मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह की राजनीति से इतर एक छवि कला, साहित्य, संस्कृति के संरक्षक के रूप में भी विकसित हुई। उन्होंने इस ओर सायास ध्यान दिया व नवाचार तथा अभिनव योजनाओं को प्रोत्साहित किया। गौर किया जाए तो उनके व्यक्तित्व के इस पहलू की पक्की नींव शायद तभी पड़ चुकी थी, जब वे प्रकाशचंद्र सेठी की सरकार में शिक्षामंत्री थे। उन दिनों संस्कृति विभाग अलग न होकर शिक्षा विभाग का ही एक अंग था। एक युवा कवि और संस्कृतिकर्मी के नाते राष्ट्रीय स्तर पर पहचान कायम कर चुके अशोक वाजपेयी संभवत: विभाग के उपसचिव थे। तभी 'उत्सव-73' नाम से एक महत्वाकांक्षी विशाल कार्यक्रम का आयोजन राजधानी भोपाल में किया गया। इसमें पूरे प्रदेश से लगभग बिना भेदभाव के बड़ी संख्या में लेखक तथा कलाकार बतौर शासकीय मेहमान आमंत्रित किए गए। आयोजकों की अपनी पसंद-नापसंद थोड़ी-बहुत रही हो तो उसकी जानकारी मुझे नहीं है। इस भव्य आयोजन में सारे देश से अनेक गुणीजनों ने भी शिरकत की थी।
भोपाल का यह मजमा आज भी याद आता है। सुबह से देर रात तक कार्यक्रम चलते थे। कोई किसी स्कूल के सभागार में, तो कोई खुले मैदान में। कहीं कविता पाठ चल रहा है तो कहीं सरोद वादन हो रहा है। जिसे जहां मन हो, वहां आनंद उठाए। दिलचस्प तथ्य यह है कि तीन-चार दिन के इस समागम पर मुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री की छाया कहीं नहीं थी। अशोक वाजपेयी ही सर्वत्र दौड़धूप करते दिखाई देते थे। उनके अलावा शासन साहित्य परिषद के सचिव सुप्रसिद्ध कहानीकार शानी और शायद कवि आग्नेय को मैंने सक्रिय भूमिका निभाते देखा। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इस आयोजन से ही भोपाल के देश की सांस्कृतिक राजधानी बनने की आधारशिला रखी गई, जिसका उत्कर्ष 'कलाओं के घर' भारत भवन के लोकार्पण के साथ देखने मिला। अर्जुनसिंह के इसी कार्यकाल में शासन साहित्य परिषद का एक तरह से लोकतंत्रीकरण हुआ जब नाम में से शासन शब्द विलोपित कर दिया गया व प्रबंधन में लेखकों की भूमिका में वृद्धि की गई। निस्संदेह इन सारे उपक्रमों में अशोक वाजपेयी ने महती भूमिका निभाई, लेकिन मुख्यमंत्री की रुचि और संरक्षण के बिना बात कैसे बनती!
इधर रायपुर के पं रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय में पहली बार एक सृजनपीठ स्थापित की गई जिसे पंडित सुंदरलाल शर्मा का नाम दिया गया। 1984 में बिलासपुर में छत्तीसगढ़ के तीसरे विश्वविद्यालय की स्थापना संत गुरु घासीदास के नाम पर हुई। उसे सामान्य विश्वविद्यालय से हटकर एक विशिष्ट पहचान देने के लिए अकादमिक तौर पर भी कुछ नए प्रयोग किए गए तथा छत्तीसगढ़ के ही प्रखर बुद्धिजीवी अधिकारी शरदचंद्र बेहार संस्थापक कुलपति बनाए गए। जबलपुर में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ तो अर्जुनसिंह उसमें स्वागताध्यक्ष के रूप में शरीक हुए और शोषण व अन्याय के खिलाफ़ लेखकों के संघर्ष की सराहना करते हुए उनके साथ एकजुटता प्रकट की। रिकार्ड के लिए कहना होगा कि प्रलेस के कार्यक्रम में उनकी यह भूमिका अप्रत्याशित ही तय हुई थी तथा उनके प्रगल्भ व्याख्यान के बावजूद संगठन में इसे लेकर आगे विवादों की नौबत भी आई। खैर, यह हमारे अपने बीच की बात थी, जिसका मुख्यमंत्री से कोई लेना-देना नहीं था।
अर्जुनसिंह अन्य किसी भी दूरदर्शी और महत्वाकांक्षी राजनेता की भांति अपनी सार्वजनिक छवि के प्रति सजग थे। इस काम को उन्होंने व्यवस्थित ढंग से अंजाम दिया। प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार डॉम मॉरेस को उन्होंने देश के सबसे बड़े प्रदेश का भ्रमण कर अपने अनुभवों व अपनी शर्तों पर ग्रंथ लिखने के लिए आमंत्रित किया। दिल्ली ही नहीं, अन्य महानगरों और हिंदी-अंग्रेजी के अलावा अन्य भाषाओं के पत्रकारों की प्रदेश में आवाजाही एकाएक बढ़ गई। उन दिनों परंपरा थी कि राज्य के जनसंपर्क संचालक पदभार लेने के बाद प्रमुख प्रकाशन स्थलों की यात्रा कर संपादकों तथा वरिष्ठ पत्रकारों से मिलकर प्रशासन आदि पर उनके विचारों से स्वयं को अवगत करते थे। इस नियमित फीडबैक की उपयोगिता असंदिग्ध थी। श्री सिंह के समय यह परंपरा बदस्तूर जारी रही, लेकिन वे सिर्फ इतने पर नहीं रुके। उन्होंने विशेष अवसरों पर सीधे संपादकों से बात करने की परिपाटी प्रारंभ की। जब कभी कोई मुद्दा महत्वपूर्ण जान पड़ता था, मसलन सरकार की ओर से कोई विधेयक पेश किया गया जिसे वे आवश्यक समझते हों, तो वे स्वयं फोन कर संपादकों के सामने अपना पक्ष रखते थे। यद्यपि इसमें उन्होंने कभी भी कोई अतिरिक्त आग्रह या दुराग्रह नहीं रखा। उनकी शैली थी- आज ऐसा ऐसा हुआ है। आप इसे एक बार देख लेंगे तो अच्छा होगा। बस, अपने मितभाषी स्वभाव के अनुरूप इतनी सी बात। लेकिन जब सीएम खुद फोन करें तो कोई भी संपादक उसकी उपेक्षा क्यों करेगा?
प्रसंगवश यह नोट करना चाहिए कि न सिर्फ अर्जुनसिंह, बल्कि उनके पहले भी जनसंपर्क विभाग का ध्यान मुख्यत: सरकार के छवि निर्माण पर होता था। शासन की कल्याणकारी योजनाओं का उचित प्रचार-प्रसार हो, विभाग के अधिकारियों की यही अपेक्षा होती थी। पं. रविशंकर शुक्ल के समय रायपुर के ईश्वरसिंह परिहार जनसंपर्क संचालक थे, जिन्हें इसका श्रेय दिया जाना चाहिए। विभाग में ऐसे अनेक अधिकारी थे जो पत्रकारिता छोड़ शासकीय सेवा में आए थे। वे विभाग की अपेक्षाओं और अखबार की सीमाओं के बीच संतुलन स्थापित करना बखूबी जानते थे। मेरी अपनी राय में परिहार साहब के बाद हनुमान प्रसाद तिवारी दूसरे संचालक थे जो इस प्रोफेशनल क्वालिटी यानी व्यवसायिक गुण के धनी थे, गो कि बाकी भी कुछ कम नहीं थे। ये अधिकारी खुद को नेपथ्य में रखते थे, जबकि आज का चलन बिलकुल पलट गया है। बहरहाल, अर्जुनसिंह के समय अशोक वाजपेयी तथा सुदीप बनर्जी की जोड़ी ने जनसंपर्क विभाग का जो कायाकल्प किया, वह अद्भुत था। कितने ही सुयोग्य अधिकारियों को पदोन्नति के अवसर तथा स्वतंत्र निर्णय लेने के अधिकार मिले; मध्यप्रदेश माध्यम जैसी आनुषंगिक एजेंसी का गठन किया गया; रोजगार व निर्माण जैसी पत्रिका निकली आदि।
उन दिनों टीवी तो था नहीं। जो कुछ थे, अखबार ही थे। हर अखबार की अपनी अलग नीति, सरकार से अपनी-अपनी अपेक्षा। अधिकतर के दूसरे व्यापार समानांतर चलते थे, जैसे कि आज भी चल रहे हैं। कोई पीएचई में पाइप सप्लाई कर रहा है, किसी का साबुन कारखाना है, किसी को महापौर बनने की इच्छा है तो कोई नगर विकास प्राधिकरण की अध्यक्षता चाहता है, किसी को और कुछ चाहिए। अर्जुनसिंह ने इन सबकी आकांक्षाओं को समझा तथा जिसके लिए जो कर सकते थे, भरसक कर दिया। देशबन्धु अकेला पत्र था जिसकी एकमात्र मांग एक सुसंगत विज्ञापन नीति निर्धारण की थी ताकि किसी भी समाचारपत्र के साथ मनमाना व्यवहार न हो। मैं समझता हूं कि उनके कार्यकाल में देशबन्धु को सम्मान मिलने का एक बड़ा कारण यह भी था कि हम उनके पास अपने किसी निजी स्वार्थ से नहीं गए। लेकिन हां, ऐसे मौके अनेक बार आए जब दूसरों की मदद के लिए उनके पास जाना पड़ा। वे अगर मदद कर सकते थे तो फिर अंग्रेजी में एक वाक्य में उत्तर- कंसिडर इट डन। यानी आपका काम हो गया समझिए। नहीं कर पाएं तो विनम्र भाव से- ललितजी, इसे अभी रहने दें? जी, ठीक है। बात यहां समाप्त। लेकिन बातें अभी बहुत बाकी हैं। (अगले सप्ताह जारी)
#देशबंधु में 17 सितंबर 2020 को प्रकाशित
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