Tuesday, 20 May 2014

अब्बास और कृश्न चन्दर


 इस वर्ष जिन रचनाकारों की जन्मशती है उनमें से दो मेरे प्रिय लेखक हैं- ख्वाजा अहमद अब्बास व कृश्न चंदर। इनका स्मरण करते हुए यह भी ध्यान आता है कि इसी माह पं.जवाहरलाल नेहरू की पचासवीं पुण्यतिथि आएगी और सितंबर में गजानन माधव मुक्तिबोध की। आज के समय में इन्हें याद करना पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है और आवश्यक भी। ये सब एक नए भारत और एक नई दुनिया के न सिर्फ स्वप्नदृष्टा थे बल्कि इन्होंने अपना समूचा जीवन स्वप्न को यथार्थ में बदलने के लिए समर्पित कर दिया। पंडित नेहरू और मुक्तिबोध जी का जहां तक सवाल है, पिछले पचास बरस के दौरान उन पर लगातार चर्चाएं होती रही हैं, उन पर पुस्तकें लिखी गई हैं, उनके योगदान व इतिहास में उनके स्थान पर विश्लेषण भी अपनी-अपनी तरह से करने का प्रयत्न व्यापक स्तर पर हुआ है। इस वर्ष भी उन पर केन्द्रित आयोजन होंगे ही होंगे। मैं फिलहाल अपनी बात अब्बास साहब और कृश्न चंदर तक सीमित रखना चाहता हूं।

ख्वाजा अहमद अब्बास की जन्मशती पहले आएगी- 7 जून को। सत्तर के दशक में उनकी आत्मकथा ''आई एम नॉट एन आइलैण्ड" शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इसके एक प्रसंग की मुझे धुंधली स्मृति है। युवा अब्बास तब की बंबई में ''बॉम्बे क्रॉनिकल" नामक अखबार के नौसिखिया रिपोर्टर थे और साइकिल की सवारी कर शहर के थानों में खबरें जुटाने के लिए जाया करते थे। उन दिनों थानों में टेलीफोन भी नहीं हुआ करते थे। अपने पत्रकार जीवन के प्रारंभिक दिनों का एक और प्रसंग उन्होंने लिखा था कि जब उन्होंने एक रिपोर्ट लच्छेदार भाषा में कई पन्नों में लिख डाली तो संपादक ने उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया और उन्हें छोटी, फिर छोटी, फिर और छोटी रिपोर्ट बनाने के लिए कहा। यह उनके लिए एक सबक था कि पत्रकार को कम से कम शब्दों में अपनी बात कहने का अभ्यास होना चाहिए। बहरहाल उनकी आत्मकथा में जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित और प्रभावित किया वह पुस्तक का शीर्षक ही था।
सत्रहवीं सदी के प्रसिद्ध कवि जॉन डन की एक कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार है -

''नो मेन इज़ एन आइलैण्ड
एन्टायर टू हिमसेल्फ एवरी मेन इज़ ए
पार्ट ऑफ द होल"
श्री अब्बास ने इस कविता से प्रेरित होकर ही अपनी पुस्तक का शीर्षक रखा था। उन्होंने पुस्तक के पहले-दूसरे पन्ने पर इन पंक्तियों को उद्धृत भी किया था। ये अर्थ प्रगल्भ पंक्तियां मनुष्य जीवन की सार्थकता को परिभाषित करती हैं।

हमने स्कूल के दिनों में पढ़ा था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होता है। यह कविता इस कहावत का मर्म खोलती है। संसार में कोई भी व्यक्ति द्वीप बनकर नहीं रह सकता। वह समष्टि का अंश है, अपने आप में संपूर्ण व स्वतंत्र नहीं। आज की दुनिया में जब वैयक्तिकता पर बहुत अधिक जोर दिया जा रहा है तब जॉन डन की यह कविता जीवन का दिशाबोध करवाती है। कहना न होगा कि ख्वाजा अहमद अब्बास का पूरा जीवन अपने आपको समष्टि का हिस्सा समझने में ही बीता। अपनी कलम और अन्य विधाओं के माध्यम से उन्होंने लगतार एक ऐसे समाज की रचना के लिए प्रयत्न किए जहां जन-जन के बीच भाईचारा, समता और सौहाद्र्र का भाव हो।


ख्वाजा अहमद अब्बास बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने एक पत्रकार के रूप में कैरियर की शुरूआत की और वे जीवन के अंतिम समय तक पत्रकारिता ही करते रहे, लेकिन इस बीच उन्होंने अन्य रचनात्मक विधाओं में भी अपनी प्रतिभा का भरपूर परिचय दिया। उन्होंने मुंबई के ही एक अखबार से ''द लास्ट पेज नाम से एक साप्ताहिक स्तंभ लिखना प्रारंभ किया था, जो बाद में चर्चित साप्ताहिक ब्लिट्ज में छपने लगा। यह कॉलम दोनों पत्रिकाओं में मिलाकर पचास साल से अधिक समय तक छपा। यह अपने आप में एक विश्व रिकॉर्ड है। लेकिन यहां रिकॉर्ड बनाने से ज्यादा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि न तो अब्बास की लेखनी की धार में इस सुदीर्घ अवधि में कोई कमी आई और न ही लोकप्रियता में। सप्ताह-दर सप्ताह पाठक कॉलम के छपने का बदस्तूर इंतजार करते रहे। एक पत्रकार के रूप में उनकी लेखन क्षमता का यह एक ज्वलंत प्रमाण था। पत्रकारिता के अलावा उन्होंने कहानियां लिखीं, फिल्मों की पटकथाएं भी, फिल्म भी बनाईं और नाटक भी लिखे। दरअसल यह तय करना मुश्किल है कि एक फिल्मकार के रूप में उनका योगदान बड़ा है या पत्रकार के रूप में!

अभी पिछले साल देश में भारतीय सिनेमा की शताब्दी मनाई गई। इस पृष्ठभूमि में उल्लेख करना मुनासिब होगा कि जिस पहली भारतीय फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति और सम्मान मिला उसके निर्माण से अब्बास जुड़े हुए थे। यह फिल्म 1946 में आजादी के एक साल पहले चेतन आनंद ने ''नीचा नगर" नाम से बनाई थी। इसकी पटकथा अब्बास ने लिखी थी। कार्लोवीवेरी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए ''गोल्डन पाम" पुरस्कार मिला था। अब्बास साहब ने खुद भी फिल्में बनाई जिनमें ''शहर और सपना को 1964 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए ''स्वर्ण मयूर"  प्राप्त हुआ था। इस फिल्म में उन लोगों की कहानी थी जो देश के दूरदराज के कोनों से रोजी-रोटी की तलाश में महानगर बंबई आते हैं अैार वहां हर मोड़ पर विपरीत परिस्थितियों से सामना करते हैं, किन्तु हार नहीं मानते। सच पूछें तो यह उनकी प्रिय थीम है जिसका परिचय उस हर फिल्म से मिलता है जिसके निर्माण से वे संलग्न रहे। पाठकों को यह पता ही है कि राजकपूर की अधिकतर फिल्मों से अब्बास साहब जुड़े हुए थे।

यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि ख्वाजा अहमद अब्बास वामपंथी विचारों के रचनाशिल्पी थे। इसलिए उनकी फिल्मों में एक ओर जहां मनुष्य जीवन की विसंगतियों और संघर्षों के वस्तुगत चित्र देखने मिलते हैं, वहीं वे इस आदर्श को लेकर आगे बढ़ती हैं कि अन्याय व शोषण के खिलाफ लड़ते हुए अंतत: विजय मनुष्यता की ही होगी। यह संदेश श्री-420 में है, बूटपालिश में है, 'जागते रहो में है और उनकी अन्य फिल्मों में भी। इसीलिए अगर एक ओर उनकी यह कहकर आलोचना की गई कि वे प्रचारात्मक फिल्में बनाते हैं, तो दूसरी ओर यह भी कहा गया कि राजकपूर की वे ही फिल्में अच्छी हैं जिनमें पटकथा अब्बास ने लिखी है। मुझे अभी ''जागते रहो" का ध्यान आ रहा है। रात के अंधेरे में किस तरह काला कारोबार पनपता है, किस तरह सफेदपोश लोग भी अपराधों में शामिल होते हैं इसका प्रामाणिक चित्रण इस फिल्म में हुआ था। एक रात में ही इस सारे गोरखधंधे को देखकर घबराया नायक बेचैन होकर भटकता-भागता है, लेकिन फिर अब्बास उसका हाथ थाम लेते हैं। मनुष्य जीवन में आशा हमेशा विद्यमान है- यह संदेश फिल्म के अंत में बहुत प्रभावी ढंग से हमें उस सुंदर गीत की पंक्तियों के साथ प्राप्त होता है- ''जागो मोहन प्यारे जागो, नवयुग चूमे नयन तुम्हारे...।"

27 मई 1964 को पंडित जवाहरलाल नेहरू का निधन हुआ था। मैं इस तिथि को स्वतंत्र भारत की राजनीति के एक परिवर्तनकारी मोड़ के रूप में देखता हूं। यह बात फिर कभी। पंडित जी की मृत्यु के कुछ समय बाद अब्बास साहब ने एक नाटक तैयार किया- ''लाल गुलाब की वापसी"। इस नाटक का प्रदर्शन देश के अनेक नगरों में हुआ। वे इसे लेकर रायपुर भी आए। इस नाटक के माध्यम से उन्होंने यही कहा कि- सामाजिक न्याय, जनतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्य इस देश की मिट्टी में रचे-बसे हैं और भारतवासी अपने संविधान में निहित इन मूल्यों पर हमेशा चलते रहेंगे।

ख्वाजा अहमद अब्बास अपने समय में उर्दू के एक जाने-माने कथाकार भी थे, इस तथ्य को लगभग भुला दिया गया है। उनकी एक कहानी ''सरदारजी" विभाजन की पृष्ठभूमि पर लिखी गई थी। इसमें उन्होंने अपनी धर्मनिरपेक्ष सोच के अनुसार ही वर्णन किया था कि एक सिख नागरिक दंगा पीडि़त मुसलमानों को बचाते हुए अपनी जान से हाथ धो बैठता है। यह कहानी बरसों बाद कमलेश्वर ने सारिका में प्रकाशित की थी। उन दिनों पंजाब में उग्रवाद चरम सीमा पर था। इस कहानी का मर्म न समझने वाले लोगों ने अब्बास साहब पर सिख विरोधी होने का आरोप लगाया व लेखन व पत्रिका दोनों के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। अब्बास साहब ने जब सार्वजनिक माफी मांगी तब मामला ठंडा पड़ा। मैंने उस समय उन्हें पत्र लिखा था कि उन्हें माफी नहीं मांगनी चाहिए थी। इसके उत्तर में उन्होंने मुझे लिखा कि कनाडा में उनके पौत्र को जान से मारने की धमकी दी गई है इसलिए वे माफी मांगने पर मजबूर हुए। आज उनकी जन्मशती पर इस कहानी को फिर से पढऩा और उसकी अन्तर्वस्तु को समझना समीचीन होगा।

कृश्न चंदर मूलत: उर्दू के लेखक थे, लेकिन वे हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में इतना छपे कि पाठकों को कभी इस सच्चाई का भान ही नहीं हुआ और वे उन्हें हिन्दी का लेखक ही मानते रहे। इसमें शायद कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि पचास व साठ के दशक में कृश्न चंदर भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय लेखक थे। उनके बाद अमृता प्रीतम का नाम लिया जा सकता है। कृश्न चंदर ने यूं तो ढेरों कहानियां, लघु उपन्यास और उपन्यास लिखे, लेकिन उनको सबसे ज्यादा लोकप्रियता हासिल हुई ''एक गधे की आत्मकथा" से। यह व्यंग्य उपन्यास 1963-64 के आसपास हाल-हाल में स्थापित हिन्द पॉकेट बुक्स से प्रकाशित हुआ था। कीमत थी मात्र एक रुपया। अनुमान ही लगाया जा सकता है कि पुस्तक की कितनी हजार प्रतियां बिकी होंगी! एक दौर था जब उर्दू जगत में तीन लेखकों का दबदबा था। सआदत हसन मंटो, राजेन्द्र सिंह बेदी और कृश्न चंदर। एक और लेखक का नाम इसी तिकड़ी के साथ जुड़ता है... अहमद शाह बुखारी का जो ''पतरस" के नाम से लिखा करते थे। श्री बुखारी इनमें वरिष्ठ थे। वे ऑल इंडिया रेडियो के डायरेक्टर जनरल थे और विभाजन के समय ही पाकिस्तान चले गए थे। इन तीनों लेखकों को रेडियो में लाने का श्रेय उनको ही जाता है। मंटो पाकिस्तान से भारत आए और फिर पाकिस्तान गए थे। उनकी जन्मशताब्दी भी पिछले साल मनाई गई थी।

उर्दू और पंजाबी के अनेक लेखकों की रचनाएं हिन्दी में लगातार छपी हैं। उन्हें पढ़कर समझ आता है कि इन भाषाओं में जो वाक् विदग्धता, वक्रोक्ति, हास्य का पुट और शब्दों का खिलवाड़ है वह ऐसा आस्वाद देती है जो हिन्दी साहित्य में सामान्यत: उपलब्ध नहीं है। हिन्दी ने गंभीरता का जो लबादा ओढ़ रखा है वह तो हरिशंकर परसाई को भी कथाकारों की पंक्ति से बाहर कर देता है, लेकिन उर्दू-पंजाबी के रचनाकारों को संभवत: इन्हीं गुणों के कारण अपार लोकप्रियता मिली है जिसका सबसे बड़ा प्रमाण कृश्न चंदर हैं। वे समाज में व्याप्त विसंगतियों, कुरीतियों, भ्रष्टाचार, धोखेबाजी, पाखंड, सफेदपोश अपराध, राजनीति के कुकर्म, सांप्रदायिकता इत्यादि का खेल-खेल में ही पर्दाफाश कर देते हैं। उनकी रचनाएं सिर्फ हंसाने और गुदगुदाने के लिए नहीं है बल्कि वे पाठक का अपने समय से साक्षात्कार कराती हैं।

मुझे कृश्न चंदर की जो पहली पुस्तक याद आती है वह है ''बावन पत्ते"। यह शायद उनका एकमात्र पूर्णाकार उपन्यास है, अन्यथा उनके बाकी उपन्यासों को लंबी कहानी की श्रेणी में भी रखा जा सकता है। ''बावन पत्ते" में उन्होंने बंबई के फिल्म जगत याने आज के बॉलीवुड में जो प्रपंच होते हैं उनका वर्णन किया है। याद रखिए कि लेखक उस दौर का बयान कर रहा है जब बॉलीवुड में आज जैसी बेहूदा और उटपटांग फिल्में नहीं बनती। इस उपन्यास में फिल्म के फाइनेंसर और प्रोड्यूसर किस तरह से कलाकारों का शोषण करते हैं, कैसे डायरेक्टर को अपने इशारों पर नचवाते हैं, कैसे अभिनेता और एक्स्ट्रा की विवशता का फायदा उठाया जाता है, ऐसी तमाम सच्चाइयों का वर्णन उपन्यास में हुआ था। इसी थीम पर उन्होंने बाद में एक-दो उपन्यास और भी लिखे। उनकी परवर्ती रचनाओं में हमें भारत के अभिजात समाज की तस्वीरें देखने मिलती हैं। इनमें कहीं नैनीताल का बोट क्लब है, कहीं महालक्ष्मी रेसकोर्स, कहीं हांगकांग में हीरों के तस्कर, तो कहीं बड़े-बड़े सटोरिए और जुए के अड्डे चलाने वाले लोग। इनके सामने दिखने वाले सभ्य-सभ्रांत जीवन के पीछे कितनी कुरूपता है पाठक उसे देख सकता है।

कृश्न चंदर की कुछ और रचनाएं महत्वपूर्ण हैं- जैसे- "हम वहशी हैं", "जब खेत जाग उठे" और "दादर पुल के बच्चे". दादर में मुंबई महानगरी की जगमगाहट के पीछे छुपे अंधेरे की कहानी है। इस उपन्यास की अंतिम पंक्ति ही पढ़ लीजिए- ''जीवन में अंतिम बार जब मैंने भगवान को देखा तो वे छ: वर्ष के एक अंधे, कमजोर बच्चे थे और शाम की लालिमा के ढलते सायों में दोनों हाथ फैलाए हुए रोते हुए पुल पर खड़े भीख मांग रहे थे।"

''हम वहशी हैं" कृश्न चंदर का कहानी संग्रह है। इसमें सात कहानियां हैं और विभाजन के दौर में हिन्दुस्तान का वर्णन करती हैं। इस संकलन की एक कहानी है- ''पेशावर एक्सप्रेस"। बंटवारे के बाद हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच आबादी का पलायन हो रहा है। हिन्दू और सिख पाकिस्तान से भागकर हिन्दुस्तान आ रहे हैं और मुसलमान हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान की राह पकड़ रहे हैं। ऐसा माहौल है जिसमें किसी का किसी पर भरोसा नहीं है। पीढिय़ों के पड़ोसी एक-दूसरे के जान की ग्राहक हो गए हैं। जिस पेशावर एक्सप्रेस में अपनी जान की खैर मनाते लोग सवार हैं वह लाशों का बोझ ढोते हुए आपबीती सुना रही है। रामानंद सागर के उपन्यास ''और इंसान मर गया", खुशवंत सिंह के ''अ ट्रेन टू पाकिस्तान", भीष्म साहनी के ''तमस" और मंटों की ''टोबा टेकसिंह" जैसी कहानियों के समकक्ष ही इस कहानी को रखा जाना चाहिए।

कृश्न चंदर का उपन्यास ''जब खेत जागे" सुप्रसिद्ध शायर मखदूम मोइनुद्दीन को समर्पित है और तेलंगाना आंदोलन पर आधारित है। पुस्तक की भूमिका में कृश्न चंदर स्पष्ट लिखते हैं कि ''जब खेत जागे ऐसी ही क्रांतिकारी चेतना रखने वाले किसानों की कहानी है, जो अपनी धरती की रक्षा के लिए अत्याचारियों की हिंसा के विरुद्ध उठ खड़े होते हैं".  इस उपन्यास में कृश्न चंदर तेलंगाना आंदोलन को नष्ट करने के लिए विनोबा भावे द्वारा चलाए गए भूदान आंदोलन की खुली आलोचना करते हैं। दूसरी ओर वे उम्मीद करते हैं कि गांव के किसान और शहर के मजदूर मिल जाएं तो अन्याय और शोषण का सिलसिला रोका जा सकता है। उपन्यास का नायक राघव किसानों का नेतृत्व करते हुए फांसी पर चढ़ जाता है, लेकिन उपन्यास इस उम्मीद के साथ खत्म होता है कि उसका बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा।

कृश्न चंदर की कृतियों से गुजरते हुए हमें उनकी लेखनी के दो रूप देखने मिलते हैं- एक- जहां वे उस पारंपरिक शिल्प का सहारा लेते हैं जो हिन्दी के अपने मुहावरे के करीब बैठता है और दो- जहां वे उर्दू-पंजाबी की बिंदास शैली का इस्तेमाल करते हैं, लेकिन वे अपना वैचारिक आधार कहीं भी नहीं छोड़ते। ख्वाजा अहमद अब्बास और कृश्न चंदर दोनों के रचना संसार से गुजरते हुए यह सोचने पर मजबूर होता हूं कि एक वह दौर था जब लेखक कोरी साहित्यिक बहसों से आगे निकलकर जनसमाज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होने में अपना श्रेय मानता था और अब यह सोचकर मन उदास हो जाता है कि आज का लेखक अपने आप में कितना सिमट गया है कितना आत्ममुग्ध, कितना आत्मकेन्द्रित, कितना प्रचारप्रिय, कितना यशलोभी। ऐसे में अब्बास और कृश्न चंदर की जन्मशती किस रूप में मनेगी?
 अक्षर पर्व मई २०१४ में प्रकाशित

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