Saturday 5 September 2020

पत्रकारिता की मिशनरी परंपरा और पतन

 


(नोट: सुपरिचित रचनाकार अखिलेश विगत कई वर्षों से "तद्भव" का संपादन- प्रकाशन कर रहे हैं। कुछ ही समय पहले इसका पत्रकारिता विशेषांक प्रकाशित हुआ है। इसका संपादन युवा पत्रकार अटल तिवारी ने किया है व विशेष सहयोग दूसरे युवा पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव का रहा है। यह विशेषांक हर सजग पत्रकार के लिए विशेष पठनीय व संग्रहणीय है। प्रस्तुत यह लेख इसी विशेषांक के परंपरा खंड से साभार उद्धृत एवं पुनर्प्रकाशित है- ललित सुरजन)

भारतीय पत्रकारिता के लगभग ढाई सौ वर्षों के इतिहास में यदि कोई मिशनरी परंपरा थी तो वह अटूट और अविच्छिन्न न होकर किसी हद तक बिखरी हुई थी। उसके पुरोधाओं के लिए पत्रकारिता अपने आप में साध्य न होकर एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक फौरी साधन मात्र थी। निस्संदेह भारत के पहले समाचार पत्र ''द बंगाल गजट" ने वाइसराय वारेन हैस्टिंग्ज़ के भ्रष्टाचार आदि कारनामों को उजागर किया, जिसके चलते संस्थापक संपादक जेम्स आगस्टस हिकी को पहले कारावास और फिर भारत से निष्कासन का दंड भोगना पड़ा लेकिन हिकी के इस अनुकरणीय उदाहरण से कोई परंपरा स्थापित नहीं हुई। मोतीलाल घोष ने वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट को धता बताते हुए आनंद बाजार पत्रिका का बांग्ला के बजाय अंग्रेजी में प्रकाशन प्रारंभ कर दिया, लेकिन ऐसा कल्पनाशील कदम उठाने वाले वे अकेले ही थे। तिलक, लाजपत राय, गांधी, नेहरु, आज़ाद प्रभृत्ति महानायकों ने स्वाधीनता के वृहत्तर लक्ष्य को सामने रखकर अखबार प्रकाशित किए, लेकिन उनकी बात निराली थी। ये तमाम दृष्टांत प्रेरणादायक हैं, इतिहास लेखन की दृष्टि से महत्वपूर्ण भी हैं, किंतु इन्हें नियम न मानकर अपवाद मानना ही उचित होगा। बी.जी. हार्निमन, सैय्यद अब्दुल्ला बरेलवी, गणेश शंकर विद्यार्थी, एस. सदानंद जैसे कृती पत्रकार आदर्श के रूप में हमारे सामने आते हैं, लेकिन ये मिशनरी पत्रकारिता की कोई ठोस परंपरा स्थापित कर गए हों, यह निश्चित रूप से कहना मुश्किल है।

दरअसल, मिशनरी परंपरा की बात करते हुए हम इस सच्चाई को अनदेखा कर देते हैं कि पत्रकारिता अन्तत: एक व्यवसाय है। किसी अन्य व्यवसाय की भांति इसमें भी पूंजी और श्रम के अलावा अनेक स्तरों पर तालमेल तथा समझौता करने की आवश्यकता होती है। आजादी के ठीक बाद के दौर में यह सच्चाई पूरी स्पष्टता के साथ प्रकट नहीं हो पाई थी जिसके दो-तीन कारण थे। एक तो स्वाधीनता प्राप्ति का मिशन हासिल कर लेने के बाद देश के नवनिर्माण का मिशन प्रारंभ हो गया था, याने पत्रकारिता के सामने तब भी एक वृहत्तर लक्ष्य मौजूद था। दूसरे, जवाहरलाल नेहरु जैसे उदात्त, लोकतांत्रिक नेता हमारे प्रधानमंत्री थे जो पत्रकारिता की लोककल्याणकारी भूमिका को प्रोत्साहित करने के पक्षधर थे। तीसरे, तब पत्रकारों की वह पीढ़ी भी थाी जिसने या तो आज़ादी की लड़ाई में सीधे भागीदारी की थी या जो गांधी-नेहरु के आदर्शों से अनुप्राणित हो एक सार्थक भूमिका निभाने के लिए प्रतिश्रुत थी। चौथे, तब अखबार ही पत्रकारिता का एकमात्र माध्यम था और बिना भारी-भरकम पूंजी निवेश के अखबार निकालना संभव था। यह वह समय था जब बाबूराव विष्णु पराड़कर व बनारसी दास चतुर्वेदी जैसे पत्रकार प्रेस पर पूंजी के हावी होने की आशंका प्रकट कर रहे थे, फिर भी पत्रकारिता के मूल्यों व पूंजीगत हितों के बीच एक संतुलन स्थापित करने की भावना किसी सीमा तक कायम थी। दूसरे शब्दों में पत्रकारिता जनाकांक्षाओं व पाठकों के प्रति काफी कुछ सजग व उत्तरदायी थी, पूरी तरह तटस्थ या उदासीन नहीं। उत्तर - नेहरु युग में इस और दुर्लक्ष्य होना प्रारंभ हुआ, जिसका रूप 1990-91 के पश्चात निरन्तर विकराल होते चला गया।

ऐसा नहीं कि नेहरु युग में सब अच्छा ही अच्छा था। यही दौर तो था जब पूंजीपतियों द्वारा संचालित अखबारों ने जिसे तब जूट प्रेस कहा जाता था, प्रथम प्रेस आयोग की सिफारिशों को सर्वोच्च न्यायालय तक जाकर चुनौती दी थी और अपने पक्ष में फैसला करवाने में सफलता पाई थी। प्रकारांतर से पूंजीवादी प्रेस ने स्वतंत्र पत्रकारिता की राह में रोड़े अटका दिये थे। इसी समय में अखबार मालिकों तथा पत्रकारों की राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं भी जागृत होने लगी थीं। यदि प्रेस के संचालक राजनीति में घुसपैठ कर अपने अन्यान्य व्यवसायिक हितों का संरक्षण अथवा संवर्धन करने का इरादा रखते थे तो संपादकों की इच्छा वह रुतबा और सुख-सुविधाएं हासिल करने की थी जो रुखी-सूखी पत्रकारिता से संभव नहीं थी। मुझे एक ऐसे संचालक-संपादक का ध्यान आता है जिन्होंने अपने पत्र में भिन्न-भिन्न दलों से संबंध रखने वाले चार-पाँच पत्रकार नियुक्त कर रखे थे, जो उन्हें राज्यसभा में भेजने के लिए अपनी-अपनी पार्टी में उनका नाम चला सकें यानी लॉबीइंग कर सकें। प्रेस स्वाधीनता के लिए ख्यातिनाम एक पत्र संचालक छठे-छमासे संपादकों को को निकालने के लिए प्रसिद्धि हासिल कर चुके थे। अनेक राजनेताओं ने नेहरु युग में ही खुद के अखबार स्थापित कर लिए थे। अखबार की प्रिंट लाइन में प्रधान संपादक के रुप में अपना नाम छपा देखकर उन्हें अतिरिक्त गर्व का अनुभव होता होगा! यह सब होने के बावजूद अधिकतर अखबारों के संपादक व पत्रकार तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने से परहेज करते थे। भले ही संपादकीय आलेख में संचालन की नीति का अनुमोदन होता हो।

अनेक मीडिया अध्येता पत्रकारिता के स्तर में आई गिरावट के लिए इंदिरा गांधी और आपातकाल के दौरान सेंसरशिप व पत्रकारों पर हुए दमनचक्र को दोषी मानते हैं। वे लालकृष्ण आडवाणी का कथन उद्धृत करते हैं कि प्रेस को घुटने टेकने कहा गया था लेकिन वह रेंगने लगा। यह धारणा प्रथम दृष्टि में सही प्रतीत होती है, लेकिन यह विश्लेषण मेरी राय में अधूरा है। आपातकाल लागू होने के पहले पत्रकारिता का परिदृश्य कैसा था, कौन से कारक उसे प्रभावित कर रहे थे तथा जनता पार्टी का शासन आ जाने के बाद पत्रकारिता ने किस प्रभाव में, क्या दिशा पकड़ी, इसका अध्ययन अभी होना बाकी है। मुझे दो मुख्य कारण समझ में आते हैं जिन्होंने 1975 के आसपास, शायद कुछ पहले से, पत्रकारिता को प्रभावित करना प्रारंभ किया। एक तो मुद्रण तकनीकी में हो रहे विकास के चलते अखबारों की पूंजीगत लागत व आवश्यकता निरंतर बढऩे लगी थी जिसने छोटे और मझोले अखबारों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। दूसरे, इसी दरम्यान नवपूंजीवादी ताकतें मजबूत होने लगीं थीं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबदबा कायम होने लगा था, और वे विभिन्न देशों की आंतरिक राजनीति में अधिक खुलकर हस्तक्षेप करने लगी थीं। अमेरिका का सैन्य-औद्यौगिक गठजोड़ बांग्लादेश निर्माण के समय से इंदिरा गांधी से क्षुब्ध था और भारत में उनका साथ देने पूंजीवादी शक्तियाँ भी आगे आ गई थीं। करेले पर नीम चढऩे की कहावत यहाँ चरितार्थ हुई। कल तक जिसे हम जूट प्रेस के नाम से जानते थे, वह अब कारपोरेट मीडिया में कायाकल्प होने की ओर बढऩे लगा था।

यदि किसी को उम्मीद थी कि आपातकाल समाप्त होने के बाद प्रेस नए सिरे से प्राप्त स्वतंत्रता और सम्मान का उपयोग बेहतर ढंग से करेगा तो यह आशा निष्फल सिद्ध हुई। 1977 के बाद प्रेस के कम से कम एक हिस्से में स्वतंत्रता का स्थान अराजकता ने ले लिया। पहले की पत्रकारिता यदि किन्हीं सिद्धांतों एवं आदर्शों से प्रेरित थी तो नए माहौल में उन्हें तिलांजलि देने का क्रम शुरु हो गया। 1982 में एशियाई खेलों के आयोजन के साथ-साथ दूरदर्शन की मार्फत टीवी एक नए और आकर्षक माध्यम के रूप में सामने आया, जिसने आम जनता के अलावा अखबारों की रीति-नीति, कलेवर, साज-सज्जा इन सबको भी प्रभावित किया। समाचारपत्रों में गंभीर वैचारिक सामग्री के लिए स्थान सिकुडऩे लगा, उसकी जगह हल्की मनोरंजक सामग्री ने ले ली। इसी बीच नई तकनीकी के आगमन ने अखबारों की साज-सज्जा को भी अधिक चमकीला बनाने की प्रेरणा दी। कुल मिलाकर बाह्य कलेवर महत्वपूर्ण और आंतरिक तत्व गौण हो गया। दूरदर्शन पर शुरू में जो सामाजिक संदेश वाले धारावाहिक आते थे, वे भी एक दिन फीके पड़ गए। सामुदायिक एवं संस्थागत स्तर पर एफ एम रेडियो स्टेशन स्थापित करने की नीति लोकशिक्षण के लिए बनाई गई, लेकिन वास्तव में उनका उपयोग व्यापारिक हित संवर्धन के लिए ही किया गया। इस तरह पारंपरिक मीडिया के तीनों अंग अखबार, रेडियो व टीवी पूंजी हितों की सेवा में समर्पित कर दिये गये।  इस पृष्ठभूमि को देखते हुए मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए विवश होता हँू कि भारत में पत्रकारिता का कोई स्वर्णयुग नहीं था। हम तो नेहरु युग के लोकतांत्रिक परिवेश में पत्रकारिता व्यवसाय को मिले सम्मान को भी सुरक्षित नहीं रख सके। इस दौरान श्रेष्ठ पत्रकारिता के जो भी उदाहरण सामने आए हैं उन्हें अपवाद मानना सच्चाई को स्वीकार करना होगा।

जब हम पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति पर अफसोस जताते हैं, तब मुझे ध्यान आता है कि इंदिरा गांधी के पहले कार्यकाल में एक सुनहरा मौका स्वतंत्र पत्रकारिता के विकास के लिए मिला था, जिसे गंवा दिया गया। तब नंदिनी सत्पथी केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री थी और यह सुझाव शायद उनके ही माध्यम से आया था कि अखबारों के स्वामित्व का विकेन्द्रीकरण (डिवाल्यूशन ऑफ ओनरशिप) किया जाए। इसके अंतर्गत समाचार पत्रों पर पूंजी का नियंत्रण समाप्त हो जाता या घट जाता और कलमजीवी पत्रकारों को संस्थान के संचालन में भागीदारी मिल जाती। लेकिन पत्रकारों के अपने संगठनों ने भी इस प्रस्ताव में कोई खास रुचि नहीं दिखाई। पूंजीपति मालिकों द्वारा इसे स्वीकार करने का तो खैर सवाल ही नहीं था। यह एक विडंबनापूर्ण स्थिति थी कि एक ओर पत्रकार वेतन आयोग आदि मंचों से बेहतर सुविधाएं मांग रहे थे, लेकिन दूसरी ओर अपनी कलम का मालिकाना हक अपने पास सुरक्षित रखने की ओर उनका ध्यान नहीं था। इसका परिणाम यही हुआ कि पत्रकारिता में पूंजी का वर्चस्व बढ़ते चला गया और कलम की ताकत व इज्ज़त उसी अनुपात में घटते गई। एल.पी.जी. (उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण) के आगाज़ के साथ तो मीडिया संस्थानों में पत्रकारों की हैसियत दोयम दर्जे की कर दी गई। पत्रकारों के अधिकारों के लिए लडऩे वाले संगठन छिन्न-भिन्न हो गए। उन पर न्यस्त स्वार्थों का कब्जा हो गया। एक के बाद एक नए संगठन बनने लगे, लेकिन उनका प्रयोजन पत्रकारिता के मूल्यों की रक्षा करने के बजाय अपना वर्चस्व कायम करने तक सीमित रहा। इस माहौल में यह तय करना भी मुश्किल हो गया है कि कौन पत्रकार है और कौन नहीं।

इस बीच सोशल मीडिया ने इतनी गुंजाइश अवश्य पैदा की है कि आप अपना मनोगत उस पर सार्वजनिक रुप से व्यक्त कर सकें, लेकिन क्या उसे पत्रकारिता माना जा सकता है? यह माध्यम तो हर व्यक्ति के लिए खुला हुआ है और उसका इस्तेमाल करने के लिए संपादकीय प्रशिक्षण, संपादकीय नियंत्रण और संपादकीय विवेक की आवश्यकता नहीं है। ट्विटर, फेसबुक, वाट्सएप, इंटरनेट आदि का जो भयंकर दुरुपयोग हो रहा है, उससे हम अवगत हैं। हालांकि डिजिटल मीडिया का एक स्वागत योग्य पक्ष भी इस हाल-हाल में प्रकट हुआ है। देश के कुछेक जाने-माने पत्रकारों ने ऑनलाइन अखबार या चैनल प्रारंभ किए हैं, जिन्होंने पारंपरिक पत्रकारिता के नियमों एवं नैतिकता का पालन करते हुए एक नया पाठक वर्ग या दर्शक वर्ग बनाने में सफलता हासिल की है। द वायर, द प्रिंट, स्क्राॅल जैसे नाम यहाँ ध्यान आते हैं। समाचारपत्रों एवं टीवी चैनलों के ऑनलाइन संस्करण भी स्थापित हो गए हैं, जो उनकी पहुँच का दायरा बढ़ाने में सहायक हुए हैं। डिजिटल मीडिया पर आज दुनिया के हम देश और हर भाषा के अखबार उपलब्ध हैं। शर्त इतनी है कि आप उस भाषा से परिचित हों।

मेरा एक लेख ''वागर्थ" पत्रिका में कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था। इसमें मैंने सुझाव दिया था कि पत्रकारों को अमूल या इंडियन कॉफी वर्कर्स को-ऑपरेटिव सोसायटी की तर्ज पर अपना सहकारी संगठन खड़ा करना चाहिए। अगर हमारी दिलचस्पी स्वस्थ और स्वतंत्र पत्रकारिता में है तो वह तभी संभव है जब पत्रकार स्वयं अपने मालिक बनें। आज मैं उसी सुझाव को दोहरा रहा हूं। इसके लिए हमें हिम्मत जुटाना होगी, खतरे मोल लेना होंगे, अपने बीच में एकजुटता लाना होगी। अन्यथा जो चल रहा है, वह चलता रहेगा और हम पत्रकारिता के पतन पर अरण्य रोदन करते रहेंगे। 



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