Thursday 10 September 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार-14

 


अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री तो बन गए थे, लेकिन अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले प्रारंभ में उनकी राह आसान नहीं थी। कदम-कदम पर कांटे बिछे थे। प्रदेश की नौकरशाही में सर्वोच्च पदों पर बैठे कुछ अफसरों तक की निष्ठा मुख्यमंत्री पद के साथ न होकर अपने दीर्घकालीन संरक्षकों के साथ थी। जिस प्रदेश में कोई मुख्यमंत्री अब तक पांच साल का कार्यकाल पूरा न कर पाया हो, उसमें श्री सिंह के भविष्य को लेकर कुछ अधिक ही अटकलबाजियां थीं। इसे एक आश्चर्य ही माना जाएगा कि उन्होंने न सिर्फ पहला कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा किया, बल्कि 1985 में प्रदेश के इतिहास में लगातार दूसरी बार जीतने का रिकॉर्ड कायम किया। मैंने कुछ साल पहले लिखा था कि अर्जुनसिंह कम बोलते हैं व उनके कहे का अर्थ निकालना कठिन होता है। दूसरी ओर दिग्विजय सिंह अधिक बोलते हैं और उनके कहे का अर्थ निकालना भी कठिन होता है। दिग्विजय सिंह की चर्चा यथासमय होगी। फिलहाल अर्जुनसिंह के बारे में कहा जा सकता है कि इस गुण ने उन्हें खूब साथ दिया।

श्री सिंह के बारे में उनके पद सम्हालते साथ तरह-तरह की ईर्ष्याप्रेरित टीकाएं होने लगी थीं। इनमें सर्वाधिक प्रचलित थी कि अर्जुनसिंह का दिमाग इतना टेढ़ा है कि सीधा खीला घुसाओ तो स्क्रू ड्राइवर बनकर बाहर निकलता है। उन्होंने धैर्यपूर्वक इस विपरीत माहौल का सामना किया। मुझे याद आता है कि जब वे विधानसभा में विपक्ष के नेता थे तब रायपुर प्रवास पर एक होटल में भोजन करते समय भी उनके साथ अभद्र बर्ताव कांग्रेस के ही कुछ उभरते युवा नेताओं ने किया था। मुख्यमंत्री बनने के पश्चात धमतरी में उनकी शोभायात्रा में भी बाधा पहुंचाने की हरकत की गई थी। सरकार का मुखिया अपनी छवि धूमिल होने की कीमत पर कब तक यह सब चलने देता? उस समय बी के दुबे प्रदेश के मुख्य सचिव थे। मुख्यमंत्री ने उन्हें छह माह बीतते न बीतते निलंबित कर दिया। कहना न होगा यह अपने आप में बड़ी कार्रवाई थी, जिसका वांछित संदेश नौकरशाही पर ही नहीं, राजनीतिक हलकों में भी पहुंचते देर न लगी।

एक और मज़ाक उन दिनों चल निकला था कि मुख्यमंत्री को कोई फैसला लेना होता है तो वे फाइल पर लिख देते हैं कि समस्त नियमों को शिथिल करते हुए यह कार्य किया जाए। इस बात में काफी सच्चाई थी, जिसकी व्याख्या की गई कि मुख्यमंत्री मनमाने फैसले लेते हैं। लेकिन इसके दूसरे पहलू को जानबूझकर नहीं समझा गया। अर्जुनसिंह ने अपने अधिकारियों पर कभी भी फाइलों पर मुंहदेखी टीप लिखने का दबाव नहीं डाला। आपको जो राय देना है अपनी स्वतंत्र बुद्धि से दीजिए। मुझे जो निर्णय लेना होगा, लूंगा, लेकिन उसकी जिम्मेदारी आपके ऊपर नहीं डालूंगा जिससे आपको आगे चलकर कोई परेशानी आए। एक उत्तरदायी सरकार के मुखिया से यही अपेक्षा हर समय की जाना चाहिए। मैंने यह भी नोटिस किया कि श्री सिंह ने अपनी ओर से किसी प्रतिद्वंद्वी पर पहला वार नहीं किया, लेकिन जब कभी उन पर हमला हुआ तो फिर पलटवार करने में उन्होंने कमी नहीं की। इसके बावजूद अपने राजनीतिक विरोधियों के काम भी उन्होंने किए व उन्हें अपने पक्ष में लाने की हरसंभव कोशिश भी की।

बहरहाल, मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह ने पदभार लेने के तुरंत बाद ही अपूर्व सक्रियता के साथ राजनीतिक और प्रशासनिक नवाचारी निर्णय लेना शुरू कर दिया था। उनका एक महत्वपूर्ण कदम था कि सभी संभागों व अनेक जिलों में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के अधिकारी आयुक्त, डीआईजी, जिलाधीश व एसपी के रूप में पदस्थ किए गए। संदेश स्पष्ट था कि नई सरकार की सामाजिक नीति क्या होगी। छत्तीसगढ़ में उन्होंने प्रदेश (तब अंचल) की अस्मिता के प्रतीक तीन महापुरुषों को शासकीय स्तर पर प्रतिष्ठा प्रदान की।  ये थे- गुरु घासीदास, वीर नारायण सिंह और पं सुंदर लाल शर्मा। इसी बीच शायद 1981 में भिलाई में एक वृहत कार्यक्रम नेहरू सभागार में हुआ। उसमें उन्होंने भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना व छत्तीसगढ़ में विकास के प्रणेता के नाते पं रविशंकर शुक्ल का श्रद्धापूर्वक नामोल्लेख किया तो सभागार में मानों आश्चर्य की एक लहर सी दौड़ गई। इस एक वाक्य ने विरोधी स्वर को किसी हद तक शांत कर दिया और श्री सिंह आम जनता के लिए प्रशंसा पात्र बन गए।

लगभग इसी समय अर्जुनसिंह ने एक ऐसा राजनीतिक दांव खेला, जिसकी कल्पना शायद ही किसी ने की होगी। संत-कवि-राजनेता पवन दीवान भावनात्मक रूप से पृथक छत्तीसगढ़ आंदोलन से 1967 के आसपास से जुड़कर उसमें सक्रिय भागीदारी निभा रहे थे। 1977 में वे जनता पार्टी से विधानसभा चुनाव जीते और जेल मंत्री भी बने। वे शुक्ल बंधुओं के कट्टर विरोधी गिने जाते थे। श्री सिंह ने उनसे गुप्त संवाद स्थापित किया। मुझे बताया गया कि वे रायपुर आकर आधी रात के बाद गुपचुप तरीके से उनसे मिलने किरवई (राजिम) आश्रम मिलने गए। उनकी आशा-अपेक्षा को समझा, पक्का आश्वासन दिया और लौट आए। इसके तुरंत बाद छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण स्थापित करने की आधिकारिक घोषणा हुई।  स्वयं मुख्यमंत्री अध्यक्ष, राज्य योजना मंडल के उपाध्यक्ष रामचंद्र सिंहदेव उपाध्यक्ष, सदस्यों में मंत्री झुमुकलाल भेंडिया आदि के अलावा प्रमुख तौर पर नवप्रवेशी कांग्रेसी पवन दीवान। मुझे भी मेरी बिना जानकारी या सहमति के इस प्राधिकरण का सदस्य मनोनीत किया गया। भाई पवन पुराने साहित्यिक मित्र थे। उनकी ऊर्जा का रचनात्मक उपयोग होगा, यह संभावना सुखद थी। सिंहदेवजी से यहां जो मित्रता हुई, वह अंत तक बनी रही।

छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण की पहली दो-तीन बैठकें भोपाल में संपन्न हुईं। वरिष्ठ आईएएस अधिकारी जगतस्वरूप इसके सदस्य सचिव पदस्थ किए गए। पहली बैठक में ही अनेक सदस्यों ने अपनी ओर से अंचल के विकास हेतु अनेक व्यवहारिक सुझाव पूर्वलिखित पेश किए थे जिन पर विस्तारपूर्वक चर्चा हुई। मुख्यमंत्री ने कुछेक के प्रति अपनी ओर से अनुमोदन भी किया। मेरा एक प्रस्ताव था कि छत्तीसगढ़ में एक भी पशुचिकित्सा महाविद्यालय नहीं है। इसकी स्थापना हेतु मैंने बिलासपुर में संचालित कामधेनु योजना व हरा चारा केंद्र के विस्तृत परिसर का सह-उपयोग करने का सुझाव भी दिया था, जिसे मान लिया गया था। छत्तीसगढ़ विकास प्राधिकरण की स्थापना तथा ऐसे ही अन्य कदम उठाकर अर्जुनसिंह ने कुल मिलाकर सारे मध्यप्रदेश में अपनी सियासी जमीन मजबूत कर ली थी। छत्तीसगढ़ अंचल में शुक्ल बंधुओं के करीबी समझे जाने वाले अनेक प्रभावशाली राजनेता भी उनके साथ आ गए थे, जिन्हें श्री सिंह ने उचित सम्मान व प्रश्रय दिया। केयूरभूषण पहले ही लोकसभा का टिकट पा चुके थे। डॉ. टुम्मनलाल, झुमुकलाल भेंडिया आदि को उन्होंने महत्वपूर्ण दायित्व सौंपे। एक तरफ उन्होंने राजनीतिक समीकरण साधे तो दूसरी ओर सामाजिक धरातल पर भी उन्होंने वंचित-शोषित समाज के प्रति अपनी एकजुटता प्रदर्शित की जो उनके पहले इस मुखरता के साथ किसी और ने न की थी। (अगले सप्ताह जारी)


#देशबंधु में 10 सितंबर 2020 को प्रकाशित

No comments:

Post a Comment