रायपुर में हमारी डाक सामान्य तौर पर मुख्य डाकघर में आबंटित पोस्ट बॉक्स में रख दी जाती है। कोई कार्यालय सहायक जाकर उसे ले आता है। (यह कूरियर सेवा आरंभ होने के बहुत पहले की बात है)। उस रोज आया गट्ठर अन्य दिनों की ही भांति था। डाक छांटते हुए मैं अपने नाम आई चिट्ठियों को अलग रखते जा रहा था। उनमें एक अंतर्देशीय था, जिस पर मेरा नाम-पता हाथ से लिखा था, किंतु प्रेषक का नाम नहीं था। पत्र खोलकर देखा तो मैं चौंक गया। उसी हस्तलिपि में मजमून कुछ इस प्रकार था-
'प्रिय सुरजन जी, मुझे मालूम हुआ कि पिछले दिनों आपके साथ मेरे दिल्ली निवास पर सम्मानजनक व्यवहार नहीं हुआ और आप बिना मिले लौट गए, जबकि मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा था। मैं इसके लिए आपसे क्षमा मांगता हूं। आप अगली बार जब भी दिल्ली आएं, कृपया मिलकर ही जाएं। आपका, अर्जुनसिंह।'
यह वाकया 1986 के अगस्त- सितंबर का है। पत्र की भाषा तो नहीं लेकिन भावना यही थी। याददाश्त के भरोसे लिखने के कारण पत्र को हू-ब-हू उद्धृत करना संभव नहीं है। मेरे लिए यह कल्पना करना मुश्किल था कि एक तो बाबूजी के समकालीन यानी उम्र में इतने बड़े, दूसरे केंद्रीय मंत्री व देश के प्रभावशाली राजनेता मुझे इस तरह का खत लिखेंगे।
अर्जुनसिंह उन दिनों केंद्रीय दूरसंचार मंत्री थे। मैंने अपने एक दिल्ली प्रवास के दौरान, जैसे कुछेक अन्य राजनेताओं से मिलता था उसी तरह, उनसे भी मिलने का समय मांगा। अगले दिन सुबह का वक्त सरलतापूर्वक तय हो गया। वे पंजाब के राज्यपाल पद से कुछ समय पहले ही मुक्त होकर लौटे थे, इसलिए बंगले पर सुरक्षा का खासा इंतज़ाम था। मुख्य द्वार पर ही खानातलाशी हो रही थी। मैं शांतिपूर्वक जांच में सहयोग करता रहा, लेकिन जब सुरक्षा प्रहरी ने मेरे बालप्वाइंट पैन को भी खोलकर जांचना शुरू किया तो मुझसे नहीं रहा गया। सुरक्षाकर्मी के लिए यह सामान्य प्रक्रिया रही होगी लेकिन सड़क पर खड़े रहकर जांच करवाना मुझे अपमानजनक लगा। मैंने पैन वापस मांगा और मंत्रीजी से बिना मिले लौट आया। उसी दिन नए-नए राज्यसभा सदस्य बने अजीत जोगी के साथ मेरा लंच था। जोगीजी ने पूछा- साहब के साथ मीटिंग कैसी रही, तो मैंने उन्हें सुबह का किस्सा सुनाया। जोगीजी ने यह बात शायद उस दिन ही श्री सिंह को बता दी। उपरोक्त पत्र उसी का परिणाम था। मैं जब अगली बार दिल्ली गया तो जाहिर है कि मंत्रीजी से मिलने का वक्त मांगा और अगले दिन के लिए भेंट तय हो गई।
दूसरे दिन जब मैं उनके बंगले पहुंचा तो मुख्य द्वार पर कोई चौकसी नहीं थी। भीतर एक नई कॉटेज बन गई थी, जहां आगंतुकों की सुुुरक्षा जांंच का प्रबंध था। मेरा परिचय जानकर मुझे बिना जांच के ही आगे बढ़ने का संकेत दे दिया गया। अर्जुनसिंह सेे सौजन्यपूर्वक भेंट हुई। देश-प्रदेश की राजनीति पर बातचीत होना ही थी। अधिकतर समय मैं ही बोलता रहा और अपने स्वभाव के अनुरूप वे सुनते रहे। इस बीच न तो उन्होंने मेरे लौट जाने की बात उठाई और न ही अपने खत का उल्लेख किया। पंद्रह-बीस मिनट की मुलाकात का समय खत्म होने आया तो मैंने चलने की इजाजत मांगी। अब एक बार फिर मेरे चौंकने की बारी थी। उन्होंने पूछा- आप कल दिल्ली में हैं? जी। तो कल मेरे साथ दिन के भोजन के लिए समय निकाल सकेंगे? इसका उत्तर 'जी हां' के अलावा और क्या हो सकता था? दूसरे दिन आवासीय कार्यालय के बजाय उनके निवास पर भोजन कक्ष में साथ बैठना हुआ। उनके इस शिष्टाचार से अभिभूत न हो पाना कठिन था। वे चाहते तो उनके दरवाजे से मेरे लौट जाने की उपेक्षा कर सकते थे। फिर पत्र लिखना अपने आप में पर्याप्त से अधिक था। पिछले दिन हुई मुलाकात के बाद तो कोई शिकायत नहीं बचती थी। बाबूजी के साथ उनके आत्मीय संबंध थे। इन सब के बावजूद लंच पर निमंत्रित कर अर्जुनसिंह ने मेरी निजता व भावनाओं का जो सम्मान किया, इसे एक ऐसे विरल गुण के रूप में नोट किया जाना चाहिए जो अमूमन सत्ताधीशों में नहीं पाया जाता।
अर्जुनसिंह की प्रदेश से अनुपस्थिति के चलते मध्यप्रदेश में उनके पुराने विरोधियों को एक तरह से खुला मैदान मिल गया था। उनका साथ देने के लिए कतिपय नए विरोधी भी जुट गए थे। इनमें यदि एक ओर वे थे जिनकी महत्वाकांक्षा पूर्ति में श्री सिंह ने निर्णायक सहायता की थी; तो दूसरी ओर वे भी थे जिनका तब तक उनसे कोई सीधा लेना-देना नहीं था। वे शायद अपनी युवावस्था को आधार बना भविष्य की राह प्रशस्त करने की संभावना देख रहे थे। इस तरह योजनाबद्ध तरीके से सिंह-विरोधी अभियान की शुरुआत हो गई थी जिसका बेहद उपयुक्त नामकरण कल्पनाशील पत्रकारों ने मोती-माधव एक्सप्रेस कर दिया था। राज्य के कतिपय पत्रों में अर्जुनसिंह पर उनका पक्ष जाने बिना व्यक्तिगत लांछन लगाते हुए नियमित कॉलम छपने लगे। इसी तर्ज पर प्रदेश से बाहर के अनेक अखबारों व पत्रिकाओं में फोटो-फीचर प्रकाशित होने लगे। कलकत्ता की पत्रिका 'रविवार' इसमें सबसे आगे थी। कुछ पत्रकारों ने तो मानों इस अभियान को निज प्रतिष्ठा का विषय बना लिया था। ऐसे सभी बंधुओं को आगे चलकर जो भौतिक परिलब्धियां हासिल हुईं, वे पत्रकार बिरादरी से छुपी हुई नहीं हैं। इस चलन के विपरीत मैंने आने वाले दिनों में नोट किया कि अर्जुनसिंह अपने कट्टर विरोधियों पर भी ऐसे निजी हमले करने से परहेज करते थे। प्रदेश में कांग्रेस को इस अंतर्कलह का भविष्य में कितना नुकसान उठाना पड़ा, यह गहन शोध का विषय है।
बहरहाल, इसी परिदृश्य के बीच अर्जुनसिंह 1988 के प्रारंभ में फिर मुख्यमंत्री बनकर भोपाल लौटे। उन्होंने दुगने जोश के साथ सामाजिक न्याय के अपने पुराने अजेंडे पर काम शुरू किया। इसी समय कुछ दिनों बाद देशबन्धु का तीसवां स्थापना दिवस आ रहा था तो हमने उन्हें मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित कर एक बड़ा आयोजन करने की बात सोची। उन्होंने हमारा आमंत्रण तुरंत स्वीकार कर लिया। 17 अप्रैल 1988 की सुबह बाबूजी माना विमानतल पर उनकी अगवानी करने गए तो उन्हें उलाहना मिला- ललित आ जाते। आपको आने की क्या जरूरत थी। बाबूजी ने उत्तर दिया- ललित अपनी जगह, मैं अपनी जगह। खैर, हमारा कार्यक्रम अपेक्षा से अधिक अच्छा हुआ। मेरे जिन सहयोगी को आभार व्यक्त करना था, ऐन मौके पर पीछे हट गए व मुझे बिना किसी तैयारी के यह दायित्व निभाने मंच पर जाना पड़ा। मैंने तीन-चार मिनट में जो कुछ भी कहा, वह मेरे आज तक के सार्वजनिक वक्तव्यों में शायद एक प्रभावी वक्तव्य गिना जाएगा! आयोजन समाप्त हुआ। मंचासीन अतिथियों के साथ-साथ मैं भी नीचे उतरा और तभी अर्जुनसिंह जी ने मुझे बधाई देते हुए कहा- चिप ऑफ द ओल्ड ब्लाक याने जैसा पिता वैसा पुत्र।
देशबन्धु के स्थापना दिवस के इस समारोह की खास कर हमारे लिए एक याद रखने लायक बात थी कि अर्जुनसिंह विमानतल से सीधे प्रेस आए तथा कार्यक्रम के बाद नगर में अन्य किसी आयोजन में शिरकत करने के बजाय तुरंत भोपाल लौट गए। इसके अलावा कुछ और यादें मैं पाठकों के साथ साझा करना चाहूंगा। हमारे अनन्य शुभचिंतक व संकटमोचक पवन दीवान इस अवसर पर बतौर विशेष अतिथि उपस्थित थे। देशबन्धु नेे राजिम के निकट लखना गांव गोद लेकर लगातार एक साल वहां शासकीय सहयोग से विकास कार्यों को गति दी थी, उनकी चर्चा हुई। मुख्यमंत्री ने स्वयं अपने उद्बोधन में उसकी सराहना की। (उल्लेखनीय है कि प्रतिष्ठित पत्रकार बी जी वर्गीज़ ने हिंदुुस्तान टाइम्स के संपादन के दौरान दिल्ली के पास छातेरा गांव गोद लिया था। हमारा यह अभिनव प्रयोग उसी उदाहरण से प्रेरित था)। छत्तीसगढ़ के समर्पित समाजसेवी आर्किटेक्ट टी एम घाटे का सार्वजनिक सम्मान भी मुख्यमंत्री के हाथों हुआ। मुख्यमंत्री का भाषण लीक से हटकर था। उन्होंने उन अखबार मालिकों पर तीखे कटाक्ष किए जो पत्र की आड़ में सरकारी और गैर-सरकारी तौर पर सही-गलत तरीके से स्वार्थ पूर्ति में लगे रहते हैं। आयोजन के एक दिन पहले अचानक आए आंधी-तूफान ने हमारी सारी व्यवस्था पर पानी फेर दिया था। नए सिरे से तैयारियां करना एक भारी चुनौती थी, लेकिन हमने सुबह चार बजे शुरू कर दस बजते न बजते दुबारा सारे इंतज़ामात कर लिए थे। मैंने अपने आभार प्रदर्शन में इसी उल्लेख के साथ यही कहा था कि देशबन्धु में हमें संघर्षों का सामना करने की आदत पड़ चुकी है। (अगले सप्ताह जारी)
#देशबंधु में 01 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित
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