Wednesday, 2 September 2020

कविता: ब्रम्हांड जीतने की तैयारी





घोड़े की पीठ पर सवार
वह जीप की फटकी पर बैठा
एक पाँव बाहर किए
एक पाँव अंदर दिए
बाहर के पाँव सेे उसने
बासन्ती हवा को छुआ
दिसंबर की सर्दी को छुआ
एक पग से उसने मापी
रायपुर से आरंग-
महासमुंद-बागबाहरा की दूरी
एक डग से एक लोक मापा

एक पाँव भीतर रख सम्हल-सम्हल
मुश्किल से खोजी पांव भर जगह
दुनिया में टिक जाने के लिए
दोनों हाथों से कस कर पकड़ी
जीप की फटकी इस तरह
अपनी जिंदगी की लगाम थामी
कोशिश एक पूरी उम्र
ज़िंंदा रहने के लिये
छोटी-सी ज़िंदगी का हर दिन
हर पल जी लेने के लिए

कोशिश वक़्त से
काम पर पहुँचने की
कोशिश वक़्त पर
काम से घर लौटने की
थोड़ी-सी देर: ढेर सी चिंंता
पिटारा फिक्र का खुलता
समाया सागर जिसमें
अनचाही शंकाओं का
अनकही व्याकुलता जिसमें
घर के हर जन की,
उठती लहरें ऊँची-ऊँची
लौटती उसके घर 
लौटने पर
करते सब उसका इन्तज़ार
मुमकिन नहीं वह सहे इंतज़ार
किसी फुरसतिया बस का!

फुरसत नहीं उसे बिलकुल भी
दुखते पैरों का दु:ख देखे
थकी हथेलियाँ सहलाए
जिंदगी की दौड़ में शामिल
करे आराम भी 
तो कैसे
जिसने सिर्फ चलना ही सीखा
कहीं रुक पाए तो कैसे
आज सोचता वह बस यही-

दो पैरों से नापी उसने
हज़ार-हज़़ार सालों की दूरी
इतिहास की किसी डाल से उतर
बनाया कहीं कंदरा में घर
चलकर फिर वहाँ से, पहुंचा
आज की सड़क तक

कभी दो हाथ हवा में उछाल
चीखा था वह आल्हाद से
फर्क समझ कर मनुष्य होने का
मनुष्य बनकर

दो हाथों से साधा
उसने 
बेकाबू घोड़े को
तराश कर पेड़, बनाया पहिया
पहिए को लाया वह
हवाई जहाज, जीपगाड़ी तक

दो पैरों से तीन डग चल
वह कहलाया त्रैलोक्य विजेता
दो हाथों से उतारकर वह
जमीन पर ले आया गंगा
हाथ की उंगली पर साधकर
चक्र सुदर्शन वह बना त्राता

लेकिन था भोलापन  या
उसकी भलमनसाहत
दोस्ती का स्वांग रच
जो बन बैठे मालिक
उन्हें वह पहिचान न पाया
मित्रता का दम भरते
उन्होने माँगी मदद
सलाह लेने-देने का ढोंग किया
निभाई मित्रता उसने तो
दिया निश्छल मन से
पास था जो कुछ भी
घर, जमीन, खेती
पर कब पड़ी पैरों में बेड़ी
कैसे हाथों में हथकड़ी
रह गया बेखबर
कुछ जान न पाया

उठ नहीं पाया किस दिन तीसरा पग
रुक गई कब हाथों की थिरकन
बँध गयीं कब क्यों सीमाएं
वह कुछ समझ न पाया

बनाए थे कभी खुद जिसने रास्ते
बन गया वह कोल्हू का बैल
डलवा कर नकेल,
बँधवा कर आँखों पर पट्टी
बेबस चलने लगा वह
औरों की बतायी राह पर
आका ने हुक्म दिया
गुलाम उसे बजा लाया

हाँ, गुलाम ही रहा अब तक वह
अब टूटा रही है धीरे-धीरे
बहुत दिनों की बेहो
शी
आँखों में दर्ज
हो रही है सच्चाई
कोशिश कर देख रहा है
चौकन्ना होकर सारा कारोबार

दिन प्रतिदिन, चाहे 
वह
चलता हो पैदल, बैठा हो
टपरा बस में, ठेले ट्रेक्टर में
या लटका हो जीप टैक्सी से
समझ रहा है

वक़्त बहुत कम है
अपने लिये शायद बिलकुल नहीं
शायद थोड़ा-सा
आने वालों के लिये
इसलिये अब वह जल्दी में है
काम बहुत बाकी है
कितना कुछ करना है
इसलिये अब कोशिश यही उसकी
वक़्त से काम पर पहुंचने की
वक़्त पर काम से घर लौटने की

पीठ पर उठाए
दुनिया का बोझ वह
बन गया था कच्छप अवतार
अब लेकिन मंजूर नहीं
उसे कछुआ बनना
मंजूर नहीं खोल में
सिमट कर रह जाना
मेहनत बहुत की उसने
चींटी की तरह
अब लेकिन मंजूर नहीं
उसे चींटी बनना
मंजूर नहीं उसे
पैरों तले मसले जाना
चींटी की रफ्तार जीते जाना
जीप पर बैठकर आज
सोचता वह-

बैठा है घोड़े की पीठ पर
इच्छा उसकी : दिन दौड़ें
सरपट घोड़े की भाँति
वक़्त बहुत कम : जल्दी-जल्दी
पूरे हो जाएं काम सारे

चाह यही उसकी, चले
खुद वह सूरज के रथ के आगे
और सपने सैर करें
चंदा की बग्घी में

वह जो अपने हाथों से
पृथ्वी रचकर हार गया
जीप की फटकी पर बैठा
ब्रम्हांड जीत लेना चाहता है
अपने बच्चों के लिए


1989






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