मैं बड़ी उलझन में हूं। अभी दो दिन
पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर की एक समाजसेवी संस्था का बड़ा सा कार्यक्रम
सम्पन्न हुआ। इसमें भारत के आधा दर्जन प्रांतों के प्रतिनिधियों ने शिरकत
की। कार्यक्रम का उद्घाटन करने जिन्हें बुलाया गया था वे उस संस्था के बड़े
पदाधिकारी थे। अपने उद्घाटन वक्तव्य में उन्होंने यह स्थापित करने का
प्रयत्न किया कि महात्मा गांधी गुजराती थे। चूंकि मुख्य अतिथि स्वयं
गुजराती भाषी थे इसलिए महात्मा पर उनका दावा कुछ-कुछ समझ में आता है। चूंकि
मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म गुजरात के पोरबंदर में गुजराती मूल के एक
परिवार में हुआ था इस नाते भी उनकी बात में दम था। महात्मा गांधी के बाद
उन्होंने बात आगे बढ़ाई कि सरदार पटेल भी गुजराती थे। उनकी यह बात भी सच थी
और इस बारे में भी कोई बहस नहीं की जा सकती, फिर मैं उलझन में क्यों हूं?
हुआ यह कि वक्तव्य आगे बढ़ा और उसमें कहा गया कि नरेन्द्र मोदी भी गुजराती
हैं। इसमें भी क्या शक है। सवाल उठता है कि क्या गांधी और पटेल की परंपरा
में मोदी का नाम जोड़ा जा सकता है?
यह प्रश्न ऐसा है जिसके उत्तर में
दर्जनों किताबें लिखी जा सकती हैं, लेकिन मैं अपनी बात इस कॉलम की सीमित
जगह में रखने की कोशिश कर रहा हूं। हम जानते हैं महात्मा गांधी का ताल्लुक
एक सम्पन्न परिवार से था और वे उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए थे। एक सुखी
जीवन बिताने के लिए उनके पास विकल्पों की कोई कमी नहीं थी। इसके बावजूद
उन्होंने जिस फकीरी ठाठ से जीवन जिया उसे देश का बच्चा-बच्चा जानता है और
दुनिया के तमाम देशों में उनकी यही छवि लोगों को लुभाती है। महात्मा गांधी
कांग्रेस पार्टी के चवन्नी सदस्य भी नहीं थे, लेकिन पार्टी ने उन्हें अपना
डिक्टेटर मान लिया था। बापू यदि चाहते तो भारत के पहले राष्ट्रपति बन सकते
थे, लेकिन उन्हें न तो कोई पद चाहिए था और न अपनी कुटिया ही छोडऩी थी। वे
बंधुत्व, न्याय, समता व समरसता के आधार पर जिस रामराज्य का स्वप्न देखते थे
उसके लिए उन्होंने अपने प्राणों की बलि दे दी। महात्मा गांधी के जीवन और
दर्शन पर जो हजारों किताबें लिखी गईं उसमें इन सारी बातों को विस्तारपूर्वक
पढ़ा जा सकता है।
सरदार वल्लभ भाई पटेल भी गुजराती थे। वे एक समृद्ध
किसान परिवार से थे। एक वकील के रूप में उन्होंने सूबे में ख्याति हासिल कर
ली थी। जिस दिन वे गांधी से मिले उस दिन से उनका जीवन बदल गया। बापू का
अनुसरण करते हुए उन्होंने भी स्वेच्छा से एक सन्यासी जैसा जीवन भी जिया।
उनकी चारित्रिक दृढ़ता के प्रमाण उनके विद्यार्थी जीवन से ही देखने मिलते
हैं। उन्होंने स्वाधीनता के बाद सत्ता की राजनीति में अहम् किरदार निभाया,
लेकिन इस सत्य से कोई भी इंकार नहीं करेगा कि उनके लिए सत्ता देश को बेहतरी
की ओर ले जाने की एक हिकमत थी तथा उसमें निजी लाभ-लोभ की भावना नहीं थी।
यहां पर गौर कीजिए कि महात्मा गांधी चाहते तो एक गुजराती होने के नाते
दूसरे गुजराती को भारत का प्रधानमंत्री बना सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा
नहीं किया और सरदार पटेल ने भी अपना रहनुमा के आदेश का सम्मान करते हुए
पंडित नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के रास्ते में कोई बाधा उत्पन्न नहीं की।
आशय यह कि वे सब एक विशाल लक्ष्य को लेकर चल रहे थे तथा उनमें सांसारिक
भोग करने का कोई लालच नहीं था।
हमारे समारोह के उद्घाटनकर्ता ने एक और
गुजराती का नामोल्लेख शायद जानबूझ कर नहीं किया। पाठक जानते हैं कि मोहम्मद
अली जिन्ना महात्मा गांधी के सबसे प्रचंड-प्रखर विरोधी थे। 1920 के आसपास
वह समय था जब जिन्ना साहब कांग्रेस के सबसे बड़े नेता के रूप में उभर रहे
थे, महात्मा गांधी कुछ दिन पहले ही दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटे थे और
जनता के दिलोदिमाग पर कुछ इस कदर छा गए थे कि कांग्रेस के भीतर जिन्नाजी
लगभग अपदस्थ कर दिए गए थे। इसके चलते उन्होंने राजनीति का एक नया अध्याय
शुरू किया। यूं तो उन्हें नए नजरिए से देखने की कोशिश लालकृष्ण अडवानी व
जसवंत सिंह ने की है। इनके अलावा वीरेन्द्र कुमार बरनवाल तथा प्रियंवद जैसे
उदारवादी लेखकों ने भी उन पर अपने ढंग से नई रोशनी डाली है तथापि यह
सच्चाई अपनी जगह बरकरार है कि मोहम्मद अली जिन्ना देश का बंटवारा कर एक नए
देश के राष्ट्रपिता या कि कायदेआजम बने। वे क्या किसी बड़े लक्ष्य के लिए
सैद्धांतिक लड़ाई लड़ रहे थे या व्यक्तिगत अहम् की तुष्टि करना चाहते थे,
इस पर अभी कोई अंतिम फैसला नहीं हुआ है।
हमने भारत के राजनैतिक इतिहास
के इन तीन महानायकों की संक्षिप्त चर्चा की, किन्तु गुजरात में सिर्फ
राजनेता ही तो नहीं हुए हैं। भारत के इस पश्चिमी प्रदेश की आत्मा को यदि
जानना है तो इसके लिए पुराकथाओं व इतिहास के अन्य पहलुओं पर भी ध्यान देने
की आवश्यकता होगी। यह गुजरात ही तो था जहां मथुरा से चलकर श्रीकृष्ण ने
अपने कबीले के साथ आश्रय पाया था। महाभारत में जो विनाशलीला हुई कृष्ण उसके
साक्षी थे, लेकिन वे एक और त्रासदी के गवाह बनने अभिशप्त थे कि उनके
वंशधर उनके सामने ही आपस में लड़कर समाप्त हो जाएं। पुराकथाएं यह भी बताती
हैं कि स्वयं कृष्ण की मृत्यु बहेलिया का बाण लगने से हुई थी। यह जो
कृष्णलीला गुजराती में घटित हुई उसके मर्म को महात्मा गांधी और सरदार पटेल
दोनों ने शायद गुजराती होने के नाते अच्छे समझा होगा और इसीलिए उनकी
राजनीति सद्भाव और समरसता के सिद्धांत से विकसित हुई। इसी कृष्णलीला में
सुदामा का जिक्र भी तो है, जो गुजराती जनमान्यता के अनुसार पोरबंदर के
निवासी थे। कृष्ण ने सुदामा की मदद कर क्या यही संदेश नहीं दिया था कि राजधर्म किस तरह निभाया जाता है?
जैसा कि हम जानते हैं महात्मा
गांधी का परिवार कृष्णभक्त था और वे बचपन से ही भक्त कवि नरसिंह मेहता की
वाणी से प्रभावित थे। उनका सबसे प्रिय पद ''वैष्णव जन तो तैने कहिए पीर
पराई जाने रे" आज भी बापू की स्मृति में होने वाले हर कार्यक्रम में उसी
तरह भाव-विभोर होकर गाया और सुना जाता है। गुजराती साहित्य में इसी भावधारा
पर चलने वाले और भी बहुत से रचनाकार हुए जैसे-झवेरचंद मेघाणी, गुलाबदास
ब्रोकर, कुंदनिका कापडिय़ा, पन्नालाल पटेल आदि। इनकी रचनाओं में भी परपीड़ा
को समझने की छटपटाहट और वंचित समाज के प्रति गहरी सहानुभूति का भाव स्पष्ट
है। नरसिंह मेहता और पन्नालाल पटेल के बीच शताब्दियों के फासले को
बांटनेवाला एक और नाम ध्यान आता है- वली दक्कनी या वली गुजराती का। आज जिस
हिन्दी का इस्तेमाल हम करते हैं, उसके प्रारंभिक रचयिताओं में वली दक्कनी
का नाम आता है जो हैदराबाद छोड़कर अहमदाबाद आ बसे थे और जहां वे वली
गुजराती कहे जाते थे। अहमदाबाद में उनकी समाधि के बारे में जो पाठक नहीं
जानते वे थोड़ी मेहनत कर जानकारी हासिल कर सकते हैं।
हमें याद आता है कि
गुजरात में महात्मा गांधी ने अपने दो और अलबेले साथी तैयार किए थे। एक थे-
रविशंकर व्यास याने कि रविशंकर महाराज जिनके बारे में प्रसिद्ध है कि
उन्होंने दुर्दांत दस्युओं का हृदय परिवर्तन कर उन्हें हिंसा छोड़ अहिंसा
के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया था। अपने बचपन में मैंने नवनीत में
उनके बारे में इस तरह की कथाएं पढ़ी थीं। गांधीजी के दूसरे साथी थे- ठक्कर
बापा। दिल्ली वालों को शायद आज यह याद न हो कि नई दिल्ली के बापानगर का
नामकरण उनकी स्मृति में ही किया गया था। गांधीजी के आदेश पर ठक्कर बापा ने
तत्कालीन सीपी एंड बरार प्रांत में आदिवासियों के बीच रहकर लंबे समय तक काम
किया था। आज भी मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में जगह-जगह पर ठक्कर बापा के नाम
पर स्कूल व आश्रम इत्यादि हैं। जहां तक मुझे याद है ठक्कर बापा ने
मंडला-डिंडौरी के बैगा क्षेत्र में लंबा समय बिताया था।
राजनीति,
साहित्य समाजसेवा के अलावा एक और क्षेत्र है जहां गांधी के आदर्शों की
धुंधली छाप आज भी विद्यमान है। गुजरात अपनी उद्यमशीलता के लिए प्रारंभ से
जाना जाता रहा है। बीसवीं सदी के उद्योगपतियों में ऐसे कितने ही थे जो किसी
हद तक महात्मा गांधी से प्रभावित थे। इनमें एक नाम लेना हो तो साराभाई का
लिया जा सकता है। एक तरफ इस परिवार ने जहां कपड़ा उद्योग में अपनी
उद्यमशीलता का परिचय दिया, वहीं विक्रम साराभाई ने देश की वैज्ञानिक प्रगति
में जो अग्रणी भूमिका निभाई उसके बारे में ज्यादा कुछ कहने की आवश्यकता
नहीं है। उनकी बेटी मल्लिका और बेटे कार्तिक साराभाई ने भी गांधीवादी
मूल्यों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है। मैं एक नाम और लेना चाहूंगा
देश के सुविख्यात वास्तुशिल्पी बालकृष्ण दोशी का, जिन्होंने मकबूल फिदा
हुसैन के साथ मिलकर अहमदाबाद में गुफा नाम से चित्रदीर्घा की स्थापना की
है।
मैं अपने सम्मानीय मुख्य अतिथि से पूछना चाहता हूं कि गांधी और पटेल
की परंपरा में उन्हें ये सारे नाम याद क्यों नहीं आए? क्या इसलिए कि उनके
मसीहा नरेन्द्र मोदी भी इन नामों से जानबूझकर बचना चाहते हैं। भाई, हम तो
गांधी को गुजराती तभी मानेंगे जब आप मोदी के बदले इन नामों का स्मरण
करेंगे।
देशबन्धु में 1 मई 2014 को प्रकाशित
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