Thursday 3 September 2020

देशबन्धु : चौथा खंभा बनने से इंकार- 13

 


ऐसे चार मौके आए, 1990 के दशक में तीन और 2000 के दशक में एक, जब अविभाजित मध्यप्रदेश का कोई राजनेता देश का प्रधानमंत्री बन सकता था। पहला अवसर 1991 में आया, जब कांग्रेस पार्टी ने अपने वरिष्ठ नेता और तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा से आग्रह किया कि वे प्रधानमंत्री पद सम्हाल लें। वे इस पद के लिए हर दृष्टि से योग्य थे, लेकिन उन्होंने आयु एवं स्वास्थ्य का हवाला देकर इंकार कर दिया। यद्यपि उपराष्ट्रपति पद पर अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद वे सर्वोच्च संवैधानिक पद याने राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए और वहां भी उन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। नवनिर्वाचित लोकसभा में कांग्रेस के पास बहुमत से मात्र आठ सीटें कम थीं और डॉ. शर्मा जैसे अनुभवी और सम्मानित नेता के लिए यह शायद कोई बड़ी चुनौती नहीं थी। इस दसवीं लोकसभा में पार्टी ने मध्यप्रदेश के ही अर्जुनसिंह को सदन का नेता चुना था। डॉ. शर्मा की मनाही के बाद यदि पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए चुनती तो यह एक स्वाभाविक और उचित निर्णय माना जाता।

सबको पता है कि पी वी नरसिंह राव ने 1991 में न सिर्फ लोकसभा चुनाव लड़ने से मना कर दिया था, बल्कि वे अपना साजो-सामान समेट कर आंध्र प्रदेश वापस लौट चुके थे। यह अभी तक रहस्य के आवरण में है कि वे क्यों कर दिल्ली लौटे? कांग्रेस के सामने ऐसी क्या मजबूरी थी कि राजनीति से सन्यास ले चुके वयोवृद्ध नेता को प्रधानमंत्री पद पर आसीन किया? इसके अलावा डॉ. मनमोहन सिंह क्यों वित्तमंत्री के पद पर लाए गए? और सिर्फ इतना ही नहीं हुआ। सदन के नेता अर्जुनसिंह को प्रथम पंक्ति से हटा दूसरी पंक्ति में भेज एक तरह से अपमानित किया गया। इसके बाद कांग्रेस वर्किंग कमेटी में सर्वाधिक मतों से जीतकर आए तीन नेताओं अर्जुनसिंह, शरद पवार व ए के अंथोनी के इस्तीफे लेकर उन्हें मनोनीत सदस्यों की श्रेणी में डाल दिया गया।अर्जुनसिंह ने यह पहला मौका खोया। उनके हाथ से दूसरा मौका तब फिसला जब बाबरी मस्जिद प्रकरण में श्री राव की संदिग्ध भूमिका के बाद श्री सिंह ने उनके खिलाफ बगावत की ठानी, लेकिन अपने ही दो विश्वस्त युवा शिष्यों द्वारा साथ न देने के कारण वे अलग-थलग पड़ गए और नौबत यहां तक आई कि उन्हें पार्टी छोड़ना पड़ी।

श्री राव का प्रधानमंत्री बनना जितना आश्चर्यजनक था, 2004 में मनमोहन सिंह का इस पद पर काबिज होना उससे कम अचरज की बात नहीं थी। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. कलाम अपने संस्मरणों में स्पष्ट लिख चुके हैं कि उन्हें श्रीमती सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री पद पर आमंत्रित करने में कोई बाधा नहीं थी, किंतु श्रीमती गांधी ने स्वयं डॉ. मनमोहन सिंह का नाम आगे किया। यह तीसरा और अंतिम अवसर था जब अर्जुन सिंह प्रधानमंत्री बन सकते थे। वे ऐसे नेता थे जो कांग्रेस पार्टी के मूल सिद्धांतों की लगातार पैरवी कर रहे थे, नेहरूवादी नीतियों के लिए पार्टी के भीतर और बाहर संघर्ष कर रहे थे, राजीव गांधी की हत्या से जुड़ी शंकाओं को लेकर लगातार सवाल उठा रहे थे, तथा सोनिया गांधी का हर तरह से साथ दे रहे थे। डॉ. सिंह ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में पहली बार तो शामिल किया, लेकिन 2009 में उन्हें बाहर रख अपनी नीतिगत रुझान खुले तौर पर जाहिर कर दी। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से लेकर 2009-10 तक का घटनाक्रम ऐसी बहुत सी शंकाओं को जन्म देता है जिनके तार विदेशी एजेंसियों से जुड़ते हैं। इन पर अलग से चर्चा की आवश्यकता है।

अर्जुनसिंह 1957 में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत विधानसभा में पहुंचे थे, लेकिन शीघ्र ही वे कांग्रेस में आ गए थे। 1963 में डी पी मिश्र ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया। इसके बाद उनका सितारा लगातार बुलंद होते गया। उनसे मेरा परिचय काफी बाद में हुआ, लेकिन जब वे सेठी मंत्रिमंडल में शिक्षामंत्री थे, तब दो-एक मौकों पर मैंने उनकी खुलकर आलोचना की थी।वे 1973 में मध्यप्रदेश एकीकृत विश्वविद्यालय अधिनियम लेकर आए जो मुझे पसंद नहीं आया। इस कानून के माध्यम से विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का हनन हुआ, उनकी अपनी विशिष्ट पहचान निर्मित करने के अवसर समाप्त हुए, तथा वि वि के प्रशासन व उन्नयन में समाज की भूमिका सीमित कर दी गई। गो कि आगे चलकर श्री सिंह की इस सोच में परिवर्तन देखने मिला। 1973-74 में ही शिक्षामंत्री श्री सिंह रायपुर आए तो गवर्नमेंट हायर सेकेंडरी स्कूल के एक अध्यापक के सी दास ने उनकी शान में लच्छेदार भाषा में एक अभिनंदन पत्र लिखा जिसका किसी सरकारी कार्यक्रम में बाकायदा वाचन कर उन्हें भेंट किया गया। एक मंत्री की यह चापलूसी हमें नागवार गुजरी। हमने इसके खिलाफ संपादकीय लिखा और साथी प्रभाकर चौबे ने इस पर एक व्यंग्य लेख भी लिखा।

बहरहाल, शिक्षामंत्री रहते हुए अर्जुनसिंह ने शिक्षकों के हित में कुछ दूरगामी निर्णय भी लिए, जिनमें शायद सबसे अहम था अनुदान प्राप्त शालाओं के शिक्षकों को राजकीय ट्रेजरी से वेतन भुगतान। लेकिन संभवत: इस निर्णय का क्रियान्वयन उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद ही हो सका। किसी अध्यापक मित्र को शायद सही जानकारी हो! सेठीजी के दिल्ली लौट जाने के बाद एक बार फिर श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री बने और जैसा कि विदित है श्री सिंह को उन्होंने अपने मंत्रिमंडल में नहीं लिया। हम नहीं जानते कि इन दोनों कद्दावर नेताओं के बीच यह प्रतिद्वंद्विता की भावना कब पनपी, लेकिन यह आखिर तक कायम रही आई। 1977 में शुक्लजी चुनाव हार गए जबकि श्री सिंह को विधानसभा में विपक्ष के नेता की जिम्मेदारी सम्हालने का मौका मिला। इस भूमिका का उन्होंने बखूबी निर्वाह किया, जिसका प्रतिफल 1980 में मिला जब वे मुख्यमंत्री निर्वाचित हुए। इसमें काफी उठापटक देखने मिली। कांग्रेस हाईकमान का वरदहस्त श्री सिंह पर था, जिसकी शुक्ल बंधुओं ने देखकर भी अनदेखी कर दी। कमलनाथ  के खाते में आए बत्तीस वोट अर्जुन सिंह को हस्तांतरित कर उन्हें विजयी घोषित कर दिया गया। 

मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्हालने के कुछ दिन बाद ही श्री सिंह ने प्रदेश के कुछ संपादकों व पत्रकारों को भोपाल निमंत्रित किया। मेरी उनके साथ यह पहली रू-ब-रू भेंट थी। वे हम लोगों से प्रदेश के विकास पर चर्चा करने उत्सुक थे, जिसका संकेत निमंत्रण पत्र में था। अधिकतर पत्रकारों ने या तो अपने निजी व्यापार से संबंधित कठिनाइयों का उल्लेख किया तो कुछ ने विज्ञापन आदि के बारे में बात की। जबलपुर के एक संपादक ने तो लघु उद्योग के अंतर्गत साबुन बनाने में कच्चा माल न मिलने की शिकायत की। वे स्वयं साबुन कारखाना चलाते थे। सी एम ने सबकी बातें बहुत गौर से सुनीं व अधिकारियों को निर्देश भी दिए। मैं प्रदेश, खासकर छत्तीसगढ़ के विकास से संबंधित कुछ सुझाव लिखकर ले गया था। वह पत्र उन्हें सौंप दिया। मेरी उनसे कोई खास बात नहीं हुई। रायपुर लौटने के कुछ समय बाद ही आईएएस श्रीमती माला श्रीवास्तव के हस्ताक्षर से एक शासकीय पत्र मिला कि मुझे पचमढ़ी में स्थापित होने वाले युवा कल्याण संस्थान का सदस्य मनोनीत किया गया है। यह उस संस्था का पहला और आखिरी पत्र था। (अगले सप्ताह जारी)

#देशबंधु में 3 सितंबर 2020 को प्रकाशित

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