Sunday, 18 May 2014

विपक्ष : आत्ममंथन का समय


 भारतीय जनता पार्टी की विजय के बाद कांग्रेस व कुछ अन्य दलों ने अपनी हार पर आत्ममंथन करना प्रारंभ कर दिया है। बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सही समय पर कदम उठाते हुए शनिवार को ही अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दिया। उसके बाद जदयू के अध्यक्ष शरद यादव ने साफ-साफ कहा कि बदले हुए हालात में वे लालूप्रसाद के साथ मतभेद समाप्त करने के लिए तैयार हैं। इस बारे में जो भी फैसला होगा, वह आज का अंक छपने के पहले ही पाठकों के सामने आ जाएगा। मैं नीतीश कुमार की उनकी पहल के लिए सराहना करता हूं। उन्होंने संदेश दिया है कि सत्ता से परे भी राजनीति होती है। अगर जदयू व राजद के बीच समझौता होता है तो वह भी स्वागतयोग्य होगा। सच पूछिए तो विभिन्न समाजवादी धड़ों के बीच व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा की ही लड़ाइयां थीं। उनके बीच कोई नीतिगत मतभेद तो थे नहीं। यह सच्चाई मुलायम सिंह को भी समझ आ जाए तो बेहतर है। मेरा समाजवादी पार्टी के मित्रों से आग्रह है कि उन्हें अब लोहियावादी रास्ता छोड़कर आचार्य नरेन्द्रदेव व आचार्य कृपलानी जैसों के बताए पथ पर चलना चाहिए जहां व्यक्तिगत कुंठा की नहीं, बल्कि विचारों की राजनीति हो सकती है।

भाकपा और माकपा से चुनावी नतीजों के विश्लेषण और आत्ममंथन के बारे में भी अभी तक कोई खबर सुनने में नहीं आई है। जिस दिन पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में तृणमूल कांग्रेस ने वामपंथी मोर्चे को धराशायी किया था उस दिन मेरा अनुमान था कि माकपा महासचिव प्रकाश करात नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपना पद छोड़़ देंगे, लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ। आज फिर दोनों पार्टियों के सामने विचार करने का अवसर है कि वे मतदाताओं के दिल में जगह बनाने में बार-बार क्यों फेल हो रहे हैं। यह ठीक है कि वामदल सत्ता की राजनीति नहीं करते, लेकिन इस तर्क को बहुत लंबा नहीं खींचा जा सकता। जब आप चुनाव राजनीति में भाग ले रहे हैं और बरसों-बरस प्रादेशिक सत्ता पर काबिज रहे तब कहीं न कहीं तो नैतिक जिम्मेदारी का मामला बनता ही है।

बहुजन समाज पार्टी को भी इस बार भारी निराशा हाथ लगी है। लेकिन जहां मायावती ही प्रथम एवं अंतिम नेता हों, वहां कौन तो इस्तीफा देगा और कौन आत्ममंथन करेगा? कांशीरामजी ने बहुत मेहनत से, बहुत धीरज से पार्टी को खड़ा किया था और दलित समाज में उसके माध्यम से स्वाभिमान व समर्थता का बोध जाग्रत किया था। यदि बसपा अपने आपको फिर से खड़ा नहीं कर पाई तो यह एक दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना होगी। इससे सदियों से चली आ रही रूढि़वादी मानसिकता को और पुष्ट होने का अवसर मिलेगा। मायावती ने अपने मुख्यमंत्री काल में निश्चित रूप से कुछ क्षेत्रों में प्रशासनिक क्षमता का परिचय दिया था, आज उसकी जरूरत पहले से कहीं ज्यादा है। मायावती को एक बार फिर दलित समाज के बीच जाकर अपनी पैठ बनानी होगी। उन्हें इस बात की प्रतीक्षा नहीं करना चाहिए कि दलित समाज का भाजपा से मोहभंग होगा और वे उनके पास अपने आपसे लौटकर आएंगे। हम मायावती की कार्यप्रणाली के बारे में ज्यादा नहीं जानते इसलिए बस इतना कह सकते हैं कि कांग्रेस पर या अन्य किसी पर दोष मढऩे के बजाय वे इस वक्त आत्मपरीक्षण करें।

कांग्रेस में भी सुनने आ रहा है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों ने ही पार्टी पद छोडऩे की इच्छा जाहिर की है।  मुझे लगता है कि आज की कठिन परिस्थिति में उन्हें यह कदम नहीं उठाना चाहिए। यह संभव है कि स्वास्थ्य संबंधी कारणों से सोनिया गांधी आने वाले दिनों में कोई सक्रिय भूमिका निभाने के लिए अनिच्छुक हों, लेकिन कांग्रेस का जैसा आंतरिक ढांचा है उसमें राहुल गांधी की उपस्थिति आवश्यक है। मैंने पिछले दो सालों में दो-तीन बार यह लिखा है कि राहुल गांधी संभवत: प्रधानमंत्री पद के इच्छुक नहीं हैं। मेरा अपना अनुमान था कि कांग्रेस की जीतने की स्थिति में वे प्रधानमंत्री नहीं बनते। यह बात अलग है कि मीडिया ने बार-बार राहुल को नरेन्द्र मोदी के प्रतिस्पर्धी के रूप में खड़ा कर उनका उपहास करने की कोशिश की और यह सिलसिला कांग्रेस के हार जाने के बाद भी चल रहा है। ऐसे में राहुल को रणछोड़दास नहीं बनना चाहिए। वे बार-बार अपनी दादी का जिक्र करते हैं तो उन्हें अवश्य ही यह पता है कि 1977 की हार, शाह आयोग, लोकसभा की सदस्यता समाप्त होने और जेल भेजने जैसी विपरीत परिस्थितियों का उन्होंने डटकर मुकाबला किया व 1980 में विजयी होकर वापिस लौटीं।

राहुल गांधी के पास फिलहाल अवसर है कि वे शांतचित्त होकर कांग्रेस की हार का विश्लेषण कर सकते हैं और आने वाले समय के लिए स्वयं अपनी भूमिका परिभाषित करने के साथ अपनी पार्टी के लिए भी एक नई कारगर रणनीति बना सकते हैं। इसके लिए उन्हें क्या करना होगा। शायद सबसे पहले राहुल को यह देखना चाहिए कि पहले जो गल्तियां हुईं उसके क्या कारण थे? मेरी समझ में उत्तर नेहरू युग में कांग्रेस ने तीन बड़ी गलतियां कीं। पहली, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट का विपरीत फैसला आने  पर इंंदिरा गांधी ने इस्तीफा नहीं दिया। वे अगर उस दिन प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ जगजीवनराम या अन्य किसी वरिष्ठ सहयोगी को प्रधानमंत्री बना देतीं तो इससे उनकी प्रतिष्ठा कई गुना बढ़ जाती। यह सब जानते हैं कि एक बहुत छोटे तकनीकी बिन्दु पर उनका चुनाव निरस्त हुआ था तथा उच्च न्यायालय का फैसला बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने पलट दिया था। वह एक पल था जहां इंदिरा गांधी चूक गईं।

कांग्रेस ने दूसरी बड़ी गलती तब की जब 1987 में हरियाणा के चुनाव हारने के बाद राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया। तब 'देशबन्धु' ने अपने अग्रलेख में उन्हें पद छोडऩे की सलाह दी थी। उस दिन संयोग से राजीव गांधी की रायपुर में सभा होने वाली थी वह निरस्त हो गई। अग्रलेख पढ़कर सुबह-सुबह प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दिग्विजय सिंह और अनेक कांग्रेसी मुझे उलाहना देने घर आए कि आपसे ऐसे संपादकीय की उम्मीद नहीं थी। मेरा उत्तर था कि हम आपके शुभचिंतक हैं इसीलिए ऐसा कह रहे हैं। आज यदि राजीवजी इस्तीफा देकर नए चुनाव की सिफारिश कर दें तो कुछ घटी हुई सीटों के साथ सही कांग्रेस को फिर बहुमत मिल जाएगा। स्पष्ट है कि न तो नेताओं को हमारी सलाह पसंद आई और न ही ये बात राजीव गांधी तक पहुंच पाई।

तीसरी बड़ी गलती उस समय हुई जब टीवी चैनलों पर दिन-रात यूपीए सरकार की भ्रष्टाचार के किस्से बखाने जाने लगे और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस्तीफा नहीं दिया। दुर्भाग्य से पार्टी के अधिकतर प्रवक्ता वकील हैं तो सबके सब ''लॉ विल टेक इट्स ओन कोर्स' याने कानून अपना काम करेगा कहकर अपने नैतिक दायित्व से पल्ला झाड़ते नज़र आए। मैं डॉ. सिंह की मन:स्थिति को समझ सकता हूं कि मैदानी राजनीति से उनका कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन आसन्न खतरे को वे सोनिया गांधी भी क्यों नहीं समझ पाईं जो लगातार जनता के बीच जाती रही हैं। क्या वे डॉ. सिंह को इस्तीफा देने की सलाह सौजन्य के वशीभूत होकर नहीं दे रही थीं या फिर उनके अपने सलाहकार उन्हें कोई दूसरी ही तस्वीर समझा रहे थे?

पिछले तीन सालों के दौरान देश के विभिन्न प्रांतों में अनेक वरिष्ठ कांग्रेसजनों के साथ मेरी निजी चर्चाएं हुईं। इन सबका कहना था कि सोनिया गांधी से उन्हें भेंट के लिए समय ही नहीं मिलता। सोनिया गांधी नहीं तो राहुल के साथ भेंट होने में क्या अड़चन थी? तो बताया गया कि वे भी लोगों से नहीं मिलते। मैं इसका एक ही अर्थ निकालता हूं कि सोनिया और राहुल के इर्द-गिर्द कुछ ऐसे लोग जमा हो गए थे जो पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं से मिलने से रोकते थे अन्यथा सोनिया, राहुल, प्रियंका तीनों का स्वभाव कुछ ऐसा है कि वे जनता के बीच जाकर प्रफुल्लता का अनुभव करते हैं। इसी बिन्दु पर आकर आज राहुल गांधी को कुछ कड़े कदम उठाने की जरूरत है, यदि वे कांग्रेस के अच्छे दिन लौटने की उम्मीद करते हैं।

यह बहुत अच्छा हुआ कि बहुत सारे कांग्रेसी तो हवा का रूख देखकर कांग्रेस छोड़कर भाजपा में चले गए। अब यह नरेंद्र मोदी का सिरदर्द है कि उनसे कैसे निपटते हैं। बहुत से नाकारा कांग्रेसी चुनाव हार भी गए हैं। इन्हें नाकारा कहना गलत होगा। असल में इनकी सारी काबलियत सिर्फ अपनी स्वार्थपूर्ति तक सीमित है जिसे देर-सबेर मतदाताओं ने पहचान ही लिया। इस तरह राहुल गांधी के पास एक अच्छा मौका है कि वे नई पीढ़ी के ऊर्जावान कांग्रेसियों को लेकर नए सिरे से अपनी टीम का गठन करें। दरअसल यूपीए-1 में भी कांग्रेस ने एक गलती की थी कि युवाओं को मनमोहन सरकार में जगह नहीं दी गई। इनमें से भी कुछ लोग हाल के चुनावों में हार चुके हैं, लेकिन राहुल को इनके साथ मिलकर एक मजबूत टीम बनाना चाहिए। सचिन पायलट, मीनाक्षी नटराजन, जितेन्द्र प्रसाद, आरपीएन सिंह इत्यादि नाम यहां ध्यान आते हैं। लेकिन इसके साथ-साथ यह परम आवश्यक है कि दिग्विजय सिंह, सलमान खुर्शीद, अजीत जोगी, सुशील कुमार शिंदे इत्यादि नेताओं को घर पर रहकर आराम करने की सलाह दी जाए। दिग्विजय सिंह और अजीत जोगी चाहे जितने वाकपटु हों, लेकिन आम जनता की छोडि़ए, स्वयं कांग्रेसी उनके उद्गारों से बेचैनी अनुभव करने लगे हैं। ऐसे नेता जिनका वाणी पर संयम न हो और जिनके वचनों पर विश्वास न बैठता हो वे पार्टी का नुकसान ही कर सकते हैं।  

राहुल गांधी को नई टीम बनाने के अलावा सघन जनसंपर्क करने की भी आवश्यकता है। उन्हें चाहिए कि दिल्ली से बाहर निकलें, पूरे देश का दौरा करें, जगह-जगह लोगों से मिलें, जनता के साथ नए सिरे से संवाद स्थापित करें और मीडिया से मिलने में परहेज न करें। हां, वे मनीष तिवारी, अभिषेक मनु सिंघवी व संजय झा जैसे प्रवक्ताओं को भी थोड़ा आराम करने का मौका दें। अगले कदम के रूप में उन्हें समानधर्मा पार्टियों के साथ मिलकर एक साझा कार्यक्रम बनाना चाहिए। अगर वे ऐसा कर सके तो अगले एक साल के भीतर जो विधानसभा चुनाव होंगे उनमें कांग्रेस को सफलता मिलने की उम्मीद बन सकती है!

देशबन्धु में 19 मई 2014 को प्रकाशित 

1 comment:

  1. उम्मीद है आपकी सलाह इन पार्टियों तक जरुर पहुंचे, हालाँकि एक विरोधाभास जरुर दीखता है, जब से मैंने होश संभाला है, लालू जी, मुलायम जी एवं बाकि समाजवादियों के व्यक्तिवादी राजनीती करते देखा है, समाजवाद के नाम का नकाब ओढ़ कर इन्होने जनता को ढगा ही है. क्या इनसे देश और समाज के विकास की अपेक्षा की जा सकती है. हाल ही में मैं बिहार हो कर आया और पाया की नितीश कुमार के विकास के दावे पत्रकारों द्वारा प्रायोजित लेखो में ही दीखते है, जमीनी हकीक़त कुछ और ही है. अच्छे विपक्ष की उम्मीद भी कम ही होती जा रही है क्योंकि विपक्ष आपस में खंडित है , और छद्म सेकुलरिज्म के अलावा उनके विचार कंही नहीं मिलते. कांग्रेस ने अभी भी अच्छे नेताओ को परिवार के नाम पर दरवाजे पे बिठा रखा है, जब तक ऐसे हालत है इन पार्टियों में बदलाव की उम्मीद बहुत कम ही है...

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