Wednesday 7 May 2014

वैमनस्य की राजनीति





अभिनेत्री
रानी मुखर्जी व निर्देशक आदित्य चोपड़ा ने कुछ दिन पूर्व इटली में जाकर विवाह रचाया। इस पर एक मोदीभक्त ने ट्वीट किया कि अगर ये लोग 16 मई तक रुक जाते तो उनके विवाह में सोनिया, राहुल, प्रियंका और राबर्ट भी शामिल हो जाते। मुझे यह टिप्पणी सुरुचिपूर्ण नहीं लगी। इस पर मैंने अपनी प्रतिक्रिया इन शब्दों में की-''क्यों भाई, क्या भारत इनका घर नहीं है और क्या आपके यहां बहू-बच्चों को घर से निकाल दिया जाता है? इसके बाद ट्विटर में मुझ पर अपशब्दों की जो बौछार हुई उसके बारे में कुछ न लिखना ही बेहतर होगा। इस प्रसंग से पता चलता है कि राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को किस तरह व्यक्तिगत वैमनस्य के स्तर पर लाया गया, उसमें भी असहिष्णुता का परिचय देते हुए सामान्य शिष्टाचार को भी ताक पर रख दिया गया। मुझे इससे हैरत नहीं हुई क्योंकि जनसंघ और भाजपा के अधिकतर नेता-कार्यकर्ता लंबे समय से इसी भांति निजी कुंठा का परिचय देते आए हैं।

मुझे 1965 के भारत-पाक युद्ध के समय का एक प्रसंग ध्यान आता है। उन दिनोंं महान शिक्षाविद् व स्वाधीनता सेनानी डॉ. जाकिर हुसैन भारत के उपराष्ट्रपति थे। उनके बारे में जोर-शोर से अफवाहें फैलाई गईं कि वे पाकिस्तान के लिए जासूसी कर रहे थे इसलिए उन्हें नजरबंद कर लिया गया है। ऐसी बेसिर-पैर की बात कहां से उड़ाई गई होंगी, पाठक स्वयं अनुमान लगा सकते हैं। इसी तरह 11 जनवरी 1966 को ताशकंद समझौते के तुरंत बाद प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के हृदयाघात से निधन पर भी अफवाहें फैलाई गईं कि उन्हें जहर देकर मारा गया। इसे लेकर कानाफूसी तो की ही गई, अखबारों में भी छपा और वीररस के एक कथित कवि तो कवि सम्मेलनों के मंच से उनके सपनों में श्रीमती ललिता शास्त्री के आकर कहने का बखान करने लगे कि शास्त्रीजी को जहर दिया गया है। ऐसा प्रचार करने वालों ने एक क्षण भी यह सोचने की जहमत नहीं उठाई कि उस वक्त भारत में ऐसा कोई भी शक्तिशाली नेता नहीं था जो इतने बड़े षडय़ंत्र को अंजाम दे पाता। जाहिर है कि इसका उद्देश्य इंदिरा गांधी को बदनाम करना मात्र था। इस आरोप को हाल-हाल में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने भी अपनी आत्मकथा में दोहराया है जबकि इस बीच शास्त्रीजी के तीन बेटे कांग्रेस के संसद सदस्य और एक बेटे मंत्री भी रह चुके हैं।

भारत में एक ऐसा वर्ग है जो देश में कुछ भी गलत हो उसका दोष पंडित नेहरू या उनके वंशजों पर सुविधापूर्वक मढ़ देता है। यह सिलसिला 1947 से अब तक चला आ रहा है। 2004 में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बन जाने की संभावना मात्र से ही सामान्यत: हँसमुख सुषमा स्वराज किस कदर बिफर गई थीं! उन्होंने अपना सिर मुंडवाने तक की धमकी दे डाली थी। उन्होंने यह न सोचा था कि सोनिया गांधी स्वयं प्रधानमंत्री पद ठुकरा देंगी। इधर 2014 के चुनावों में ऐसी उग्र प्रतिक्रियाएं बार-बार देखने-सुनने मिल रही हैं। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने एक नहीं, दो बार कहा कि मोदी सरकार बनेगी तो राबर्ट वाड्रा को जेल भेज देंगे। उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि देश का कानून क्या कहता है और अभी तो यह भी तय नहीं है कि उनकी सरकार बनेगी कि नहीं। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी तो पहले दिन से ही राहुल गांधी को शहजादा कहकर मखौल उड़ानेे की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनावों के समय कवर्धा में दिया अपना भाषण याद नहीं रहा कि यदि डॉ. रमन सिंह कांग्रेस में होते तो अपने बेटे अभिषेक को चुनाव लड़ाते, न कि सामान्य कार्यकर्ता अशोक साहू को। अब वही अभिषेक सिंह मोदी के नेतृत्व में लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं। ऐसे में जब नरेन्द्र मोदी मतदाताओं से कहते हैं कि वे उन पर विश्वास करें तो उनके वचनों का खोखलापन प्रकट होने लगता है।

नरेन्द्र मोदी की निगाह में राहुल गांधी शहजादे हैं, लेकिन वे गुजरात में अपने ही मंत्री सौरभ पटेल के बारे में बात नहीं करते जो कि नवकुबेर अंबानी के दामाद हैं। श्री मोदी अपनी पार्टी के इतिहास की भी जानबूझ कर अनदेखी कर देते हैं। विजयाराजे सिंधिया क्या थीं? उनकी बेटियां वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे क्या हैं? वसुंधराजी के बेटे दुष्यंत सिंह को किस श्रेणी में रखा जाएगा, और वसुंधराजी के मामा ध्यानेंद्र सिंह और मामी माया सिंह को? मोदीजी के तर्क के अनुसार तो मेनका गांधी और उनके सुपुत्र वरुण गांधी को भी भाजपा में नहीं होना चाहिए और न ही प्रेमकुमार धूमल के बेटे अनुराग सिंह को। मोदीजी ने यशवंत सिन्हा के बेटे जयंत सिन्हा को इस बार लोकसभा का टिकट क्यों दिया? मुझे और भी बहुत से उदाहरण याद आ रहे हैं, लेकिन कहां तक नाम गिनाएं! प्रश्न है कि श्री मोदी व उनके प्रशंसक समर्थक शीशे के घर में रहकर दूसरे के घर पत्थर क्यों फेंक रहे हैं।

इधर जब से प्रियंका गांधी ने राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र अमेठी की कमान संभाली है तब से उनके ऊपर भी भाजपा के नेता कार्यकर्ता बेदम हमले किए जा रहे हैं। राबर्ट वाड्रा के बारे में मेरे जो विचार हैं उन्हें इसी कॉलम में 11 अक्टूबर 2012 को लिख चुका हूं। मेरा कहना है कि श्री वाड्रा ने यदि कहीं विधि-विधान का उल्लंघन किया है तो भाजपा उनके ऊपर मुकदमे चलाए, लेकिन अपराध सिद्ध होने के पहले किसी को अपराधी क्यों माना जाए। राजस्थान में तो भाजपा की सरकार है। वहां यदि श्री वाड्रा ने कुछ गड़बड़ की है तो सरकार को वैधानिक कार्रवाई करने से किसने रोका है? लेकिन ऐसा न कर सिर्फ दुष्प्रचार करना क्या दर्शाता है? मुझे हैरत है कि भाजपा के बड़े नेता रविशंकर प्रसाद इत्यादि भी प्रियंका को अब श्रीमती वाड्रा कहकर संबोधित करते हैं। ऐसा करके वे एक औरत का अपमान कर रहे हैं। प्रियंका यदि अपने पिता का कुलनाम जोड़ कर खुद को प्रियंका गांधी कहलाना पसंद करती हैं तो उन्हें इसी तरह से संबोधित किया जाना चाहिए। शिष्टाचार इसी में है। बंगाल में तो ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहां पतिगृह और पितृगृह दोनों से मिलाकर नए  कुलनाम प्रचलन में आ गये हैं।

इसी रौ में मुझे दो प्रकरण और ध्यान आते हैं। एक तो 1977 में जब इंदिरा गांधी चुनाव हार गईं तो यह प्रचारित किया गया कि राजीव गांधी अपनी ससुराल जाकर बस जाएंगे। हम जानते हैं कि ऐसा नहीं हुआ, बल्कि राजीव गांधी इंडियन एयर लाइंस में पायलट की नौकरी बदस्तूर करते रहे। फिर इंदिराजी की हत्या के बाद यह निंदनीय दुष्प्रचार किया गया कि उन्होंने अपनी किसी डुप्लीकेट को मरवा डाला है और वे खुद स्विट्जरलैंड भाग गईं हैं। मैं नहीं जानता कि ऐसी ओछी बातें करने में लोगों को क्या आनंद आता है। मुझे ध्यान नहीं आता कि कांग्रेस अथवा कम्युनिस्ट पार्टियों के बड़े नेताओं ने कभी विपक्ष के बारे में इस स्तर तक उतरकर अशोभनीय टिप्पणियां की हों। भाजपा में भी अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता ने भी ऐसी टिप्पणियां नहीं कीं। क्या यह इसकी वजह थी कि वाजपेयीजी राजनीतिक शिष्टाचार का मूल्य समझते थे? भैरोंसिंह शेखावत, लालकृष्ण आडवानी या मुरली मनोहर जोशी को भी ऐसे निजी आक्षेप करते हुए शायद ही कभी देखा गया हो। अफसोस इस पर कि काश वे अपनी अगली पीढ़ी को राजनीति में सद्भाव, सौमनस्य निभाने के संस्कार दे सकने में सफल हो पाते।

देशबन्धु में 08 मई 2014 को प्रकाशित
 

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