Wednesday, 30 December 2015

लाहौर : गुलाबी पगड़ी, शाकाहारी दावत


 भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मास्को से व्हाया काबुल दिल्ली लौटते हुए लाहौर उतरे और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के परिवार के साथ उन्होंने खुशी के मौके पर कुछ घंटे बिताए। श्री मोदी की इस पहल का हम स्वागत करते हैं।  प्रधानमंत्री का यह स्टॉप ओवर कितना अचानक था उसे लेकर हमें शंका है, लेकिन एक कांग्रेस पार्टी को छोड़कर भारत में ही नहीं, विदेशों में भी मोदी-शरीफ भेंट का अमूमन स्वागत किया गया है। यह बात समझ से परे है कि कांग्रेस पार्टी ने इस पर आपत्ति क्यों की। पार्टी प्रवक्ता और पूर्व मंत्री मनीष तिवारी जब तीखे स्वर में पूछ रहे थे कि मोदी देश को बताएं कि नवाज शरीफ से उन्होंने क्या बात की? तब वे एक गंभीर राजनेता के बजाय टीवी के तूफानी सूत्रधार अर्णव  गोस्वामी की नकल करते नज़र आ रहे थे, जो बात-बात में देश जानना चाहता है की रट लगाए रहते हैं। हमें कांग्रेस से ऐसे बचकाने वक्तव्य की उम्मीद नहीं थी।

नरेन्द्र मोदी के प्रचारतंत्र ने यह जतलाने की कोशिश की है कि लाहौर में उनका रुकना एक आकस्मिक घटना थी, लेकिन यह बात किसी के गले नहीं उतर रही। एक तो अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में इस स्तर की अचानक, अनौपचारिक और सरसरी मुलाकातों के कोई खास दृष्टांत नहीं हैं।  हो सकता है कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री अमेरिका के राष्ट्रपति से कभी इस तरह घूमते-घामते मिलने पहुंच गए हों; भारतीय उपमहाद्वीप में नेपाल, बंगलादेश अथवा श्रीलंका के राष्ट्रप्रमुखों की दिल्ली यात्रा के ऐसे उदाहरण अवश्य हैं, लेकिन उनके पीछे इन देशों के साथ भारत के मैत्रीपूर्ण संबंधों की लंबी परंपरा रही है। सामान्य तौर पर शासन प्रमुखों की मुलाकातें शिष्टाचार के एक बंधे-बंधाए ढांचे के भीतर ही होती हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्ते जैसे बनते-बिगड़ते रहे हैं उसमें ऐसी अनौपचारिकता की गुंजाइश अब तक तो बिल्कुल नहीं रही है। अगर मोदीजी एक स्वागत योग्य नई परंपरा डाल रहे हैं तो अभी उसकी पुष्टि होना बाकी है।

लाहौर मुलाकात आकस्मिक नहीं थी इसका एक अनुमान उस गुलाबी पगड़ी से होता है, जो प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने अपनी नातिन की शादी में अगले दिन पहनी। खबर है कि यह पगड़ी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें भेंट की है। यह भेंट उन्होंने कब दी होगी? अगर श्री शरीफ के विगत वर्ष श्री मोदी के शपथ ग्रहण में आने पर उन्हें उपहारस्वरूप दी गई हो तब तो बात वहीं समाप्त हो जाती है। यह कयास भी लगाया जा सकता है कि मोदीजी ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के हाथों इसे भेजा हो, जब वे पिछले माह पाक विदेश मंत्री से मिलने इस्लामाबाद जा रही थीं और तब शरीफ साहब के घर जा उनके पूरे परिवार से मिलकर आईं। उस समय उन्होंने श्री शरीफ की बेटी से यह भी कहा था कि अपनी दादी को बता देना कि मैंने उनसे जो वायदा किया था उसे पूरा करने की कोशिश करूंगी। पाकिस्तान के प्रतिष्ठित अखबार डॉन के स्तंभकार शोएब दानियल ने पूछा है कि यह वायदा क्या था?

बहरहाल गुलाबी पगड़ी का जहां तक सवाल है यह कल्पना भी की जा सकती है कि मोदीजी अपने साथ अफगानिस्तान में भेंट करने के लिए कुछ पगडिय़ां ले गए हों और उसमें कुछ स्टॉक बच गया हो। इन सबके अलावा यह भी तो संभव है कि हमारे प्रधानमंत्री ने लाहौर में रुकने का प्रोग्राम पहले से बना रखा हो। और जिस तरह पिछले साल उन्होंने नवाज शरीफ की माताजी के लिए साड़ी भिजवाई थी वैसे ही इस बार वे पगड़ी लेकर गए। आखिरकार हमारे देश में पगड़ी का संबंध सम्मान से जो ठहरा। लाहौर प्रवास पूर्व निर्धारित था। इसका एक अन्य संकेत नवाज शरीफ के गांव रायविंड में मोदीजी के लिए विशेष तौर पर तैयार शाकाहारी भोजन से भी मिलता है। कोई पुराना परिचित घर आए और घर में जो दाल-रोटी बनी है वो खाकर चला जाए, मामला इतना सीधा तो था नहीं। प्रधानमंत्री के लिए भोज की व्यवस्था करने में समय और परिश्रम दोनों लगे होंगे, यह सामान्य समझ कहती है। अर्थात् नवाज शरीफ के अपने अतिथि के आगमन के बारे में पर्याप्त समय रहते सूचना रही होगी तभी इस तरह की मुकम्मल खातिरदारी हो सकी कि पाक प्रधानमंत्री अपने भाई और बेटों के साथ सज-धजकर अगवानी करने लाहौर विमानतल पहुंच पाए।

सवाल उठता है कि श्री मोदी को रहस्य का यह आवरण बुनने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई। हम समझते हैं कि यह उनके व्यक्तित्व एवं कार्यशैली का अभिन्न अंग है। किसी पर्यवेक्षक ने उन्हें राजनीति में बॉलीवुड का स्टार होने की संज्ञा दी है। यह उपमा सच्चाई से दूर नहीं है। वे गुजरात के मुख्यमंत्री रहे हों, या फिर प्रधानमंत्री पद के दावेदार या फिर आज के प्रधानमंत्री, उनका ध्यान हमेशा अपनी निजी छवि को संवारने में लगा रहता है। वे विगत डेढ़ वर्ष के दौरान अपनी नित्य नूतन वेशभूषा के कारण जितना चर्चाओं में आए हैं वह विश्व के राजनेताओं के बीच एक कीर्तिमान ही माना जाएगा। ऐसी चर्चा चलने पर अनायास उनका कई लाख का सूट और उन पर सोने के तारों से बुने गए नाम का ख्याल आ जाता है। श्री मोदी जितने अधिक कैमरा सजग हैं वह भी अपने आप में एक मिसाल है। कुछ माह पहले लंदन यात्रा के दौरान चलते समय जब उनका ध्यान कैमरे पर था तब ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरॉन को उन्हें हाथ पकड़कर संभालना पड़ा था।

जो भी हो, भारत के प्रधानमंत्री की लाहौर यात्रा एक शुभ लक्षण है। यह सुखद संयोग है कि मोदी-शरीफ भेंट क्रिसमस के शुभ दिन हुई, जिसे मोदीजी सुशासन दिवस के रूप में मनाना चाहते हैं। यह भी संयोग है कि उसी दिन अटल बिहारी वाजपेयीजी का जन्मदिन था; जिनकी सलाह मोदीजी मान लेते तो राजनीति के पृष्ठों में कहां खो गए होते, नहीं मालूम। मदनमोहन मालवीय का जन्मदिन भी उसी दिन था जिन्हें अपने लोकसभा क्षेत्र को ध्यान में रखकर ही संभवत: मोदीजी ने भारत रत्न से अलंकृत किया। इन संयोगों के बीच यह संयोग भी क्या कम था कि 25 दिसम्बर को ही नवाज शरीफ का भी जन्मदिन था। उस दिन उनकी नातिन की शादी की मेहंदी रस्म भी थी। यह मानो सोने पर सुहागे वाली बात थी। नवाज शरीफ ने मोदीजी को आजकल प्रचलित परंपरा के अनुसार कोई रिटर्न गिफ्ट दिया या नहीं यह तो हम नहीं जानते, लेकिन अब मोदीजी प्रत्याशा अवश्य कर सकते हैं कि 2016 में उनके जन्मदिन 17 सितम्बर पर नवाज शरीफ एक बार फिर भारत आएंगे और रिश्ते सुधारने की दिशा में दोनों एक कदम और आगे बढ़ेंगे।

प्रधानमंत्री लाहौर क्यों उतरे इसे लेकर भांति-भांति के कयास लगाए जा रहे हैं। एक अनुमान यह व्यक्त किया गया है कि चूंकि अगले बरस सार्क सम्मेलन पाकिस्तान में होना है और उसमें श्री मोदी अवश्य जाना चाहेंगे इसलिए यह भेंट की गई। एक अन्य अनुमान में कहा गया कि भारत सुरक्षा परिषद में अपनी दावेदारी को पुख्ता करने के लिए पाकिस्तान की सहमति चाहता है। हमें ये दोनों बातें दूर की कौड़ी प्रतीत होती हैं। सार्क सम्मेलन आगामी नवम्बर में है और भारत-पाक संबंधों की वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह एक लंबा समय है। सुरक्षा परिषद में भारत का सदस्य बन पाना न तो सरल है और न तत्काल संभव। उसमें अंतरराष्ट्रीय राजनीति के बहुत से गुणा-भाग हैं। पाकिस्तान का इस मुद्दे पर भारत को समर्थन का चीन के रुख पर भी निर्भर करता है। जिस सदाशय से भारत ने चीन का साथ दिया वही सदाशय जब चीन दिखाएगा तभी भारत के लिए सुरक्षा परिषद का सदस्य बन पाना संभव है फिर इसमें ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका अथवा इजिप्त, जर्मनी, जापान के प्रवेश का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है।

हमारा जहां तक विचार है प्रधानमंत्री मोदी को यह समझ आ रहा है कि पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारना देश की शांति और सुरक्षा के लिए पहली शर्त है। वे अगर विवादों और लंबित प्रश्नों को सुलझा पाए तो अपना नाम इतिहास के पन्नों पर सुनहरे अक्षरों में लिखा लेने के अधिकारी हो जाएंगे। देश के हर प्रधानमंत्री ने इस दिशा में भरसक प्रयत्न किए हैं, किन्तु कहीं न कहीं जाकर बात टूटते गई। आज वैश्विक राजनीति में आर्थिक मुद्दे पहले से कहीं ज्यादा प्रभावी हो गए हैं, वित्तीय पूंजी का दखल बढ़ गया है, कार्पोरेट घराने राजनीति के माध्यम से अपना वर्चस्व बढ़ाने में लगे हैं। इन घरानों ने श्री मोदी से बहुत आशाएं बांध रखी हैं। वे अगर पाकिस्तान में नवाज शरीफ के साथ-साथ वहां के सैन्यतंत्र के साथ पटरी बैठा सके तो भारत-पाक मैत्री के रास्ते की बाधाएं दूर हो सकती हैं। इस दिशा में एक बड़ी अड़चन भारत में संघ के मनोगत को लेकर है। राम माधव का बयान इस ओर इशारा करता है। हम प्रतीक्षा करेंगे कि नए वर्ष में यह भेंट क्या रंग लाती है।
देशबन्धु में 31 दिसंबर 2015 को प्रकाशित

Wednesday, 23 December 2015

नेशनल हेराल्ड का मामला


 नेशनल हेराल्ड मामले पर फिलहाल जितना हंगामा संभव था हुआ और थम गया। अब दो महीने बाद निचली अदालत में जब दुबारा पेशी होगी तब नए सिरे से हंगामा होगा, ऐसी संभावना ज्ञानी लोग जतला रहे हैं। इसे शायद संयोग ही मानना होगा कि जब संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था तभी भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा दायर मुकदमे पर सोनिया गांधी व अन्य द्वारा की गई अपील को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। विद्वान न्यायाधीश ने अपील खारिज करने के निर्णय के साथ कुछ ऐसी टिप्पणियां भी दर्ज कर दीं जिनसे कांग्रेस विरोधियों को गांधी परिवार पर आक्रमण जारी रखने का सुनहरा अवसर मिल गया। उच्च न्यायालय की ये टिप्पणियां निचली अदालत को किस रूप में प्रभावित करेंगी या कर सकती हैं, यह सोचने का एक मुद्दा है। सुना है कि सोनिया गांधी अब शायद सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करेंगी। यह बात अभी सिर्फ चर्चाओं में है। अगर सर्वोच्च न्यायालय ने अपील स्वीकार नहीं की तो इन्हें वापिस 20 फरवरी 2016 को निचली अदालत के समक्ष पेश होना पड़ेगा। तब दुबारा यह संयोग होगा कि उस समय संसद का बजट सत्र शुरु हो चुका होगा। अर्थात् जाने-अनजाने हंगामे के दूसरे दौर की गुंजाइश अभी से बन गई है।

मुझसे कुछ मित्रों ने इस प्रकरण में मेरी राय जानना चाही है। यह क्योंकि कानूनी दांव-पेंच का मामला है इसलिए उस पहलू से कोई भी राय देना मुझ जैसे व्यक्ति के लिए न तो संभव है और न उचित है, जिसकी कानून के बारे में जानकारी पुख्ता न हो। लेकिन सारे मामले पर एक नज़र दौड़ाने से इतना समझ में अवश्य आता है कि इसे उठाने का प्राथमिक और अंतिम उद्देश्य राजनीतिक ही था। देश में लाखों कंपनियां चल रही हैं। उनके कारोबार में ऊंच-नीच होती होंगी। व्यापार चलाने के लिए बहुत तरह की कशमकश करना पड़ती है, बहुत से समझौते करना होते हैं, बहुत से समीकरण गढऩा होते हैं। देश में ऐसे व्यवसायिक प्रतिष्ठानों की कमी नहीं है जिनकी रातोंरात हुई तरक्की और दिन दूनी रात चौगुनी हो रही प्रगति पर आए दिन उंगलियां उठती हैं। ऐसी टिप्पणियां हर कहीं सुनी जा सकती हैं- अरे कल तक तो ये तस्करी करता था, सिक्के गलाता था या लोहा चोर, कोयला चोर, नाका चोर था, आज इतना बड़ा आदमी बन बैठा है। ऐसे कुछ नामी घरानों के बारे में अखबारों में लिखा जा चुका है, किताबें छप चुकी हैं, संसद में सवाल उठ चुके हैं; इनकी तरक्की में सहायक हुए सरकारी अफसरों में कई को जेल जाना पड़ा है, तो कईयों ने अपनी जीवन लीला स्वयं समाप्त कर ली हैं। इन सब पर डॉ. स्वामी का ख्याल कभी नहीं गया। वे बहुत बड़े विद्वान हैं। अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ा चुके हैं; उनका देशप्रेम उन्हें कभी कांग्रेस का सहायक बना देता है, तो कभी जयललिता का, तो कभी वे इन दोनों के विरोधी हो जाते हैं। वे भाजपा से बाहर जाकर फिर भाजपा में लौट आते हैं। ऐसे बहुमुखी प्रतिभा-सम्पन्न, विलक्षण व्यक्तित्व के स्वामी को नेशनल हेराल्ड का केस ही उठाने मिला। एक ऐसे अखबार का जो बरसों से ले-देकर चल रहा था और अंतत: छह साल पहले जिसने सांसें तोड़ दीं।

मैंने इस प्रकरण का जितना अध्ययन किया है उससे एक ही बात समझ में आती है। नेशनल हेराल्ड की संचालक कंपनी द एसोसिएटेड जर्नल्स प्राइवेट लिमिटेड अखबार को चला पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी। जब अखबार बंद हो गया तब पिछले वर्षों में चढ़ी देनदारियां चुकाने का प्रश्न उपस्थित हुआ। इनमें कर्मचारियों के वेतन, भत्ते व भविष्यनिधि, गे्रज्युटी आदि मिलाकर काफी बड़ा बोझ था। कंपनी के पास कोई भी जमा पूंजी नहीं थी। लखनऊ में उसके पास बेशकीमती जमीन थी, इसके अलावा भी दिल्ली, मुंबई, भोपाल जैसे अनेक स्थानों पर उसके पास भूखंड थे। इनमें से कोई भी एक संपत्ति की बिक्री कर ऋण मुक्त हुआ जा सकता था। यह व्यवहारिक और वैधानिक कारणों से संभव नहीं था। क्योंकि ये तमाम भूखंड समाचार पत्र संचालन के लिए स्थायी लीज पर दिए गए थे याने सरकार या सरकारी संस्थाएं इसकी मालिक थीं न कि कंपनी। एक रास्ता यह था कि इन भूखंडों का आंशिक तौर पर व्यवसायिक उपयोग कर राशि जुटाई जाती और उससे देनदारियां पटाते। ऐसा क्यों नहीं किया गया या इसमें क्या बाधाएं थीं, इसे कंपनी का दैनंदिन काम देखने वाले ही बता सकते थे। यहां सोनिया गांधी या राहुल गांधी की कोई भूमिका नहीं थी। कुल मिलाकर जब और कोई रास्ता नहीं दिखा तो फौरी तौर पर कांग्रेस पार्टी से राशि उधार लेकर ऋणशोधन करने की बात सोची गई होगी। यह निर्णय लेना सहज रहा होगा, क्योंकि नेशनल हेराल्ड को कांग्रेस पार्टी का ही अखबार माना जाता था। उससे अलग उसकी कोई पहचान नहीं थी और न इस बारे में कोई सोचता था।

ऐसा अनुमान होता है कि कांग्रेस पार्टी द्वारा एसोसियेटेड जर्नल्स को ऋण दे देने के पश्चात किसी के ध्यान में इसके कानूनी पक्ष को समझ लेने की बात आई होगी। तब विधिवेत्ताओं की सलाह से एक नई कंपनी का गठन किया गया जिससे नई कंपनी सभी दृष्टियों से
पुरानी कंपनी की उत्तरदायी बन गई। इस नई कंपनी के संचालक मंडल में शामिल सारे सदस्य भी कांग्रेस के ही नेता थे। याने सभी दृष्टियों से यह कांग्रेस का अपना आंतरिक मामला था। जो भी राशि ली-दी गई वह जैसे घर के सदस्यों के बीच आपसी लेन-देन था। यह संभव है कि ऐसा  करने में कानूनी प्रावधानों की ओर समुचित ध्यान न दिया गया हो। किन्तु इसमें कोई आर्थिक अनियमितता हुई हो, गबन हुआ हो, या नब्बे करोड़ रुपया किसी निजी खाते में चला गया हो, ऐसा बिल्कुल भी नहीं हुआ। जहां तक कंपनी की अचल संपत्ति याने भूखंडों का मामला है वे अपनी जगह कायम है। वे किसी को बेचे नहीं गए हैं और न उनसे कोई आर्थिक लाभ उठाया गया है। मेरी समझ में अंतत: यह पूरा मामला पार्टी द्वारा अखबार को दिए गए नब्बे करोड़ के ऋण में कानूनी प्रावधानों का लापरवाही के कारण समुचित पालन न किए जाने से अधिक कुछ नहीं है।

डॉ. स्वामी भारतीय जनता पार्टी तथा नेहरू-गांधी परिवार के विरोधी चाहे जितना हल्ला मचाते रहें, मेरी चिंता नेशनल हेराल्ड को लेकर दूसरी तरह की है। मुझे इस बात का बार-बार दुख होता है कि जवाहर लाल नेहरू द्वारा स्थापित अखबार की ऐसी दुर्दशा क्यों कर हुई और यह अपराध किसके माथे है। पंडित नेहरू ने न सिर्फ इस अखबार को प्रारंभ किया था, वे इसमें लगातार लिखते भी थे। संपादक चलपति राव ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि एक सुबह वे किसी गांव में किसानों की सभा में पंडित जी की भाषण की रिपोर्ट पढ़कर चकित रह गए क्योंकि रात को दफ्तर से उनके निकलने तक यह समाचार नहीं आया था। पूछताछ में पता चला कि देर रात गांव की यात्रा से थके-मांदे पंडित नेहरू दफ्तर आए और उन्होंने स्वयं अपने भाषण की रिपोर्टिंग की। जो अखबार ऐसे ऐतिहासिक और मार्मिक प्रसंग का साक्षी रहा हो, उसका बंद हो जाना सचमुच तकलीफदेह है।

2008 में जब नेशनल हेराल्ड बंद हुआ था तब मैंने उस पर इसी कॉलम में लिखा था। मैंने उसमें देशबन्धु से जुड़े एक प्रसंग का जिक्र किया था, जिसे यहां दोहराना शायद अनुचित न होगा। हमने नेशनल हेराल्ड से एक छपाई मशीन खरीदी थी तब मैं दस दिन लखनऊ में रहा था। संस्थान की अवनति मैं अपने सामने देख रहा था। उस समय पत्र के प्रबंध संचालक स्वर्गीय उमाशंकर दीक्षित ने बाबूजी (स्व. मायाराम सुरजन)को संचालक मंडल में शामिल कर उन्हें कार्यभार देने की इच्छा व्यक्त की थी। किन्तु इंदिराजी के विश्वस्त सचिव यशपाल कपूर की राय कुछ अलग होने से दीक्षितजी का प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया गया। जाहिर है कि इंदिराजी ही नहीं, राजीव गांधी और सोनिया गांधी को भी नेशनल हेराल्ड चलाने के बारे में कोई नि:स्वार्थ परामर्श नहीं मिला। शायद उनकी अपनी रुचि भी इस दिशा में न रही हो। अन्यथा ऐसे शानदार अखबार को जो हमारी स्वाधीनता संग्राम की विरासत का हिस्सा है ऐसी दुश्वारियों का शिकार न होना पड़ता।
देशबन्धु में 24 दिसंबर 2015 को प्रकाशित

Wednesday, 16 December 2015

नक्सलवाद : पत्रकार बनाम पुलिस

 



इन
दिनों जबकि छत्तीसगढ़ विधानसभा का शीतकालीन सत्र चल रहा है, तब प्रदेश के पत्रकारों का एक वर्ग बस्तर में जेल भरो आंदोलन की तैयारियों में जुटा हुआ है। उल्लेखनीय है कि बस्तर के दो पत्रकार सुमारू नाग गत 16 जुलाई से और संतोष यादव 29 सितंबर से नक्सली होने के आरोप में जेल में बंद हैं। बस्तर पुलिस ने उन पर संगीन अपराधों की धाराएं लगाई हैं। इनकी रिहाई के लिए आंदोलनरत पत्रकार सुरक्षा कानून संयुक्त संघर्ष समिति का कहना है कि पत्रकारों को झूठे एवं निराधार आरोप लगाकर कैद किया गया है। वे इनकी रिहाई की मांग के साथ पत्रकारों पर झूठे केस दर्ज करने वाले अधिकारियों के खिलाफ भी कार्रवाई करने की मांग कर रहे हैं। इस समूचे प्रकरण पर प्रदेश के समाचार पत्र और टीवी चैनल लगभग खामोश एवं तटस्थ हैं। किन्तु सोशल मीडिया पर लगातार इस आंदोलन को सफल बनाने का आह्वान किया जा रहा है। आंदोलनकारियों का रोष मुख्य तौर से बस्तर के पुलिस अधिकारियों विशेषकर पुलिस महानिरीक्षक एस.आर.पी. कल्लूरी पर है और वे उम्मीद बांधे बैठे हैं कि मुख्यमंत्री इस स्थिति का संज्ञान लेकर समाधान करेंगे।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की छवि प्रदेश के जनता के बीच एक लोकहितैषी तथा सदाशयी राजनेता की है और इसीलिए बस्तर के पत्रकार आशा कर रहे हैं कि उन्हें न्याय मिलेगा। दूसरा पहलू यह है कि आंदोलनकारियों को सरकार की कार्यप्रणाली पर विश्वास नहीं है। इस प्रकरण में सत्य का अंश कितना है यह हम फिलहाल नहीं जानते, लेकिन दो युवा पत्रकार, वे भले ही अंशकालिक क्यों न हों, यदि कई महीनों से जेल में हैं तो यह बात हमारे मन में भी उठती है कि इस मामले की त्वरित एवं निष्पक्ष विवेचना हो तथा नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई के नाम पर पत्रकारों को अन्याय व प्रताडऩा का शिकार न होना पड़े। आज जब हम मुख्यमंत्री से अपील कर रहे हैं कि वे स्वयं रुचि लेकर इस केस को देखें तब दूसरी ओर हमें इस तथ्य पर आश्चर्य भी है कि छत्तीसगढ़ में पत्रकारों के किसी संगठन ने इस विषय पर अभी तक कोई पहल क्यों नहीं की। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस की खामोशी भी अचरज उपजाती है।

डॉ. रमन सिंह ने अपने सफल कार्यकाल के बारह साल पिछले सप्ताह ही पूरे किए हैं। 12 दिसम्बर को जशपुर जिले के आदिवासी ग्राम पंडरापाट में उन्होंने अपने सम्मान में आयोजित सभा में यह विश्वास व्यक्त किया कि प्रदेश से नक्सलवाद समाप्ति की ओर है और यह बहुत जल्द खत्म हो जाएगा। इस बिन्दु पर हमारी शुभकामनाएं डॉक्टर साहब के साथ हैं। लेकिन हम उनके ध्यान में लाना चाहते हैं कि नक्सलवाद का खात्मा सिर्फ सशस्त्र बलों के भरोसे नहीं किया जा सकता। आज से दस साल पहले राज्य सरकार के प्रच्छन्न सहयोग से जिस सलवा जुड़ूम की शुरुआत की गई थी, उसमें भी यह भाव निहित था कि नक्सली हिंसा से प्रभावित गांवों के लोग खुद उनका विरोध करने के लिए खड़े होंगे। हमने देखा कि ऐसा नहीं हुआ और बहुत जल्दी लड़ाई सशस्त्र बल बनाम नक्सल बल में तब्दील हो गई, जिसमें बस्तर के आदिवासी दो पाटों के बीच पिसने के लिए छोड़ दिए गए। आज भी कम या अधिक कुछ वैसी ही स्थिति दिखाई देती है।

छत्तीसगढ़ पुलिस के तीन आला अफसरों के नाम हमें ध्यान आते हैं जिन्होंने नक्सल समस्या पर सैद्धांतिक पहलू से विवेचना करने की कोशिश की। इनमें पूर्व महानिदेशक विश्वरंजन, एक वर्तमान महानिदेशक गिरधारी नायक और एक अतिरिक्त महानिदेशक आर.के. विज शामिल हैं। दूसरी ओर इसी सेवा में ऐसे अधिकारी भी रहे हैं जो बहस में पड़े बिना आर-पार की लड़ाई में विश्वास रखते हैं। इनमें एस.आर.पी. कल्लूरी का नाम प्रमुख है। श्री कल्लूरी जब सरगुजा  में पदस्थ थे तब उन्होंने नक्सली हिंसा पर काबू पाने में महत्वपूर्ण सफलता अर्जित की थी जिसके लिए उनकी काफी सराहना भी हुई थी। ऐसा अनुमान लगता है कि श्री कल्लूरी बस्तर में भी इसी फार्मूले पर काम कर रहे हैं। ऐसी खबरें सुनने में आई हैं कि उन्हें अपने मिशन में काफी सफलता भी मिली है। संभव है कि इसी वजह से उन्हें खुलकर अपने तरीके से समस्या सुलझाने की स्वतंत्रता दी गई हो और शायद यही कारण हो कि प्रदेश पुलिस में नक्सल-विरोधी अभियान के प्रमुख अतिरिक्त महानिदेशक आर.के. विज ने यह प्रभार छोडऩे की इच्छा जताई है।

यह संभव है कि श्री कल्लूरी ने जो कार्यप्रणाली अपनाई है उसमें वे पूरी तरह से सफलता हासिल कर लें, लेकिन हमारे मन में प्रश्न उठता है कि क्या इससे नक्सल समस्या का सिरे से खात्मा हो पाएगा? एक दूसरा प्रश्न यह भी उठता है कि इसकी क्या कीमत समाज एवं व्यक्तियों को चुकाना पड़ेगी? हमारे सामने एक उदाहरण श्रीलंका का है। जब महेन्द्र राजपक्ष राष्ट्रपति थे तब उनके निर्देश पर सेना ने जाफना प्रायद्वीप में अंधाधुंध बल प्रयोग किया और ऐसा माना गया कि तमिल आतंकवाद की समाप्ति होकर श्रीलंका में स्थायी शांति का मार्ग प्रशस्त हो गया है। किन्तु आगे चल कर इस कार्रवाई के तीन नए परिणाम सामने आए। एक- सेना प्रमुख जनरल फोन्सेका जिनके नेतृत्व में जाफना में कार्रवाई हुई कालांतर में स्वयं उन्हें जेल जाना पड़ा। दो- जाफना में मानवाधिकारों का जो हनन हुआ उसकी गूंज पूरी दुनिया में उठी व राष्ट्रपति को तीखी आलोचना का सामना करना पड़ा। तीन- श्रीलंका की तमिल आबादी आज भी किसी सीमा तक दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में जीने को अभिशप्त है।

अपने ही देश में पंजाब से अभी हाल में जो खबर आई है वह कम पीड़ादायक नहीं है। के.पी.एस. गिल की अगुवाई में पंजाब पुलिस ने प्रदेश को खालिस्तानी आतंकवाद से मुक्त करने में सफलता पाई और वहां अमन-चैन कायम हुआ। आज हमें यह जानने मिल रहा है कि आतंकवादियों से मुठभेड़ के नाम पर कितने ही निर्दोष नागरिकों को मार डाला गया। जिन पुलिस वालों ने बड़े अफसरों के आदेश पर बिना आगा-पीछा सोचे गोलियां चलाईं, आज वे कटघरे में हैं और पछता रहे हैं कि उन्होंने बड़े अफसरों की आज्ञा मानकर अपना जीवन तबाह कर लिया। ऐसी ही स्थिति हमने पश्चिम बंगाल में सिद्धार्थ शंकर राय के मुख्यमंत्री रहते हुए देखी, जब नक्सली होने के आरोप में कितने ही नौजवान पुलिस दमन का शिकार बना दिए गए थे।

इसमें संदेह नहीं कि छत्तीसगढ़ प्रदेश के लिए नक्सलवाद एक बड़ी समस्या है। हम नक्सलियों द्वारा अपनाए गए रास्ते का शुरु से विरोध करते आए हैं, क्योंकि हिंसा से हिंसा ही उपजती है। कनु सान्याल जैसे प्रमुख नक्सली नेता ने इस सच्चाई को जान लिया था और वे गांधी के रास्ते पर चलने की बात करने लगे थेे, इसका उल्लेख हमने पूर्व में किया है। आज बस्तर में जो वातावरण बना है वह हमें विचलित करता है। एक समय रायपुर से बस्तर जाते हुए रास्ते में साल और आम के पेड़ों की छाया मिलती थी। आज उसी रास्ते पर जगह-जगह सुरक्षा बलों की नाकेबंदी और मृत सिपाहियों के स्मारक दिखाई देते हैं। बस्तर में कहीं भी जाते हुए मन हमेशा दहशत से भरा रहता है। यह आरोप सही है कि एक के बाद एक सरकारों ने अपना दायित्व सही ढंग से नहीं निभाया, लेकिन अंतत: इसकी सजा आम आदमी को मिल रही है। नक्सलियों ने पुलिस के साथ चाहे कितनी मुठभेड़ें की हों, बाकी सरकारी अमले के साथ तो उनके समझौते हो जाते हैं। वैसे तो यहां तक सुनने मिलता है कि  नक्सली सत्तारूढ़ दल को चुनाव के समय मदद करते हैं। जो भी हो, अहम् प्रश्न यह है कि सुरक्षा बल और नक्सली इन दोनों के बीच में आम जनता को तरह-तरह की परीक्षाओं से गुजरना पड़ रहा है। जो दो पत्रकार इस वक्त जेल में हैं वे भी तो कहीं इस क्रूर विडंबना का शिकार तो नहीं हो गए हैं, इस बात को परखना आवश्यक है। पाठकों को स्मरण होगा कि बस्तर में ही एक पत्रकार साईं रेड्डी पहिले नक्सली होने के आरोप में पुलिस दमन के शिकार हुए और बाद में नक्सलियों ने ही उनके प्राण ले लिए।

नए छत्तीसगढ़ राज्य को नक्सल समस्या पुराने मध्यप्रदेश से सौगात में मिली थी। डॉ. रमन सिंह ने इस समस्या को जड़मूल से समाप्त करने का संकल्प बार-बार दोहराया है। उनके नेतृत्व में यदि प्रदेश को हिंसामुक्त कर स्थायी शांति का वातावरण बनना है तो इसके लिए पुलिस के पारंपरिक तौर-तरीकों से हटकर अन्य उपायों पर भी विचार करना होगा।
देशबन्धु में 17 दिसंबर 2015 को प्रकाशित

Sunday, 13 December 2015

इस्लाम बनाम आतंकवाद



 इस्लामिक स्टेट या आईएस ने गत 13 नवंबर को पेरिस पर आतंकी हमला कर एक बार फिर अपनेे नृशंस, विचारहीन और अमानवीय चरित्र का परिचय दिया है। आईएस के इस दुष्कृत्य की जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है। पेरिस के पूर्व आईएस ने इजिप्ट के आकाश पर सोवियत विमान मार गिराने की जिम्मेदारी ली थी। पश्चिम एशिया में वह इस तरह के अनेक क्रूर कृत्यों को पहले भी अंजाम दे चुका है। लेबनान पर आतंकी हमला, पत्रकारों की हत्या, सीरिया में विरासत स्थलों को नेस्तनाबूद करने जैसे अनेक अपराध उसके खाते में दर्ज हैं। इस्लाम के नाम पर दुनिया के बड़े हिस्से में हिंसा और दहशत का माहौल बनाने वाला इस्लामिक स्टेट पहला संगठन नहीं है। पिछले तीन दशक में मुजाहिदीन, तालिबान, लश्कर-ए-तैयबा, अलकायदा, बोको हराम इत्यादि संगठनों की करतूतें विश्व समाज ने देखी और भोगी हैं। यहां ध्यान रखना चाहिए कि इन क्रूर कठमुल्लों के निशाने पर गैर-मुस्लिम ही नहीं, मुस्लिम बहुल देश भी रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे अमानुषिक कृत्यों का पुरजोर विरोध होना चाहिए तथा इन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए हर संभव उपाय किए जाना चाहिए। यह काम कैसे हो? इक्कीसवीं सदी के विश्व को जो किसी अतीत की गुफा में ले जाना चाहते हों उनकी मानसिकता क्या है? वे प्रेरणा कहां से पाते हैं? अपने हिंसक इरादों को अमल में लाने के लिए उन्हें हथियार और रसद कहां से मिलते हैं? उनके शरणस्थल कहां हैं? उनका प्रशिक्षण कहां होता है? वे कौन सी ताकतें हैं जो उन्हें उकसा रही हैं? इन सब बातों को जाने बिना आईएस और उस जैसे अन्य संगठनों से कैसे लड़ा जाए?
कनाडा में बसे तारीक फतह जैसे इस्लामी अध्येता कहते हैं कि इस्लाम के प्रादुर्भाव के साथ ही कट्टरपंथ और जिहादी मानसिकता की शुरुआत हो गई थी। वर्तमान में नीदरलैंड निवासी, सोमालिया से निर्वासित लेखिका अयान हिरसी अली जैसी अध्येता कहती हैं कि यह मक्का इस्लाम और मदीना इस्लाम के बीच के द्वंद्व से उपजा माहौल है। प्रसिद्ध पत्रकार बर्नाड लेविन इस्लाम को एक जिहादी धर्म के रूप में ही देखते हैं। तस्लीमा नसरीन जिन्हें लज्जा उपन्यास लिखने के कारण निर्वासन भोगना पड़ा, वे भी समय-समय पर ऐसे ही विचार प्रकट करती हैं। इन सबने इस्लाम धर्म का गहन अध्ययन किया है और निजी अनुभवों के साक्ष्य भी इनके पास हैं। अत: मानना होगा कि ये जो कह रहे हैं उसमें सत्य का अंश है तथा इनके विचारों को हल्के में खारिज नहीं किया जा सकता। फिर भी इनसे तस्वीर का एक पहलू ही हमारे सामने आता है। क्या इसका कोई दूसरा पक्ष भी है? अगर किसी विषय पर कुछ ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं भी तो क्या उन्हें वर्तमान समय पर ज्यों का त्यों आरोपित किया जा सकता है? क्या वर्तमान में ऐसे कोई कारक तत्व नहीं हो सकते जिन्होंने आज के दृश्य को प्रभावित किया है? ऐसे तत्व क्या हैं और क्या उनका ईमानदारी से विश्लेषण करने की कोई कोशिश की गई है?
एक तो इस तथ्य पर गौर करना चाहिए कि दुनिया में धर्म के नाम पर राष्ट्रों का निर्माण कब कैसे हुआ। इतिहास में बहुत पीछे न जाकर बीसवीं सदी की ही बात करें तो ऐसा क्यों हुआ कि लगभग एक ही समय में धर्म पर आधारित दो देशों का उदय हुआ। मैं इस बात को कुछ समय पूर्व लिख चुका हूं कि इस्लाम पर आधारित पाकिस्तान और यहूदी धर्म पर आधारित इजरायल दोनों की स्थापना द्धितीय विश्व युद्ध के तुरंत बाद हुई। इनके निर्माण की पृष्ठभूमि क्या थी? पाकिस्तान के बारे में भारतवासी बहुत कुछ जानते हैं। वे ये भी जान लें कि इजरायल की स्थापना में भी उन्हीं साम्राज्यवादी पश्चिमी ताकतों का हाथ था। हिन्दी में इस विषय पर बहुत कम लिखा गया है, लेकिन जिज्ञासु पाठक महेन्द्र कुमार मिश्र की पुस्तक फिलिस्तीन और अरब इसराइल संघर्ष पढ़ सकते हैं। अंग्रेजी समझने वाले पाठक गीता हरिहरन द्वारा संपादित पुस्तक फ्रॉम इंडिया टू पैलेस्टाइन : एसे इन सॉलीडरीटी (भारत से फिलिस्तीन: एकजुटता में निबंध) पढ सकते हैं। इस्लाम की एक गंभीर अध्येता करेन आर्मस्ट्रांग ने इस विषय पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं। उनका मानना है कि धर्म के नाम पर जितना खून- खराबा हुआ है उससे कई गुना अधिक हिंसा दूसरे कारणों से हुई है जिनमें एक कारण जनतंत्र की रक्षा करना भी गिनाया गया है।

आज इस्लाम के नाम पर हो रही हिंसा के एक के बाद एक प्रकरण सामने आ रहे हैं, लेकिन क्या वाकई इस्लाम में कट्टरता के तत्व स्थापना काल से मौजूद रहे हैं? हम इतिहास में जिन दुर्दम्य आक्रांताओं के बारे में पढ़ते हैं मसलन चंगेज खां, वह और उस जैसे अनेक इस्लाम के अनुयायी नहीं थे। विश्व विजय का सपना लेकर निकला सिकंदर न यहूदी था, न मुसलमान, न ईसाई। हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको, सालाजार इत्यादि भी इस्लाम को मानने वाले नहीं थे। तुर्की के राष्ट्रपिता कमाल अतातुर्क ने तो बीसवीं सदी के प्रारंभिक समय में खिलाफत (खलीफा का ओहदा और साम्राज्य)को चुनौती देकर एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना की थी।  इजिप्त के नासिर और इंडोनेशिया के सुकार्णों ने भी धर्मनिरपेक्षता की नींव पर अपने नवस्वतंत्र देशों को खड़ा करने का उपक्रम किया था।

यह पूछना चाहिए कि सुकार्णो को अपदस्थ कर सुहार्तो को लाने में किसका हाथ था और नासिर बेहतर थे या उनके बाद बने राष्ट्रपति अनवर सादात। पश्चिम एशिया के अनेक देशों में से ऐसे अनेक सत्ताधीश हुए जो अपने को बाथिस्ट कहते थे और जो धार्मिक कट्टरता से बिल्कुल दूर थे। इराक में बाथिस्ट पार्टी को हटाकर सद्दाम हुसैन भले ही सत्ता में आए हों, लेकिन उनके विदेश मंत्री ईसाई थे और उनके इराक में धार्मिक असहिष्णुता नहीं है। यही बात सीरिया के बारे में कही जा सकती है। लेबनान में तो संवैधानिक व्यवस्था के तहत ईसाई और इस्लामी दोनों बारी-बारी से राज करते रहे हैं। हम अपने पड़ोस में बंगलादेश का उदाहरण ले सकते हैं। अमेरिकन राष्ट्रपति निक्सन ने बंगलादेश में जनतांत्रिक शक्तियों के उभार पर कोई ध्यान नहीं दिया तथा वे तानाशाह याह्या खान का समर्थन करते रहे।  बंगलादेश बन जाने के बाद मुजीबुर्ररहमान ने धर्मनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया और आज उनकी बेटी शेख हसीना भी उसी रास्ते पर चल रही हैं।

आज इस्लामिक स्टेट के नाम पर जो दहशत का भयानक मंजर छाया हुआ है उसका प्रणेता कौन है? ऐसी खबरें लंबे समय से आ रही हैं कि आईएस को नवपूंजीवादी, नवसाम्राज्यवादी ताकतों ने ही खड़ा किया ताकि सीरिया और ईरान आदि में सत्ता पलट किया जा सके। इसके पहले अफगानिस्तान और इराक में तो अमेरिका और उसके पिठ्ठू कब्जा कर ही चुके हैं। इजिप्त और ट्युनिशिया में अरब-बसंत के नाम पर जो आंदोलन खड़े हुए थे उनका भी मकसद यही था। एक समय महाप्रतापी इंग्लैंड ने अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड तक अपने उपनिवेश कायम किए। आज अमेरिका उसी मिशन को आगे बढ़ा रहा है। इसीलिए जब रूस, सीरिया व ईरान का साथ देता है तो यह अमेरिका व उसके साथियों को नागवार गुजरता है। इस प्रकट विडंबना की ओर भी ध्यान जाना चाहिए कि अमेरिका ने आज तक सऊदी अरब के खिलाफ कभी कोई कदम नहीं उठाया। उल्टे सऊदी राजपरिवार के विश्वस्त ओसामा बिन लादेन की सेवाएं अपने कुटिल खेल में लीं। जब उसकी ज़रूरत खत्म हो गई तो उसे दरकिनार कर दिया गया। इस्लामी जगत में सर्वाधिक कट्टरता अगर कहीं है तो वह सऊदी अरब में है। औरतों की स्वाधीनता पर सर्वाधिक प्रतिबंध भी तो वहीं है। जिहाद के लिए मुख्यत: पैसा वहीं से भेजा जाता है और वहां के शासकों की अय्याशी के किस्से मशहूर हैं।

आशय यह कि इन तमाम बातों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। तात्कालिक प्रतिक्रियाओं से हल नहीं निकलेगा। इस परिप्रेक्ष्य में यह स्मरण करना उचित होगा कि प्रो. सैमुअल हंटिंगटन ने लगभग 30 वर्ष पूर्व सभ्यताओं के संघर्ष की अवधारणा पेश की थी। उन्होंने विश्व को धर्म के आधार पर बांटकर देखा था, जिसमें इस्लाम में भी सुन्नी और शिया दोनों परस्पर विरोधी प्रदर्शित किए गए थे। इसका जिक्र करना इसलिए आवश्यक है कि अमेरिका में कार्यरत कई थिंक टैंक या विचार समूह ऐसी अवधारणाएं समय-समय पर गढ़ते रहते हैं, जिनसे अमेरिकी वर्चस्ववाद को पैर जमाने में मदद मिले। वहां की सरकार इन पर अमल करती है। याद कीजिए कि रॉबर्ट हार्डग्रेव ने इंदिरा गांधी की हत्या की  कल्पना प्रस्तुत की थी जो अंतत: सच सिद्ध हुई। हमें इनकी जानकारी रखने के साथ-साथ इन बातों से सतर्क रहने की आवश्यकता है। आज इसलिए कहना होगा कि जब तक आईएस की पीठ पर हाथ रखने वालों का विरोध नहीं होगा तब तक इस गंभीर चुनौती का सामना भी सही ढंग से नहीं हो पाएगा। इस्लाम के बारे में एकपक्षीय, पूर्व-विचारित सोच रखने वाले इस तथ्य पर भी ध्यान दें कि बंगलादेश में मार डाले गए ब्लॉगर पत्रकारों सहित अनेक ऐसे इस्लामी बुद्धिजीवी हैं जो कट्टरपंथ व जड़वाद का विरोध तमाम खतरे उठाकर कर रहे हैं और यह आज की बात नहीं है। भारत में ही हमीद दलवई व असगर अली इंजीनियर के काम को हम जानते हैं। शेष विश्व को ऐसे परिवर्तनकारी, साहसी विचारकों के समर्थन में खड़ा होकर उन्हें नैतिक संबल प्रदान करना चाहिए तब कट्टरपंथी ताकतों से मुकाबला करना आसान होगा। 

(देशबन्धु में 15 नवंबर को प्रकाशित विशेष संपादकीय का परिवर्द्धित रूप)
अक्षर पर्व दिसंबर 2015 अंक की प्रस्तावना

Wednesday, 9 December 2015

भगवान ने सवाल पूछा!


 एक रोचक खबर ट्विटर पर पढऩे मिली कि सचिन तेंदुलकर ने राज्यसभा में तीन साल बीतने के बाद पहली बार कोई प्रश्न पूछा। इस पर मैंने टीका की- ''हे भगवान, जब स्वयं भगवान सवाल पूछने लगे तो हम सामान्य मनुष्यों के सवालों का उत्तर कौन देगा।" यह तो हुई मजाक की बात। किन्तु इस बहाने अपने समय की एक चिंताजनक सच्चाई पर विचार करने का मौका हाथ लग गया है। हमने न जाने कब क्यूं अमिताभ बच्चन व सचिन तेंदुलकर इत्यादि को महानायक और शताब्दी पुरुष जैसे विशेषणों से नवाज दिया। जहां कुछेक आध्यात्मिक गुरु यथा ओशो रजनीश, श्रीराम शर्मा, सत्य साईं बाबा आदि स्वयं को भगवान कहलाने लगे थे मानो उन्हीं का बराबरी करते हुए ग्लैमर की दुनिया के इन सितारों को भी हमने भगवान बना डाला। मुझे संदेह होता है कि योग गुरु बाबा रामदेव भी इनके पीछे-पीछे ही चल रहे हैं। उन्होंने स्वयं को नोबेल पुरस्कार का अधिकारी तो घोषित कर ही दिया है। वे भी किसी दिन भारत रत्न से अलंकृत हो जाएं तो मुझे आश्चर्य नहीं होगा।

यदि सचिन तेंदुलकर द्वारा अपने कार्यकाल का आधा समय बीत जाने के बाद राज्यसभा में एक सवाल उठाना समाचार बन सकता है, तो हमें इस पर गौर करने की आवश्यकता है कि आखिरकार क्या सोचकर क्रिकेट के इस महान खिलाड़ी को राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा में मनोनीत किया गया। उन्हीं राष्ट्रपति द्वारा सचिन को भारत रत्न देने का भी क्या औचित्य था। जैसा कि हम जानते हैं राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से किए गए ये निर्णय वस्तुत: तत्कालीन सरकार के होते हैं, इसलिए पिछली सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और उनकी पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी दोनों को आज शायद आत्मचिंतन करना चाहिए कि सचिन तेंदुलकर को इतना महत्व देकर देश, सरकार और पार्टी का क्या भला हुआ। यह सवाल फिल्म अभिनेत्री रेखा के बारे में भी है, जिन्हें राज्यसभा में लाया गया। कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से हम उत्तर की अपेक्षा नहीं रखते, लेकिन शायद भूतपूर्व पत्रकार और वर्तमान राजनेता राजीव शुक्ला हमारी जिज्ञासा शांत कर सकते हैं, क्योंकि संभवत: इन निर्णयों के पीछे उनकी अहम् भूमिका थी।

राष्ट्रपति द्वारा सरकार की सिफारिश पर राज्यसभा में बारह सदस्य मनोनीत किए जाते हैं। इसका प्रमुख आधार उस व्यक्ति का देश के सार्वजनिक जीवन के किसी क्षेत्र में विशिष्ट  योगदान होता है। लेकिन इसके साथ-साथ यह ध्यान भी रखा जाना चाहिए कि वह व्यक्ति उच्च सदन याने राज्यसभा के कामकाज में कितनी गंभीरता व क्षमता के साथ अपनी सेवाएं दे सकता है। वैसे तो यह शर्त किसी भी सदन की सदस्यता के लिए रखी जाना चाहिए। जो व्यक्ति सदन की कार्रवाई के लिए समय देने तैयार न हो, बहस में हिस्सा न ले, सवाल न पूछे, जिसका ध्यान हर समय पैसे कमाने पर या अन्य दिशाओं में लगा रहे उसका मनोनयन करने से किसका भला होना है। इस अवांछनीय स्थिति को लोकसभा में भी देखा गया है, लेकिन वहां व्यक्ति कम से कम जनता द्वारा चुना जाकर आता है, जबकि राज्यसभा में ऐसा होने पर तो मनोनयन करने वाले के विवेक और निर्णयक्षमता पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है।

राज्यसभा में 1952 में राष्ट्रपति द्वारा कला, साहित्य, विज्ञान एवं समाजसेवा के लिए जो व्यक्ति मनोनीत किए गए उनके नाम देखें तो मन उल्लास से भर उठता है। इसमें सत्येन्द्रनाथ बोस, पृथ्वीराज कपूर, रुक्मणी देवी अरुन्देल, डॉ. जाकिर हुसैन, मैथिलीशरण गुप्त, काका कालेलकर और राधा कुमुद मुखर्जी जैसे व्यक्ति शामिल थे। बाद के वर्षों में महामहोपाध्याय पी.वी. काणे, मामा वरेरकर, इतिहासविद् डॉ. ताराचंद  और ताराशंकर बंद्योपाध्याय जैसे मनीषियों ने राज्यसभा का गौरव बढ़ाया। यह संभव है कि ये सब एक समान रूप से सदन में सक्रिय न रहे हों, लेकिन इनकी उपस्थिति मात्र से सदन में जो गरिमामय वातारवरण का निर्माण होता होगा उसकी कल्पना करना कठिन नहीं है। ऐसा तो नहीं है कि देश में विद्वानों की और मनीषियों की कमी हो गई हो, लेकिन दु:ख की बात यही है कि उनकी ओर अब सत्ताधीशों का ध्यान नहीं जाता। पुरानी कहावत है-गुण न हिरानो गुण गाहक हिरानो है।

यहां हम मणिशंकर अय्यर का भी उल्लेख करना चाहेंगे। वे मनोनयन के लिए उपयुक्त पात्र थे, किन्तु क्या राष्ट्रपति द्वारा नामांकित व्यक्ति को दलगत राजनीति में भाग लेना चाहिए और ऐसा करने से क्या राष्ट्रपति और सदन दोनों की गरिमा पर आघात नहीं होगा। हमें ध्यान आता है कि जब फिल्म अभिनेत्री नरगिस को नामजद किया गया था तब सांसद के रूप में उसकी निष्क्रियता को लेकर सवाल उठाए गए थे। यह आलोचना सही थी, लेकिन एक सीमा तक। क्योंकि नरगिस ने एक समाज-सजग नागरिक और अभिनेता के रूप में बड़ा काम किया था। सुनील दत्त और नरगिस ने युद्ध के समय मोर्चे पर जाकर सैनिकों का मनोबल बढ़ाया था और वे अन्य उपायों से भी निस्वार्थ समाजसेवा में संलग्न थे। ऐसे सदस्य के ज्ञान और अनुभव का लाभ सदन की कार्रवाई से परे भी उठाया जाना संभव था। यह बात रेखा के बारे में नहीं कही जा सकती। कभी-कभी शक होता है कि क्या उन्हें लाने का मकसद सदन में मौजूद एक अन्य सदस्य को चिढ़ाना था। हमें लता मंगेशकर से बहुत उम्मीद थी कि वे कला जगत की प्रतिनिधि के रूप में राज्यसभा में सक्रियता दिखाएंगी, लेकिन उन्होंने निराश किया।

दरअसल राज्यसभा की महत्ता को हाल के बरसों में जिस तरह से क्षीण किया गया है वह एक और चिंता उपजाती है। यह हमें पता है कि हमारा उच्च सदन ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स की तर्ज पर नहीं बल्कि अमेरिकी सीनेट की तर्ज पर बनाया गया है। यह कल्पना की गई थी कि इसके सदस्य ज्ञान, अनुभव और विवेक के धनी होंगे जो लोकसभा के निर्णयों की सम्यक समीक्षा करने में सक्षम होंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि संसद में जब कोई भी निर्णय हो तो वह विचार, तर्क और व्यवहारिकता की कसौटी पर खरा उतरे और उसमें किसी तरह का असंंतुलन न हो। किन्तु इस बुनियादी सिद्धांत को खंडित करने में किसी भी दल, कोई कसर बाकी नहीं रखी। यहां तक कि सामान्यत: विचार-प्रवण कम्युनिस्ट भी इस बिन्दु पर चूक गए।

इस सिलसिले में पहली गलती तो तब हुई एक राज्य के निवासी को किसी अन्य राज्य से मनोनीत करने की परंपरा डाली गई। इसके लिए खासा प्रपंच रचा गया। अन्य राज्य की मतदाता सूची में उस व्यक्ति का नाम जुड़वाना, उसे फर्जी तरीके से वहां का नागरिक बताना और उस राज्य की पार्टी कार्यकर्ताओं की अवहेलना कर विधायकों पर दबाव डालकर अपने पसंदीदा व्यक्ति को राज्यसभा के लिए चुनवाना, इस तरह एक लंबी प्रक्रिया अपनाई गई। जब इस पर सवाल उठने लगे तब संविधान संशोधन कर इस प्रवंचना को वैधानिक मान्यता दे दी गई।  इसका फायदा राजनेताओं को तो मिला, लेकिन बड़ा दुरुपयोग किया थैलीशाहों ने। पार्टी को करोड़ों का चंदा दो और जहां गुंजाइश दिखे उस राज्य से सदस्य बन जाओ। हमारा राजनेताओं से सवाल है कि अगर आप में चुनाव लडऩे की कूवत नहीं है और अपने ही गृह राज्य में आप चुनाव नहीं जीत सकते तो राजनीति कर क्यों रहे हैं और क्या राज्यसभा में गए बिना आपका जीवन अकारथ हो जाएगा। यह दृश्य सचमुच दु:खद है कि दिल्ली के अरुण जेटली गुजरात से राज्यसभा में जाते हैं और तमिलनाडु में डी. राजा को एक बार डीएमके और दूसरी बार एआईडीएमके की शरण में जाना पड़ता है।

बहरहाल इस विपर्यय की चरम सीमा कुछ दिन पहले देखने मिली जब अरुण जेटली ने रोष व्यक्त किया कि मनोनीत सदस्य निर्वाचित सदन के निर्णयों को लागू करने में बाधा बन रहे हैं और इस तरह देश की जनता का अपमान कर रहे हैं। उनकी देखादेखी और भी बहुत से विद्वान संविधान में संशोधन करने तथा राज्यसभा की शक्तियों को सीमित करने की मांग करने लग गए हैं। इनमें से किसी ने भी इस तथ्य पर गौर करना आवश्यक नहीं समझा कि स्वयं अरुण जेटली लोकसभा नहीं वरन राज्यसभा के मनोनीत सदस्य हैं, वह भी दिल्ली से नहीं बल्कि गुजरात से। ऐसे व्यक्ति की राय को क्या देश की आम जनता की राय माना जा सकता है। इन तमाम स्थितियों पर विचार करते हुए हमारा मत है कि राज्यसभा की गरिमा को पुर्नस्थापित करने के लिए आवाज उठाना चाहिए। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य सचमुच इस योग्य हों, राज्य के निवासी ही राज्यसभा में भेजे जाएं तथा उच्च सदन में वह नैैतिक व बौद्धिक शक्ति हो कि वह निम्न सदन की संभावित निरंकुशता को रोक सके।

देशबन्धु में 10 दिसंबर 2015 को प्रकाशित 

Sunday, 6 December 2015

केजरीवाल सरकार का सही फैसला


 
केजरीवाल सरकार ने दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के मद्देनज़र दो दिन पूर्व जो निर्णय लिया है, उसका हम स्वागत करते हैं। इसके अनुसार सम और विषम नंबर वाले वाहन हर दूसरे दिन ही सड़क पर आ सकेंगे; इस तरह दिल्ली की सड़कों पर प्रतिदिन दौडऩे वाले लाखों वाहनों की संख्या आधी हो जाएगी। यह खबर आई नहीं कि आनन-फानन में इसकी आलोचना प्रारंभ हो गई। कांग्रेस व भाजपा दोनों दिल्ली सरकार के पीछे पड़ गए कि यह तुगलकशाही है इत्यादि।  सोशल मीडिया पर भी अरविन्द केजरीवाल को उपहास का पात्र बना दिया गया। इसे हम उचित नहीं मानते। इस प्रस्ताव में यदि खामियां हैं तो उन्हें दूर करने के उपाय भी अवश्य होंगे। बेहतर होता कि आलोचना करने वाले इसे राजनीति के चश्मे के बजाय दिल्ली में विद्यमान एक भयंकर समस्या से निबटने की भावना से देखते। पिछले कुछ दिनों से देश की राजधानी में भीषण वायु प्रदूषण होने की चर्चा खूब हो रही है। इसके साथ यह भी याद कर लें कि हर साल जाड़ों के मौसम में कोहरे और धुएं के कारण कितनी ट्रेनें रद्द होती हैं और कितने जहाज उड़ नहीं पाते। आशय यह है कि इस विषय पर सम्यक रूप से तत्काल विचार किया जाना आवश्यक है।
एक ओर सरकार जनता को निजी वाहन खरीदने के लिए प्रोत्साहित करती है, दूसरी ओर प्रदूषण की समस्या बढऩे पर कागजी और जबानी कार्रवाईयों में जुट जाती है। जब दिल्ली में यातायात बाधित होता है तो उससे पूरे देश को कितना नुकसान उठाना पड़ता है, क्या इसका कोई हिसाब लगाया गया है? इस दिशा में सबसे पहिले पर्यावरणविद स्व. अनिल अग्रवाल ने मुहिम चलाई थी, जिसे उनकी अनन्य सहयोगी सुनीता नारायण ने आगे बढ़ाया व दिल्ली में डीज़ल के बजाय सीएनजी से वाहन चलना प्रारंभ हुआ। बाद में सार्वजनिक बसों के लिए बीआरटी की योजना पर अमल शुरु किया गया। यह जनहितैषी योजना दिल्ली के अभिजात वर्ग व उसके मीडिया को नागवार गुजरी तथा उसे सही रूप में आगे बढऩे से रोक दिया गया। अब केजरीवाल सरकार ने एक ठोस कदम उठाया है तो उसका विरोध भी इसीलिए हो रहा है कि इससे अभिजात समाज को तकलीफ होगी। जब कार स्टेटस सिंबल बन जाए, तब मैट्रो या बस में सवारी करना भला किसे पसंद आएगा। हम मान लेते हैं कि इस निर्णय में व्यवहारिक अड़चनें हैं। ऐसा है तो उन्हें दूर कैसे किया जाए या विकल्प क्या हो, यह भी तो कोई बताए।
सम-विषम का यह फार्मूला विश्व में अनेक स्थानों पर लागू है। इसके अलावा अनेक उपाय समय-समय पर आजमाए गए हैं। लास ऐंजिल्स में एकल सवारी के बजाय पूरी भरी कार को सड़क पर प्राथमिकता दी जाती है। कार साझा करने वाले एक्सपे्रस-वे का उपयोग कर सकते हैं। सिंगापुर की मुख्य सड़क आर्चर्ड रोड पर सुबह नौ बजे जो पहिली कार प्रवेश करती है, उसे भारी जुर्माना देना पड़ता है, याने नागरिक अपनी कार को भीड़भरे इलाके से यथासंभव दूर रखें। इंग्लैंड में प्रधानमंत्री तक लोकल ट्रेन और बस में सहज यात्रा कर लेते हैं। जापान के प्रधानमंत्री को पद संभालते साथ एक नई साईकिल भी भेंट मिलती है। स्वीडन आदि यूरोपीय देशों में लाखों जन नियमित साईकिल की सवारी करते हैं। आपको केजरीवाल की योजना पसंद नहीं है तो इसी तरह नए उपाय आप भी क्यों नहीं सोच लेते? 
हमारी राय में वायु प्रदूषण को रोकने के लिए कारों व निजी वाहनों की संख्या को सीमित करना परम आवश्यक है। इसमें बाइक व स्कूटर भी शामिल हैं। दूसरे शब्दों में निजी के बजाय सार्वजनिक यातायात प्रणाली को मजबूत करने से ही समस्या का स्थायी समाधान होगा। निजी वाहनों की निरंतर बढ़ती संख्या से प्रदूषण तो बढ़ ही रहा है, अन्य समस्याएं भी खड़ी हो रही हैं, जैसे सड़कों को चौड़ा करने व फ्लाईओवर बनाने की नित नई मांगें, रोड रेज याने सड़कों पर हो रही हिंसक घटनाएं जिसमें जान तक चली जाती है, लगातार बढ़ रही सड़क दुर्घटनाएं, पार्किंग की दिक्कत आदि. अगर सरकार कारों के उत्पादन पर दस साल के लिए रोक लगा दे और उसके बजाय सार्वजनिक वाहन याने बसों के संचालन पर ध्यान दे तो हर दृष्टि से लाभ होगा।

देशबन्धु में 07 दिसंबर 2015 को प्रकाशित सम्पादकीय

Wednesday, 2 December 2015

फारूख अब्दुल्ला का बयान



डॉ.फारूख अब्दुल्ला के ताजा बयान पर जल्दबाजी में टिप्पणी करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। वे देश के वरिष्ठ राजनेता हैं, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री हैं, कश्मीर उनका अपना घर है और वहां के हालात को उन्होंने नजदीक से देखा-समझा है। उनकी बात से सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, लेकिन देश की राजनीति का फिलहाल जो चलन है उसका अनुसरण कर डॉ. अब्दुल्ला पर कोई ठप्पा लगा देना अथवा उनके इरादों पर शंका करना उनके प्रति अन्याय तो है ही, टीकाकारों की नाबालिग सोच का भी परिचय इससे मिलता है। जम्मू-कश्मीर का मुद्दा भारतवासियों के लिए एक बड़ा भावनात्मक विषय है, किन्तु इसका समाधान तो व्यवहारिक राजनीति के धरातल पर ही संभव होगा, उसमें भले दस बरस लगें या पचास बरस। आज नहीं तो कल, इस मुद्दे की जटिलताओं को समझकर आगे का मार्ग निर्धारित होगा, इसलिए धीरज के साथ बात को समझने का प्रयत्न होना चाहिए।

अगर थोड़ा सा इतिहास में लौटें तो 1947 में आज़ादी के समय कश्मीर को लेकर तीन विकल्प थे। पहला- जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत में विलय, दूसरा- पाकिस्तान में विलय, तीसरा-स्वतंत्र देश के रूप में उदय। इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि बहुत से अन्य राजाओं की तरह राजा हरीसिंह भी कश्मीर को एक स्वतंत्र देश के रूप में देखना चाहते थे। इन राजाओं की भारत में विलय की इच्छा तो बिल्कुल भी नहीं थी। इन्हें लगता था कि गांधी-नेहरू के भारत में उनका राजपाट और उससे जुड़े विशेषाधिकार छिन जाएंगे। इनके लिए अंग्रेज सरकार ने प्रिंसिस्तान के नाम से एक तीसरे विभाजन की योजना भी बना रखी थी। इन देशी रियासतों में प्रगतिशील, जनतांत्रिक सोच वाले प्रजामंडल के उग्र आंदोलन और बाद में सरदार पटेल की कूटनीतिक सूझ-बूझ के चलते यह योजना कारगर नहीं हो पाई तथा लगभग सभी रियासतों का भारत में विलय हो गया। इनमें से कुछेक राजा ऐेसे थे जो पाकिस्तान के साथ जाने को तैयार थे। इन्हें लगता था कि पाकिस्तान में इनके विशेषाधिकार सुरक्षित रहे आएंगे। उनका सोचना काफी हद तक सही था क्योंकि पाकिस्तान के निर्माण में बड़े जमींदारों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था।

पाक में विलय की संभावना टटोलने वाले इन राजाओं में हिन्दू और मुसलमान का फर्क नहीं था। स्वयं महाराजा हरीसिंह इस बारे में मोहम्मद अली जिन्ना के साथ निरंतर संवाद कर रहे थे। अगर इनकी रियासतों का पाकिस्तान के बजाय भारत में विलय हो सका तो उसके पीछे रियासत की जनता की इच्छा और उसके लिए संघर्ष ही मुख्य कारण था। जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला भारत के साथ विलय के पक्ष में थे और महाराजा ने तो विलय पत्र पर उस समय हस्ताक्षर किए जब पाकिस्तानी फौज के उकसावे पर कबाइली दस्ते कश्मीर घाटी को रौंदते हुए श्रीनगर के दरवाजे तक लगभग पहुंच चुके थे। अगर भारतीय फौज समय पर न पहुंचती तो कश्मीर पाकिस्तान में चला गया होता।

अगर महाराजा हरीसिंह भी पाकिस्तान में विलय और स्वतंत्र देश की स्थापना की ऊहापोह में न फंसे होते तब भी शायद यह सुंदर प्रदेश शायद पाकिस्तान में ही होता। यह सवाल कई बार उठता है कि भारत की फौजें घाटी के आगे याने वर्तमान तथाकथित आज़ाद कश्मीर में क्यों नहीं बढ़ीं। दूसरा सवाल यह भी उठता है कि भारत इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में क्यों ले गया। पहले प्रश्न का उत्तर आश्चर्यजनक रूप से सरल है। कश्मीर के महाराजा ने वर्तमान में पाक अधिकृत कश्मीर के भूभाग को सन् 30 के दशक में याने लगभग दस साल पहले ही वहां के जागीरदारों से खरीदा था। वहां के लोगों का कश्मीर घाटी से कोई भावनात्मक लगाव नहीं था तथा सांस्कृतिक रूप से वे अपने को पाकिस्तान के पंजाब के निकट पाते थे। आज भी लंदन, न्यूयार्क आदि में जो कश्मीरी भारत के खिलाफ आवाज उठाते हैं, वे अधिकतर उसी इलाके के हैं। दूसरे सवाल का उत्तर यह है कि अगर महाराजा द्वारा विलय पत्र पर हस्ताक्षर नैतिक और विधि-सम्मत था तो फिर हैदराबादके निजाम और जूनागढ़ के नवाब को आप पाकिस्तान में मिलने से कैसे रोक सकते थे।

मतलब यह कि भारत एक जनतांत्रिक देश के रूप में राजा की इच्छा के बजाय जनता की इच्छा को महत्व एवं प्राथमिकता दे रहा था। यह हमें पता था कि हैदराबाद की जनता निजाम के साथ नहीं जाएगी। हमें यह भी भरोसा था कि शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में जम्मू-कश्मीर की जनता भी जनमत संग्रह होने पर भारत के पक्ष में वोट देगी। चूंकि पाकिस्तान ने जनमत संग्रह के पूर्व अपने अधिकार वाले हिस्से से फौजें नहीं हटाईं (जो कि एक अनिवार्य शर्त थी) इसलिए भारत ने भी जनमत संग्रह की बात पर कदम आगे नहीं बढ़ाए। इस बीच स्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। कश्मीर का हिस्सा जो भारत के साथ है वह पिछले अड़सठ साल से एक लोकतांत्रिक माहौल में जी रहा है गो कि उसमें कमियां निकाली जा सकती हैं। दूसरी तरफ पाक अधिकृत कश्मीर के लोग भी वहां के सामाजिक-राजनीतिक अनिश्चित माहौल के अभ्यस्त हो चुके हैं तथा अगर सीमा के इस पार उनका थोड़ा-बहुत लगाव था तो वह लगभग समाप्त हो चुका है।

यह तो हुई इतिहास की बात। वर्तमान में क्या स्थिति है? कश्मीर को एक समस्या मानकर उसका हल खोजने के लिए अथकमेहनत हो रही है। यह तय है कि अपने-अपने हिस्से के कश्मीर को न तो भारत छोड़ेगा और न पाकिस्तान। दोनों के लिए यह राष्ट्रीय स्वाभिमान का विषय बन गया है। पाकिस्तान में फौज का दबदबा है इसलिए पाक अधिकृत कश्मीर की जनता क्या सोचती है इसकी कोई सही तस्वीर दुनिया के सामने नहीं आ पाती। इतना हम जानते हैं कि आज़ाद कश्मीर के नाम पर जो सरकार चलती है वह इस्लामाबाद की कठपुतली होती है। वहीं गिलगिट, बाल्टिस्तान आदि उत्तरी क्षेत्र भी हैं जो शिया धर्मानुयायी हैं तथा जिनकी पटरी पाकिस्तान के कठमुल्लों के साथ नहीं बैठती, लेकिन वे मुखर विरोध नहीं कर पाते।

इसके बरक्स भारत के जम्मू-कश्मीर प्रांत में एक ओर निर्धारित अवधि में चुनाव होते हैं, लोकतांत्रिक सरकार चुनी जाती है, दूसरी ओर स्वतंत्र कश्मीर अथवा पाकिस्तान समर्थक शक्तियों को काफी खुले रूप में अपनी बात कहने का मौका मिल जाता है और तीसरी ओर केन्द्र सरकार के स्तर पर समस्या के समाधान के लिए कभी प्रदेश को तीन राज्यों में, तो कभी पांच राज्यों में विभाजित करने जैसे प्रस्ताव भी सामने आ जाते हैं। फिलहाल एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि प्रदेश में पीडीपी और भाजपा की मिली-जुली सरकार चल रही है। इसमें नरेन्द्र मोदी मुफ्ती साहब को देशभक्त होने का खिताब देते हैं, तो दूसरी ओर मुफ्ती मुहम्मद सईद मोदीजी की धर्मनिरपेक्षता पर शंका न करने का परामर्श देते हैं। जिन फारूख अब्दुल्ला के बेटे उमर वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे आज उनको कटघरे में खड़ा किया जा रहा है, वह भी इस दृश्य का एक विद्रूप ही है।

बेशक कश्मीर एक मसला है और इसका हल ढूंढा जाना चाहिए। हम नहीं सोचते कि कश्मीर घाटी की जनता कभी भी पाकिस्तान के साथ जाना पसंद करेगी। घाटी के लोग लोकतंत्र का महत्व जानते हैं। वहां फौज तैनात है, उसकी ज्यादतियों के किस्से आए दिन पढऩे मिलते हैं। इस अवांछनीय स्थिति को समाप्त करना होगा, यह एक जुड़ा हुआ प्रश्न है। यह शंकास्पद है कि प्रदेश का सांप्रदायिक आधार पर विभाजन करने से कोई हल निकलेगा, क्योंकि जम्मू और लद्दाख दोनों में मिली-जुली आबादी है। जम्मू-कश्मीर को स्वतंत्र देश बनाने की मांग करने वाले लोग भी हैं लेकिन वे खामख्याली में हैं। डॉ. फारूख अब्दुल्ला ने जो बयान दिया है वह जमीनी सच्चाई को प्रतिबिंबित करता है। इसका परीक्षण करना वांछित है।

देशबन्धु में 03 दिसंबर 2015 को प्रकाशित

Friday, 27 November 2015

तेजस्वी बिहार


 बिहार के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कामकाज उनके मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण के साथ प्रारंभ हो गया है। वे अपने पांच साल के दौरान कैसा शासन दे पाएंगे इस पर चर्चाएं होने लगी हैं। इसमें भी पहले के दो साल न सिर्फ बिहार बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिए बहुत मायने रखते हैं। अगर नीतीश के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार उनकी अर्जित ख्याति के अनुरूप सुचारु चलती है तो इसका सबसे बड़ा लाभ असम के आसन्न चुनावों में मिलेगा जहां से भाजपा ने बहुत उम्मीद बांध रखी है। अगले वर्ष जिन पांच राज्यों में चुनाव होना है उनमें से शेष चार में भाजपा का कोई खास दखल नहीं है, लेकिन असम के लिए उसने अपनी तैयारियां काफी पहले से प्रारंभ कर दी थीं। दूसरी ओर महागठबंधन के दलों में कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी है जिसकी प्रतिष्ठा असम में दांव पर लगी है। अगर बिहार सरकार अच्छे से चलती है, तो इससे असम में कांग्रेस को फायदा होगा। और इस ''अगर" को चुटकी मारकर नहीं उड़ाया जा सकता।

 19 नवंबर को नीतीश मंत्रिमंडल को शपथ ग्रहण में अनेक दलों व विभिन्न प्रदेशों के प्रतिनिधि गुलदस्ते लेकर पहुंचे। इस अवसर पर डॉ. फारूख अब्दुल्ला ने जो टिप्पणी की उसे अलग से रेखांकित करना होगा। एक समय था जब स्वयं डॉ. अब्दुल्ला तीसरे मोर्चे के बड़े नेता के रूप में उभर रहे थे। उन्हें शायद विश्वास हो गया था कि वे एक दिन प्रधानमंत्री अवश्य बनेंगे। यह सपना टूटा तो वे राष्ट्रपति बनने की दौड़ में शामिल हो गए। इसका जिक्र देश के आला खुफिया अधिकारी ए.एस. दुल्लत ने अपनी हाल में प्रकाशित आत्मकथा ''कश्मीर: द वाजपेयी ईयर्स" में किया है। इन्हीं डॉ. अब्दुल्ला ने पटना में नीतीश कुमार की हौसला अफजाई की कि वे आने वाले समय में प्रधानमंत्री बन सकते हैं। उन्होंने कोई नई बात नहीं की लेकिन जिस मौके पर की उसमें एक बार फिर नीतीशजी की महत्वाकांक्षा को नए पंख मिल सकते हैं। नीतीश कुमार राजनीति के उतार-चढ़ावों को भली-भांति जानते हैं और फिलहाल उम्मीद यही रखना चाहिए कि वे भावावेश में कोई निर्णय नहीं लेंगे।

आज यह बात इसलिए करना पड़ रही है क्योंकि पांचवी बार बने मुख्यमंत्री ने अपने मंत्रिमंडल का जैसा गठन किया है उसे लेकर आलोचना भी की जा सकती है और शंका भी उभरती है। इस नए मंत्रिमंडल में नीतीश कुमार ने अपने बहुत से पुराने साथियों को फिलहाल अलग रखा है। अधिकतर मंत्री युवा और नए हैं। बताया गया है कि उन्होंने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों का चयन करने में सामाजिक समीकरणों का विशेष ध्यान रखा है। इसके विपरीत यह भी कहा गया कि उन्होंने भौगोलिक समीकरणों को भुला दिया है। लेकिन इन सबसे बढ़कर आलोचना इसलिए हो रही है कि दुर्धर्ष नेता लालू प्रसाद यादव के दोनों बेटों को न सिर्फ मंत्रिमंडल में स्थान मिला है बल्कि एक को उपमुख्यमंत्री याने नंबर दो और एक को तीसरे क्रम की वरीयता दी गई है। दोनों भाई पहली बार विधायक बने हैं तथा उन्हें इतना महत्व देना बहुतों को असामान्य प्रतीत हो रहा है।

हमें याद आता है कि पांच तारीख को जैसे ही यह चुनाव परिणाम आए वैसे ही चर्चाएं आरंभ हो गई थीं कि लालूजी अपनी बेटी मीसा भारती को या फिर छोटे बेटे तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री बनाएंगे। दो-एक दिन बाद यह चर्चा भी उठी कि लोकसभा चुनाव हार चुकी सुश्री मीसा को वे राज्यसभा में ले जाएंगे तथा तेजस्वी ही उपमुख्यमंत्री होंगे। एक और चर्चा इस बीच हुई कि मीसा भारती नहीं, बल्कि राबड़ी देवी राज्यसभा में जाएंगी। जहां पूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते उन्हें यथेष्ट सुविधाएं प्राप्त होंगी तथा राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका निभाने के लिए लालू प्रसादजी को एक उपयुक्त ठिकाना मिल जाएगा। जो भी हो, इन चर्चाओं से यह तो सिद्ध हुआ कि बिहार की राजनीति में सबसे बड़े दल का नेता होने के नाते लालूजी की बात का कदम-कदम पर वजन होगा। अपने दोनों बेटों को आलोचना होने की स्पष्ट संभावना के बावजूद मंत्रिमंडल में स्थान दिलवाकर उन्होंने अपना महत्व तो सिद्ध किया ही है; इसके अलावा उन्होंने ऐसा शायद कुछ व्यवहारिक कारणों से भी किया होगा।

इस तथ्य पर गौर करें कि लालू प्रसाद ने अपने बड़े बेटे तेजप्रताप को उपमुख्यमंत्री नहीं बनाया बल्कि इस पद के लिए अपने छोटे बेटे का चयन किया। इसके पीछे शायद कारण यह था कि तेजस्वी के तेवर अपने अग्रज की तुलना में कहीं ज्यादा तीखे, लड़ाकू और प्रखर हैं। यह भी हो सकता है कि उसने पिछले डेढ़-दो साल के दौरान अपनी राजनीतिक सूझ-बूझ का बेहतर परिचय दिया हो। कारण जो भी रहा हो, इससे लालू प्रसाद को एक लाभ अवश्य हुआ है कि उनकी व्यक्ति आधारित पार्टी में लालू के बाद कौन का झगड़ा अब शायद नहीं उठेगा। उनकी विरासत को तेजस्वी संभाल लेंगे। एक तरह से तमिलनाडु में करुणानिधि को जो पारिवारिक कलह देखना पड़ी वह स्थिति बिहार में नहीं होगी। हमें यहां ख्याल आता है कि ओडिशा में बीजू पटनायक की विरासत बड़े बेटे प्रेम की बजाय छोटे बेटे नवीन ही संभाल रहे हैं।

लालू प्रसाद के दोनों बेटों के मंत्री बनने को लेकर जो आलोचना हो रही है, उसके दो पक्ष हैं- एक- वंशवाद और दो- तेजस्वी और तेजप्रताप की शैक्षणिक योग्यता। भारत में वंशवाद की बात तो करना ही नहीं चाहिए। यह अकेले भारत की नहीं, बल्कि पूरे एशिया की फितरत है। कम्युनिस्ट चीन भी इससे बचा नहीं है। और अब तो अमेरिका में भी हम वंशवाद का नए सिरे से उभार देख रहे हैं। एडम्स, रूज़वेल्ट और कैनेडी को भूल जाइए। अब बुश और क्लिंटन का जमाना है। पहले सीनियर बुश राष्ट्रपति बने, फिर छोटे बेटे जार्ज बुश। बड़े बेटे जेब बुश फ्लोरिडा के गर्वनर थे। वे भी राष्ट्रपति पद के लिए अवसर तलाश रहे हैं। बिल क्लिंटन के बाद हिलेरी क्लिंटन तो सामने दिख ही रही हैं। कनाडा में पियरे ट्रूडो के पुत्र जस्टिन ट्रूडो हाल-हाल में नए प्रधानमंत्री चुने गए हैं। भारत की महिमा इस मामले में अपरंपार है।

जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल तक और पूर्वोत्तर से लेकर लक्षद्वीप तक कोई भी ऐसी जगह नहीं है जहां राजनीति में वंश परंपरा के दर्शन न होते हों। जब पंजाब में पिता-पुत्र एक साथ मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री हो सकते हैं तो बिहार में जो हुआ है उसे अपवाद क्यों समझा जाए। इस बारे में सैकड़ों दृष्टांत दिए जा सकते हैं। उनकी बात करने से समय ही नष्ट होगा। दूसरी बात, यादव बंधुओं की शैक्षणिक योग्यता को लेकर है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार दोनों भाईयों ने हायर सेकेण्डरी की पढ़ाई भी पूरी नहीं की। आज के समय में एक सामान्य परिवार के लिए यह घनघोर चिंता का विषय है। जिन लालू प्रसाद ने स्वयं विषम परिस्थितियों का मुकाबला कर अपनी पढ़ाई जारी रखी, वे अपने बेटों को पढ़ाने में क्यों चूक गए, यह कोई अच्छा दृष्टांत  नहीं है। महज अनुमान लगाया जा सकता है कि लालू प्रसाद-राबड़ी देवी दोनों ने अपनी राजनीति के फेर में संतानों की जैसी फिक्र करनी चाहिए थी वैसी नहीं की। खैर! यह उनके अपने घर की बात है।

इधर उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद तेजस्वी की शैक्षणिक योग्यता को लेकर जो आलोचना हुई उसके जवाब में तेजस्वी ने ट्विटर पर यह टिप्पणी की कि-''किसी को भी पुस्तक का सिर्फ आवरण देखकर उसके बारे में राय नहीं बनाना चाहिए। मीठी शहद और कड़वी दवाई की तरह किसी क्षमता का फायदा थोड़ा वक्त बीत जाने के बाद ही मिलता है।" तेजस्वी सोच सकते हैं कि उन्होंने अपने विरोधियों को करारा जवाब दे दिया है, लेकिन इतने से बात नहीं बनेगी। उन्हें आने वाले दिनों में अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए जी-तोड़ परिश्रम करना होगा। हमारी राय में औपचारिक पढ़ाई वांछित तो है, लेकिन राजनीति में सहजबुद्धि की आवश्यकता अधिक पड़ती है। क्या इस कसौटी पर तेजस्वी खरा उतर पाएंगे। हमने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के कामराज को देखा है जो न हिन्दी जानते थे, न अंग्रेजी, लेकिन एक बेहतरीन प्रशासक सिद्ध हुए। बंशीलाल भी ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन एक समय उन्होंने हरियाणा का कायाकल्प किया। गत वर्ष जब स्मृति ईरानी की इसी बिना पर आलोचना हुई थी तो इसी कॉलम में हमने उनका बचाव किया था। यह दुर्भाग्य की बात है कि वे अपने आपको सक्षम मंत्री सिद्ध नहीं कर सकीं। तेजस्वी और तेजप्रताप दोनों के सामने दोनों तरह के उदाहरण हैं। वे किस रास्ते जाते हैं, इसके लिए कोई लंबी प्रतीक्षा नहीं करना होगी। तब तक धैर्य रखा जा सकता है।
 
देशबन्धु में 26 नवंबर 2015 को प्रकाशित

Wednesday, 18 November 2015

बिहार चुनाव : कुछ अन्य बातें


 बिहार की राजनीति को बारीकी से समझने वाले पत्रकारों में संकर्षण ठाकुर का नाम प्रमुखता के साथ लिया जा सकता है। वे स्वयं बिहार के हैं और उन्होंने बिहार के दो प्रमुख राजनेताओं लालू प्रसाद यादव तथा नीतीश कुमार पर विश्लेषणपरक पुस्तकें भी लिखी हैं। जैसा कि इनसे पता चलता है वे लालू प्रसाद की राजनीति के विरोधी और नीतीश के प्रशंसक हैं। उनके निष्कर्ष जमीनी अध्ययन पर आधारित हैं इसलिए अभी विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद श्री ठाकुर ने नीतीश के चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर पर किसी अंग्रेजी अखबार में  आधा पेज का लेख प्रकाशित किया तो मैं कुछ सोच में डूब गया। इस लेख का सार यह है कि महागठबंधन की जीत में प्रशांत किशोर की रणनीति का बहुत बड़ा योगदान रहा। मैंने पहली बार देखा कि किसी चुनावी प्रबंधक की ऐसी छवि प्रस्तुत की गई जो अतिशयोक्ति की हद को छूती हो। चूंकि लिखने वाले एक जानकार पत्रकार हैं इसलिए उनकी बात को यूं ही नहीं उड़ाया जा सकता।

बिहार में महागठबंधन की अभूतपूर्व जीत के बारे में टीकाकारों के अपने-अपने विश्लेषण हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने अपने हाल में प्रकाशित लेख में बहुत चतुराई के साथ मोदी-शाह की टीम को ही भाजपा की हार के लिए दोषी ठहरा दिया है। इसके अलावा कहीं गणित फेल होने की बात हो रही है, तो कहीं केमिस्ट्री सफल होने की। इसमें प्रशांत किशोर याने एक चुनाव प्रबंधक की भूमिका कितनी प्रभावी रही होगी, यह अलग प्रश्न उभर आया है। उल्खेनीय है कि श्री किशोर ने 2014 में नरेन्द्र मोदी के चुनाव प्रबंधक  के तौर पर काम किया था। यह अभी रहस्य ही है कि वे श्री मोदी को छोड़कर नीतीश कुमार के खेमे में कैसे आ गए। एकाध जगह कहीं लिखा गया कि चुनाव जीतने के बाद भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में उन्हें अपमानित किया। इससे आहत होकर उन्होंने पाला बदल लिया। बिहार के नतीजे आने के बाद वे दिल्ली गए और पढऩे में आया कि वे एक तरफ राहुल गांधी से मिले और दूसरी तरफ अरुण जेटली से भी।

इस समूचे संदर्भ में एक कयास तो ऐसा लगाया जा रहा है कि लालू प्रसाद को महागठबंधन की जीत का श्रेय न मिले, इसलिए प्रशांत किशोर का नाम आगे किया गया है। इस बात पर विश्वास करने का मन नहीं होता। संभव है कि भविष्य में लालूजी और नीतीशजी के बीच वर्चस्व का प्रश्न उठे, किन्तु हमें नहीं लगता कि चुनाव जीतने के पांच-सात दिन बाद ही ऐसा होने लगेगा। इससे एक दूसरी शंका उभरती है कि लालू-नीतीश की निकटता से चिंतित नीतीश खेमे के ही लोग तो कहीं अपनी होशियारी दिखाने के लिए ऐसा नहीं कर रहे? एक तीसरी संभावना और है कि प्रशांत किशोर स्वयं अपने छवि निर्माण में लगे हों ताकि आने वाले समय में उनकी मूल्यवान सेवाएं कांग्रेस या कोई अन्य पार्टी हासिल करने के लिए उत्सुक हो उठे। मेरा अपना मानना है कि चुनाव प्रबंधन अपने आप में एक कला है और जिन्होंने इसे साध लिया है वे सराहना के पात्र होते हैं, लेकिन जब पक्ष या विपक्ष में लहर उठी हो तो फिर सारा मामला आम नागरिक की आशा-आकांक्षा पर आकर टिक जाता है। वहां फिर कोई गणित, कोई रणनीति, कोई प्रबंधन काम नहीं आता और अगर आता भी है तो सीमित रूप में।

बहरहाल नीतीश कुमार औपचारिक रूप से महागठबंधन के नेता चुन लिए गए हैं तथा कल याने 20 तारीख को वे एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण करेंगे। अपने शपथ ग्रहण में उन्होंने अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों को शामिल होने का न्यौता दिया है। जिनमें से सिर्फ नवीन पटनायक ने ही अपनी असमर्थता जताई है। यह भव्य शपथ ग्रहण समारोह एक तरफ महागठबंधन के लिए अपनी अपूर्व सफलता का जश्न मनाने का अवसर होगा वहीं नीतीश कुमार इसे राष्ट्रीय रंगमंच पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के एक नायाब मौके के रूप में भी देखेंगे। कुछ ऐसी ही सुप्त महत्वाकांक्षा नवीन पटनायक की भी है और अनुमान लगाया जा सकता है कि वे शायद इसी कारण पटना नहीं आ रहे हों।

सुना है कि नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री ने शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे को भी आमंत्रित किया है। उद्धव चूंकि लगातार मोदी का विरोध कर रहे हैं, इस संदर्भ में इस निमंत्रण को देखा जा सकता है। इसका एक व्यवहारिक पक्ष भी हो सकता है कि महाराष्ट्र खासकर मुंबई में जो मराठी बनाम बाहरी के नाम पर झड़पें होती हैं उस पर विराम लगाने का कोई संकेत यहां से जाए। याद करें कि जब बिहार में किसी रेलवे स्टेशन पर पूर्वोत्तर के नागरिकों के साथ दुर्व्यवहार हुआ था तो तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद स्वयं असम गए थे और गुवाहाटी की सड़कों पर पैदल घूमकर उन्होंने क्षमायाचना की थी। ऐसी पहल करने से वातावरण सुधरता है, स्थितियां सामान्य होती हैं और नागरिकों के बीच सद्भावना पनपती है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। नीतीश कुमार मितभाषी हैं, लेकिन लालू प्रसाद अपने मंतव्य प्रकट करने में शब्दों में कंजूसी नहीं करते। उन्होंने तो रिजल्ट आते साथ ही ऐलान कर दिया है कि वे अब राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय होंगे। यहां नोट करना चाहिए कि बिहार के बाद कांग्रेस में भी स्फूर्ति आई है, लेकिन उसे अपने भावी लक्ष्य के बारे में अभी कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। वह राष्ट्रीय पार्टी है और 2016 में होने वाले विधानसभा चुनावों में ही उसकी संभावनाएं छुपी हुई हैं।

बिहार में महागठबंधन की विजय से जुड़े एक अन्य पहलू पर अभी बहुत ध्यान नहीं गया है। यह सबको पता है कि चाहे राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद हों, चाहे अध्यक्ष नीतीश कुमार, चाहे जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव- ये सब डॉ. राममनोहर लोहिया की आक्रामक और व्यक्तिवादी राजनीति के प्रशंसक थे और उसी से प्रेरित होकर राजनीति में आए थे। ये एक तरफ जॉर्ज फर्नांडीज़ के तीखे तेवरों के मुरीद थे, तो दूसरी तरफ मधु लिमये व किशन पटनायक की सौम्य विचारशीलता इन्हें प्रभावित करती थी। तब के इन समाजवादी युवाओं में शरद यादव पहले व्यक्ति थे जो 1975  में संयुक्त विपक्ष के प्रत्याशी बन लोकसभा उपचुनाव जीत संसद में पहुंचे थे। वे छात्र राजनीति से निकलकर  एकाएक राष्ट्रीय क्षितिज पर आ गए थे। जबकि लालू प्रसाद इत्यादि के राजनैतिक कॅरियर की शुरुआत आपातकाल में छात्र आंदोलन और जेल यात्रा से हुई। ऐतिहासिक दृष्टि से विवेचना करें तो 1946-47 से लेकर 2014 तक समाजवादी खेमा और उसके विभिन्न धड़ों की राजनीति कांग्रेस-विरोध पर ही केन्द्रित थी।

जब स्वतंत्र देश की पहली सरकार बन रही थी तब पंडित नेहरू के समाजवादी मित्रों ने उनका साथ छोड़ दिया था।  डॉ. लोहिया ने तो गैर-कांग्रेसवाद का नारा ईजाद किया था जिसकी पहली सफलता 1967 में देखने मिली जब कांग्रेस से दलबदल कर विभिन्न प्रदेशों में संविद सरकारें (संयुक्त विधायक दल) बनीं। ये सरकारें आपसी विग्रह के कारण लंबे समय तक तो नहीं चल पाईं, लेकिन इसका असली लाभ लोहिया के अनुयायियों के बजाय जनसंघ ने उठाया। इसके बावजूद विभिन्न पार्टियों में बंटे समाजवादियों के कांग्रेस विरोध में कोई कमी नहीं आई। 1977 में सारे कांग्रेस-विरोधी जनता पार्टी के नाम पर एकजुट हुए जिसका कालांतर में लाभ भाजपा को मिला। 1998 में भी जब कांग्रेस सरकार बनने की संभावना जग रही थी तब एक-दूसरे समाजवादी मुलायम सिंह ने उसमें सेंध लगा दी थी। इस इतिहास को देखने से स्पष्ट होता है कि ऐसा पहली बार 2015 में जाकर हुआ है जब कांग्रेस और समाजवादी दोनों एक साथ मिलकर चुनाव लड़े और लड़े ही नहीं, चुनाव जीते भी।

यह स्पष्ट है कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टियां- इनके बीच कोई बहुत ज्यादा वैचारिक मतभेद नहीं हैं। किसी हद तक सीपीआई याने भाकपा की भी इनसे कोई बड़ी वैचारिक असहमति नहीं है। अगर ये सब मिलकर एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार कर लें और उस पर ईमानदारी के साथ अमल करें तो यह महागठबंधन देश की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन करने में कामयाब हो सकता है। इसमें तीनों समाजवादियों नेताओं को अपनी-अपनी भूमिका भी अभी से तय करना होगी- नीतीश सुशासन का मॉडल पेश करें, लालूप्रसाद वोट बटोरने का और वरिष्ठता के नाते शरद यादव समन्वय का जिम्मा उठाएं।
देशबन्धु में 19 नवंबर 2015 को प्रकाशित

Sunday, 15 November 2015

पेरिस पर हमला


 इस्लामिक स्टेट या आईएस ने पेरिस पर आतंकी हमला कर एक बार फिर अपनेे नृशंस, विचारहीन और अमानवीय चरित्र का परिचय दिया है। आईएस के इस दुष्कृत्य की जितनी भी भर्त्सना की जाए कम है। पेरिस के पूर्व आईएस ने इजिप्ट के आकाश पर सोवियत विमान मार गिराने की जिम्मेदारी ली थी। पश्चिम एशिया में वह इस तरह के अनेक क्रूर आक्रमणों को पहले भी अंजाम दे चुका है। इस्लाम के नाम पर दुनिया के बड़े हिस्से में हिंसा और दहशत का माहौल बनाने वाला इस्लामिक स्टेट पहला संगठन नहीं है। पिछले तीन दशक में मुजाहिदीन, तालिबान, लश्कर-ए-तोयबा, अलकायदा, बोको हराम इत्यादि संगठनों की करतूतें विश्व समाज ने देखी और भोगी हैं। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे अमानुषिक कृत्यों का पुरजोर विरोध होना चाहिए तथा इन्हें जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए हर संभव उपाय किए जाना चाहिए। यह काम कैसे हो? इक्कीसवीं सदी के विश्व को जो किसी अतीत की गुफा में ले जाना चाहते हों उनकी मानसिकता क्या है? वे प्रेरणा कहां से पाते हैं? अपने हिंसक इरादों को अमल में लाने के लिए उन्हें हथियार और रसद कहां से मिलते हैं? उनके शरणस्थल कहां हैं? उनका प्रशिक्षण कहां होता है? वे कौन सी ताकतें हैं जो उन्हें उकसा रही हैं? इन सब बातों को जाने बिना आईएस और उस जैसे अन्य संगठनों से कैसे लड़ा जाए?

कनाडा में बसे तारीक फतह जैसे इस्लामी अध्येता कहते हैं कि इस्लाम के प्रादुर्भाव के साथ ही कट्टरपंथ और जिहादी मानसिकता की शुरुआत हो गई थी। निर्वासित लेखिका अयान हिरसी अली जैसी अध्येता कहती हैं कि यह मक्का इस्लाम और मदीना इस्लाम के बीच के द्वंद्व से उपजा माहौल है। प्रसिद्ध पत्रकार बर्नाड लेविन इस्लाम को एक जिहादी धर्म के रूप में ही देखते हैं। तस्लीमा नसरीन जिन्हें लज्जा उपन्यास लिखने के कारण निर्वासन भोगना पड़ा, वे भी समय-समय पर ऐसे ही विचार प्रकट करती हैं। इन सबने इस्लाम धर्म का गहन अध्ययन किया है और निजी अनुभवों के साक्ष्य भी इनके पास हैं। अत: मानना होगा कि ये जो कह रहे हैं उसमें सत्य का अंश है तथा इनके विचारों को हल्के में खारिज नहीं किया जा सकता। फिर भी इनसे तस्वीर का एक पहलू ही हमारे सामने आता है। क्या इसका कोई दूसरा पक्ष भी है? अगर किसी विषय पर कुछ ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं भी तो क्या उन्हें वर्तमान समय पर ज्यों का त्यों आरोपित किया जा सकता है? क्या वर्तमान में ऐसे कोई कारक तत्व नहीं हो सकते जिन्होंने आज के दृश्य को प्रभावित किया है? ऐसे तत्व क्या हैं और क्या उनका ईमानदारी से विश्लेषण करने की कोई कोशिश की गई है?

एक तो इस तथ्य पर गौर करना चाहिए कि दुनिया में धर्म के नाम पर राष्ट्रों का निर्माण कब कैसे हुआ। इतिहास में बहुत पीछे न जाकर बीसवीं सदी की ही बात करें तो ऐसा क्यों हुआ कि लगभग एक ही समय में धर्म पर आधारित दो देशों का उदय हुआ। मैं इस बात को कुछ सप्ताह पूर्व लिख चुका हूं कि इस्लाम पर आधारित पाकिस्तान और यहूदी धर्म पर आधारित इजरायल दोनों की स्थापना द्वितीय विश्व युद्ध के तुरंत बाद हुई। इनके निर्माण की पृष्ठभूमि क्या थी? पाकिस्तान के बारे में भारतवासी बहुत कुछ जानते हैं। वे ये भी जान लें कि इजरायल की स्थापना में भी उन्हीं साम्राज्यवादी पश्चिमी ताकतों का हाथ था। हिन्दी में इस विषय पर बहुत कम लिखा गया है, लेकिन जिज्ञासु पाठक महेन्द्र कुमार मिश्र की पुस्तक ''फिलस्तीन और अरब इसराइल संघर्ष" पढ़ सकते हैं। अंग्रेजी समझने वाले पाठक गीता हरिहरन द्वारा संपादित पुस्तक ''फ्रॉम इंडिया टू पैलेस्टाइन : एसेज़ इन सॉलीडरीटी"  पढ़ सकते हैं। इस्लाम की एक गंभीर अध्येता करेन आर्मस्ट्रांग ने इस विषय पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं। उनका मानना है कि धर्म के नाम पर जितना खून- खराबा हुआ है उससे कई गुना अधिक हिंसा दूसरे कारणों से हुई है जिनमें एक कारण जनतंत्र की रक्षा करना भी है।

आज इस्लाम के नाम पर हो रही हिंसा के एक के बाद एक प्रकरण सामने आ रहे हैं, लेकिन क्या वाकई इस्लाम में कट्टरता के तत्व स्थापना काल से मौजूद रहे हैं? हम इतिहास में जिन दुर्दम्य आक्रांताओं के बारे में पढ़ते हैं मसलन चंगेज खां, वह और उस जैसे अनेक इस्लाम के अनुयायी नहीं थे। विश्व विजय का सपना लेकर निकला सिकंदर न यहूदी था न मुसलमान न ईसाई। हिटलर, मुसोलिनी, फ्रांको, सालाजार इत्यादि भी इस्लाम को मानने वाले नहीं थे। तुर्की के राष्ट्रपिता कमाल अतातुर्क ने तो बीसवीं सदी के प्रारंभिक समय में खिलाफत को चुनौती देकर एक आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की स्थापना की थी।  इजिप्त के नासिर और इंडोनेशिया के सुकार्णों ने भी धर्मनिरपेक्षता की नींव पर अपने नवस्वतंत्र देशों को खड़ा करने का उपक्रम किया था।

यह पूछना चाहिए कि सुकार्णों को अपदस्थ कर सुहार्तों को लाने में किसका हाथ था और नासिर बेहतर थे या उनके बाद बने राष्ट्रपति अनवर सादात। पश्चिम एशिया के अनेक देशों में से ऐसे अनेक सत्ताधीश हुए जो अपने को बाथिस्ट कहते थे और जो धार्मिक कट्टरता से बिल्कुल दूर थे। इराक में बाथिस्ट पार्टी को हटाकर सद्दाम हुसैन भले ही सत्ता में आए हों, लेकिन उनके विदेश मंत्री ईसाई थे और उनके इराक में धार्मिक असहिष्णुता नहीं थी; यही बात सीरिया के बारे में कही जा सकती है। लेबनान में तो ईसाई और इस्लामी दोनों बारी-बारी से राज करते रहे। हम अपने पड़ोस में बंगलादेश को ले सकते हैं। अमेरिकन राष्ट्रपति निक्सन ने बंगलादेश में जनतांत्रिक शक्तियों के उभार पर कोई ध्यान नहीं दिया व तानाशाह याह्या खान का समर्थन करते रहे।  बंगलादेश बन जाने के बाद मुजीबुर्ररहमान ने धर्मनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया और आज उनकी बेटी शेख हसीना भी उसी रास्ते पर चल रही है।

आज इस्लामिक स्टेट के नाम पर जो दहशत का भयानक मंजर छाया हुआ है उसका प्रणेता कौन है? ऐसी खबरें लंबे समय से आ रही हैं कि आईएस को नवपूंजीवादी, नवसाम्राज्यवादी ताकतों ने ही खड़ा किया ताकि सीरिया और ईरान आदि में सत्ता पलट किया जा सके। इसके पहले अफगानिस्तान और इराक में तो अमेरिका और उसके पिठ्ठू कब्जा कर ही चुके हैं। इजिप्त और ट्युनिशिया में अरब-बसंत के नाम पर जो आंदोलन खड़े हुए थे उनका भी मकसद यही था। एक समय महाप्रतापी इंग्लैंड ने अमेरिका से लेकर आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड तक अपने उपनिवेश कायम किए। आज अमेरिका उसी मिशन को आगे बढ़ा रहा है। इसीलिए जब रूस, सीरिया व ईरान का साथ देता है तो यह अमेरिका व उसके साथियों को नागवार गुजरता है। इस प्रकट विडंबना की ओर भी ध्यान जाना चाहिए कि अमेरिका ने आज तक सऊदी अरब के खिलाफ कभी कोई कदम नहीं उठाया। जबकि सऊदी नागरिक ओसामा बिन लादेन को अपने कुटिल खेल में मोहरा बनाकर शामिल किया। इस्लामी जगत में सर्वाधिक कट्टरता अगर कहीं है तो वह सऊदी अरब में है। औरतों की स्वाधीनता पर सर्वाधिक प्रतिबंध भी तो वहीं है। जिहाद के लिए मुख्यत: पैसा वहीं से भेजा जाता है और वहां के शासकों की अय्याशी के किस्से मशहूर हैं। आशय यह कि इन तमाम बातों को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। तात्कालिक प्रतिक्रियाओं से हल नहीं निकलेगा। जब तक आईएस की पीठ पर हाथ रखने वालों का विरोध नहीं होगा तब तक इस गंभीर चुनौती का सामना नहीं हो पाएगा। बंगलादेश में मार डाले गए ब्लॉगर पत्रकारों सहित अनेक ऐसे इस्लामी बुद्धिजीवी हैं जो कट्टरपंथ व जड़वाद का विरोध तमाम खतरे उठाकर भी कर रहे हैं। शेष विश्व को इनके समर्थन में खड़ा होने से मुकाबला करना आसान होगा।
देशबन्धु में 16 नवंबर 2015 को प्रकाशित विशेष सम्पादकीय

Friday, 13 November 2015

कहानी के सौ साल

 इस साल 'उसने कहा था' का प्रकाशन हुए पूरे सौ साल बीत चुके हैं। यह वर्ष भीष्म साहनी की जन्मशती का भी है। इसके अलावा कहानी पत्रिका के उस विशेषांक को भी साठ साल हो गए हैं, जिसमें 'चीफ की दावत' सहित अनेक वे कहानियां छपी थीं, जिनसे कहानी विधा में एक नए युग का सूत्रपात माना गया था। जैसा कि साहित्य का हर विद्यार्थी जानता है, पं. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने मात्र तीन कहानियां लिखी थीं- उसने कहा था, सुखमय जीवन व बुद्धू का कांटा। मात्र इनके बल पर वे सिद्धहस्त कथाकार कहलाए। 'उसने कहा था' को तो अमर कथा का दर्जा प्राप्त हो चुका है। आज एक शताब्दी बाद भी उसे पढ़ा जाता है और पढ़ते हुए यही लगता है मानो वह आज की ही कहानी है। उसने कहा था को हिन्दी की पहिली मुकम्मल एवं आधुनिक कहानी मान जाए तो गलत नहीं होगा। कथानक, कथोपकथन, चरित्र चित्रण, भाषा, शैली, आरंभ, चरमोत्कर्ष, उपसंहार- विवेचना के हर कोण पर कहानी खरी उतरती है।
गुलेरी जी ने जब कहानी लिखी, तब तक प्रेमचंद भी कथाकार के रूप में अपनी पहिचान बना चुके थे। 'पंच परमेश्वर' कहानी भी 1915 में ही लिखी गई थी। यहां से एक लंबा दौर प्रारंभ होता है, जिसे प्रेमचंद युग की संज्ञा दी जा सकती है। इस दौर में रचे कथा साहित्य को आदर्शवाद, यथार्थोन्मुख आदर्शवाद, यथार्थवाद, प्रगतिवाद जैसी अनेक सरणियों में समीक्षकों ने निबद्ध किया। श्रीपतराय द्वारा संचालित-संपादित 'कहानी' के उक्त विशेषांक तक यह दौर चलता रहा। इस युग में पं. सुदर्शन, शिवपूजन सहाय, जैनेन्द्र, यशपाल, विशंभरनाथ शर्मा कौशिक, सुभद्राकुमारी चौहान, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा इत्यादि अनेक कथाकारों ने ख्याति प्राप्त की, लेकिन न तो उन्होंने किसी नए आंदोलन को प्रारंभ किया और न किसी नवयुग का सूत्रपात। 1955 में कहानी का विशेषांक आने के साथ दृश्य परिवर्तन हुआ। कहानी का स्थान अब नई कहानी ने ले लिया। नई कहानियां नाम से एक नई पत्रिका भी प्रारंभ हो गई। कहानी के विशेषांक के समय से मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, भैरव प्रसाद गुप्त, मार्कण्डेय, अमरकांत, निर्मल वर्मा, शेखर जोशी, धर्मवीर भारती, आनंद प्रकाश जैन, कमल जोशी, रामकुमार, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, उषा प्रियंवदा आदि कथा क्षितिज पर एक नई आभा बिखेरते हुए उदित हुए तथा नई कहानियां पत्रिका इनमें से अनेक को आगे ले जाने का वाहन बनी। नई कहानी के इस दौर में ही ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह इत्यादि कथाकार भी प्रकाश में आए।
कहानी पत्रिका ने एक युगांतकारी भूमिका निभाई। उसके बाद वह नए सिरे से नए लेखकों की पहिचान देने में सक्रिय हो गई। सन् साठ के दशक में कितने ही नए कहानीकार इस माध्यम से सामने आए। कुछ के नाम याद आते हैं- प्रबोध कुमार, ओमप्रकाश मेहरा, ममता कालिया, रवींद्र कालिया, रामनारायण शुक्ल, रमेश बक्षी, सतीश जमाली, देवेन्दु, नीलकांत, प्रकाश बाथम, निरुपमा सेवती इत्यादि। मैं कुछ अन्य पत्रिकाओं का भी उल्लेख यहां करना चाहूंगा। साठ के दशक में तब के कलकत्ता से कथाकार छेदीलाल गुप्त एवं उनके साथियों ने सुप्रभात नामक कथा पत्रिका निकाली। आगरा से भी नीहारिका शीर्षक से एक पत्रिका प्रारंभ हुई। मेरठ से छपने वाली अरुण ने अपना अलग स्थान बनाया जिसमें उर्दू और मराठी कहानियों के अनुवाद मुख्यत: छपते थे। फ्रिक तौसवीं, शौकत थानवी, ना.सी. फड़के, पु.ल. देशपांडे आदि की रचनाएं सर्वप्रथम इस पत्रिका में ही पढ़ीं। साठ का दशक जब विदा लेने को था, लगभग उसी समय महीप सिंह, मनहर चौहान व कुछ अन्य मित्रों ने मिलकर न सिर्फ सचेतन कहानी आंदोलन चलाया, बल्कि सचेतन कहानी नामक पत्रिका भी प्रारंभ की। यह शायद हिन्दी कहानी में चलाया गया पहिला आंदोलन था। यद्यपि यह लंबे समय तक नहीं चल पाया।
कथा जगत में इसके पश्चात दो अन्य आंदोलनों का ध्यान मुझे आता है। दोनों के प्रणेता कमलेश्वर थे। एक तो उन्होंने समानांतर कहानी आंदोलन (जो अल्पजीवी सिद्ध हुआ) प्रारंभ किया; दूसरे सारिका का संपादन करते हुए उन्होंने जहां एक ओर हिन्दी गज़ल को प्रतिष्ठित किया, वहीं उन्होंने लघु कथा को एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित करने की चेष्टा की। कहना न होगा कि दोनों विधाएं खूब फल-फूल रही हैं। इस बीच धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, ज्ञानोदय इत्यादि पत्रिकाओं ने पाठकों को अनेक कथाकारों की कृतियों से परिचित होने का अवसर दिया। शिवानी व मालती जोशी को जो लोकप्रियता हासिल हुई, उसमें दोनों बहुप्रसारित साप्ताहिकों की भूमिका को स्मरण करना चाहिए। ज्ञानोदय ने भी एक प्रयोग किया- सहयोगी उपन्यास प्रकाशित करने का। पहिले ग्यारह सपनों का देश छपा और फिर एक इंच मुस्कान।
बहरहाल, कहानी को एक नया मोड़ मिला, राजेन्द्र यादव के संपादन में पुनर्प्रकाशित 'हंस' से। आज जितने भी प्रमुख कथाशिल्पी हैं, उनमें से शायद ही कोई ऐसा हो जो हंस में न छपा हो। राजेन्द्र जी ने हंस में स्त्री-विमर्श एवं दलित-विमर्श की खूब सोच-समझकर शुरूआत की तथा उससे न सिर्फ कथा साहित्य में, बल्कि समूचे हिन्दी जगत में एक नई चेतना का प्रसार हुआ। उन्होंने अपने ढंग से साहित्य के सामाजिक दायित्व एवं सोद्देश्यता को परिभाषित किया। राजेन्द्र यादव ने इस तरह हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा।
इस वृहत्तर पृष्ठभूमि में 'अक्षर पर्व' का उत्सव अंक कहानी विशेषांक के रूप में आपके सम्मुख है। इसकी भूमिका छह साल पहिले बनी थी, जब 2009 में हमने कविता विशेषांक प्रकाशित किया था। किसी न किसी कारण से योजना टलती चली गई। अब जाकर इस विचार को मूर्त रूप मिल सका है। वैसे भी कविता विशेषांक के बाद कहानी विशेषांक की योजना बनना लाजिमी था, लेकिन अक्षर पर्व का यह अंक 2009 की ही भांति सामान्य तौर से प्रकाशित होने वाले विशेषांकों से एक मायने में बिल्कुल भिन्न है। इसमें सिर्फ वे ही रचनाएं ली गई हैं जो अक्षर पर्व में पूर्व में प्रकाशित हो चुकी हैं। एक तरह से यह हमारा अपना विहंगावलोकन है। दूसरे, ये सारी रचनाएं नई सदी के मोड़ पर लिखी गई हैं, याने 2000 के 4-5 साल पहिले या 10-15 साल बाद तक। अर्थात् गत दो दशक की अवधि में हिन्दी कथा साहित्य की जो दशा-दिशा रही है, उसकी एक आंशिक झलक यहां संकलित रचनाओं से मिल सकती है।
इस अंक के लिए रचनाओं का चयन करना मेरे लिए एक दुष्कर दायित्व था। 1997 से लेकर हाल-हाल तक प्रकाशित छह सौ से अधिक कहानियों में से किसे लें और किसे छोड़ें, यह प्रश्न सामने था। माथापच्ची के बाद पहिला निर्णय यही लिया कि अंक में अनूदित रचनाएं शामिल न की जाएं। इसके बाद उपन्यासिकाओं एवं उपन्यास अंशों को भी छोडऩे की बात तय की। ये दोनों निर्णय अनिच्छा से ही लिए। फिर यह बात उठी कि भीष्मजी सहित अनेक ज्येष्ठ कथाकारों की जो रचनाएं समय-समय पर प्रकाशित हुई हैं, उनमें से चयन कैसे हो। पुराने अंकों के पन्ने पलटते हुए मुझे इनकी जो कहानी एकबारगी जम गई, वह रख ली। स्थानाभाव के कारण अक्षर पर्व में प्रकाशित उनकी सारी कहानियां लेना तो संभव नहीं था न। अन्य सहयोगी लेखकों की कहानियों को दुबारा पढ़ते हुए कथावस्तु की विविधता को ध्यान में रखकर चयन करने का प्रयत्न किया ताकि एक कोलाज़ की शक्ल में वर्तमान समय की सच्चाइयां भरसक सामने आ सकें। इस तरह कहानी विशेषांक में एक ओर ज्येष्ठ लेखकों की रचनाएं हैं तो दूसरी ओर उन लेखकों की भी जिनसे पाठक शायद बहुत अच्छी तरह परिचित नहीं हैं। चयन में जहां कथावस्तु को प्राथमिकता दी है, वहीं यह प्रयास भी किया है कि भाषा व शैली में जो विविधता एवं नवाचार है, वह भी यथासंभव प्रकट हो सके।
अक्षर पर्व मुख्यत: कहानी की पत्रिका नहीं है। यह दायित्व कुछ अन्य पत्रिकाएं लम्बे समय से बखूबी निभा रही हैं। उनमें कहानी कला को लेकर निरंतर विमर्श और आलोचनाएं चलती रहती हैं, फिर भी अक्षर पर्व में जो कथा साहित्य प्रकाशित हुआ है वह अपने समय का दस्तावेज है। विगत तीस वर्षों में भारत के सामाजिक परिदृश्य में बहुत से परिवर्तन आए हैं। इसके पीछे जो आर्थिक, राजनीतिक कारण हैं उनसे हम अनभिज्ञ नहीं हैं। आज का कहानी लेखक इन परिवर्तनों को खुली आंखों से देख रहा है। आम नागरिक के जीवन में निजी और सामाजिक दोनों स्तरों पर जो प्रभाव पड़ा है वह कथाकार से छुपा हुआ नहीं है। इस संक्रमण काल की बेचैनी और छटपटाहट विभिन्न स्तरों पर कहानियों में बखूबी चित्रित हुई है।  मेरा विश्वास है यहां प्रकाशित कहानियों से एक बार गुजरने के बाद पाठक इस बात से सहमत होंगे।
पत्रिका के एक अंक में, भले ही वह विशेषांक क्यों न हो, सीमित स्थान के चलते रचनाओं की संख्या भी सीमित ही होगी। इसीलिए हमने तय किया है कि प्रस्तुत अंक कहानी विशेषांक का खंड-एक होगा तथा दिसंबर अंक खंड-दो के रूप में प्रकाशित किया जाएगा। आशा है कि हमेशा की तरह इस अंक का भी पाठक जगत में स्वागत होगा। अंत में सुधी पाठकों से क्षमा याचना कि याददाश्त के बल पर लिखी इस प्रस्तावना में कोई महत्वपूर्ण नाम छूटने की और अन्य गलतियां हो सकती हैं।
अक्षर पर्व नवंबर 2015 अंक की प्रस्तावना

Thursday, 12 November 2015

बिहार के बाद क्या?

 



पहले तो लोग इस बात पर माथापच्ची करते रहे कि बिहार में विधानसभा चुनावों के नतीजे क्या होंगे। जिस दिन मतदान का आखिरी चरण सम्पन्न हुआ उस दिन तमाम विशेषज्ञ एक्जिट पोलों की चीर-फाड़ में लग गए। 8 नवंबर को जब बहुप्रतीक्षित परिणाम सामने आए तब से उन नतीजों का विश्लेषण करने का काम चल रहा है। यह स्वाभाविक है तथा अभी कुछ दिन और चलेगा। सोशल मीडिया की जहां तक बात है उसमें लतीफों की बहार आई हुई है। बल्कि दीवाली के समय यह कहना अधिक सही होगा कि फुलझडिय़ां और पटाखे छूट रहे हैं। नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी के दौरान कई महीनों तक पारंपरिक मीडिया और सोशल मीडिया दोनों का जमकर उपयोग किया था। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी इसमें कोई कमी नहीं आई किन्तु इसके साथ यह भी हुआ कि नए-नवेले प्रधानमंत्री पर दोनों तरह के मीडिया में टीका-टिप्पणियां होना शुरु हो गईं, फिर बात चाहे उनकी परिधानप्रियता की हो, चाहे उनके मंत्रियों की योग्यता की। राजनीति में हर व्यक्ति को सार्वजनिक टीकाओं का सामना करना ही होता है। जो जितना बड़ा है उस पर उतनी ही ज्यादा बातें होती हैं। इस मामले में हमारे प्रधानमंत्री ने कमाल कर दिया। विगत डेढ़ वर्ष के दौरान उनको लेकर जितने कटाक्ष किए गए हैं वैसी स्थिति शायद कभी किसी सत्ता प्रमुख के सामने नहीं आई।

बहरहाल बिहार के परिणाम आ जाने के बाद अब राजनैतिक विश्लेषकों के समक्ष देश के राजनीतिक भविष्य के बारे में सोचने का समय शायद आ गया है। 2019 में लोकसभा के अगले चुनाव होंगे। इसमें अभी साढ़े तीन साल का वक्त है। इस बीच असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी, केरल, फिर उत्तरप्रदेश और अन्य प्रदेशों के चुनाव बारी-बारी होना है। पांच प्रदेशों के चुनाव होने में अब बहुत अधिक समय नहीं बचा है। पूर्वोत्तर और एक छोटा प्रदेश होने के कारण असम पर बाकी देश का ध्यान अक्सर नहीं जाता। यद्यपि भौगोलिक और सामाजिक कारणों से वहां की राजनीति कई बार ऐसे मोड़ पर पहुंच जाती है, जिसका असर पूरे देश पर पड़ता है। अभी असम में तरुण गोगई के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार काबिज है। श्री गोगई पिछले पन्द्रह वर्ष से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हैं। उनका तीसरा कार्यकाल पूरा होने जा रहा है। कुछ समय पहले असंतुष्ट नेता हिमांता बिस्वा सरमा ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा की सदस्यता ली। वे अपने साथ लगभग एक दर्जन विधायकों को भी ले गए। याने भाजपा ने जिस तरह बिहार में दलबदल को प्रश्रय दिया वही काम अब असम में हो रहा है। दूसरी ओर, मुस्लिम हितों की बात करने वाले एक नेता बदरुद्दीन अकमल का भी वहां काफी प्रभाव है। इन दो पाटों के बीच कांग्रेस की रणनीति आसन्न विधानसभा चुनाव में क्या होगी? वहां पार्टी को किसका साथ मिलेगा? मतदाता एक दलबदलू नेता पर कितना विश्वास करेगी और क्या  अल्पसंख्यक समाज बिहार की तर्ज पर कांग्रेस का साथ देगा? ऐसे अनेक प्रश्न उठते हैं।

इसके साथ-साथ बात आती है पश्चिम बंगाल की। तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने नीतीश कुमार को बधाई देने में जरा भी वक्त नहीं गंवाया। सवाल उठता है कि पश्चिम बंगाल में क्या समीकरण बनेंगे। एक ओर ममता बनर्जी दूसरी ओर माकपा की अगुवाई में वाममोर्चा। चूंकि बिहार में वाममोर्चे ने अपना पृथक रास्ता चुना इसलिए अनुमान होता है कि पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे के साथ उसका कोई तालमेल नहीं बैठेगा। लेकिन क्या तृणमूल कांग्रेस के साथ कांग्रेस का कोई गठबंधन संभव है? अगर इस दिशा में प्रयत्न हुए तो ममता दी उसकी क्या कीमत वसूलेंगी? और क्या कांग्रेस इस प्रदेश में अकेले लडऩे में सक्षम है? महागठबंधन के अन्य दो दलों की बंगाल में क्या भूमिका होगी? यदि लालू जी अथवा नीतीश जी की बिहार के बाहर अगर कोई महत्वाकांक्षा है तो क्या उसके बीजारोपण की शुरुआत ममता बनर्जी केेे साथ हाथ मिलाकर होगी? अगर तृणमूल कांग्रेस, वाममोर्चा और कांग्रेस तीनों अलग-अलग चुनाव लड़े तो क्या इसका कोई लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिल पाएगा? दिल्ली और बिहार में तो भाजपा के पास अनेक कद्दावर नेता थे। पश्चिम बंगाल में कौन हैं? इस कमी का क्या असर भाजपा पर पड़ेगा? गरज यह कि यहां भी सवाल बहुतेरे हैं।

तमिलनाडु में एक अलग ही दृश्य उपस्थित होता है। पिछले लगभग चालीस साल से हम वहां दो क्षेत्रीय दलों के बीच सत्ता की उलट-पुलट देखते आए हैं।  इनका नेतृत्व जो दो बड़े नेता कर रहे हैं वे कब तक अपना दायित्व संभाल पाएंगे कहना कठिन है। डीएमके के करुणानिधि वृद्ध, अशक्त और अस्वस्थ हैं। उनके तीन पत्नियों वाले परिवार में राजनीतिक विरासत को लेकर जो कलह चल रही है वह सर्वविदित है। करुणानिधि राष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रतिनिधि के रूप में बेटी कनिमोझी को स्थापित करना चाहते हैं, जबकि प्रदेश में उनकी प्रकट इच्छा छोटे बेटे स्टालिन को राजनीतिक विरासत सौंपने की रही है।  अनुमान कर सकते हैं कि आसन्न विधानसभा चुनाव स्टालिन के सक्रिय मार्गदर्शन में लड़े जाएंगे जिसमें कनिमोझी उनके साथ होंगी। बड़े भाई अजगीरी की क्या भूमिका होगी यह स्पष्ट नहीं है। दूसरी ओर जयललिता की सक्रियता भी स्वास्थ्य संबंधी कारणों से बाधित हुई है ऐसा सुनने में आता है। अगर जयललिता पूरी तैयारी के साथ चुनाव मैदान में उतर सके तब भी क्या तमिलनाडु के मतदाता उन्हें लगातार दूसरा मौका देंगे? जयललिता और नरेन्द्र मोदी के बीच मधुर संबंध हैं, लेकिन क्या दोनों के बीच कोई औपचारिक गठबंधन होना संभव है? इसी तरह डीएमके और कांग्रेस के बीच जो गठबंधन लंबे समय तक चला क्या वह दुबारा बन सकेगा? इस दक्षिण प्रदेश में भाकपा और माकपा दोनों के अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र हैं। यद्यपि राज्यसभा में जाने के लिए उन्हें कभी करुणानिधि तो कभी जयललिता की चिरौरी करना पड़ती है। क्या तमिलनाडु में कांग्रेस समाजवादी और साम्यवादी दोनों मोर्चों को साथ लेकर कोई महा-महागठबंधन बना पाएगी?

एक अन्य दक्षिण प्रदेश केरल में भी कुछ ही दिनों में विधानसभा चुनाव होना है। केरल को राजनीतिक दृष्टि से एक अत्यन्त जागरुक प्रदेश माना जाता है। यहां सामान्यत: हर पांच साल में सरकार  बदल जाती है। फिलहाल सरकार कांग्रेस की है इसलिए यह सोच लेना आसान है कि अगली सरकार माकपा के नेतृत्व में वाममोर्चे की बनेगी। लेकिन मामला इतना सरल नहीं है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उसके पास वी.एस. अच्युतानंदन के बाद कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। पिछले चुनावों में वी.एस. को किनारे कर दिया गया था, किन्तु यह उनकी ही छवि थी जिसके कारण माकपा लगातार दूसरी बार सत्ता में आने के करीब पहुंच सकी। कांग्रेस में ओमन चांडी मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उन्हें लगातार पार्टी की अंतर्कलह से और पार्टी नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझना पड़ रहा है। यह उल्लेखनीय है कि केरल विधानसभा में भाजपा को आज तक एक भी सीट नहीं मिली है, फिर भी वह धीरे-धीरे अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाते गई है। विगत नगरीय निकाय चुनावों में भाजपा ने तिरुअनंतपुरम नगर निगम में अठाइस सीटें हासिल कीं। अभी हाल में सम्पन्न चुनाव में उसकी सीटें बढ़कर पैंतीस-छत्तीस हो गई हैं और कांग्रेस वहां तीसरे नंबर पर पहुंच गई है। याने कांग्रेस और माकपा के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। अगले साल जब कांग्रेस और माकपा के बीच मुकाबला होगा तब पहली बार भाजपा शायद विधानसभा में अपना खाता खोलने की उम्मीद कर सकती है।

हमारी उम्मीद है कि राजनैतिक अध्येता इन सारी स्थितियों का विश्लेषण कर हमारा ज्ञानवर्धन करेंगे कि आने वाले दिनों में देश की राजनीति की दिशा क्या होगी।
देशबन्धु में 11 नवंबर 2015 को प्रकाशित

Sunday, 8 November 2015

जनतांत्रिक शक्तियों की विजय

 


बिहार के चुनाव परिणाम देश की जनता के लिए एक बड़ी राहत लेकर आए हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक चुनावी सभा में विश्वास व्यक्त किया था कि बिहार की जनता इस साल दो दिवाली मनाएगी। एक 8 तारीख को और दूसरी 11 तारीख को। उनका कथन सत्य से बढ़कर सिद्ध हुआ है। इस मायने में कि आज देश की तीन चौथाई जनता बिहारवासियों के साथ दिवाली के पहले दिवाली मना रही है। बिहार विधानसभा के लिए महागठबंधन की भारी जीत और भाजपा व उसके सहयोगियों के निराशाजनक प्रदर्शन में बहुत सारे संदेश छुपे हुए हैं। यूं तो लगभग साल भर पहले दिल्ली विधानसभा के चुनावों में करारी शिकस्त मिलने में भी भाजपा के लिए कुछ स्पष्ट दिशा संकेत थे लेकिन तब जिनकी उसने अनदेखी कर दी थी। अपने स्थापना काल से ही भाजपा भावनाओं से खिलवाड़ करने की राजनीति करती आई है। 2014 के आम चुनावों में स्पष्ट विजय मिल जाने के बाद उसे लगने लगा था कि वह जो कर रही है वही ठीक है, लेकिन अब शायद समय आ गया है कि उसे नए सिरे से अपनी राजनीति और रणनीति दोनों पर पुनर्विचार करना चाहिए।

हमारी चुनाव प्रणाली में जिसे सबसे ज्यादा वोट मिले वह जीत जाता है। इसमें वोट प्रतिशत की बात गौण हो जाती है। जब जीतने वाली पार्टी का वोट प्रतिशत आधे से कम हो तथा उससे सबक लेकर सारे विपक्षी एकजुट हो जाएं तो यही तत्व अपने आप महत्वपूर्ण हो जाता है। अतीत में हमने देखा है कि जब-जब गैरकांग्रेसी दल एकजुट हुए हैं कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा। इस बार बिहार में भाजपा-विरोधी तीन दल एकजुट हो गए तो समीकरण बदल गए और भाजपा के हिस्से ऐसी शोचनीय पराजय आई। भाजपा ने महागठबंधन  को तोडऩेेे और कमजोर करने में अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं रखी। उसने जदयू के दागी नेताओं को टिकट दिए, दलबदल को बढ़ावा दिया, ओवैसी को प्रच्छन्न समर्थन दिया, मुलायम सिंह के साथ भी गुपचुप दोस्ती की लेकिन उसकी कोई भी युक्ति कारगर नहीं हो सकी।

महागठबंधन ने जो शानदार जीत हासिल की है उसका सबसे बड़ा श्रेय तीनों पार्टियों के नेताओं को जाता है, जिन्होंने अपनी एकता में कोई दरार नहीं आने दी और चुनाव की लंबी प्रक्रिया के दौरान किसी भी तरह की बदमज़गी उत्पन्न नहीं होने दी। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों पुराने साथी और मित्र रहे हैं इसलिए उनके दुबारा एक साथ आने में कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं थी। इसमें तीसरे दल के रूप में कांग्रेस की जो सकारात्मक भूमिका रही उसका श्रेय राहुल गांधी को देना ही होगा, जिन्होंने चुनाव के बहुत पहले नीतीश कुमार से बात कर साथ-साथ चलने का मंतव्य प्रकट कर दिया था। उसका जो लाभ कांग्रेस को मिला है वह सामने है। यह उल्लेखनीय है कि न सिर्फ भाजपा बल्कि अनेक टीकाकारों द्वारा बार-बार कहा जाता रहा कि लालू प्रसाद का साथ लेने से नीतीश कुमार को नुकसान होगा, ऐसी सारी भविष्यवाणी निरर्थक सिद्ध हुई।

आज सुबह से टीवी पर जो बहसें आ रही हैं उसमें भी लालू बनाम नीतीश का बखेड़ा उत्पन्न करने की कोशिशें हो रही हैं। ऐसे लोग खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की कहावत को चरितार्थ कर रहे  हैं। यह स्पष्ट है कि नीतीश कुमार तीसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं। जदयू को राजद के मुकाबले तीन-चार सीटें भले ही कम मिली हों, लेकिन उससे कोई फर्क पडऩे वाला नहीं है। हम अतीत के अनुभव से जानते हैं कि लालू जी ने कांग्रेस का साथ दिया तो उसे पूरी तरह निभाया। वे नीतीश के साथ भी दोस्ती निभाएंगे इसमें कोई शक नहीं है। कुल मिलाकर महागठबंधन ने जनतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शक्तियों को एकजुट होकर चलने का रास्ता प्रशस्त किया है और देश के संविधान की रक्षा के लिए इस समीकरण का बने रहना परम आवश्यक है।

भारतीय जनता पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान और उसके व्यापक परिदृश्य में जिस तरह की राजनीति की, जैसी प्रवृत्तियों को बढ़ाया दिया और जैसी भाषा का प्रयोग किया उससे आम जनता के भीतर गहरी असुरक्षा का भाव पनप रहा था तथा नरेन्द्र मोदी की क्षमता पर भी सवाल उठने लगे थे। सोचकर देखिए कि चुनावों के दौरान श्री मोदी ने बिहार में बत्तीस आम सभाएं कीं। आज तक किसी भी प्रधानमंत्री ने किसी प्रदेश के चुनाव में इतनी दिलचस्पी नहीं दिखाई। फिर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह बिहार में पैंतालीस दिन तक डेरा डाले रहे। केन्द्र में इस प्रदेश से आधे दर्जन मंत्री तो पहले से हैं। फिर भी दर्जन भर और मंत्रियों की ड्यूटी चुनाव में लगा दी गई। ऐसा माहौल खड़ा किया गया मानो नरेन्द्र मोदी मुख्यमंत्री का चुनाव लड़ रहे हों। मतदाताओं ने इस रवैय्ये को पसंद नहीं किया।

यही नहीं, श्री मोदी ने चुनाव अभियान के प्रारंभ में ही बिहार के डीएनए की बात उठा दी। प्रधानमंत्री से ऐसी असंयत भाषा की उम्मीद नहीं की जाती थी। फिर उन्होंने पैकेज देने की बात कुछ इस अंदाज में की मानो जनता पर अहसान कर रहे हों। प्रदेश के खुद्दार मतदाताओं ने इसे भी अपना अपमान ही माना। फिर दिल्ली के पास दादरी से लेकर मुंबई तक जो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं घटित हुईं उनका भी कोई संज्ञान लेना मोदी सरकार ने उचित नहीं समझा तथा आम जनता के मन में यही बात आई कि यह बिहार चुनाव के समय साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण व बहुमतवाद तैयार करने की कोशिश ही है। लेखकों, कलाकारों द्वारा पुरस्कार व सम्मान लौटाने पर भी उनकी बात को समझने की कोशिश करने की बजाय उल्टे उन पर अनर्गल आरोप जडऩे व टिप्पणियां करने का जो काम भाजपा के मंत्रियों व नेताओं ने किया उसे भी बिहार की राजनीतिक चेतना से लैस प्रबुद्ध मतदाताओं ने स्वीकार नहीं किया।

इस वृहत्तर पृष्ठभूमि में यह भी याद रखने की आवश्यकता है कि आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार अब तक कोई कमाल नहीं कर पाई है। दाल और प्याज की कीमतें जिस तरह बढ़ी हैं उससे हर नागरिक परेशान और चिंतित है। जो स्वदेशी उद्योगपति नरेन्द्र मोदी के अंधसमर्थक थे उनका भी मोह भंग होने लगा है जो अभी नारायण मूर्ति व किरण मजूमदार शॉ के वक्तव्यों से प्रकट हुआ। जिन विदेशी उद्यमियों व निवेशकों ने नरेन्द्र मोदी पर दांव लगाया था वे भी स्वयं को ठगा गया महसूस कर रहे हैं। रेटिंग एजेंसी मूडी की रिपोर्ट चावल का दाना है। विदेश नीति में इस सरकार की असफलता अब दिखाई देने लगी है। नेपाल के साथ संबंध बिगड़ते हैं तो उसका सबसे पहले प्रभाव बिहार पर ही पड़ता है। इस बात को सरकार ने सही ढंग से नहीं समझा। अब जानकार लोग कहने लगे हैं कि अगर विश्व बाजार में तेल की कीमतें न गिरी होतीं तो भारत की अर्थव्यवस्था का न जाने क्या हाल होता।

ऐसी और बहुत सी बातें हैं जो जनता के मन में उमड़-घुमड़ रही हैं। अगर नरेन्द्र मोदी अपने आपको एक सफल प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं तो सबसे पहले उन्हें गुजरात का मुख्यमंत्री होने की मानसिकता से निकलना होगा। उन्हें संघ का स्वयंसेवक होने का गर्व भी छोडऩा होगा। आखिरी बात अमित शाह को नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए तत्काल अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए।

देशबन्धु में 09 नवंबर 2015 को प्रकाशित विशेष सम्पादकीय

Thursday, 5 November 2015

कुंभलगढ़ और हल्दीघाटी


 मन मयूर नाच उठा जैसे मुहावरों का प्रयोग अब शायद ही कोई करता हो। मयूर पंख, नाचे मयूरी जैसे नामवाली फिल्में भी अब किसे याद हैं। मयूर भारत का राष्ट्रीय पक्षी है, लेकिन उसकी चर्चा भी कहां सुनने मिलती है। जब वन्य जीवन की बात होती है तो बाघ को बचाने की फिक्र ही सामने आती है। मोर बेचारा किसी गिनती में नहीं आता। कुल मिलाकर जंगल में मोर नाचा किसने देखा वाली कहावत ही चरितार्थ हो रही है। इसलिए उस दिन जब अरावली की पर्वतमाला में बसे उस छोटे से गांव में मोरों का एक पूरा कुनबा देखा तो मन सहज  प्रफुल्लित हो उठा। दिल्ली भी अरावली की गोद में बसी है। वहां भी कभी-कभार मोर देखने मिल जाते हैं। ऐसा लगता है कि राष्ट्रीय पक्षी को आश्रय देने की पूरी जिम्मेदारी इसी पर्वतमाला ने उठा रखी है जो दिल्ली से लेकर दक्षिण राजस्थान में गुजरात की सीमा तक फैली हुई है।

हमें मयूर दल के दर्शन अनायास ही हो गए। मुख्य मकसद तो कुंभलगढ़ को देखना था। पंद्रहवीं शताब्दी में राणा कुंभा द्वारा बनवाया गया यह किला इधर कुछ वर्षों से चर्चा में आ गया है और एक पर्यटन केन्द्र के रूप में विकसित हो रहा है। एक समय जब लोग उदयपुर घूमने आते थे तो वहां की झीलों को और महल को देखकर खुश हो लेते थे। श्रद्धालुजन निकट स्थित नाथद्वारा और एकलिंगजी के दर्शन करने भी चले जाते थे। देशप्रेम पर्यटकों को हल्दीघाटी तक भी ले जाता था। लेकिन कुंभलगढ़ अपने भव्य सूनेपन में अकेले रहा आता था। यह कुछ आश्चर्य की ही बात है कि इस प्राचीन किले की तरफ अभी तक सैलानियों और पर्यटन प्रबंधकों का ध्यान क्यों नहीं गया। अब स्थिति कुछ बदल रही है। इस स्थान के साथ हमारे इतिहास के दो महत्वपूर्ण अध्याय जुड़े हुए हैं। एक तो चित्तौडग़ढ़ में जब राजवंश को समूल नष्ट करने का षडय़ंत्र रचा गया तब पन्ना धाय पांच साल के बालक उदयसिंह को लेकर यहीं आई थीं। दूसरे, महाराणा प्रताप का जन्म इसी किले में हुआ था।

कुंभलगढ़ के किले से इतिहास की एक और ऐसी कथा जुड़ी है जिसका उल्लेख पाठ्य पुस्तकों में नहीं मिलता। जिन राणा कुंभा ने इस अभेद्य गढ़ का निर्माण करवाया था उनकी हत्या उनके सगे बेटे ऊधा ने साम्राज्य के लालच में कर दी थी। आजकल किले में शाम को ध्वनि और प्रकाश का जो कार्यक्रम चलता है उसमें इस तथ्य का उल्लेख किया जाता है। यह घटना बताती है कि सत्ता के लिए बाप को कैद कर लेना, या मार डालना या भाई की हत्या कर देना- इन सबका किसी धर्म विशेष से लेना-देना नहीं है। जब हम सत और असत के प्रतिमान धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर गढ़ लेते हैं तब ऐसे तथ्यों की सच्चाई तक पहुंचने में हमारी सहायता करती है और इसलिए इनकी अनदेखी नहीं की जाना चाहिए।

कुंभलगढ़ उदयपुर से लगभग अस्सी किलोमीटर की दूरी पर है। केलवाड़ा नामक गांव से चढ़ाई प्रारंभ होती है और लगभग आठ-नौ किलोमीटर तक आप ऊपर चलते जाते हैं। जिस पहाड़ी पर किला अवस्थित है उसकी ऊंचाई समुद्र सतह से कोई इकतीस-बत्तीस सौ फीट होगी। इसके बाद एक के बाद एक कई दरवाजों और सीढिय़ों को पार करते हुए लगभग पांच सौ फीट और ऊपर चढऩा होता है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण किले की देखभाल करता है, लेकिन अब वहां सूनी दीवालों के अलावा और कुछ नहीं है। ऊपर पहुंच जाने के बाद यह अनुमान अवश्य होता है कि इस किले पर चढ़ाई करना और इसे जीत लेना असंभव सी बात रही होगी। बताया जाता है कि सिर्फ एक बार दुश्मन की सेना यहां तक पहुंच पाई थी। एक तरह से यह गढ़ राणा कुंभा की समर-सिद्धता की गवाही देता है।

कुंभलगढ़ की दूसरी बड़ी विशेषता उसका परकोटा है। मूल रूप में इस परकोटे की लंबाई छत्तीस किलोमीटर थी और इसकी चौड़ाई कोई पच्चीस-तीस फीट के आसपास होगी। परकोटा लगभग नष्ट हो चुका है। सिर्फ एक दिशा में लगभग एक किलोमीटर लंबा हिस्सा बाकी है जिसे देखकर चीन की दीवार की याद आ जाना स्वाभाविक है। परकोटे का शेष भाग कब, कैसे नष्ट हो गया और उसे कैसे बचाया नहीं जा सका, यह हमें कोई नहीं बता पाया। किले के अलावा तलहटी में कई वर्ग कि.मी. में फैले विशाल प्रक्षेत्र में तीन सौ से अधिक मंदिर अवस्थित हैं। इनमें से अनेक किले का निर्माण होने के पहले के हैं। इनमें जैन मंदिरों की संख्या काफी है। समझा जाता है कि यहां पहले कभी जैन मंदिर ही रहे होंगे। कालांतर में किसी कारणवश वहां पूजा-पाठ बंद हो गया होगा।

जैसा कि हम जानते हैं मेवाड़ राज्य की पहली राजधानी चित्तौडग़ढ़ में थी। इसके बाद कुंभलगढ़ बसा, फिर राणा उदयसिंह ने उदयपुर की स्थापना की। उदयपुर से कुंभलगढ़ को जाने वाले रास्ते पर भी कोई पंद्रह किलोमीटर बाद एक सड़क हल्दीघाटी की ओर फूटती है जो आगे नाथद्वारा की ओर चली जाती है। हल्दीघाटी के  साथ महाराणा प्रताप की वीरता और उनके स्वामिभक्त चपल वेग घोड़े चेतक की कहानी जुड़ी हुई है। इस जगह का नाम हल्दीघाटी एकदम सटीक और उपयुक्त है। यहां एक संकरा दर्रा है जिसमें महाराणा प्रताप ने अकबर के सेनापति राजा मानसिंह की फौज को घेरने की व्यूह रचना की थी। इस दर्रे की मिट्टी का रंग हल्दी की ही तरह पीला है। इसके पास में ही चेतक की समाधि है। पहले लोग यहां आते थे तो इस समाधि पर और दर्रे पर जाकर माथा नवाते थे, लेकिन अब यहां इक्के-दुक्के पर्यटक ही आते हैं और इसका कारण है।

हल्दीघाटी में दर्रे के दो किलोमीटर पहले जो गांव है वहां एक स्थानीय उद्यमी ने महाराणा प्रताप म्यूजियम की स्थापना कर दी है। यह स्थान सैलानियों के आकर्षण का बड़ा केन्द्र बन गया है। भीतर एक प्रेक्षागृह है जिसमें महाराणा प्रताप के जीवन पर लगभग दस मिनट की एक फिल्म दिखाई जाती है। इसमें एक जगह सूत्रधार एक महत्वपूर्ण बात कहता है- शहंशाह अकबर एवं महाराणा प्रताप के बीच हुई लड़ाई साम्प्रदायिक नहीं थी। अकबर की सेना का नेतृत्व जयपुर के राजा मानसिंह कर रहे थे, जबकि प्रताप के सेनापति हकीम खान सूर थे। फिल्म खत्म होती है। अंत में स्वाधीनता सेनानियों के चित्र दिखाए जाते हैं उनमें लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और भगतसिंह के साथ-साथ डॉ. हेडगेवार किस तर्क से उपस्थित हैं, यह पाठक स्वयं समझ सकते हैं।

फिल्म खत्म होती है तो एक गुफानुमा लंबी सी दीर्घा में दर्शकों को ले जाया जाता है जहां उपकरणों की सहायता से संचालित महाराणा प्रताप के जीवन की त्रिआयामी झलकियां दिखाई जाती हैं। यहां एक बार फिर आप उन सूचनाओं से रूबरू होते हैं जो पहले आप फिल्म में देख आए हैं। इसके आगे का दृश्य रोचक है। दीर्घा से बाहर निकलते साथ सामने गुलकंद, गुलाबजल और ऐसी कुछ अन्य सामग्रियां बेचने की दुकानें सजी हुई हैं। आपका गाइड आपसे इन दुकानों पर खरीदारी करने का जोरदार आग्रह करता है। दुकानदार भी हांक लगाकर पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं। देखते ही देखते आप जिस देशभक्ति की भावना को हृदय में धारण कर बाहर निकले थे वह व्यापार के कौतुक में तिरोहित हो जाती है। इसके बाद आप अपने स्मार्टफोन में संजोई सैल्फियों के साथ खुशी-खुशी अगले ठिकाने के लिए चल पड़ते हैं।

देशबन्धु में 05 नवंबर 2015 को प्रकाशित