Thursday, 24 September 2020

देशबन्धु: चौथा खंभा बनने से इंकार-16



पाठकों को स्मरण होगा कि मध्यप्रदेश में 1985 के विधानसभा चुनाव संपन्न होते साथ ही मुख्यमंत्री अर्जुनसिंह को पंजाब का राज्यपाल बनाकर चंडीगढ़ भेज दिया गया था। यह अचानक उठाया गया कदम उतना ही कल्पना से परे भी था। अर्जुनसिंह के नेतृत्व में पहली बार कांग्रेस ने लगातार दूसरी जीत हासिल कर इतिहास रच दिया था। इसके पहले लोकसभा चुनाव में भी प्रदेश की चालीस में से चालीस सीटें कांग्रेस की झोली में आईं थीं। इस शानदार दोहरी सफलता के बावजूद अर्जुनसिंह को प्रदेश से हटाने का क्या कारण था? वैसे तो उन्हें एक संवेदनशील राज्य के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर भेजा जाना जाहिरा तौर पर पदोन्नति थी, लेकिन हकीकत में उन्हें ''किक अप'' किया गया था। दूसरे शब्दों में मध्यप्रदेश में उनकी उपस्थिति एकाएक असुविधाजनक लगने लगी थी तथा उन्हें सम्मानपूर्वक विदा करने का रास्ता खोजा जा रहा था एवं उसमें बहुत अधिक वक्त नहीं लगा, बल्कि एक तरह से उतावलापन देखने मिला। इस घटनाचक्र का विश्लेषण करते हुए अनेक संभावित कारण सामने आने लगते हैं।

मेरी समझ में सबसे पहला कारण था किसी भी साथी-सहयोगी को एक सीमा से आगे न बढ़ने देने की इंदिरा गांधी के समय से चली आ रही नीति। राजीव गांधी ने इस आत्मघाती नीति को जारी रखा, और इस प्रकरण में तो शुरुआत ही थी। दूसरा कारण स्वयं अर्जुनसिंह की असावधानी या आत्मविश्वास का अतिरेक था। क्या वे नहीं जान रहे थे कि तब भी उनके विरोधी कम नहीं थे, बल्कि उन्हें कहीं और से प्रश्रय भी मिल रहा था? शायद तीसरा कारण भोपाल गैस त्रासदी का दोष उनपर मढ़ते हुए उन्हें हाशिए पर डालना था। इन सब कारणों के पीछे और सबसे बड़ा कारण दिल्ली में राजीव गांधी के प्रथम विश्वस्त और देश के गृहमंत्री के रूप में पी वी नरसिंह राव की उपस्थिति थी। केंद्रीय गृहमंत्री होने के नाते दिल्ली पुलिस उनके मातहत थी। क्या सिखों का नरसंहार होने के लिए वे प्रथमत: अपराधी नहीं थे? फिर भी सारा दोषारोपण राजीव पर मढ़ दिया जाता है। यूनियन कार्बाइड के वारेन एंडरसन को भी क्या उनकी सहमति-अनुमति के बिना भारत आने और सुरक्षित लौटने की गारंटी मिल सकती थी? जबकि इसका ठीकरा आज भी अर्जुनसिंह के माथे फोड़ा जाता है। इसी संदर्भ में मेरा अंतिम तर्क है कि श्री राव प्रधानमंत्री न बन पाने से क्षुब्ध और मर्माहत होकर राजीव गांधी को ही कमजोर करने में लगे थे। दूसरी ओर, मध्यप्रदेश में सिंह विरोधियों का साथ देकर वे अपने कॉलेज जीवन में पं. रविशंकर शुक्ल द्वारा किए उपकार से भी शायद उऋण होना चाहते थे!

अर्जुनसिंह के समक्ष उस समय संभवत: पंजाब जाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था। तीन-चौथाई बहुमत वाले प्रधानमंत्री को मना करते भी तो कैसे? उस स्थिति में महज एक विधायक बन कर रह जाने की आशंका थी। जबकि राज्यपाल पद को एक ओर पदोन्नति और दूसरी ओर प्रधानमंत्री द्वारा खास तौर पर एक चुनौती सौंपे जाने का गौरव प्रचारित करने का वाजिब अवसर था।बहरहाल, श्री सिंह ने उत्तराधिकारी के रूप में अपने विश्वासपात्र प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल वोरा का नाम आगे बढ़ाया, और उन्हें पदभार सौंप चंडीगढ़ के लिए रवाना हो गए। यह चयन आगे चलकर स्वयं उनके लिए कितना कष्टकारी हुआ, उसकी चर्चा बाद में होगी। अर्जुनसिंह ने बतौर राज्यपाल बमुश्किल तमाम छह माह पंजाब में बिताए, लेकिन इस अवधि में उन्होंने सिद्ध कर दिया कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें एक भारी चुनौती भरा दायित्व देकर गलती नहीं की थी। उन्होंने वहां दिन-रात मेहनत की। समाज के विभिन्न वर्गों से प्रत्यक्ष व परोक्ष संबंध स्थापित किए। उनका सहयोग हासिल किया और अंतत: राजीव गांधी- संत लोंगोवाल के बीच पंजाब समझौता करवाने जैसे लगभग असंभव काम को अंजाम देने में सफल हुए। इस चमत्कारी उपलब्धि के बाद चंडीगढ़ में उनकी उपस्थिति अब आवश्यक नहीं थी। वे राजनीति की मुख्यधारा यानी मेनस्ट्रीम में लौटने के लिए शायद बेताब भी हो रहे थे।

दिक्कत यह थी कि मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री पद खाली नहीं था, बल्कि वे लौट कर न आ जाएं, इस पर योजनाबद्ध तरीके से काम चल रहा था। ऐसे में यह राजीव गांधी की ही नैतिक जिम्मेदारी बनती थी कि अर्जुनसिंह की योग्यता का सम्मान करते हुए उन्हें कोई महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी जाए। इसमें उन्होंने देर नहीं की। श्री सिंह को राजीव की कैबिनेट में बतौर दूरसंचार मंत्री स्थान मिला तथा कुछ ही दिनों बाद दक्षिण दिल्ली क्षेत्र से उपचुनाव जीतकर बाकायदा लोकसभा में भी पहुंच गए। यह सीट डॉ. शंकरदयाल शर्मा के दामाद ललित माकन (साथ ही पुत्री गीतांजलि माकन भी) की आतंकवादियों द्वारा हत्या किए जाने से रिक्त हुई थी। इस जीत से यह संदेश किसी हद तक प्रबल हुआ कि अर्जुनसिंह का राजनीतिक कौशल मध्यप्रदेश तक सीमित नहीं है, बल्कि वे विपरीत तथा नई परिस्थितियों में भी जीतने का दमखम रखते हैं। काश कि वे इस नई-नई अर्जित छवि को ही पुष्ट करने पर ध्यान देते! उनका मन तो मध्यप्रदेश में लगा हुआ था। चंडीगढ़ और दिल्ली तो यात्रा के अनिवार्य और कहा जाए तो लादे गए पड़ाव मात्र थे। कैबिनेट मंत्री के रूप में काम करते हुए उन्होंने भोपाल वापस आने की जोड़-तोड़ प्रारंभ कर दी। संभव है कि मध्यप्रदेश में उनके विरुद्ध लगातार जो वातावरण बनाया जा रहा था, उससे वे विचलित हो रहे हों, लेकिन क्या भोपाल लौटने के अलावा और कोई रास्ता बाकी नहीं था? वे दिल्ली में सत्ता केंद्र के मध्य में थे। क्या वहीं रहकर बेहतर राजनीतिक प्रबंधन नहीं हो सकता था? मैं इस बारे में कुछ भी अनुमान लगाने में असमर्थ हूं। तथापि मेरा सोचना है कि 1988 में दुबारा मुख्यमंत्री बनकर मध्यप्रदेश लौटना और फिर खरसिया क्षेत्र से विधानसभा उपचुनाव लड़ना भविष्य में उनके लिए नुकसानदायक साबित हुआ। उनकी जो राष्ट्रीय स्तर पर इमेज बनी थी, वह तो टूटी ही, प्रदेश में भी उनकी लोकप्रियता व अजेयता को खरसिया ने एक मिथक में बदल दिया। याद रहे कि इस बीच प्रधानमंत्री राजीव गांधी का तिलस्म भी लगभग टूट चुका था व उनकी जगह वी पी सिंह का जादू मतदाता के दिल-दिमाग पर छाने लगा था। अर्जुनसिंह को इस तरह दो तरफ से नुकसान उठाना पड़ा। 

यह सत्य अपनी जगह पर है कि 1988 में तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अर्जुनसिंह ने अपने पुराने सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनीतिक अजेंडा पर ही अधिक जोर-शोर से काम करना प्रारंभ कर दिया था। दूसरे शब्दों में उन्होंने सुविधा की राजनीति के बजाय पहले से अंगीकृत सिद्धांतों की राजनीति पर जमे रहना ही बेहतर समझा। ऐसा करते हुए शायद उनकी निगाह 1990 में निर्धारित विधानसभा चुनावों की ओर रही हो; 1989 के आम चुनाव भी बस सामने ही थे। अगर मध्यप्रदेश में ये दोनों चुनाव उनके नेतृत्व में लड़े जाते तो क्या परिणाम निकलते, आज उसका अनुमान लगाना व्यर्थ है। किंतु इतना तो याद रखना ही होगा कि खरसिया जैसी ''सेेफ सीट'' से अप्रत्याशित रूप से कम वोटों से जीतने को उनकी कमजोरी माना गया। इसी सोच के चलते उन्हें एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवाना पड़ी। मोतीलाल वोरा दुबारा सीएम बने, उनके नेतृत्व में लोकसभा में कांग्रेस को भारी पराजय मिली; फिर अचानक ही श्यामाचरण शुक्ल तीसरी बार अल्प समय के लिए मुख्यमंत्री बने, और इस बार कांग्रेस को विधानसभा चुनाव में भी शिकस्त झेलना पड़ी। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 24 सितंबर 2020 को प्रकाशित

1 comment:

  1. बहुत ही सुन्दर स्पष्टवादिता सहित या कहें बेबाक सटीक विवरण

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