहियावादी योगेन्द्र यादव हैं। सर्वप्रथम डॉ. लोहिया ने ही गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया था। ऐसा अनुमान लगाने को मन होता है कि उनकी इस इच्छा की पूर्ति के लिए ही 'आप' का गठन किया गया था! बदली हुई परिस्थिति में अरविंद केजरीवाल कांग्रेस के सहयोग से दिल्ली में फिर सरकार बना लें तो अलग बात है।
भारत में वामपंथी दलों ने जनतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए लंबी लड़ाईयां लड़ीं। आज नवसाम्राज्यवाद के दौर में जनसंघर्ष की आवश्यकता पहले से कहीं ज्यादा है, लेकिन इन चुनावों में वामदलों ने जो प्रदर्शन किया है उसके बाद यह समझ नहीं आता कि सामाजिक न्याय की लड़ाई अब कौन लड़ेगा? ऐसा कहना गलत नहीं होगा कि सिर्फ कांग्रेस के नेता ही प्रमाद में नहीं थे, वामदलों के नेताओं ने भी खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने में कोई कमी नहीं की। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इन दलों में अब न तो युवा नेतृत्व बचा है और न ही ऐसे कार्यकर्ता जो किसी जन आंदोलन में प्राण फूंक सकते हों।
यह विश्लेषण तो आगे भी चलता रहेगा। आज भावी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बधाई के हकदार हैं। वे जनतांत्रिक, यद्यपि गैर-पारंपरिक तरीके से निर्वाचित होकर आए हैं। उम्मीद उनसे यही है कि अपनी नई भूमिका में संवैधानिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता रखते हुए वे इस देश को आगे ले जाने का काम करेंगे। आंतरिक शांति, बाह्य सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग-व्यापार बहुत सारे मोर्चे हैं जिन पर उनकी कार्ययोजना हमें शायद जल्दी ही देखने मिलेगी तभी उन पर कोई टिप्पणी करना मुनासिब होगा। हर भारतवासी की तरह फिलहाल हमें भी इस बात की प्रसन्नता है कि देश ने लोकतंत्र का एक और इम्तिहान पास कर लिया है।
देशबन्धु में 17 मई 2014 को प्रकाशित विशेष सम्पादकीय
No comments:
Post a Comment