Friday 2 May 2014

रेंगने का वक्त



''आज बंद हैं/  दुनिया के तमाम स्कूल/  रविवार जो है/ बच्चों के बिना/  जैसे भुतहा महलों में/  तब्दील हो गए हैं स्कूल/  हाथों में छड़ी लिए/  घूम रही हैं/ गुस्सैल प्रेतात्माएं/  जब तक पूरा नहीं होगा/  बच्चों का होमवर्क/  बेचैन प्रेतात्माएं/  यूं ही भटकती रहेंगी।'' (होमवर्क)


महज तेरह पंक्तियों की छोटी-सी कविता। क्या कह रही है ये कविता? क्या इसे पढ़कर आप व्याकुलता अनुभव कर रहे हैं? क्या आपको लगा कि यह कविता आपको उठाकर कहीं साथ चलने का इसरार कर रही है? कहां- किसी स्कूल में, आपके बच्चों की दुनिया में, उनकी कापी किताबों में!

मैंने जब यह कविता पढ़ी तो मेरे सामने जैसे किसी भव्य इमारत में चल रहे बड़े स्कूल का मुख्य द्वार खुल गया हो। सुन्दर-सी इमारत है, प्रशस्त मैदान है, ढेर सारी बसें खड़ी हैं जो बच्चों को स्कूल लाने-ले जाने का काम कर रही हैं। स्कूल में चहकते हुए बच्चे हैं। यह कोई ऐसा स्कूल है जहां मां-बाप अपने बच्चों को लाखों मिन्नतों, मशक्कतों के बाद भर्ती करा पाते हैं, फिर सालाना लाख-दो लाख रुपया फीस देते हैं। गाहे-बगाहे चंदे के रूप में भी रकम देनी पड़ती है। बच्चे की पीठ पर बस्ते का बोझ है। स्कूल में जो पढ़ाई होती है, सो होती है, इसके अलावा उन्हें टयूशन भी लेनी पड़ती है और रविवार का दिन हो या सर्दी-गर्मी की छुट्टियां, होमवर्क तो रहता ही रहता है।

इस दरवाजे से हटता हूं तो एक दूसरा स्कूल सामने आ जाता है। शहर की किसी नई कॉलोनी के किसी रिहायशी घर में चलता हुआ। उस पर अंग्रेजी मीडियम स्कूल का बोर्ड लगा है। अपने बच्चों का कैरियर बनाने के लिए व्यग्र और चिंतित वे मां-बाप ऐसे ही किसी स्कूल में बच्चे का दाखिला करवाते हैं जिनके पास महलनुमा स्कूल की फीस पटाने योग्य साधन नहीं है। बच्चे अंग्रेजी पढ़ते हैं- सही या गलत। उसी में बोलने-बतियाने लगते हैं। माता-पिता के देखे सपने अब उनकी आंखों में हैं। वे अपने लिए एक नए किस्म का वातावरण, एक नए तरह का समाज बनाना चाहते हैं। उनकी इच्छाओं को मूर्त रूप देने के लिए बहुत से सरंजाम मौजूद हैं- फिल्मी सितारे, टीवी सितारे, क्रिकेट खिलाड़ी, अंबानी, चेतन भगत, बरखा दत्त इत्यादि।

इनसे परे वे शालाएं हैं जिन्हें सरकार या नगरपालिकाएं चलाती हैं। इन स्कूलों में बड़ी संख्या में वे बच्चे आते हैं जिन्हें कहीं और ठिकाना नहीं मिलता है। उनके घर की हैसियत ही ऐसी नहीं है। यहां जो अध्यापक पढ़ाते हैं वे सरकार के नियमित कर्मचारी भी नहीं है। स्कूल की इमारत एक बार बन गई सो बन गई, उसमें फिर बरसों मरम्मत नहीं होती। बच्चे जितना पढ़ लें सो ठीक। कितने तो सिर्फ इसलिए आते हैं कि मध्यान्ह भोजन योजना में कम से कम एक वक्त का भोजन तो मिल ही जाता है। भारत में नब्बे प्रतिशत स्कूल ऐसे ही हैं। हम जनतंत्र की बात करते हैं, लेकिन दस प्रतिशत स्कूल जिस कुलीन वर्ग के लिए चलते हैं देश पर शासन उन्हीं का है। नब्बे प्रतिशत बहुमत वालों को तो जीवन-यापन के लिए जो सहारा मिल जाए वही बहुत है। खासकर इनके लिए ही शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुआ। कुलीन जानते हैं कि उनके बच्चों को ऐसे स्कूलों में पढ़ाकर उन्हें बिगाड़ना नहीं है। देखिए यह कविता मुझे कहां से कहां ले गई! बच्चों को अवकाश के दिन भी होमवर्क करना है। गुस्सैल प्रेतात्माएं सिर्फ स्कूल में ही नहीं, शायद घर में भी हैं। तो शायद इस तरह बनेगा देश का भविष्य!

कविता यही तो करती है कि वह आपके सामने जाने कितनी खिड़कियां, कितने दरवाजे, कितनी सड़कें खोलकर रख देती है। बशर्ते वह सचमुच कविता हो। जुमलेबाजी नहीं, नारेबाजी नहीं, चुटकुलेबाजी नहीं। कविता आपको अपने मन के अंधेरे कोनों में झांकने के लिए विवश करती है। वह आपको वहां ले जाती है जहां से आप शायद पिंड छुड़ाकर भाग आए हैं! आपने अगर अपनी आंखों को हथेली से ढांप रखा है, तो कविता हथेलियों को हटा देती है। मजबूर करती है कि जिन दृश्यों को देखने से बचना चाहते हैं उन्हें देखें। अपनी बात के समर्थन में मैं सिर्फ दस पंक्तियों की एक और छोटी कविता यहां उध्दृत कर रहा हूं-
''कितनी बड़ी और खूबसूरत कार है/  विज्ञापन में/  अभी बैठ जाओ इसमें/  तो लगेगा/  जैसे दौड़ने लगेगी सड़कों पर/  पर कार अभी विज्ञापन में है/  फिर भी/  दौड़ रही है/  दिल और दिमाग के बीच/  सरपट।'' (विज्ञापन)

देखिए, ये पंक्तियां आपसे क्या कहती हैं? इक्कीसवीं सदी में नवउदारवाद के नाम पर पूंजीवाद ने अपना कारोबार किस तरह बढ़ाया है उसने बाजार की परिभाषा बदल दी है और बाजार का स्थान भी। क्या आपने कभी सोचा कि इन दिनों बिला वजह, बेजरूरत बाज़ार का रुख क्यों कर लेते हैं? अब हम बाज़ार  इसलिए नहीं जाते कि हमें सचमुच में कोई सौदा-सुलुफ करना है। अपने समय के जाने-माने हास्य कवि रमई काका ने लखनऊ के अमीनाबाद बाज़ार का चित्रण किया था कि वहां की चकाचौंध में तो लोग किस तरह धोखे में पड़ जाते हैं। अब तो कई गुना चकाचौंध है और कदम-कदम पर धोखा। अमृतसर से लेकर मदुरै तक शुरु-शुरु में सिर्फ कौतूहलवश मॉल में जाते थे, अब आपको अनजाने ही वहां बार-बार जाने का आकर्षण होने लगा है। नियोन लाइटों और विज्ञापनों ने मिलकर जैसे सोचने की क्षमता ही छीन ली है। जो कार इस वक्त दिल और दिमाग के बीच दौड़ रही है, वह आपकी प्राथमिक जरूरतों को खारिज करते हुए आपके बैंक बैलेंस को नीचे लाते हुए किस दिन आपके दरवाजे पर आकर खड़ी हो जाएगी, यह आप भी नहीं जान पाएंगे। देखता हूं कि कितने ही निम्न आय वर्ग के लोग ज़ीरो प्रतिशत ऋण के लोभ में बाइक या मोपेड खरीद लेते हैं, उसकी किश्त चुकाने के लिए व्यवस्था नहीं हो पाती, पेट्रोल भरवाने के लिए भी दो बार सोचना पड़ता है। ऐसे में किसी दिन जिस शोरूम से दुपहिया गाड़ी खरीदी गई है, वापिस वहीं सेकेण्ड हैंड बिकने के लिए आ जाती है। तो पूंजीवाद अपने नए अवतार में इस तरह का सलूक आपके साथ करता है जैसे सूनी राह पर अकेले राहगीर को चार नकाबपोश डाकू मिलकर लूट लेते हैं! ये सचमुच डाकू हैं। इनके मुंह पर नकाब है इसलिए उनकी शिनाख्त नहीं हो पाती है। लेकिन इस कविता को फिर से पढ़िए। कवि उस नकाब को हटाकर अपराधी को आपके सामने खड़ा कर रहा है।

ये दोनों कविताएं मैंने युवा कवि मणि मोहन के हाल में प्रकाशित कविता संग्रह ''शायद'' से ली हैं। मेरा कवि से प्रत्यक्ष परिचय नहीं है यद्यपि उनकी कविताएं अक्षर पर्व में पहले छपी हैं। मध्यप्रदेश के छोटे से कस्बे गंजबसौदा के निवासी मणि मोहन का पहला संग्रह 2003 में छपा था। एक दशक के अंतराल से प्रकाशित इस नए संकलन में सत्तर कविताएं हैं। अधिकतर कविताएं पन्द्रह-बीस पंक्तियों की हैं, याने कवि का मिजाज छोटी कविताओं का ही है। जैसा कि मेरा हमेशा से मानना रहा है, सामाजिक सरोकारों के बिना सच्ची कविता नहीं लिखी जा सकती। बाकी सब वाग्विलास है। मणि मोहन की कविताएं सिध्द करती हैं कि वर्तमान में हमारे आसपास जो कुछ घटित हो रहा है उस पर कवि की पैनी नजर है। यद्यपि इन कविताओं में और भी रंग हैं। इनमें प्रेम भी है और मृत्यु भी, बच्चे भी हैं और प्रकृति भी। सबसे अच्छी बात यह कि मणि मोहन ने जो भी विषय उठाए उनका बयान करने में बड़बोलापन नहीं दिखाया है। वे इस तरह अपनी बात रखते हैं कि धीरे से पाठक के मन में उतर जाए। मेरा ख्याल है कि उनकी चिंतन प्रक्रिया को समझने के लिए 'घर' शीर्षक कविता को देखना चाहिए-

''प्रणाम करता हूं/  भेड़ियों को/  आते जाते/  सजदा भी करता हूं/  कभी-कभी  लकड़बग्घों के दरबार में/  क्या करूं.../ एक घने बीहड़ से होकर/ गुज़रता है/  मेरे घर का रास्ता।'' (घर)

अगर मैं कहूं कि हर युग में सामान्य नागरिक को ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, तो गलत नहीं होगा। इसके बावजूद वह कवि ही होता है जो समाज की आंतरिक पीड़ा को अभिव्यक्ति देने के लिए अपनी कविता से रास्ता बना लेता है। चाहता तो हूं कि इस संकलन से और भी कविताएं उध्दृत करूं, लेकिन यह कवि और पाठक दोनों के साथ अन्याय होगा। मुझे संकलन की अधिकांश कविताएं अच्छी लगी हैं। यद्यपि प्रेम कविताओं में कोई नयापन नहीं लगा। ''एक सुपरस्टार की अंतिम यात्रा'' व ''इस तरह'' जैसी कविताओं में कवि ने पाखंड को उजागर किया है। उसने मुझे प्रभावित किया। कविता और भाषा पर मणि मोहन का जो विश्वास है वैसा विश्वास हर रचनाधर्मी को होना चाहिए। ''हत्यारों की रुचि'' में कवि इस ओर आगाह करता है कि समर्थतंत्र किस तरह रचनाशीलता को खरीदने का षडयंत्र करता है। अंत में मैं ''वक्त'' कविता को पूरा उध्दृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं।

''ज़रा-सा तनकर चले/  कि तकलींफ होने लगी चौखटों को/ ज़रा-सा झांका भीतर/  कि डपट दिया रोशनदान ने/ बंद दरवाजे के बाहर/  मैं खड़ा रहा सुबह से शाम तक/  एक बार फिर पूछा मैंने-/  'क्या मैं अंदर आ सकता हूं श्रीमान्?'/  अपनी ही आवाज़ की अनुगूंज/  सुनी मैंने बार-बार/  मैंने गौर से देखा/ इस बार दरवाज़े को/  दरवाज़ा पूरी तरह बंद था/  और लोग रेंगते हुए/  दरारों से भीतर जा रहे थे-/  बड़ी देर बाद समझ में आया मुझे/  कि वक्त/  दरारों से भीतर रेंगने का है।'' (वक्त)

यह रचना बहुत कुछ कह जाती है।
 
अक्षर पर्व अप्रैल 2014 अंक में प्रकाशित  
 

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