Thursday 3 September 2020

कविता: रामनगर से ऐशबाग तक

 



खत्म जहाँ हुआ रायपुर का रामनगर
शुरू वहीं हुआ ऐशबाग़ भोपाल का
पता नहीं रेल की रफ़्तार थी
या रफ़्तार जिंदगी की कि
बरसों से कदमताल देते आये
जो खड़े-खड़े एक मुकाम पर
खिसक कर एक-दूसरे के इतने करीब आये

बीते कितने बरस उनके
रेल लाईन के इस किनारे
जो कभी कोयला बनने के काम आयी
तो कभी जेब काटने के लिये
कभी कट गये धोखे से तो
कभी जानबूझकर मर जाने के लिये
लेकिन नहीं पहुंच पाये दुबारा वे
रेल लाइन के उस किनारे
जहां कभी खेत थे, खलिहान  थे
जहाँ आज चावल मिलें हैं, ऐशबाग़ है

उठी एक दर्जन चावल मिलें
रामनगर की छाती पर
दूर से आती नज़र उनमें सबसे भव्य
किसानों की सहकारी राइस मिल
जिसके अहाते में अध्यक्ष का सजा कमरा
सुन्दर सा रेस्टहाऊस भी
उठती है मिलों की चिमनियों से
काले धुंए के संग-संग
पकते धान की दूधिया गंध और
भात की ललचाती खुशबू
उठती है और ऊपर
और ऊपर उठती चली जाती है
सीमेंट के साइलों में कैद
रहा आता है टनों चावल
बिकने या फिर सड़ने के लिये

बना है रेल लाइन के नजदीक ही
देश के भावी कर्णधारों का
गर्वोन्नत इंजीनियरिंग कॉलेज भी
जहाँ आते हैं पढ़ने लाड़ले सपूत
देश के प्रदेश के कोने-कोने से
लेकिन खाली रही आती हैं
जिनकी सुरक्षित सीटें
वे पार नहीं कर पाते, रेल लाइन के
उस किनारे से सिर्फ दो पाँतों की दूरी

पढ़ाई शुरू कर भिक्षावृत्ति के स्कूल से
उन्होने जेबकटी के काँलेज से स्नातक होकर
थामा एक आधा ब्लेड
कैलिपर थामने का सपना देखते-देखते,
ज्यादा हुआ तो उठाया हाथों में
उन्होने बूट-पॉलिश का बक्सा,
या सड़क पर बीनने लगे वे
काँच के टुकड़े, अखबारों की रद्दी,

सामने, एकदम सामने, रेल लाइन के पार
दीखते हैं अखबारों के दफ़्तर,
द्रवित बहुत हैं संपादकगण
रद्दी बटोरते बच्चों की दारूण गाथा से,
भेजे उन्होने रिपोर्टर
भेजे गये फोटोग्राफर भी,
लिखी मर्मस्पर्शी शब्दों मे उनकी व्यथा
लिख कर लंबे समय तक भूल जाने के लिए
लेकिन हुए रामनगर के वासी आभारी
अखबारों के, रद्दी अखबारों के लिए
तुफानी रफ़्तार से दौड़ती ज़़िंदगी की
रेल ने कहाँ से कहाँ पहुँचाया
सोचते-सोचते यही सब
छूटा रायपुर, भोपाल आया

शान क्या है  भोपाल के ऐशबाग की                        
रेल लाइन के पार तनकर खड़ा
रौबीला स्टेडियम
पहुंचते हैं जहाँ नामी-गिरामी खिलाड़ी
और दर्शक एक-से बढ़कर एक,
स्पर्धाओं के स्वर्णकप जिनके
व्यक्तित्व के सामने पड़ जाते फीके
लेकिन बने जिनके हाथों वे क्रीड़ांगण
वे कहां से लायें निमंत्रण,खरीदें टिकिट
उनके बच्चों को खेलने के लिये
मिला बाहर की दुनिया का खुला आंगन

ऐशबाग, नाम कितना सुन्दर सटीक
राजधानी के गौरवशाली प्रतीक को
जहाँ साल के तीन सौ पैंसठ दिन
चलते हैं खेल तरह-तरह के
खेल जिनके निमंत्रण नहीं बंटते,
खेल जिनके टिकिट भी बेचे नहीं जाते,
हो जान-पहिचान का गर कोई खिलाड़ी
शाायद मिल पाये दर्शक दीर्घा का प्रवेश-पत्र
हैं अगर कुछ खुशनसीब तो
शायद बैठ पायें अध्यक्ष की दीर्घा में
वरना खुलते हैं दरवाज़े ऐशबाग के
सिर्फ 15 अगस्त और 26 जनवरी को
साल में सिर्फ दो दिन
बाकी दिन पड़े नहीं खेल में बाधा-
रेल लाइन के इस पार  से
भेजा गया खेलने जिन्हें, सो
निर्विध्न खेलने के लिये शर्त यही थी उनकी,
खिलाड़ी हैं जब वे आपके
चुनी गई है जब टीमें देख-परख कर
तब शोर न करें, भरोसा रखें
खेल पर नहीं होना चाहिए नुक्ताचीनी
बर्दश्त नहीं करेंगे कैसी भी छींटाकशी

शर्त थी बहुत वाजिब
माना उसे बहुत दिनों तक सबने,
लेकिन जागी ये कैसी बेचैनी
कसमसाने क्यों लगे
रेल लाईन के इस पार खड़े लोग,
स्टेडियम के बाहर खड़े लोग,
पड़ रही है खेल में बाधा,
शिकायत है खिलाड़ियों को और
सहमत हैं अध्यक्ष उनसे,
शोरगुल बहुत हो रहा प्रशाल के बाहर,
खेल हो या नाटक या
लता मंगेशकर का गायन,
स्टेडियम में निर्विध्न होता नहीं अब कोई काम,
बहुत सोचा है अध्यक्ष ने इस पर और
सोचकर निकाली है तरकीब,
सड़क को स्टेडियम से जरा ले जायें दूर
बीच में बने एक बागीचा खूबसूरत
शोर करने वाले भी रुकें जरा, मुग्ध हों वे
उद्यान की मनोहारी शोभा पर
भूल जायेें, क्षण भर को, जीवन भर को
रेल लाइन के किनारे,  डबरों के किनारे
अपनी ज़िंदगी की आदिम बसाहट
शोर ऐसे ही कम होगा, शायद बंद ही हो जाये
शान्त सौम्य वातावरण में चलते रहें
स्टेडियम के भीतर कार्यक्रम सारे
लेकिन काम नहीं आती तदबीर यह,
फूलों के भरम में नहीं आते वे,
टीम जिन्होने भेजी चुनकर पूछते हैं वे
कब तक आखिर कब तक
खड़े रहें वे सरहद के पार,
कहते हैं वे
जल्दी ही एक दिन
रेलगाड़ी पर सवार हम आयेगे
रामनगर से ऐशबाग तक सबको लायेंगे
कदमताल मिलाते सारे जन आयेंगे भीतर
बंद कर देंगे खेल का नाटक
और शुरू होगा तब
मेहनत की ज़िंदगी के स्टेडियम में
एक सीधा सच्चा खेल जिसमें
पसीने की बूंदों से
लबालब भरा होगा स्वर्णकप
जीत ले जायेंगे जिस
सबसे काबिल खिलाड़ी।

1988-89










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