Wednesday, 31 December 2014

स्थानीय स्वशासन कितना सार्थक?




छत्तीसगढ़
में दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में  नगरीय निकायों के चुनाव दो चरणों में सम्पन्न हो गए हैं। नतीजों की प्रतीक्षा है। इसी माह त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव भी हो जाएंगे। मध्यप्रदेश में भी कुछ चुनाव हो गए हैं, कुछ बाकी हैं। इस तरह निर्धारित अवधि में बिना किसी व्यवधान के जनतांत्रिक प्रक्रिया का पालन पिछले बीस साल से बराबर हो रहा है। सवाल उठता है कि सिर्फ चुनाव हो जाने से कितना खुश हुआ जाए? यदि स्थानीय स्वशासी संस्थाओं को चुनने का अर्थ एक विकेन्द्रीकृत शासनतंत्र लागू करना है, जिसमें जनता की भागीदारी भी हो और सुनवाई भी तो क्या इन चुनावों से वह ध्येय पूरा किया जा सका है? यदि विकेन्द्रीकरण का अर्थ अधिकाधिक पारदर्शिता लाना, भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाना और जन- समस्याओं का त्वरित निराकरण करना है, तो क्या पिछले बीस सालों में इस दिशा में सचमुच कोई प्रगति हुई है? अगर इन चुनावों के माध्यम से मैदानी स्तर पर राजनीतिक कार्यकर्ताओं को तैयार करना, उनमें नेतृत्व भावना का विकास करना, दूसरी पंक्ति का नेतृत्व तैयार करना एवं जनता का राजनैतिक शिक्षण करना है, तो क्या इस बारे में हम अपने आपको शाबासी दे सकते हैं?

इन सारे प्रश्नों का उत्तर तलाशने की कोशिश करें इसके पहले मैं छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ राजनेता डॉ. रामचन्द्र सिंहदेव द्वारा कुछ बरस पहले कही गई एक बात को याद करना चाहता हूं। सिंहदेवजी उन विरल राजनेताओं में से हैं, जिन्होंने कभी पद का मोह नहीं किया और जब कोई पद संभाला तो अपने ऊपर कभी कोई आंच आने नहीं दी। उन्हें मैं राजनेता न कहकर राजर्षि कहना पसंद करता हूं। इन्हीं सिंहदेवजी ने एक दिन कहा कि चुनाव के समय दूरदराज के मतदाता भी रातभर अपनी झोपड़ी की फटकी को आधा खुला रखते हैं और ढिबरी जलने देते हैं। यह बताने के लिए कि हम जाग रहे हैं, प्रतीक्षा कर रहे हैं, मतदान के पहले जो देना हो दे जाओ। मतलब यह कि चुनावों के समय उम्मीदवार अगर साड़ी, शराब, रुपया बांट रहे हैं तो उसे लेने से वे इंकार नहीं करते, फिर भले ही वोट किसी को भी दें। इतना तय है कि जिसने कुछ नहीं दिया उसे वोट पाने की उम्मीद भी नहीं करना चाहिए।

यह किस्सा इसलिए ध्यान में आया क्योंकि रायपुर नगर निगम के चुनाव में ही मुझे यहां-वहां से बहुत सारी खबरें सुनने मिलीं। मसलन, जुलूस निकालने और पर्चियां बांटने का रेट दो सौ-ढाई सौ रुपए प्रतिदिन था, भाजपा के उम्मीदवारों ने गरीब बस्तियों में तीन-तीन सौ रुपया बांटे, तो कांग्रेसियों ने दो सौ। कहीं-कहीं पांच सौ रुपए तक बांटने की खबरें आईं। चेपटी याने देशी दारू के पाउच तो बांटे ही गए। इस बार कुछ उम्मीदवारों ने अक्ल का परिचय देते हुए पैसा ब्राह्म मुहूर्त में बांटा जब विरोधी भी सोए हों, रात को जब पकड़े जाने की आशंका न हो। एम्बुलेंस गाडिय़ों का उपयोग भी इस वितरण के लिए किया गया जिन पर सामान्यत: शंका नहीं होती और कई जगह पुलिस वालों ने देखकर भी नहीं देखा। जो रायपुर में हुआ वही अन्यत्र भी हुआ होगा। जब ये हाल हैं तो आने वाले दिनों की तस्वीर क्या होगी? इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है। जो राजनीतिक कार्यकर्ता स्थानीय चुनावों में ऐसे पाठ पढ़ा रहे हैं उनका भविष्य कितना उज्जवल होगा इसका भी अनुमान किया जा सकता है।

यह जो स्थिति आज है उसकी तुलना स्वाधीनता संग्राम के दिनों से करने का मन होता है। सरदार वल्लभ भाई पटेल अहमदाबाद नगरपालिका के अध्यक्ष चुने गए थे। सुभाष चन्द्र बोस पहले कलकत्ता नगर पालिका के सीईओ चुने गए और बाद में अध्यक्ष भी। पंडित जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद नगरपालिका के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। हमारे मध्यप्रदेश में द्वारिकाप्रसाद मिश्र जबलपुर नगर पालिका के अध्यक्ष चुने गए। यह रेखांकित करना होगा कि इन सारे महानुभावों ने जेल में रहते हुए चुनाव लड़े व जीते। ऐसे अन्य उदाहरण भी होंगे जो फिलहाल मुझे स्मरण नहीं है। मुझे पुराने मध्यप्रदेश का ध्यान आता है जब स्वाधीनता सेनानी, कवि, पत्रकार और गीतांजलि के हिन्दी अनुवादक भवानीप्रसाद तिवारी आठ बार जबलपुर के महापौर निर्वाचित हुए। उनके कार्यकाल में जबलपुर नगर निगम के प्रांगण में सुभद्रा कुमारी चौहान की प्रतिमा लगाई गई। एक प्रसंग सुदूर जर्मनी का भी ध्यान आता है। बिली ब्रांट बर्लिन के मेयर थे जब वे जर्मनी के चांसलर याने प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए। यह संभवत: 1974 की बात है। उस वक्त हमें आश्चर्य हुआ था कि एक शहर का मेयर देश का प्रधानमंत्री बन सकता है।

इस पृष्ठभूमि में वर्तमान स्थिति निराशाजनक लगती है। आज 1 जनवरी होने के बावजूद मैं आशंकित हूं कि मेरे शहर का हाल-हवाल आने वाले दिनों में क्या होगा? जिन उम्मीदवारों ने चुनाव लडऩे के लिए पानी की तरह पैसा बहाया है वे सबसे पहले तो अपने नुकसान की भरपाई ही करेंगे। चूंकि राजनीति उनका पूर्णकालिक व्यवसाय होगा इसलिए अगले पांच साल नगर निगम ही उनकी रोजी-रोटी का या यूं कहें कि ब्रेड बटर का अथवा तंदूरी चिकन का एकमात्र सहारा होगा। इस बीच वे अपने भविष्य को भी ध्यान में रखेंगे। अगला चुनाव खुद लड़ें अथवा पत्नी या पति को लड़वाएं, उसके लिए तो व्यवस्था अभी से करना होगी। ऐसे कठिन समय में ठेकेदार और सप्लायर ही उनका सहारा बनेंगे। जो केन्द्र और प्रदेश की राजनीति में होता है उसी का अनुसरण नगर निगम, नगरपालिका और पंचायतों में भी होगा। मुझे गांव-गांव में यह सुनकर आश्चर्य नहीं होता कि हर पंच आधारभूत समिति का ही अध्यक्ष क्यों बनना चाहता है।

यह तो हुई एक बात जिससे निजात पाने की कोई उम्मीद फिलहाल नज़र नहीं आती। दोष तो मतदाताओं का ही है, जो अपने लोभ पर  नियंत्रण नहीं रख पाते। दूसरी बात और ज्यादा महत्वपूर्ण है। इन स्थानीय संस्थाओं को वास्तव में कितनी स्वायत्तता प्राप्त है। आदर्श स्थिति तो वह है जो केन्द्र-राज्य संबंधों में किसी हद तक देखी जा सकती है। दोनों के अधिकार क्षेत्र स्पष्ट रूप से परिभाषित हैं, यद्यपि वहां भी खींचतान चलती रहती है। किन्तु राज्य सरकार और स्थानीय निकायों के बीच क्या संबंध होंगे इसकी व्याख्या समुचित तौर पर नहीं की गई है। छत्तीसगढ़ में हमने पिछले पांच साल में जो देखा उसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि राज्य सरकार को जो उदारता दिखलाना चाहिए वह उसने नहीं दिखलाई। दरअसल संसद सदस्य और विधायक और मंत्री- कोई भी अपने अधिकार में कटौती नहीं चाहता। विकेन्द्रीकरण कहने के लिए है, लेकिन राजनेता जिस तीव्र गति से सामंती आचरण अपना लेते हैं वह वाकई आश्चर्यजनक है। क्या सरकारी गाड़ी पर चलने वाली लाल बत्ती इनके मस्तिष्क में ही कहीं फिट हो जाती है जो उतरने का नाम नहीं लेती? इस कारण अनावश्यक विग्र्रह पैदा होते हैं और कामकाज में शिथिलता आती है।

तीसरी बात जो मैं कहना चाहता हूं कि जो भी व्यक्ति अपनी राजनीतिक निष्ठा के आधार पर प्रत्याशी बनाए जाते हैं उनकी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति, स्थानीय विकास व प्रशासन के प्रति समझ कितनी साफ है? मैंने पिछले दो-ढाई दशकों में इन संस्थाओं का जो हाल देखा है वह इस बारे में बिल्कुल भी आश्वस्त नहीं करता। हमारे राजनीतिक दलों ने जनता तो दूर, अपने कार्यकर्ताओं का भी राजनैतिक शिक्षण करने के दायित्व से बहुत पहले मुक्ति पा ली है। जब टिकट बांटें जाते हैं तो उम्मीदवार की कार्यदक्षता अगर योग्यता है भी तो शायद उसके लिए सौ में एक पाइंट ही होता है। बाकी तो आजकल इसे कहा जाता है-''विनेबिलिटीÓÓ याने चुनाव जीतने की क्षमता। इसीलिए चुनावों के समय सब्जबाग चाहे जितने दिखाए जाएं जब व्यवहारिकता के धरातल पर उतरते हैं तो ज्यादातर काम उल्टे-सुल्टे ही होते हैं। जैसे कभी डामर की सड़क पर सीमेंट चढ़ा दी जाती है और फिर उसी पर दुबारा डामर हो जाता है और इसी तरह की बहुत सी बातें।

बहरहाल चुनाव तो हो गए हैं। अब देखिए, आने वाले दिनों में क्या होता है?
देशबन्धु में 1 जनवरी 2015 को प्रकाशित

नया साल और नौजवान




पर्व, उत्सव, त्यौहार, छुट्टी- इन सबका असली आनन्द तो मुख्यतौर पर बच्चे और नौजवान ही उठाते हैं। ऐसा नहीं कि जो युवावस्था पार कर चुके हैं वे इस आनन्द से वंचित रहते हैं, किन्तु जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है कुछ मन की थकान और कुछ देह की थकान के कारण उत्साह धीमा पडऩे लगता है। कुछ लोग समय से पहले बूढ़े हो जाते हैं उन पर भी यही बात लागू होती है।  आनन्द के किसी भी अवसर पर आपको अपने आस-पास ऐेसे व्यक्ति मिल जाएंगे जो स्मृतियों के सहारे जीते हैं। उनसे आप सुन सकते हैं कि हमारे जमाने में तो ऐसा होता था। फिर भी कहना होगा कि वरिष्ठ नागरिकों के समूह में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो जिन्दगी को जीना चाहते हैं और जीवन के शेष दिनों का एक-एक पल  आनन्द उठाने की कोशिश करते हैं। ये लोग बच्चों के साथ बच्चे बन जाते हैं और तरुणों के साथ तरुण। यह अच्छी बात है कि पिछले दशकों में देश में औसत आयु बढऩे के साथ-साथ बुजुर्ग नौजवानों की संख्या भी बढ़ रही है।

बहरहाल, आज हम अपनी बात जो युवा पीढ़ी है, उस तक सीमित रखना चाहते हैं। आज प्रारंभ होने वाला नववर्ष उनके लिए क्या खुशियां लेकर आया है और कौन सी संभावनाएं, इस पर विचार करना शायद अवसर के अनुकूल होगा। एक किशोर, तरुण या नवयुवा- मोटे तौर पर मान लीजिए सोलह से पच्चीस का आयु वर्ग। उसकी आशा, आकांक्षाएं क्या हैं ?  सामान्य सोच कहती है कि आज लड़की हो या लड़के, वे एक ऐसे जीवन की कल्पना करते हैं जो निरापद और सुखद हो, जिसमें अच्छी शिक्षा प्राप्त करने का अवसर हो, ठीक-ठाक तरीके से जीवनयापन के साधन जुट जाएं, सच्चा प्यार करने वाला जीवन साथी हो और फुर्सत के लम्हों में मनचाहा मनोरंजन हो सके। अपने देश की परिस्थितियों पर एक उड़ती निगाह डालें तो शायद यह सब कुछ उपलब्ध है।

आज गांव-गांव में अंगे्रजी मीडियम स्कूल खुल गए हैं। विदेशों में जाकर पढऩे के लिए सरकारी बैकों से ऋण मिल जाता है। जीवनयापन के लिए अब नौकरी नहीं, बल्कि कॅरियर संज्ञा का इस्तेमाल होता है। कदम-कदम पर बेहतर कॅरियर का सपना दिखाने वाले प्रतिष्ठान हैं। मनोरंजन के लिए आज क्या नहीं है- मॉल, मल्टीप्लेक्स, स्मार्ट फोन, बाइक, मैरीन ड्राइव और तरह-तरह के सरंजाम। सच्चे जीवन साथी की तलाश भी शायद पहले से आसान हो गई है और सुखमय जीवन की कल्पना शायद इस रूप में साकार हो रही है कि पहले रिटायरमेंट के बाद घर बनाने की बात सोची जाती थी, आज कॅरियर के पहले-दूसरे साल में ही फ्लैट बुक हो जाता है। आप आपत्ति कर सकते हैं कि ये सारी सुख-सुविधाएं हर नौजवान को मयस्सर नहीं हैं । जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं वही इन्हें हासिल कर सकते हैं और लड़कियों की जहां तक बात है उनकी सुरक्षा तो एक सपना ही है। बात सही है। इसका अर्थ यह भी हुआ कि नया साल हो कि अन्य कोई अवसर, हर नौजवान एक तरह से आनन्द नहीं उठा पाता। इसका कारण ढूंढना चाहिए।

यह सोचना शायद गलत नहीं है कि हमारे वर्ग-विभाजित समाज में खाई लगातार बढ़ रही है और उसका सीधा असर युवजनों पर पड़ रहा है। हमने युवाओं के लिए ऐसे तमाम साधन जुटा लिए हैं जिनमें मशगूल रहते हुए वे अपने समय की सच्चाईयों से कट जाएं। दूसरी तरफ वे व्यवस्थाएं भ्रष्ट या नष्ट कर दी गई हैं जहां युवा पीढ़ी एक मंच पर आकर एक-दूसरे से रूबरू हो सके और परस्पर समझ विकसित कर सके। इस बात को यूं समझा जा सकता है कि पिछले तीस-चालीस साल में देश में कोई बड़ा छात्र आन्दोलन नहीं हुआ। जिन छात्रसंघों के माध्यम से नवयुवा आगे आते थे उनको निष्प्रभावी बनाने के लिए हर संभव कोशिश की गई है। राजनीतिक दलों के भी जो छात्र अथवा युवा संगठन हैं उनमें भी वैचारिक आधार पर चर्चाएं नहीं होतीं, बल्कि अराजक वातावरण निर्मित करने के लिए नौजवानों को उकसाया जाता है।

यह स्थिति भविष्य के प्रति चिंता उपजाती है। हम जानते हैं कि वर्चस्ववादी ताकतें युवाओं को भरमाने के लिए नित नए उपाय करती रहेंगी। यह तो खुद नयी पीढ़ी के सोचने की बात है कि वह मृगमरीचिका के पीछे न दौड़े। जिन्हें वोट देने का अधिकार मिल चुका है उनसे इस समझदारी की अपेक्षा तो करना ही चाहिए। हम भरोसा करना चाहते हैं कि आज नहीं तो कल देश के नौजवान वस्तुस्थिति को समझेंगे और मिल-जुल कर एक नया समाज बनाने के लिए अग्रसर होंगे। इन्हीं विचारों के साथ नौजवानों को 2015 की शुभकामनाएं।
देशबन्धु सम्पादकीय 1 जनवरी 2015

Tuesday, 30 December 2014

नया साल: शिक्षा व स्वास्थ्य


 नया साल प्रारंभ होने पर खुशियां इस उम्मीद से मनाई जाती हैं कि आने वाला साल गुजरे वर्ष की तुलना में बेहतर होगा। बेहतर होने की इस कल्पना में तमाम बातें आ जाती हैं- निजी जीवन, निजी संबंध, घर-परिवार, मोहल्ला-पड़ोस, नौकरी-व्यापार, आर्थिक स्थिति इत्यादि। अगर निजी बातों को छोड़ दिया जाए तो आने वाले दिनों को बेहतर बनाने की बहुत बड़ी जिम्मेवारी सरकार की होती है। खासकर उस व्यवस्था में जहां सरकार को चुनती है और अपनी आशा-आकांक्षाओं को पाने के लिए एक सुचारु व्यवस्था निर्मित करने का दायित्व उसे सौंप देती है। फिर यह सत्ता पर काबिज लोगों को सोचना है कि आम आदमी को रोटी, कपड़ा, मकान कैसे मुहैय्या करवाया जाए। यह मुहावरे की बात हुई, परन्तु इसमें शांति, सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि तमाम बिंदु शुमार हैं। इस दृष्टि से गौर करें तो शंका होती है कि 2015 का साल पहिले से बेहतर बीतेगा।

यहां हम दो खास बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं- शिक्षा और स्वास्थ्य। पाठकों को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि भारत उन दो सौ देशों में है, जिन्होंने सन् 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निर्धारित सहस्राब्दी लक्ष्य  (एम.डी.जी.) के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे। इस अनुबंध में सन् 2015 तक याने पंद्रह वर्षों के दौरान कुछ जनहितैषी लक्ष्य हासिल करने का संकल्प लिया गया था, जिनमें शिक्षा व स्वास्थ्य सर्वोपरि थे। भारत ने करार किया था कि देश के सकल घरेलू उत्पाद याने जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर व 3 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च किया जाएगा, ताकि प्राथमिक शिक्षा व बुनियादी चिकित्सा सुविधा का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंच सके। अधिकतर देश इस संकल्प के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाए हैं और अब 2015 प्लस का नया नारा लेकर आगे बढऩे की बात हो रही है। हम अन्य देशों के साथ अपनी तुलना नहीं करना चाहते। भारत तो आज महाशक्ति बनने के सपने देख रहा है। उसकी संकल्प शक्ति क्यों कमजोर पड़े? अगर यूपीए ने इस दिशा में ध्यान दिया होता तो शायद उसे ये दुर्दिन न देखना पड़ते लेकिन भाजपा के मुखर नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार का भी वांछित ध्यान इस ओर नहीं है।

हमारे लिए यह खबर अत्यन्त चिंताजनक है कि भारत सरकार ने आने वाले समय के लिए अपने स्वास्थ बजट में बीस प्रतिशत की कटौती कर दी है। याने 3 प्रतिशत जीडीपी की बात तो दूर रही, जितना है उसमें भी पीछे जा रहे हैं। अनुमान होता है कि स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को बढ़ावा देने की दुरभिसंधि तो कहीं इस निर्णय के पीछे नहीं है? सहस्राब्दी लक्ष्य की मंशा के मुताबिक जनता को स्वास्थ्य का अधिकार तो पहले से ही दिया जा चुका है, किन्तु जो नीतियां बन रही हैं उनमें एक तरफ दवा कंपनियां और दूसरी ओर निजी क्षेत्र के अस्पतालों को ही बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके अलावा विदेशी बीमा कंपनियों के माध्यम से स्वास्थ्य बीमा को भी बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित किया जा रहा है। इन सबका मिला-जुला परिणाम यह है कि सरकारी अस्पताल दुगर्ति को प्राप्त हो रहे हैं। डॉक्टरों की दिलचस्पी अपने-अपने अस्पताल खोलने में है। आंख फोड़ कांड, गर्भाशय कांड, नसबंदी कांड आदि छत्तीसगढ़ में ही नहीं, पूरे देश में हो रहे हैं। इलाज करवाना अनावश्यक रूप से महंगा हो गया है व दवाईयों की कीमतें मनमानी बढ़ रही हैं। ऐसे में एक आम आदमी 2015 में बेहतर स्वास्थ्य की कल्पना कैसे कर सकता है?

शिक्षा के क्षेत्र में भी स्थिति बेहतर नहीं है। देश में प्राथमिक स्तर पर लाखों शिक्षकों की कमी है। सब प्रांतों में ठेके पर शिक्षक नियुक्त किए जा रहे हैं भले ही उनका पदनाम कुछ भी हो। इन शिक्षकों के प्रशिक्षण की भी समुचित व्यवस्था नहीं है। सरकारी स्कूलों पर से लोगों का भरोसा लगभग उठ गया है। वहां वे ही बच्चे पढ़ते हैं जो सब तरफ से मजबूर हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी ऐसी ही बुरी हालत है। युवा मानव संसाधन विकास मंत्री से अपेक्षा थी कि वे वयोचित उत्साह और कल्पनाशीलता के साथ व्यवस्था को सुधारने के लिए उपक्रम करेंगी। लेकिन उनका पूरा समय अनावश्यक विवादों में जा रहा है। वे भले ही कम शिक्षित हों, लेकिन एक राजनेता से अपेक्षित सहज बुद्धि का भी अभाव उनके कामकाज में दिखाई देता है। पंडित नेहरू के समय में स्थापित जिन आदर्श शिक्षण संस्थाओं से निकलकर अनेकानेक भारतीयों ने दूर देशों में जाकर पैसा कमाया, शोहरत हासिल की और जो आगे चलकर जो भाजपा के सबसे बड़े समर्थक हुए, उन श्रेष्ठ संस्थाओं की स्वायत्तता खत्म की जा रही है। देश की शिक्षा नीति अब वे लोग बना रहे हैं जिन्हें कूपमंडूक की संज्ञा दी जा रही है। ऐसे में आम आदमी के सामने 2015 में बेहतर शिक्षा हासिल करने के अवसर भी कहां हैं?

हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को धन्यवाद देंगे यदि वे बिगड़ते हालात को दुरुस्त करते समय रहते आवश्यक कदम उठा सकें।

देशबन्धु सम्पादकीय 31 दिसंबर 2014

Monday, 29 December 2014

नया साल: एक संकल्प


 नया साल 2015 दहलीज तक आ पहुंचा है। दुनिया में सब तरफ अपने-अपने तरीके से नववर्ष के स्वागत की तैयारियां चल रही हैं। जिनके पास साधन सुविधा है वे अपने घरों से दूर नए-निराले ठिकानों पर पहुंच कर नए साल की खुशियां मनाने पहुंच गए हैं। इसके लिए कई-कई हफ्तों पहले से तैयारियां शुरू हो जाती हैं। जिन्हें ऐसे अवसर मुहैय्या नहीं है वे भी घर में या घर के आस-पास कहीं नया साल मनाएंगे ही। 31 दिसम्बर की रात को खूब चहल-पहल होगी। ठीक आधी रात को गिरजाघरों की घंटिया बजेंगी। 2014 अपनी पीठ पर 365 दिनों की गठरी लाद कर चुपचाप इतिहास के पन्नों में विलीन हो जाएगा और नयी आभा, नयी चमक, नए उल्लास के साथ 2015 के लिए सारे दरवाजे खुल जाएंगे कि आने वाले वर्ष में सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो। एक जनवरी को भारत के करोड़ों लोग मंदिरों, इबादतगाहों, गुरुद्वारों और चर्चों में जाएंगे, हृदय में यही प्रार्थना लिए कि आने वाले वर्ष में कोई त्रासदी न घटे, किसी दु:स्वप्न का सामना न करना पड़े।  यह बात अच्छी लगती है कि अपनी परंपरा के अनुसार हमारा नववर्ष जब भी शुरू होता हो, इस विश्वव्यापी नववर्ष को भी हम पूरी उमंग के साथ मनाते हैं।

1 जनवरी एक शुभदिन है। ऐसे शुभ दिनों पर हम नए संकल्प लेते हैं ताकि आने वाले दिनों में अशुभ की छाया से बच सकें। नववर्ष पर एक दूसरे को बधाईयां और शुभकामनाएं देने की भी परंपरा है।  आप सबको मंगलमय 2015 की बधाई देते हुए अनुरोध करने का मन है कि एक सुखद भविष्य की आकांक्षा लिए आज हम प्रचलन से हट कर एक नया संकल्प लें। कितना अच्छा हो कि एक जनवरी को हम तय करें कि हम भारतवासी अपने संविधान की रक्षा करेंगे। एक भारतीय नागरिक को यह मानने में कोई संकोच या दुविधा नहीं होना चाहिए कि संविधान हमारा सबसे पवित्र ग्रंथ है और इसके अनुकूल आचरण करने में ही हमारी शान है। संभव है कि अपनी रूढिय़ों से जकड़े जनों को यह बात एकाएक समझ न आए। इसलिए इसका खुलासा कर देना उचित होगा।

मनुष्य जीवन में सबसे बहुमूल्य वस्तु अगर कोई है तो वह है स्वतंत्रता ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो खुशी-खुशी किसी का दास बनना चाहता हो या जिसे स्वतंत्रता प्यारी न हो। मनुष्य ही क्यों, संपूर्ण प्राणी जगत के बारे में यह बात सच है इसीलिए हमारे कवियों ने पशु पक्षियों की परतंत्रता पर भी आंसू बहाए हैं। कवि प्रदीप ने लिखा था-
''पिंजरे के पंछी रे, तेरा दरद न जाने कोए।"
उनके भी पहले सैय्यद अमीर अली 'मीर' ने कविता लिखी थी-
''मैना तू बनवासिनी, पड़ी पींजरे आन।"

स्वतंत्रता अनमोल है इसे भारतवासियों से बेहतर और कौन जान सकता है क्योंकि एक सौ नब्बे साल तक (1757 से 1947) गुलामी का जुआ हम अपने कंधों पर ढोते रहे हैं। मनुष्य की स्वतंत्रता और भारत के संविधान के बीच एक अटूट रिश्ता है क्योंकि जिन लोगों ने देश को आजाद करने के लिए अनगिनत तकलीफें उठायीं, कुर्बानियां दीं, उन्हीं  ने हमें स्वतंत्र भारत का संविधान भी दिया।

आज यदि हम अपने संविधान का सम्मान करने में कहीं चूकते हैं तो इसका एक सीधा अभिप्राय यह होता है कि हम अपने संविधान निर्माताओं,  जो कि स्वाधीनता संग्राम के अग्रनायक भी थे, की स्मृति का अपमान कर रहे हैं। आज यदि भारतीय खुली हवा में सांस ले पा रहे हैं तो यह अवसर हमें अपने संविधान ने ही दिया है। इसे एक और कसौटी पर देखना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि यह विश्व का सर्वश्रेष्ठ संविधान है। ऐसा इसलिए है क्योंकि संविधान निर्माताओं ने इसकी रचना करते समय एक ओर जहां भारत की हजारों साल पुरानी उदारवादी पंरपराओं में जो कुछ श्रेष्ठ व ग्रहण करने योग्य था उसे लिया, तो दूसरी तरफ विश्व के अन्य देशों से एक आधुनिक समाज गढऩे के लिए जो विचार लिए जा सकते थे उन्हें स्वाकार करने से परहेज नहीं किया। कहना होगा कि हमारी सविधान सभा किसी ब्रह्मा से कम नहीं थी।

भारत का संविधान मनुष्य मात्र की गरिमा का सम्मान करता है, न्यायपथ पर चलने का निर्देश देता है, लोक व्यवहार में उदार बनने के लिए प्रेरित करता है और आधुनिक विश्व में प्रभावशाली भूमिका निभाने का अवसर देता है। कुल मिलाकर वह हमें अपनी जड़ता से मुक्त करता है। हमारे अपने निजी धार्मिक विश्वास हो सकते हैं, लेकिन भारतीय संविधान उन्हें एक वृहतर उदात्त मनोभूमि पर स्थापित करता है। नए साल पर इससे बढ़कर संकल्प भला और क्या हो सकता है कि हमारा जीवन संविधान की मर्यादा के अनुरूप व्यतीत हो।
देशबन्धु सम्पादकीय 30 दिसंबर 2014

Sunday, 28 December 2014

पंचायती राज में बाधक अभिजात सोच


 क्या राजस्थान के उन तेईस भाजपा विधायकों की सदस्यता निरस्त कर देना चाहिए जो आठवीं पास भी नहीं है? यह सवाल इसलिए उठता है कि प्रदेश की भाजपा सरकार ने हाल में एक अध्यादेश लाकर पंचायत उम्मीदवारों के लिए आठवीं पास होने की शर्त अनिवार्य कर दी है। इसी तरह जिला पंचायत व जनपद पंचायत का चुनाव लडऩे के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता शायद हाई स्कूल पास रख दी गई है। जब ऐसा है तब तो विधायक पद के लिए उम्मीदवार को कम से कम बी.ए. डिग्रीधारी तो होना ही चाहिए। अभी तो अध्यादेश के रास्ते से सरकार ने यह प्रावधान कर दिया है, किंतु जब इसे विधानसभा में बाकायदा अधिनियम का रूप देने का समय आएगा, तब सरकार क्या करेगी? वसुंधरा राजे के पास प्रबल बहुमत है, इसलिए उन्हें कानून बनाने में अड़चन तो नहीं होगी, लेकिन प्रदेश की भाजपा सरकार की दोहरी नीति अवश्य उस वक्त प्रकट हो जाएगी। दरअसल, वसुंधरा राजे अपनी दूसरी पारी में ताबड़तोड़ ऐसे निर्णय ले रही हैं जिनसे सुविधाभोगी  जमात प्रसन्न हो सके, लेकिन उन्हें शायद ध्यान नहीं है कि ऐसा करने से बहुसंख्यक मेहनतकश समाज की जनतांत्रिक आकांक्षाओं का निरादर हो रहा है।

यह तर्क उचित ही है कि सांसद, विधायक या पंच-सरपंच बनने के लिए कुछ न्यूनतम अहर्ताएं हों, लेकिन औपचारिक शिक्षा को ही अनिवार्य तथा सर्वप्रमुख योग्यता क्यों माना जाए? यह सोच एक तरफ तो मनुष्य की सहज बुद्धि की अवज्ञा करती है, दूसरी तरफ इसमें भारत की सामाजिक संरचना के प्रति अवहेलना का भाव प्रकट होता है एवं तीसरी ओर अभिजात एवं सम्पन्न वर्ग की वर्चस्ववादी नीति का प्रतिबिंब भी देखने मिलता है। यह सब जानते हैं कि भारत में औपचारिक शिक्षा का ढांचा कितना कमजोर और गरीब विरोधी है। अनिवार्य शिक्षा कानून लागू हो जाने के बाद भी उसका उल्लंघन कदम-कदम पर हो रहा है। आज़ादी के समय साक्षरता और शिक्षा की जो दर थी उसमें काफी बढ़ोतरी हुई है, फिर भी संपूर्ण साक्षरता का लक्ष्य अभी तक हासिल नहीं किया जा सका है। भारत ने सहस्राब्दी लक्ष्य के प्रति जो प्रतिबद्धता जाहिर की थी उस पर भी वह खरा नहीं उतरा है।

हमें यह भी पता है कि उत्तर भारत के राजस्थान इत्यादि प्रदेशों में स्थिति और भी चिंताजनक है। आदिवासी, दलित और महिलाओं के साक्षर-शिक्षित होने का लक्ष्य पाने के लिए तो अभी लंबा सफर तय करना है। ऐसे में जहां इन वर्गों के लिए पंचायती राज में आरक्षण है वहां आठवीं पास उम्मीदवार कहां से आएंगे? इस व्यवहारिक पहलू पर वसुंधरा सरकार का ध्यान शायद नहीं गया है। दुर्भाग्य से राजस्थान का अनुसरण छत्तीसगढ़ भी कर रहा है जहां पंचायती राज चुनाव के लिए प्रत्याशियों के लिए साक्षर होना अनिवार्य कर दिया गया है। गनीमत है कि साक्षर को अभी परिभाषित नहीं किया गया है। याने अगर हस्ताक्षर करना आता है तो शायद उतने से काम चल जाएगा। यहां प्रश्न उठता है कि क्या शिक्षा सिर्फ वही है जो स्कूली किताबों से मिलती है? इस प्रश्न की पेचीदगी को उन शिक्षाविदों ने समझा है जो देश के साक्षरता अभियान में सक्रिय रहे हैं।

केन्द्र सरकार का संपूर्ण साक्षरता अभियान ताईद करता है कि जो लोग स्कूल नहीं गए हैं वे अन्य तरह से शिक्षित हैं। एक किसान फसल, बीज, मिट्टी, मौसम के बारे में जितना जानता है वह उसका विशिष्ट ज्ञान है। यही बात उन तमाम लोगों पर लागू होती है जो निरक्षर होने के बावजूद अपने-अपने पेशे में हुनरमंद हैं। ऐसे लोगों के लिए ही राष्ट्रीय साक्षरता अभियान ने समतुल्यता परीक्षा की व्यवस्था की है। मोटे तौर पर इसके तहत अपने हस्ताक्षर कर पाने वाली एक किसान औरत पांचवीं, आठवीं या बारहवीं के बराबर शिक्षित मानी जा सकती है। क्या राज्य सरकार ने इस बात को ध्यान में रखा है? दूसरी बात, जब आप पंचायत प्रतिनिधि के लिए न्यूनतम शिक्षा की शर्त रखते हैं तो यही शर्त उन लोगों के लिए क्यों नहीं लागू होती जो सांसद और विधायक हैं? एक निरक्षर विधायक पंच बनने के लिए साक्षरता की शर्त किस नैतिक अधिकार से लगा सकता है?

दरअसल पंचायती राज के प्रति हमारी सरकारें गंभीर नहीं हैं। 73वें और 74वें संविधान संशोधन विधेयक के जरिए राज्य सरकारों को पंचायतों के कामकाज में हस्तक्षेप करने की बड़ी छूट दे दी गई है। इसके चलते पंचायती राज व्यवस्था राज्य सरकारों की दया पर निर्भर हो गई है। इसलिए कभी मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार दो बच्चों से ज्यादा होने पर चुनाव लडऩे पर प्रतिबंध लगा देती है तो कभी राजस्थान की भाजपा सरकार ऐसा निर्णय ले लेती है। सांसद और विधायक भी पंचों-सरपंचों को किसी गिनती में नहीं रखते। यह एक बड़ी विसंगति है। हम मानते हैं कि अगर पंचगण शिक्षित हों तो वह बेहतर है, लेकिन जब हम देखते हैं कि हमारे द्वारा चुनकर भेजे गए लोग शिक्षित होने के बावजूद किस तरह का आचरण कर रहे हैं तब यह एकमात्र शर्त संदिग्ध हो जाती है।
देशबन्धु सम्पादकीय 29 दिसंबर 2014

Thursday, 25 December 2014

मुख्यमंत्री कौन हो?


 जम्मू-काश्मीर एवं झारखण्ड दोनों प्रदेशों में विधानसभा चुनाव तो सम्पन्न हो गए हैं। अब बड़ा सवाल यह है कि दोनों जगह मुख्यमंत्री कौन बने? झारखण्ड में भाजपा के सामने कोई खास परेशानी नहीं है। वहां तीन गैर-आदिवासी नेता मुख्यमंत्री पद की दौड़ में हैं और ऐसा तय माना जा रहा है कि वरिष्ठ और अनुभवी रघुवर दास को ही पार्टी द्वारा मनोनीत किया जाएगा। झारखण्ड में भाजपा पर गैर-आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाने का दबाव शुरू से ही रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के चुनाव हारने से ऐसा सोचने वालों की राह सरल हो गई है, लेकिन ऐसा करके भाजपा यहां एक अलग तरह का अवसर गंवा रही है। निवर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भाजपा की एक अन्य वरिष्ठ नेता डॉ. लुई मरांडी ने हराया है। अगर उन्हें मौका दिया जाता तो झारखण्ड को एक आदिवासी के अलावा प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री पदासीन करने का श्रेय मिल जाता और इसका शायद एक सही संकेत भी जाता।

बहरहाल लाख टके का सवाल तो जम्मू-काश्मीर का है। यहां तरह-तरह के समीकरण प्रस्तावित किए जा रहे हैं। पीडीपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है अत: पहला मौका उसे ही मिलना चाहिए, किन्तु बहुमत हासिल करने के लिए वह किसके साथ जाए? पीडीपी और भाजपा दोनों पर अनेक हल्कों से दबाव पड़ रहा है, कि वे मिलजुल कर सरकार बना लें। इससे क्षेत्रीय असंतुलन की समस्या भी समाप्त हो जाएगी और भाजपा को जम्मू के अलावा घाटी में भी अपने पैर जमाने का मौका मिल जाएगा। लेकिन यह कैसे हो? अगर पीडीपी राजी हो भी जाए तो इसका प्रदेश की बहुसंख्यक जनता के बीच क्या संदेश जाएगा? काश्मीर घाटी में तो भाजपा को दूर रखने के लिए ही तो लोगों ने पीडीपी को वोट दिए हैं। इसके अलावा ऐसे बहुत से पेचीदे मुद्दे हैं जिन पर दोनों पार्टियों में कभी एक राय कायम नहीं हो सकती। पीडीपी के लिए भाजपा को साथ लेना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा। मुफ्ती साहब जैसा अनुभवी नेता जानते हैं कि भाजपा कैसे एक-एक कर अपने सहयोगी दल को लीलती गई है।

दूसरा विकल्प भाजपा और नेशनल कांफ्रेंस के साथ मिलकर सरकार बनाने का है। इसके लिए उमर अब्दुल्ला शायद प्रतीक्षा भी कर रहे होंगे! दोनों के पास मिलाकर चालीस सीट हो जाती हैं। अगर इनको सज्जाद लोन के दो व दो निर्दलियों का साथ मिल जाए तो सरकार आसानी से बन सकती है। यहां भाजपा के सामने यह परेशानी हो सकती है कि जिस नेशनल कांफ्रेंस को मतदाताओं ने नकार दिया हो क्या उसका साथ लेना उचित होगा? लेकिन व्यवहारिक राजनीति में ऐसे नैतिक प्रश्न अक्सर बेमानी हो जाते हैं। इसलिए संभावना तो बनती है किन्तु इसका संदेश मतदाताओं के बीच सही नहीं जाएगा यह आशंका अपनी जगह बरकरार है।

पीडीपी के सामने दो और विकल्प हैं। एक तो वह नेशनल कांफ्रेंस के साथ मिलकर सरकार का गठन कर सकती है। इसके लिए बरसों से चली आ रही अदावत को भुलाकर हाथ मिलाना होगा। यह दूर की कौड़ी लगती है और यहां फिर नेकां की वर्तमान छवि का सवाल उठता है। एक अन्य विकल्प है कि पीडीपी और कांग्रेस मिलकर सरकार बनाएं। इसके अलावा मुफ्ती मोहम्मद सईद पुराने कांगे्रसी हैं। वे कांग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार चला भी चुके हैं तो शायद एक बार फिर वह प्रयोग दोहराया जा सके!

पीडीपी के सामने एक अल्पमत सरकार गठित करने का रास्ता भी खुला हुआ है। वे अपने अठाइस सदस्यों के साथ सरकार बनाएं चाहें तो एकमात्र विधायक युसूफ तारीगामी वाली माकपा और दो-तीन निर्दलीय अथवा छोटी पार्टी वाले विधायकों  को लेकर गठजोड़ कर लें। इस सरकार को नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस दोनों बाहर से समर्थन देते हैं। यदि नेकां समर्थन न भी दें तो भी कांग्रेस के समर्थन से सरकार चल सकती है, ऐसा अनुमान होता है। खैर! सरकार जैसी भी बने, एक और मौंजू सवाल यहां उभरता है।

इस पूरी तस्वीर में इस तथ्य को रेखांकित करना जरूरी है कि अगर भाजपा सरकार से दूर रहती है तब भी उसे विधानसभा में विपक्षी दल की मान्यता तो मिलना ही है। इस हैसियत से प्रदेश की राजनीति में भाजपा क्या भूमिका निभाएगी? काश्मीर घाटी और लद्दाख में मिली जबरदस्त मार के बाद उसे यह तो समझ आ गया होगा कि यह सीमांत प्रदेश उसकी बुनियादी सोच और उसूलों को पसंद नहीं करता। इसे जानते हुए भी वह अपने रुख में कोई नरमी लाने के लिए तैयार शायद ही होगी। ऐसे में उसका एजेण्डा हो सकता है कि वह जम्मू-काश्मीर प्रांत के पुनर्गठन की बात सोचे व पृथक जम्मू व पृथक लद्दाख प्रांत बनाने की दिशा में कार्रवाई करने के लिए सन्नद्ध हो। आगे क्या होता है इस पर राजनीतिक पर्यवेक्षकों की नज़र रहेगी।
देशबन्धु सम्पादकीय 26 दिसंबर 2014

Wednesday, 24 December 2014

भारत रत्न


  
महामना मदनमोहन मालवीय एवं अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित किए जाने की औपचारिक घोषणा आज उनके जन्मदिन के चौबीस घंटे पूर्व हो गई। इसकी सुगबुगाहट पिछले कुछ दिनों से चल रही थी। हमारे देश में स्वतंत्रता के बाद नागरिक सम्मान देने की जो परिपाटी प्रारंभ हुई थी उसी का अनुकरण मोदी सरकार ने किया है। मालवीयजी व वाजपेयीजी दोनों को उनके अपने राजनीतिक विश्वासों के बावजूद संकीर्ण राजनीतिक सीमाओं में बांधकर नहीं देखा जा सकता और इसीलिए उन्हें भारत रत्न से अलंकृत किए जाने का समूचे देश में एक जैसा स्वागत हुआ है।
भारत के स्वाधीनता संग्राम में तथा उसके साथ-साथ देश में उच्च शिक्षा के प्रसार के लिए महामना ने जो कार्य किया वह अतुलनीय एवं सदैव अनुकरणीय है। पंडित नेहरू ने मालवीयजी की जन्मशती पर जो व्याख्यान दिया था, उसका एक  अंश यहां दृष्टव्य है: 
''हमारे सामने जो कई ऐसी मिसालें हैं जिनसे हम सीख सकते हैं- आजकल के लोग, आजकल के नौजवान बहुत-कुछ सीख सकते हैं मालवीयजी के जीवन से। उनके सामने जो लक्ष्य था, जैसे उन्होंने काम किया और सफलता पाई इन सबसे। हम मूर्तियां खड़ी करें, संस्थाएं बनायें, यह तो ठीक है, लेकिन आखिर में सबक सीखें उनकी जिन्दगी से, उनके काम से और आगे बढ़ें, तो यही उनका सबसे बड़ा स्मारक हो सकता है। यह अच्छा है कि समय आया उनकी शताब्दी मनाने का, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पुराने ओर नये लोग सब फिर सोचें, विचार करें और सीखें कि वे क्या-क्या बातें थीं, जिनसे मालवीयजी इतने ऊंचे महापुरुष हुए, कैसे उन्होंने भारत की आज़ादी के रास्ते में, अपनी संस्कृति का आदर करने के रास्ते में, सबको बढ़ाया और यह कि उनके बतलाये रास्ते पर चलकर भारत की सेवा हम किस तरह करें और आगे बढ़ें?" (पूरा लेख देशबन्धु के 21 दिसम्बर 2014 के अवकाश अंक में पढ़ा जा सकता है)।
अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में भी कहने की आवश्यकता नहीं है कि एक अनुदार, दक्षिणपंथी दल के प्रमुख नेता होने के बावजूद उन्होंने दलीय राजनीति को निजी व्यवहार में कभी हावी नहीं होने दिया। उनके आचरण में जो शालीनता व शिष्टता का निर्वाह था, उसके चलते उन्हें अक्सर ''गलत पार्टी में सही आदमी" कहकर भी संबोधित किया गया। भारतीय राजनीति में छह दशक लंबी पारी खेलते हुए वाजपेयीजी ने देश में और दुनिया में चारों तरफ से जो सम्मान अर्जित किया, वह राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक आदर्श उदाहरण है। यदि 1957 में पंडित नेहरू ने उन्हें उनके लोकसभा में प्रथम वक्तव्य पर बधाई देते हुए भविष्य की शुभकामनाएं दी थीं तो आगे चलकर उन्होंने भी श्रीमती इंदिरा गांधी की बंगलादेश युद्ध के समय प्रशंसा करने में कोई कोताही नहीं बरती थी।
हम मदनमोहन मालवीय तथा अटल बिहारी वाजपेयी दोनों को भारत रत्न से नवाजने का स्वागत करते हैं, लेकिन इसके साथ एक बार फिर इन अलंकरणों के बारे में अपनी राय दोहराना चाहते हैं जो पहले भी कई बार इस स्थान पर व्यक्त कर चुके हैं। एक तो हमारा मानना है कि किसी भी दिवंगत व्यक्ति को भारत रत्न या कोई भी अन्य अलंकरण नहीं दिया जाना चाहिए। मृत्योपरांत दिए गए सम्मान का क्या अर्थ है? इसका पूर्व में भी हम विरोध कर चुके हैं। महामना के संदर्भ में यह स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री के लोकसभा क्षेत्र को ध्यान में रखकर यह निर्णय लिया गया है। मालवीयजी के नाम पर एतराज नहीं, लेकिन फिर लोकमान्य तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महात्मा जोतिबा फुले और ऐसे अनेक महान स्वाधीनता सेनानियों, शिक्षाशास्त्रियों व समाज सुधारकों को क्यों छोड़ दिया जाए जो उस दौर में हुए?
हमारी दूसरी आपत्ति इस बात पर है कि राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री को इन अलंकरणों के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए। यह परंपरा नेहरू युग में ही पड़ गई थी, लेकिन उसका कोई औचित्य आज हमें समझ नहीं आता। देश की जनता ने जिस व्यक्ति को सर्वोच्च शिखर पर बैठाया हो क्या ऐसा सम्मान उसके लिए व्यर्थ नहीं है? प्रसंगवश यह भी कहना होगा कि फिल्मी सितारों, क्रिकेट खिलाडिय़ों, उद्योगपतियों आदि को भी भारत रत्न या पद्म अलंकरण नहीं मिलना चाहिए? अव्वल तो उन्हें उनकी उपलब्धियों के लिए भरपूर मुआवजा मिलता है और दूसरे उनके लिए अन्य तरह के सम्मान हासिल हैं।
हमने सोचा था कि नरेन्द्र मोदी इन अलंकरणों को पूरी तरह समाप्त करने पर विचार करेंगे। ऐसा न करके उन्होंने यही सिद्ध किया है कि वे रूढि़मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।
देशबन्धु सम्पादकीय 25 दिसंबर 2014 

सुहाना (!) सफर और मौसम हसीं (!)


 मेरा इरादा न तो हिंदी फिल्मों का इतिहास लिखने का है और न ही उसके गीत-संगीत पर चर्चा करने का। यह तो अपनी किशोरावस्था में सुना पचपन-साठ साल पुराना गाना कुछ सोचते-सोचते यूं ही होठों पर आ गया। हुआ कुछ ऐसा कि करीब दो-ढाई माह पहिले प्रोग्राम बना दिसंबर में तीन दिन की पचमढ़ी यात्रा का। अमरकंटक एक्सप्रेस से पिपरिया तक की रेल यात्रा का आरक्षण भी बाकायदा हो गया। यात्रा की निर्धारित तिथि के चार दिन पहिले भोपाल से छोटे भाई पलाश ने फोन पर पुष्टि भी चाही कि हम पहुंच रहे हैं या नहीं। उन्हें आश्वस्त किया कि हां, आना पक्का है। लेकिन उसके दो दिन बाद उनका ही दूसरा फोन आ गया- आप कैसा करेंगे? पचमढ़ी में ठंड बहुत ज्यादा है- 4 डिग्री सेल्सियस के आसपास।  यह सुनकर तबियत घबराई, फिर भी हिम्मत कर जवाब दिया- हीटर-कंबल आदि व्यवस्था कर लेना; बाकी ऊनी कपड़े वगैरह तो हम साथ लाएंगे ही। किंतु इसके बाद मन डांवाडोल होने लगा- जाएं, न जाएं। इतने पहिले से प्रोग्राम बना है। नहीं जाएंगे तो सबको निराशा होगी। ट्रेन से नहीं जाते, रात का सफर है, दिन-दिन में कार से निकल जाते हैं, आदि। यह सोच-विचार चल ही रहा था कि पलाश का तीसरा फोन आ गया- ठंड लगातार बढ़ रही है, आप न आएं, वही ठीक होगा। अपनी खैर मनाते, भाई को मन-मन धन्यवाद देते हमने टिकिट वापिस कर दिए।

अच्छा ही हुआ कि नहीं गए। नागपुर के लोकमत समाचार से खबर मिली कि पचमढ़ी में शीतऋतु ने कई बरसों का रिकॉर्ड तोड़ दिया। तापमान शून्य डिग्री तक चला गया। चलो, एक यात्रा स्थगित हुई सो हुई, किंतु मुझ जैसे यात्राप्रेमी के लिए यह एक निराश करने वाला प्रसंग था। मेरे बुजुर्ग मित्र रायपुर के स. परदुमन सिंह चावलाजी कहते हैं- उमर बढ़ रही है, अब आवारागर्दी कम कर दो, लेकिन क्या करूं कि मन मानता नहीं है। यात्रा करने का निमंत्रण मिले तो उसे अस्वीकार नहीं कर पाता। कोई कहता है- पैरों में शनि है, कोई पैरों में चक्र बतलाता है। जो भी हो, यात्राएं करने में मुझे हमेशा से आनंद आते रहा है, पर इस कमबख्त मौसम को क्या कीजिएगा। आप जब धूप का आनंद लेना चाहते हैं तब बादल घिर आते हैं, जब आकाश खुला रहने की संभावना रहती है तब एकाएक बरसात होने लगती है, जब जाड़ों में गरम कपड़े निकालने के दिन आते हैं तब न जाने कहां से थर्मामीटर में पारा चढ़ जाता है।

प्रकृति की यह विचित्र लीला हम इधर कई बरसों से देख रहे हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि भूमंडल दिनों-दिन गर्म होते जा रहा है। वे तरह-तरह की खौफनाक भविष्यवाणियां करते हैं। कभी ग्लेशियर पिघलने की चेतावनी मिलती है, तो कभी समुद्र की सतह ऊपर उठ जाने की। इनके बीच कभी यूरोप की नदियों में एकाएक बाढ़ आ जाती है, तो कभी लंदन में तापमान चालीस डिग्री के करीब पहुंच जाता है। अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत में पीने के पानी का संकट उपस्थित हो जाता है, तो कभी दक्षिण-पूर्वी एशिया के आकाश पर धुएं के बादल छा जाते हैं। इन सारे दृश्यों के बीच मुझे एक तस्वीर परेशान करती है- उत्तर ध्रुव पर बर्फ पिघल रही है और बीच में एक छोटे से हिमखंड पर एक सफेद ध्रुवीय भालू असहाय सा यहां-वहां देख रहा है कि कहां जाए और कैसे जाए। वह तो बर्फ के नीचे छुपी मछली पकडऩे आया था, लेकिन प्रकृति के इस खिलवाड़ के सामने उसका ही अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।

मैं भी कहां की बात ले बैठा। जिन्हें ग्लोबल वार्मिंग की चिंता करना हो वो करें। मेरे सामने तो यह परेशानी है कि एक यात्रा कैंसिल हुई तो हुई, आगे ऐसी नौबत न आए इसके लिए मैं क्या करूं। हो सकता है कि मैं सूखे मौसम में यात्रा पर निकलूं और रास्ते में बारिश होने लगे, तो क्या मुझे अब अपने सामान में एक बरसाती रखने के लिए जगह बना लेनी चाहिए। तब तो फिर मुझे ऊनी कोट न सही एक मोटी स्वेटर तो हमेशा साथ रखना ही चाहिए कि न जाने कब एकाएक पारा गिर जाए और ठंड से शरीर ठिठुरने लगे। जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि- ''चाहे जीवन यात्रा हो या सामान्य यात्रा, कम से कम सामान लेकर साथ चलना चाहिए।" उनके समय में मौसम ऐसी दुष्टता नहीं करता था शायद इसीलिए वे ऐसा लिख सके। आज का समय होता तो उनके ट्रंक का वजन दुगुना हो जाता। इतना वजन नाहक  उठाकर घूमो इससे तो अच्छा है कि घर में ही रहो और जैसा मौसम हो वैसा इंतजाम कर लो।

यह तो हुई हसीन मौसम की हकीकत। जरा यह भी देख लिया जाए कि सुहाने सफर की सच्चाई क्या है। वे पाठक जिन्हें मेरी ही तरह यायावरी में सुख मिलता है वे शायद सहमत होंगे कि सफर का सुहानापन अभी खत्म तो नहीं हुआ है, लेकिन धीरे-धीरे वह उसी तरफ बढ़ रहा है। एक दौर था जब आप स्टीम इंजन वाली रेलगाड़ी में बैठक यात्राएं करते थे। ये रेलगाडिय़ां चालीस-पचास किलोमीटर की प्रति रफ्तार से चलती थीं और इनके पड़ाव बहुत होते थे। रायपुर से नागपुर - बंबई की दिशा में जाना हो तो डोंगरगढ़ पर रुककर देशराज अरोरा की रेलवे कैंटीन की चाय पीना जैसे अनिवार्य ही होता था। हावड़ा-बॉम्बे मेल जैसी गाड़ी भी यात्रियों के चाय पीने तक का इंतजार कर लेती थी। इसी स्टेशन पर बाद में सुस्वादु इडली भी पलाश के पत्ते पर मिलने लगी थी। इधर बिलासपुर होकर कटनी-जबलपुर जाना हो तो खोडरी और खोंगसरा जैसे छोटे स्टेशनों पर जो गर्मागर्म भजिए और मौसमी फल मिलते थे उनका कहना ही क्या था।

गोंदिया-जबलपुर छोटी लाइन पर शिकारा स्टेशन की तो बात ही अनोखी थी। सुबह-सुबह ट्रेन रुकती थी कोई आधा घंटे के लिए। घने जंगल के बीच बसे इस छोटे से स्टेशन पर सुबह जो गर्म स्वादिष्ट नाश्ता समोसा, जलेबी का मिलता था, वैसा स्वाद तो पांच सितारा व्यंजनों के होटलों में भी नहीं मिलता। अब ये सारी बातें हवा हो चुकी हैं। रेलगाडिय़ां सौ-सौ किलोमीटर की रफ्तार से दौड़ रही हैं। उनके सामने इन छोटे स्टेशनों की बिसात ही क्या। अब तो बुलेट ट्रेन की बात हो रही है, लेकिन सच पूछिए तो उन मद्धम रफ्तार ट्रेनों में मजे में नींद आती थी जैसे मां की गोद में सिर रखकर सो रहे हों। आज जो सुपरफास्ट ट्रेनें जो चल रही हैं वे इस कदर हिचकोले खाती हैं, लहराती हैं कि उनमें कुंभकर्ण को ही नींद आ सकती है।

चलिए, ट्रेन छोड़ एरोप्लेन की बात करते हैं। आज भी पुरानी फिल्मों को देखिए तो रश्क होता है कि वे दिन भी क्या दिन थे। हीरो हवाई जहाज से कहीं दूर जाने वाला है। सीढ़ी चढ़कर ऊपर से वह हाथ हिलाता है और नीचे खड़ी हीरोइन इत्यादि हाथ हिलाकर उसे विदा कर रहे हैं। इसी तरह हीरो जब विदेश से पढ़कर लौटता था तो घर के सारे लोग खड़े होकर इंतजार करते थे और फिर कोई खुशी से चीख पड़ता था-देखो भैया प्लेन से उतर रहे हैं। आज वह सुख कहां? पहले तो हवाई अड्डे में घुसने के पहले अपना आई-कार्ड बताओ, फिर दोबारा जांच करवाओ, फिर सामान की सुरक्षा जांच करवाओ, लंबी कतार में खड़े होकर बोर्डिंग पास लो, फिर सुरक्षा जांच की सर्पाकार कतार में सीढ़ी की तरह रेंगो, जहां कभी-कभी जूते उतरवाकर भी जांच होती है। फिर विमान की प्रतीक्षा करो जो विदा करने आए हैं, वे न भी आते तो काम चल जाता। नाहक परेशान हुए, समय अलग बर्बाद हुआ। मैं पहले ट्रेन के सफर में पांच-छह सौ पेज की एक पूरी पुस्तक पढ़ लेता था। अब न तो ट्रेन के हिचकोलों में पढऩा हो पाता और न हवाई यात्रा की अनिवार्य औपचारिकताओं से उपजी थकान के चलते।

इस बीच देश में सड़क मार्ग से यात्रा भी, कहते हैं कि पहले की अपेक्षा बेहतर हो गई है। फोरलेन और सिक्सलेन सड़कें बन गई हैं, लेकिन उससे क्या। आज से पैंतालीस साल पहले रायपुर से दुर्ग की चालीस किलोमीटर की दूरी चालीस मिनट में पूरी होती थी, आज फोरलेन के बाद भी वही चालीस मिनट लगते हैं। इन नई-नई सड़कों पर लगभग एक रुपया प्रति किलोमीटर दर से टोल टैक्स लगने लगा है। समझ नहीं आता कि जब सरकार को ठेकेदारों से ही सड़क बनवाना है, तो फिर लोक निर्माण विभाग याने पीडब्ल्यूडी की जरूरत ही क्या है। इन सड़कों पर गाडिय़ां निश्चित ही बहुत तेजी से दौड़ती हैं, लेकिन अधिकतर स्थानों पर यह ख्याल नहीं है कि राजमार्गों के किनारे बसी बस्तियों के लोग सड़क के आर-पार आना-जाना कैसे करेंगे। इन नई सड़कों को बनाने के चक्कर में सड़क किनारे की हरियाली पूरी तरह खत्म हो गई है। सपाट सड़क, धूसर दृश्य, चमकते सूरज में मृगमरीचिका का आभास और रात को बिना डिपर दिए हेडलाइट की रौशनी में  दौड़ती सामने वाले को चौंधियाने वाली गाडिय़ां। पहले इन रास्तों पर ढाबे हुआ करते थे जहां साफ-सुथरे ढंग से बना सादा भोजन मिल जाता था। ढाबे तो नए-नए खुल रहे हैं, लेकिन साफ-सफाई का ध्यान नहीं है। कुछ घनी बस्तियों के बाइपास भी बन गए हैं। पहले जब बस्ती के बीच से कार या बस से गुजरते थे तो स्थानीय फलों का और व्यंजनों का लुफ्त उठाने का मौका मिल जाता था जैसे लखनादौन की खोवे की जलेबी या छपारा की बिही, या सोनकच्छ के गुलाबजामुन- वे सब भी अतीत की बात हो गए। अब बताइए ऐसे सफर को सुहाना कैसे कहा जाए।

गीतकार शैलेन्द्र यदि आज होते तो उन्हें शायद यह जानकर खुशी होती कि उनके लिखे गीत को पचास साल बाद भी गुनगुनाया जा रहा है, लेकिन आज सफर और मौसम दोनों को देखकर क्या वे कोई नया गीत लिखने की सोचते?
देशबन्धु में 25 दिसंबर 2014 को प्रकाशित

Tuesday, 23 December 2014

2014 के आखिरी चुनावी नतीजे




जम्मू-काश्मीर एवं झारखंड में विधानसभा के चुनावी नतीजे सिद्ध करते हैं कि इस दौर में न तो मोदीजी की मेहनत रंग लाई और न संघ परिवार का हिन्दुत्ववादी एजेंडा ही कुछ खास काम आया। पिछले कई सप्ताहों से जमकर प्रचार किया जा रहा था कि झारखंड में भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट से ज्यादा प्रबल बहुमत मिलेगा। जम्मू-काश्मीर में भी पार्टी ने अपना चुनाव अभियान मिशन-44 के नाम से याने पूर्ण बहुमत प्राप्त करने के लक्ष्य से चलाया था। नतीजे बताते हैं कि दोनों राज्यों में उसे वह सफलता नहीं मिली जिसकी उम्मीद भाजपा ने लगा रखी थी। झारखंड में भाजपा को अपने दम पर बहुमत हासिल करने के लिए बयालीस सीटों की दरकार थी। वह इस आंकड़े तक पहुंच गई है, लेकिन इस जीत में सहयोगी दल भी शामिल हैं। एक तरह से यहां महाराष्ट्र जैसी स्थिति ही उत्पन्न हुई है। जम्मू कश्मीर में तो वह बहुमत से बहुत दूर रह गई है। यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि एक्जिट पोल इत्यादि एक बार फिर निरर्थक साबित हुए हैं।

झारखंड में यदि भाजपा को अकेले भी स्पष्ट बहुमत मिल जाता तो इसमें बहुत आश्चर्य की बात नहीं होती। ऐसा क्यों नहीं हुआ यह समझने की बात है। झारखंड राज्य के गठन से लेकर अब तक के चौदह वर्षों में 9 वर्ष वहां भाजपा अथवा उसके गठबंधन का शासन रहा है। करिया मुंडा जैसे सम्मानित आदिवासी नेता और यशवंत सिन्हा जैसे अनुभवी नेता भी इसी प्रदेश के हैं। इसके अलावा देश के अन्य प्रदेशों की तरह यहां भी धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिशें लगातार जारी थीं। फिर भी हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोर्चा का प्रदर्शन बहुत निराशाजनक नहीं रहा तो इसका एक कारण समझ में आता है कि झारखंड के आदिवासी मतदाता ने भाजपा को अपनी पार्टी नहीं माना है। इस बार वहां बार-बार कहा जा रहा था कि झारखंड आदिवासी प्रदेश नहीं है कि वहां आदिवासियों की संख्या मात्र पच्चीस प्रतिशत के आसपास है, कि वहां इस बार गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री बनना चाहिए। ऐसा लगता है कि भाजपा की यही सोच उसके लिए बाधक बन गई।

जम्मू-काश्मीर को लेकर भाजपा ने हवाई किले बनाना शुरु कर दिया था। पार्टी का यह सोचना था कि जम्मू की सैंतीस, लद्दाख की चार, इस तरह इकतालीस सीटें तो उसकी झोली में पके आम की तरह आ टपकेंगी। बची तीन सीट उसे काश्मीर घाटी से जीतने की उम्मीद थी। जाहिर है कि न तो जम्मू और न ही लद्दाख में वोटरों को धर्म के आधार पर बांटने का यह फार्मूला कामयाब हो सका। लोकसभा चुनाव में लद्दाख की एकमात्र सीट तीस-चालीस वोट के अंतर से भाजपा को मिल गई थी, किन्तु इस बार विधानसभा की चार में से एक सीट भी उसे नहीं मिल पाई। उसे जम्मू में पच्चीस सीटें मिलीं याने यहां भी बची हुई बारह सीटों पर उसका जोर नहीं चला तथा घाटी में तो उसे एक स्थान पर भी विजय प्राप्त नहीं हुई। जम्मू में भाजपा का प्रभाव बहुत पहले से रहा है, जिसमें मोदीजी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इजाफा ही हुआ है इसलिए यहां मिली सफलता अप्रत्याशित तो नहीं है, लेकिन बहुत उत्साहवर्धक भी नहीं कही जा सकती।

झारखंड तथा जम्मू-काश्मीर इन दोनों प्रदेशों में सत्तारूढ़ गठबंधन को जिसमें कांग्रेस शामिल थी, हार का मुख देखना पड़ा है।  इसमें ''एंटी-इंकमबैंसी" का रोल तो था ही, यह भी स्मरणीय है कि इन दलों ने अपना गठबंधन विसर्जित कर पृथक रूप से चुनाव लड़ा था। यह दिलचस्प तथ्य है कि झारखंड में कांग्रेस का प्रदर्शन झामुमो की तुलना में  निराशाजनक रहा है, जबकि काश्मीर में वह नेशनल कांफ्रेंस के मुकाबले लगभग बराबर कामयाबी हासिल कर सकी है। इससे एक तो यह पता चलता है कि कांग्रेस के पास दोनों प्रदेशों में नेतृत्व का अभाव है। काश्मीर में भी गुलाम नबी आज़ाद के बाद कांग्रेस का कोई दूसरा नेता दिखाई नहीं देता। दूसरे, झारखंड में विदा लेते मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन मतदाताओं में अपने प्रति विश्वास जगाने में किसी हद तक सफल हो सके हैं जबकि काश्मीर में उमर अब्दुल्ला को अब अपनी गलतियों पर सोचने के लिए मतदाताओं ने लंबा मौका दे दिया है।

इन नतीजों के आने के बाद झारखंड में पहला प्रश्न यह है कि भाजपा क्या किसी गैर-आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाएगी। ऐसा हुआ तो उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी यह अभी समझना मुश्किल है। जम्मू कश्मीर में मुफ्ती परिवार की पार्टी पीडीपी को सबसे ज्यादा सीटें मिलीं। उसे सरकार बनाने के लिए किसी अन्य पार्टी के साथ तालमेल करने की आवश्यकता होगी। भाजपा पर मुग्ध मीडिया ने अभी से पीडीपी-भाजपा गठबंधन की वकालत शुरु कर दी है। अगर ऐसा हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। किन्तु पीडीपी के सामने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने का विकल्प भी खुला है। अगर पीडीपी भाजपा के साथ जाती है तो आने वाले समय में संभव है कि जम्मू और लद्दाख नए प्रदेश बना दिए जाएं। इस विचार को संघ परिवार के भाष्यकार समय-समय पर व्यक्त करते रहे हैं।

अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने वक्तव्यों के अनुरूप विकास की राजनीति करना चाहते हैं तो ये चुनाव परिणाम उन्हें मौका देते हैं कि वे हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले अपने साथियों को समझा दें कि मतदाता ने इस एजेंडे को नकार दिया है।
देशबन्धु सम्पादकीय 24 दिसंबर 2014
 

Wednesday, 17 December 2014

वे जीवनदानी थे




ऐसा
क्यों होता है कि कुछ प्रसंग हमेशा के लिए स्मृतिकोष में सुरक्षित हो जाते हैं! अशोक सेक्सरिया से मेरी पहली मुलाकात का प्रसंग भी कुछ ऐसा ही है। श्रीकांत वर्मा ने दिल्ली में दिनमान के दफ्तर में मुझे उनसे मिलवाया था। यह 1967 की बात है। मैं श्रीकांत जी से मिलने गया था और तभी अशोक जी उनसे मिलने आ गए थे। जहां तक मुझे याद है दोनों एक ही इमारत की एक ही मंजिल पर काम करते थे। श्रीकांत जी दिनमान में उपसंपादक थे और अशोक जी दैनिक हिन्दुस्तान के संपादकीय विभाग में थे। वे एक कथाकार के रूप में तब तक प्रसिद्धि पा चुके थे। मैंने उनकी कुछ कहानियां पढ़ रखी थीं। मुझ तरुण के लिए एक चर्चित लेखक से मिल पाना प्रसन्नता का ही विषय था। उस दिन हम लोग कोई आधा घण्टा साथ में बैठे होंगे। इसके बाद उनके साथ यदा-कदा भेंट तो हुई, लेकिन ऐसी नहीं कि जिसका कोई खास जिक्र किया जा सके।

एक समय पता चला कि वे दिल्ली छोड़कर कोलकाता वापिस जा चुके हैं। हमारे परिचय को तब ताजा करवाया उनके अभिन्न मित्र और दूसरे समर्थ कथाकार प्रबोध कुमार ने। इस बीच अशोक जी का जीवन एक नए माहौल में ढल चुका था। वे यूं तो देश के एक प्रतिष्ठित व्यवसायिक घराने से ताल्लुक रखते थे, लेकिन विरासत में प्राप्त वैभव का उपयोग करने अथवा व्यवसाय को बढ़ाने के प्रति उनकी कोई रुचि नहीं थी। लक्ष्मी उन्हें बांधकर कभी नहीं रख सकी। इतना मैं जानता हूं कि वे शुरु से ही समाजवादी राजनीति से, खासकर डॉ. राममनोहर लोहिया से, बहुत ज्यादा प्रभावित थे तथा अंतिम समय तक समाजवादी मूल्यों के लिए जीते रहे।

कोलकाता में उनके परिवार की विशाल कोठी थी। उन्होंने एक कमरे को ही अपना घरौंदा बना लिया था। उन्होंने विवाह तो किया ही नहीं था। उनकी अपनी जरूरतें भी बहुत सीमित थीं। उनके इस कमरे में चारों तरफ किताबें थीं। बीच में एक पलंग या तख्त पर उनका आसन हुआ करता था। कोलकाता के उमस भरे मौसम में भी वे एक पुराने पंखे से ही अपना काम चलाते थे। पढऩे के अलावा उनको अगर कोई लत थी तो शायद बीड़ी पीने की। अपने इस एकांत में उन्होंने कुछ ऐसे काम किए जिनके लिए हिन्दी जगत उनका ऋणी रहेगा।

हिन्दी पाठक रोशनाई प्रकाशन नामक प्रतिष्ठान से संभवत: परिचित होंगे। यहां से अनेक उत्कृष्ट कृतियां सस्ते दामों पर लगातार प्रकाशित होती रही हैं। बेबी हालदार की विश्व प्रसिद्ध आत्मकथा 'आलो आंधरि' भी सबसे पहले पहल यहीं से छपी। इस प्रकाशनगृह के कर्ताधर्ता संजय भारती बता सकते हैं कि सस्ते दामों पर साहित्य प्रकाशित करने की प्रेरणा उन्हें अशोक सेक्सरिया से ही मिली। बेबी हालदार को लिखने की प्रेरणा प्रबोध कुमार ने दी, जबकि उसकी पुस्तक प्रकाशित करने में अशोक जी ने खासी भूमिका निभाई, लेकिन वे एक तरह से जीवन भर बेबी के संरक्षक या धर्मपिता का दायित्व भी निभाते रहे। उन्होंने एक काम और किया।  सेक्सरिया परिवार के वाहन चालक महेन्द्र (शायद यही नाम था) और उसके माता-पिता को उन्होंने जोर देकर समझाया कि आज के समय में उचित नहीं है कि महेन्द्र की नवपरिणीता निरक्षर रही आए। उन्होंने उसे पहले स्कूल पढऩे भेजा और फिर एक दिन उसके हाथ में भी कलम थमा दी कि वह अपनी जीवन गाथा लिखे। सुशीला राय की 'एक अनपढ़ कहानी' यह पुस्तक भी रोशनाई से ही छपी है।

एक और दिलचस्प प्रसंग। कोलकाता स्थित भारतीय भाषा परिषद ने अपने परिसर में अंग्रेजी माध्यम शाला या किंडरगार्टन खोल दिया तो अशोक जी उसके खिलाफ धरने पर बैठ गए, जबकि परिषद के तमाम कर्ताधर्ता मित्र और उनके परिजन ही थे।  29 नवम्बर को अशोक सेक्सरिया के निधन के साथ हिन्दी ने एक सच्चे साधक को खो दिया, लेकिन मेरे लिए तो यह एक निजी हानि है।

इस दु:ख से उबर पाता इसके पहले एक और हृदय विदारक घटना हो गई। 4 दिसम्बर को डॉ. रमेशचन्द्र महरोत्रा का बिलासपुर में निधन हो गया। महरोत्रा जी ने एक अलग ढंग से असाधारण जीवन जिया। वे रविशंकर वि.वि. रायपुर के प्रारंभिक वर्षों में ही भाषा विज्ञान के प्राध्यापक बनकर आए थे। उनसे कब परिचय हुआ था यह तो मुझे याद नहीं लेकिन जब भी हुआ हो, यह परिचय दिनोंदिन प्रगाढ़ होते गया और आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं तो मैं एक रिक्ति महसूस कर रहा हूं।

रमेशचन्द्र महरोत्रा भाषा विज्ञान के उद्भट अध्येता थे। मैंने किसी दिन बात-बात में उन्हें कॉलम लिखने का प्रस्ताव दिया होगा और वे तुरंत राजी हो गए। उनका साप्ताहिक कॉलम 'दो शब्द' शायद बीस साल से भी अधिक समय तक देशबन्धु में हर रविवार को नियमत: प्रकाशित होते रहा तथा अपार लोकप्रिय हुआ। हिन्दी भाषा के प्रति रुचि जागृत करने एवं भाषा का सम्यक ज्ञान प्राप्त करने के लिए इस कॉलम की उपादेयता स्वयंसिद्ध थी। राजकमल प्रकाशन ने इस कॉलम के लेखों को पांच खंडों वाले वृहद ग्रंथ के रूप में कुछ साल पहले प्रकाशित किया। हिन्दी भाषा को वैज्ञानिक आधार लेकर लोकप्रिय बनाने में इस तरह महरोत्रा जी ने जो योगदान किया वह मेरी दृष्टि में अनुपमेय है।

महरोत्रा जी भाषा-शास्त्री थे इस नाते अपने विषय पर उन्होंने कुछ लिखा तो कहा जा सकता है कि यह कोई बड़ी बात नहीं थी, लेकिन वि.वि. में एक ऊंचे पद पर सुविधापूर्ण जीवन बिताने का अवसर आने के बाद भी जो अन्य काम किए, वे उन्हें अपने समकालीनों से अलग खड़ा कर देते हैं। यह जानकारी बहुतों के लिए आश्चर्यजनक होगी कि रमेशचन्द्र महरोत्रा ताउम्र साइकिल पर चलते रहे। कभी किसी झोंक में उन्होंने कार खरीदी होगी, तो उसे कभी चलाया नहीं और बेटी संज्ञा ससुराल गई तो कार भी पीछे-पीछे भेज दी गई। महरोत्रा दंपत्ति ने भी अपनी निजी जरूरतें बहुत सीमित कर रखी थीं। उन्हें भौतिक सुविधाओं का लेशमात्र भी लोभ नहीं था। विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी से जो वेतन भत्ते मिल रहे थे उसका एक थोड़ा सा हिस्सा ही वे अपने ऊपर खर्च करते थे, बाकी समाजसेवा के लिए सुरक्षित।

महरोत्रा दंपत्ति याने रमेशचन्द्र एवं उमा महरोत्रा ने विधवा व परित्यक्ताओं के सूखे जीवन में फिर से बहार आ सके इसका बीड़ा उठाया और रायपुर में विधवा विवाह केन्द्र की स्थापना की। हमारे रूढिग़्रस्त समाज में विधवा विवाह को सामाजिक स्वीकृति मिले, इस बारे में जनचेतना जागृत हो, इसके लिए उन्होंने देशबन्धु प्रतिभा प्रोसाहन कोष के माध्यम से छात्रवृत्तियां स्थापित कीं। यही नहीं, वे प्रदेश के पहले दंपत्ति थे जिन्होंने देहदान का संकल्प किया। यह निर्णय उन्होंने उस समय किया जब देहदान  और नेत्रदान तो दूर, रक्तदान के संदर्भ में भी आम जनता के बीच तरह-तरह की भ्रांतियां थीं। इस तरह उन्होंने एक ओर जहां अपनी भौतिक संपदा को समाज के काम में लगाया वहीं अपने पार्थिव शरीर भी चिकित्सा शिक्षा के माध्यम से समाज के लिए दान कर दिए।

एक वर्ष पूर्व श्रीमती उमा महरोत्रा का बिलासपुर में निधन हो गया। तब मित्रों की सलाह थी कि बिलासपुर मेडिकल कॉलेज में उन्हेंं दान कर दिया जाए, लेकिन वे वचन के ऐसे पक्के कि रायपुर मेडिकल कॉलेज में देहदान का संकल्प किया था इसलिए पार्थिव देह यहीं लाएंगे। उनकी इसी भावना का पुन: सम्मान करते हुए महरोत्रा जी का शव लेकर बेटी संज्ञा और दामाद राजेश रायपुर आए और यहां मेडिकल कॉलेज में देहदान किया गया।

अशोक सेक्सरिया और रमेशचन्द्र महरोत्रा- दोनों की अलग पृष्ठभूमि, काम करने का अलग अंदाज, अलग-अलग समझ, लेकिन दोनों में यही उत्कट भावना थी कि मनुष्य जो कुछ है समाज के कारण है। इसलिए उसकी जो भी सामर्थ्य है वह समाज के वृहत्तर हित में लगना चाहिए। मेरा सौभाग्य कि मैं ऐसे दो जीवनदानियों के संपर्क में आया और दुर्भाग्य कि एक सप्ताह के अंतराल में इन दोनों अग्रज मित्रों को खो दिया।


देशबन्धु में 18 दिसंबर 2014 को प्रकाशित

Wednesday, 10 December 2014

गोवा में चार दिन


 पिछले दस-ग्यारह साल के दरम्यान गोवा काफी कुछ बदल गया है। मैंने 2003 में कुछ दिन यहां सैलानी के रूप में बिताए थे। उसके बाद एक कांफ्रेंस के सिलसिले में एक और संक्षिप्त यात्रा हुई, लेकिन तब सारा वक्त सम्मेलन की मशगूलियों में ही बीत गया था। अभी नवम्बर के अंत में फिर चार दिन गोवा में रहने का मौका मिला। यूं तो इस बार भी मैं एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में शिरकत करने के लिए गया था, लेकिन सभा स्थल से बाहर निकलकर गोवा के जनजीवन की झलकियां देख सकूं, इतना समय अवश्य मिल गया था। मेरी दिलचस्पी उन स्थानों को देखने में नहीं थी जहां सैलानियों की भीड़ इकट्ठी होती है गो कि एक दिन मित्रों के साथ चंद घंटे इस तफरीह में ही बीते। मैं चाहता था कि सैरगाहों से हटकर जो गोवा है उसे भी देखा जाए और मेरी यह इच्छा किसी हद तक पूरी भी हुई।

मैं जब 2003 में पहली बार यहां आया था तब गोवा में बड़े पैमाने पर भवन निर्माण की गतिविधियां शुरू होने-होने को थीं। आज उसका कोई पारावार नहीं है। आप किसी भी तरफ चले जाइए, नई-नई कालोनियां बस रही हैं, सात-सात मंजिल की अट्टालिकाएं खड़ी हो रही हैं, नित नए होटल खुल रहे हैं, कितने ही नए पुल बन गए हैं। दूसरी ओर खेती सिमटती जा रही है, हरियाली अभी भी बहुत है, लेकिन पहले के मुकाबले कम हो गई है। इसका इस द्वीप-प्रदेश के पर्यावरण पर प्रभाव पडऩा शुरु हो गया है। ये जो कुछ नवनिर्माण हो रहा है गोवावासियों के लिए नहीं, बल्कि मुख्य रूप से उन लोगों के लिए जो शहर के कोलाहल से दूर शांतिपूर्ण जीवन बिताने के लिए गोवा आकर बस जाना चाहते हैं। लेकिन अगर यही रफ्तार बनी रही तो शांति का स्थान कोलाहल को लेने में कितना वक्त लगेगा?

गोवा की इस प्रगति को देखते हुए ही मुझे ध्यान आया कि एक समय भारत में तीन स्थान अवकाश-प्राप्त लोगों के लिए और साधन-सम्पन्न तबकों के लिए स्वर्ग माने जाते थे। पश्चिम भारत में पूना या पुणे, दक्षिण भारत में बैंगलोर या बंगलुरू और पूर्वी भारत में रांची; उत्तर भारत में तो हिल स्टेशन थे ही। इन स्थानों पर रिटायर्ड लोग घर बना लेते थे। फिल्म अभिनेता वगैरह भी यहां अपनी गर्मी की छुट्टियां बिताने आया करते थे। आबोहवा अच्छी थी, खूब हरियाली थी, आस-पास जलप्रपात और अन्य सुरम्य स्थल थे, लेकिन प्रथम तो औद्योगिकीकरण ने इन स्थानों की तस्वीर विकृत कर दी। दूसरे, अपने मूल स्वरूप में ये स्थान बड़े शहरों से भागकर आए कितने लोगों को शरण दे सकते थे? परिणाम यह हुआ कि यहां सुविधाएं चाहे जितनी हों, स्वर्ग होने का दर्जा तो इन्होंने खो ही दिया है। गोवा भी उसी दिशा में चल पड़ा है।

एक तरह से देखें तो गोवा अब तीन हिस्सों में बंट गया है। एक हिस्सा वह है जिसमें गोवानी बसते हैं, दूसरा- सैलानियों का गोवा और तीसरा अप्रवासियों का। फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि इस बदले हुए माहौल से गोवा को कोई परेशानी या नुकसान हुआ है। सैलानियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है। उनके लिए उसी अनुपात में होटल, भोजनालय, टैक्सी आदि सेवाएं भी चाहिए। जो बाहर से आकर बस रहे हैं उन्हें भी सेवाओं की दरकार है। इस वजह से यहां रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं। स्थानीय अखबारों में प्रतिदिन विज्ञापन छपते हैं कि इन सेवाओं में काम करने के लिए योग्य व्यक्ति चाहिए। देश में जब बेराजगारी बढ़ रही है तब एक प्रदेश में रोजगार के ढेरों अवसर मिल रहे हैं यह देखकर विस्मय होता है।

हम जिस दिन गोवा पहुंचे उसी दिन गोवा पर्यटन मंडल के एक रेस्तरां में दिन के भोजन के लिए गए। वहां पहले जो बैरा आर्डर लेने आया वह उड़ीसा का निकला। फिर उसने बताया कि वहां कर्नाटक, महाराष्ट्र, मणिपुर, मिजोरम, छत्तीसगढ़, बिहार आदि विभिन्न प्रदेशों से आए लोग काम कर रहे हैं। मैं स्वाभाविक ही छत्तीसगढ़ सुनकर कुछ चौंका और कहा कि कौन हैं, उन्हेंं बुलाओ। उससे भेंट हुई, परिचय प्राप्त किया। जशपुरनगर के पास किसी गांव से आया प्रमोद लकड़ा नामक वह नवयुवक दो-तीन साल से वहां काम कर रहा है। मैं जिस होटल में ठहरा था, वहां सुबह की चाय पिलाने वाला युवक बिहार का था। मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि गोवा में स्थानीय और बाहरी जैसा कोई द्वंद्व अभी तक कोई उपस्थित नहीं हुआ है।
 
जब पहली बार आया था तब पाया था कि कश्मीर घाटी से निकले मुस्लिम समुदाय के बहुत से व्यापारी यहां हस्तशिल्प और हैण्डलूम के शो रूम खोलकर अपना जीवनयापन कर रहे हैं। पर्यटन और शहरीकरण के विकास के चलते अब ये अन्य प्रदेशों से आए सेवाक्षेत्र में काम कर रहे युवक भी इसमें जुड़ गए हैं। अलबत्ता टैक्सी ड्रायवर अब भी शायद सारे के सारे गोवा के ही हैं। अब ऑटो रिक्शा भी बहुत चलने लगे हैं, वे भी स्थानीय निवासी हैं। इनके अलावा इस पर्यटन प्रदेश में मोटर साइकिल पर गोवा की सैर करवाने वाले युवा बाइकर्स की सालों पुरानी परंपरा वैसी ही चली आ रही है। कहने की आवश्यकता नहीं कि वे सब गोवा के ही तरुण हैं।

जहां तक मैं जानता हूं भारत में दो ऐसे प्रदेश थे जहां के निवासी दोपहर में तीन घंटे सारा कामकाज बंद कर विश्राम करते थे। एक था उड़ीसा और दूसरा गोवा। दोपहर एक से चार तक सारी दुकानें बंद रहती थीं। यहां तक कि खाना भी नहीं मिलता था। उड़ीसा में यह परिपाटी कैसे पड़ी, नहीं मालूम, लेकिन गोवा में शायद पुर्तगाल की भूमध्य सागरीय जलवायु के असर से जन्मी परंपरा यहां भी आई होगी! किन्तु अब यह उनींदापन पर्यटन व्यवसाय के चलते समाप्त हो गया है। आप होटल में जाइए तो दोपहर तीन-साढ़े तीन बजे तक खाना आराम से मिल जाता है। दूसरे गोवा की प्रसिद्ध काजू फैनी तो अब भी मिलती है, परन्तु इसके साथ-साथ देश-विदेश की उम्दा और घटिया हर तरह की मदिरा सुविधा से उपलब्ध हो जाती है। ग्राहक का संतोष ही हमारी सफलता है- इस मंत्र को गोवा के व्यापारी निश्चित रूप से जानते हैं।

यह संयोग ही था कि हमारी गोवा यात्रा उन दिनों हुई, जब वहां खासी गहमागहमी का माहौल था। सैलानियों का सीज़न तो था ही; भारत का अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव भी उन दिनों चल रहा था; साथ ही साथ संत फ्रांसिस ज़ेवियर की पार्थिव देह भी हर साल की तरह उन्हीं दिनों दर्शनार्थ बाहर निकाली गई थी। एक तरफ फिल्म महोत्सव में असम से लेकर केरल तक के सिनेप्रेमी जुटे थे, दूसरी तरफ संत के दर्शनों के लिए गोवा और निकटवर्ती क्षेत्रों से भक्तजन चले आ रहे थे। यह विशेष उल्लेखनीय है कि ये भक्त सिर्फ ईसाई नहीं, बल्कि हिंदू और अन्य धर्मों के भी थे और इनमें से अनेक पैदल यात्रा करके आ रहे थे। भारत की उदार-उदात्त लोकचेतना का यह एक प्रबल उदाहरण था। 

पिछले एक दशक में गोवा की राजनीति में भी बदलाव आया है। यहां प्रारंभ से एक नागरिक चेतना रही है और ऐसे बहुत से जाने-माने व्यक्ति हैं जो सक्रिय राजनीति में न होकर भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी आवाज उठाने से नहीं चूकते। दूसरी तरफ शेष भारत की तरह यहां भी राजनीति में अवसरवादियों की कमी नहीं है। तीसरी ओर एक छोटा प्रदेश होकर भी यहां श्रमिक संगठन या कि ट्रेड यूनियनें काफी जीवंत हैं और उनका नेतृत्व प्रबुद्धजन कर रहे हैं। इस समय कांग्रेस का प्रभाव क्षीण है और यह दिलचस्प तथ्य है कि बहुत बड़ी संख्या में गोवा के बहुसंख्यक ईसाई भारतीय जनता पार्टी को वोट देते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर से जनता इसलिए खुश है कि उनके शासनकाल में प्रदेश में बहुत सारे विकास कार्य तेजी के साथ हुए। लोगों का कहना है कि पैसा खा के भी जो काम करे वह सही। कांग्रेस से उन्हें यही शिकायत है कि उसने काम नहीं किया।
देशबन्धु में 11 दिसंबर 2014 को प्रकाशित

Tuesday, 9 December 2014

कांशीराम: दलितों के नेता


 भारतीय राजनीति में दलित-चेतना को प्रतिष्ठित करने में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम, जिन्हें उनके अनुयायी मान्यवर अथवा साहब के उपनाम से संबोधित करते हैं, ने जो युगांतकारी भूमिका निभाई है उससे सब परिचित हैं। इस श्रृंखला में महात्मा ज्योतिबा फुले पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने उन्नीसवीं सदी में दलित और वंचित समुदायों को अन्याय, अपमान, शोषण व तिरस्कार के खिलाफ उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया था। वे ही पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने दलितों (उस समय के अछूत) के लिए पुणे जैसे घोर रुढि़वादग्रस्त नगर में पाठशाला स्थापित की थी। यहीं उन्होंने बाद में सत्य शोधक समाज की भी स्थापना की थी। महात्मा फुले व उनकी सहधर्मिणी सावित्री बाई ने उस दौर में जो क्रांतिकारी काम किया उससे भारतीय समाज में समता, बंधुत्व एवं मानवीय गरिमा की एक नई धारा का सूत्रपात हुआ। महात्मा फुले के काम को आगे बढ़ाया छत्रपति शाहूजी महाराज ने। महात्मा फुले और उनके युग के बारे में बहुत सारा साहित्य प्रकाशित हो चुका है।

महात्मा फुले ने जिस नवयुग का आह्वान किया उसका परचम आगे चलकर बाबा साहेब अम्बेडकर ने अपने मजबूत हाथों से उठाया। बाबा साहब के जीवन और कार्य के बारे में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। उन्होंने स्वयं प्रचुर मात्रा में लेखन किया एवं देश के राजनीतिक इतिहास में उनकी भूमिका के बारे में न जाने कितना कुछ लिखा जा चुका है। मैं विस्तार में जाकर कुछ कहने की कोशिश करूं तो वह पूर्व में लिखे गए को दोहराना ही होगा। इतना कहना पर्याप्त होगा कि औपनिवेशिक काल में महात्मा फुले ने सामाजिक स्तर पर जो कार्य किया था, बाबा साहब ने उसके लिए पहले सामाजिक और राजनैतिक लड़ाइयां लड़ीं और फिर स्वतंत्र देश के संविधान में उन आदर्श जीवन मूल्यों को स्थापित करने का कार्य संपादित किया। आज यदि भारत एक सभ्य समाज होने का दावा कर सकता है तो यह उस संविधान की ही देन है, जिसके निर्माण में डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने महती भूमिका निभाई।

यह हम जानते हैं कि हमारा समाज अभी भी अपनी युगों से चली आ रही रुढिय़ों और सड़ी-गली मान्यताओं से पूरी तरह मुक्ति नहीं पा सका है। संविधान के अनुच्छेद तथा कानून की धाराएं चाहे जो कहती हों, भारत में दलितों के साथ आज भी समानता का बर्ताव नहीं होता। उत्तर से लेकर दक्षिण तक ऐसे उदाहरण नित्यप्रति मिलते हैं जहां दलितों को आज भी अछूत माना जाता है; उनके साथ गजभर की दूरी रखी जाती है; बस्तियों के आरपार दीवारें उठा ली जाती हैं और यदि वे सिर झुकाने के बजाय सिर उठाने की उठाने की कोशिश करें तो उन्हें दंड का भागी भी बनना पड़ता है। जाहिर है कि सामाजिक, राजनैतिक व संवैधानिक विमर्श के द्वारा विषमता और भेदभाव मिटाने के चाहे जितने प्रयत्न किए गए हों वे तब तक कारगर नहीं हो सकते जब तक राजनीतिक सत्ता के सूत्र बहुजन समाज के पास न हों। कांशीराम ने अपनी राजनीति का ताना-बाना इसी विचार के इर्द-गिर्द बुना।  यह आश्चर्यजनक ही है कि जिस व्यक्ति ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की उसके बारे में अब तक कोई पुस्तक न लिखी गई हो। यह आश्चर्य थोड़ा और बढ़ जाता है जब हम जानते हैं कि कांशीराम की घोषित उत्तराधिकारी सुश्री मायावती पर जाने-माने पत्रकार अजय घोष द्वारा लिखित ''बहनजी" शीर्षक जीवनी चार-पांच वर्ष पहले ही बाजार में आ चुकी है। बहरहाल अब यह कमी दूर हो गई है। हिन्दी के जाने-माने कवि एवं समाजशास्त्री बद्रीनारायण ने इसी वर्ष ''कांशीराम : लीडर ऑफ द दलित्स" शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित की है।

बद्रीनारायण झूसी इलाहाबाद स्थित गोविन्दवल्लभ पंत समाज विज्ञान संस्थान के प्रोफेसर हैं। वे अपनी इस दूसरी भूमिका को काफी गंभीरता के साथ जी रहे हैं। मुख्यत: दलित विमर्श पर उनके आलेख समय-समय पर इकॉनामिक एंड पोलिटिकल वीकली जैसी अकादमिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होते हैं। यह पुस्तक प्रकाशित कर बद्रीनारायण ने एक महत्वपूर्ण कार्य को अंजाम दिया है।


इस पुस्तक की भूमिका में लेखक उन कठिनाइयों का वर्णन करता है जो लिखने के दौरान उसे पेश आईं। लेखक के सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि कांशीराम ने न तो स्वयं अपनी आत्मकथा लिखी, न मायावती या अन्य किसी के साथ पत्राचार किया और न उनके अनुयायियों व साथियों ने उनके जीवन के बारे में कुछ लिखा। कांशीराम कोई दैनंदिनी भी नहीं लिखते थे और न बसपा के पास उनके कोई दस्तावेज हैं। बद्रीनारायण के सामने सिर्फ दो पुस्तकें थी एक- स्वयं कांशीराम द्वारा अंग्रेजी में लिखित ''द चमचा एज" जिसमें उनके विचार तो हैं पर वे स्वयं नहीं हैं। दो- उनके सचिव अंबेठ रंजन द्वारा लिखित ''संत चरित वर्णन" जिसमें कांशीराम का एक संत के रूप में श्रद्धाभाव से वर्णन है। इस तरह लेखक को सामग्री जुटाने के लिए दूर-दूर तक भटकना पड़ा; कांशीराम जी के पूर्व सहयोगियों से भेंट के अवसर जुटाना पड़े; उनके परिवारजनों से मुलाकातें की तथा अखबारों में यत्र-तत्र प्रकाशित सामग्री में से अपने काम की चीजें छांटनी पड़ी। इन तमाम प्रयत्नों के बाद जो पुस्तक हमारे सामने आई है वह न सिर्फ कांशीराम से पाठकों का पहला परिचय करवाती है बल्कि उनके व्यक्तिगत जीवन और विचारों पर पर्याप्त रोशनी डालती है। बद्रीनारायण इस नाते दोहरी बधाई के पात्र हैं।

किताब आठ अध्यायों में विभक्त हैं। पहले अध्याय में उनके प्रारंभिक जीवन की झलकियां देखने मिलती हैं, तो आखरी अध्याय में कांशीराम की महत्वाकांक्षी राजनीति का एक संतुलित विश्लेषण प्राप्त होता है। कांशीराम का जन्म 15 मार्च 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के एक दलित बहुल गांव में हुआ था। पंजाब में सिख धर्म की प्रमुखता तो थी ही, कालांतर में आर्य समाज की गतिविधियों का भी विस्तार प्रदेश में हुआ। इन दोनों पंथों में उस तरह की जड़ता और रुढि़वादिता नहीं थी जो सनातन पंथ में थी। कांशीराम के पिता हरिसिंह आर्य समाज की सुधारवादी विचारधारा से काफी प्रभावित थे। इसके अलावा उन्होंने पंजाब के दलितों में आम रामदासिया पंथ छोड़कर खालसा पंथ अपना लिया था। एक तरफ समाज सुधार का वातावरण, दूसरी ओर सिख धर्म स्वीकार करना और तीसरी ओर परिवार की सामान्य से बेहतर माली स्थिति। इनके चलते कांशीराम को सामाजिक भेदभाव  और छूआछूत का उस हद तक सामना नहीं करना पड़ा जिसका शिकार उनके बचपन के अन्य साथी थे। फिर भी अपने आसपास फैले जातिवाद और उससे उपजी पीड़ा को वे भलीभांति महसूस कर सकते थे। उनके बचपन की स्मृतियां पूना में भी उनके साथ रही जहां वे भारत सरकार के एक संस्थान में नौकरी करने के लिए पहुंचे थे। यहीं उन्होंने दलित के ही नहीं, बहुजनों के हित में पहली बार आवाज तब उठाई जब भारत सरकार के उस दफ्तर में बुद्ध जयंती और अंबेडकर जयंती की छुट्टियां निरस्त कर दी गईं थीं। पूना में ही कांशीराम पहले बाबा साहब अम्बेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी के सदस्य बने, लेकिन कुछ वर्षों बाद उन्हें अनुभव हुआ कि पार्टी बाबा साहब के आदर्शों पर नहीं चल रही है। इस बीच उन्होंने बामसेफ नाम से बहुजन एवं अल्पसंख्यक कर्मचारियों के नाम से महासंघ खड़ा कर लिया था, जिसकी राजनीतिक शाखा के रूप में कुछ ही समय बाद उन्होंने डीएस-4 अर्थात दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की स्थापना की। डीएस-4 ने ही आगे चलकर बसपा का रूप ले लिया।

अपने पूना के दिनों में कांशीराम को अनेक दारुण अनुभवों से सामना करना पड़ा। बहुजन समाज के कर्मचारियों की हित रक्षा में उन्होंने मीलों पैदल व सायकिल यात्राएं की, भूखे पेट रहे, बिना टिकट रेल यात्राएं की। इनके ब्यौरे, इनके मित्रों से हुई बातचीत से मिले। इसी शहर में कांशीराम ने संकल्प लिया कि वे समाज कार्य को पूरा समय देंगे और इस हेतु उन्होंने अपने परिवार से सारे नाते तोड़ लिए। वे न तो अपनी बहनों की शादी पर गए, न एक बहन की मृत्यु पर। अपने पिता के अंतिम संस्कार में भी वे शामिल नहीं हुए। लगभग पच्चीस साल के लम्बे अंतराल के बाद जब वे अपने भाई से मिले तो एकबारगी उसे पहचान भी नहीं सके। एक बार जब उनकी मां उन्हें घर ले जाने के लिए पूना आ गई तो मां का प्रेम भी उन्हें अपने रास्ते से विचलित नहीं कर सका।

लेखक बद्रीनारायण के अनुसार कांशीराम ने यह समझ लिया था कि सारे संतों और गुरुओं तथा फुले, अम्बेडकर जैसे नेताओं के प्रयत्नों के बावजूद जातिप्रथा समाप्त नहीं होगी और इसलिए उन्होंने वंचित समुदायों की जातिगत चेतना को राजनीतिकृत करने की अवधारणा को प्रचलित किया। एक तो उन्होंने सवर्ण एवं वर्चस्ववादी तबकों के हाथों दलितों ने जो कष्ट सहे उनकी स्मृतियां जगाकर उन्हें लामबंद करने की कोशिश की, दूसरे दलित समुदाय के हर तबके के सांस्कृतिक इतिहास की पुर्नव्याख्या कर उनमें जातीय अभिमान पैदा करने का प्रयत्न किया ताकि इस तरह वे अपना खोया हुआ आत्मविश्वास हासिल कर सकें।

1982 में उन्होंने ''द चमचा एज : एन एरा ऑफ द स्टूजेस" (चमचा युग : चाटुकारों का पर्व) नाम से पुस्तक लिखी। लेखक के अनुसार इस पुस्तक से ही बसपा की दार्शनिक आधारशिला रखी गई। कांशीराम अपनी इस पुस्तक में चमचों को छह श्रेणियों में बांटते हैं। यथा अ- जाति एवं समुदाय आधारित चमचे, ब- राजनीतिक चमचे, स- अज्ञानी चमचे, द- शिक्षित अथवा अंबेडकरवादी चमचे, प- चमचों के चमचे, फ- विदेशों में चमचे। इनमें से प्रथम को वे फिर चार भागों में बांटते हैं- 1. अनुसूचित जाति- अनिच्छुक चमचे, 2. अनुसूचित जनजातियां- दीक्षित चमचे, 3. अन्य पिछड़े समाज- उत्सुक चमचे, 4. अल्पसंख्यक- असहाय चमचे। इन सबको विस्तार से परिभाषित करते हुए कांशीराम एक ओर जगजीवनराम और रामविलास पासवान जैसे राजनीतिज्ञों की घोर आलोचना करते हैं, दूसरी ओर वे डॉ. अम्बेडकर के अनुयायियों को भी कटघरे में खड़ा करते हैं। उनका आरोप है कि अंबेडकरवादी मूल लक्ष्य से भटक गए हैं।
पुस्तक के तीसरे अध्याय का शीर्षक ही है- ''द चमचा एज : एन एजेण्डा बियॉंड अम्बेडकर" याने अम्बेडकर से परे। इस अध्याय में बद्रीनारायण डॉ. अम्बेडकर और कांशीराम के विचारों का एक तुलनात्मक अध्ययन सामने रखते हैं। इसमें कुछ बिन्दु प्रमुखता के साथ उल्लेखनीय हैं।

1. अम्बेडकर मानते थे कि दलितों का गांव छोड़कर शहर में बसना उन्हें उत्पीडऩ से मुक्ति दिलाएगा। इसके विपरीत कांशीराम का कहना है कि दलित गांव में रहें या शहर में, जाति उनके साथ हर हाल में जुड़ी रहेगी। इसलिए दलितों को जाति को एक अस्त्र की तरह इस्तेमाल करना चाहिए जब तक कि ब्राह्मणवाद समाप्त न हो जाए।
2. अम्बेडकर सोचते थे कि अंतरजातीय विवाह भेदभाव को मिटाने के लिए एक उपयुक्त रणनीति है जबकि कांशीराम के अनुसार दलितों को अपनी जाति के आधार पर समाज में प्रतिष्ठा हासिल करनी चाहिए।
3. अम्बेडकर दलितों के लिए पृथक चुनाव मंडल की मांग करते थे, लेकिन कांशीराम इसके खिलाफ थे। उनका मानना था कि समतामूलक समाज का निर्माण करने के लिए दलितों को राजनीतिक सत्ता हथियाना चाहिए।
4. अम्बेडकर अमेरिका के कोलंबिया विवि में पढ़े थे। उन्होंने पश्चिम की ज्ञान परंपरा का गहन अध्ययन किया था। वे दलित प्रश्न का विश्लेषण ऐतिहासिक आधार पर करते थे। दूसरी ओर कांशीराम ठेठ देहात में पले-बढ़े थे व उन्हें इतिहास एवं मिथक का घालमेल करने में कोई समस्या नहीं थी।
5. अम्बेडकर ने वंचित समाज की मुक्ति की राजनीति को दलित आंदोलन का नाम दिया,जबकि कांशीराम दलित संज्ञा के प्रयोग से बचकर बहुजन आंदोलन की बात करते हैं। उनका मानना है कि दलितों को दलितपन से बाहर निकलना चाहिए।
6. दलित मुक्ति के लिए अंबेडकर अपने आंदोलन को एक नैतिक पृष्ठभूमि में देखते हैं जबकि कांशीराम के लिए व्यावहारिकता ज्यादा महत्वपूर्ण है।

इस तरह कहा जा सकता है कि कांशीराम ने अम्बेडकर की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाया, लेकिन अपनी शर्तों पर। अपने विचारों को मूर्तरूप देने के लिए उन्हें मायावती के रूप में एक युवा, प्रखर अनुयायी मिलीं। कांशीराम ने स्वयं किसी राजनीतिक पद की अभिलाषा नहीं रखी, लेकिन मायावती को आगे कर उन्होंने सत्ता हासिल करने की राजनीति सफलतापूर्वक की और जब भी उचित अवसर हाथ में आया तो उसका उपयोग दलित अस्मिता को पुष्ट करने में लगाया। कांशीराम और उनके मार्गदर्शन में मायावती ने एक तरफ इतिहास और मिथकों से खोज-खोजकर बहुजन समाज के आदर्श पात्रों को निकाला और दूसरी तरफ फुले, अम्बेडकर और हाथी की प्रतिमाएं स्थापित की। इनके माध्यम से उन्होंने बहुजन समाज में आत्मविश्वास व स्वाभिमान का संचार करने का प्रयत्न किए।  फिलहाल यह पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध नहीं है। हमारा अनुरोध है कि स्वयं बद्रीनारायण ही इसे हिन्दी में लाएं ताकि इस पर व्यापक पैमाने पर विमर्श हो सके। पुस्तक के अंत में बद्रीनारायण कुछ निराश नजर आते हैं। वे कहते हैं कि ''अपने स्वार्थों के लिए खुद को बेच देने वालों पर कांशीराम ने तीखे प्रहार किए हैं। आज बसपा में भी हालात कुछ वैसे ही हैं। मायावती के नेतृत्व में बसपा को अल्पकालिक राजनीति छोड़कर वृहत्तर उद्देश्य पर ध्यान केन्द्रित करना होगा, वही कांशीराम को सही श्रद्धांजलि होगी।
अक्षर पर्व दिसंबर 2014 अंक की प्रस्तावना

Wednesday, 3 December 2014

26 नवम्बर : एक कोलाज़


 आज 26 नवम्बर को एक सप्ताह की यात्रा पर निकलने के पूर्व मैं यह कॉलम लिखने बैठा हूं। आज का दिन एक कोलाज की तरह मेरे सामने है। नेपाल की राजधानी काठमांडू में सार्क का शिखर सम्मेलन प्रारंभ हो गया है और मैं भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अंग्रेजी में भाषण देते सुन रहा हूं। श्री मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पूर्व यह तथ्य आमतौर पर ज्ञात नहीं था कि वे अंग्रेजी में सहजता के साथ भाषण दे सकते हैं। जनता ने उन्हें अब तक हिन्दी में ही बोलते सुना था और इसी वजह से कट्टर हिन्दी समर्थकों में उन्माद की सीमा तक उत्साह था कि मोदीजी के आ जाने के बाद देश में चारों तरफ हिन्दी का वर्चस्व हो जाएगा। वे लोग अब शायद कुछ निराश होंगे! लेकिन हमारे लेखे अच्छी बात है कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर जहां आवश्यकता है वहां प्रधानमंत्री अंग्रेजी में बात कर रहे हैं।

सार्क शिखर सम्मेलन में भारत की भूमिका को लेकर मीडिया में विरोधाभासी चर्चाएं हो रही हैं। एक तरफ तो भारतीय मीडिया स्वाभाविक ही श्री मोदी का गुणगान कर रहा है, दूसरी तरफ वह पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करने में भी कोई कसर बाकी नहीं रख रहा है। भले ही इसके लिए तथ्य और तर्क को दरकिनार क्यों न करना पड़े। सम्मेलन की क्या उपलब्धियां होंगी यह इस कॉलम के छपने तक पाठकों के सामने आ चुका होगा। मैं यहां कोई पूर्वानुमान नहीं लगाना चाहता। इतना कहना पर्याप्त होगा कि सार्क जैसे बहुराष्ट्रीय मंच आज की वैश्विक राजनीति में लगभग अनिवार्य बन चुके हैं। जब हम विश्व ग्राम की कल्पना करते हैं और तकनीकी उपलब्धियों के सहारे विश्व समाज को परस्पर निकट लाने का प्रयत्न करते हैं तब क्षेत्र विशेष के पड़ोसी देशों के बीच आर्थिक, व्यापारिक, सांस्कृतिक, तकनीकी संबंधों को विकसित होने की प्रासंगिकता स्वयंसिद्ध है। यह सच्चाई भी अपनी जगह पर है कि ऐसे मंचों पर द्विपक्षीय मसले सुलझाने की गुंजाइश कम ही होती है।

प्रधानमंत्री यद्यपि काठमांडू में हैं, लेकिन दिल्ली में उनकी सरकार ने आज छह माह का कार्यकाल पूरा कर लिया है। इस अवधि में घोषणाएं बहुत हुई हैं, वायदे बहुत हुए हैं, किन्तु उन पर अमल होने के लिए अभी न जाने कितने कदम चलना शेष है। इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि जनता ने अपनी आशा की डोर अभी भी श्री मोदी के साथ बांध रखी है तथा मोहभंग जैसी कोई स्थिति फिलहाल नहीं है। इसकी एक वजह यह भी है कि कांग्रेस पार्टी छह माह बाद भी स्पष्ट नहीं कर पाई है कि विपक्ष के रूप में उसकी कार्ययोजना क्या है। किन्तु भाजपा को यह समझना होगा कि कांग्रेस चाहे की जो स्थिति हो, उसकी अपनी विश्वसनीयता लंबे समय में तभी कायम रह पाएगी जब वह अपने वायदों पर गंभीरतापूर्वक अमल करना शुरु कर देगी।

लेकिन ऐसा होने में दो प्रमुख अड़चनें हैं। एक तो अधिकांश वायदे चुनावों के समय किए गए थे और उनके व्यवहारिक पहलू पर विचार करने की कोई आवश्यकता तब नहीं समझी गई थी। आकाश से तारे तोड़ लेने का जोश हर प्रेमी दिखाता है, लेकिन सामने पोखर से कमल का फूल तोड़ लाने में उसके हाथ-पैर फूलने लगते हैं। दूसरे, सरकार पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पुरातनपंथी सोच को लागू करने के लिए भारी दबाव है। मोदीजी की समस्या यह है कि वे संघ प्रमुख आदेशों का पालन करें या कि संविधान के अनुसार चलें।

संसद का सत्र प्रारंभ होने के पूर्व प्रधानमंत्री ने संसद का कामकाज सुचारु रूप से चलने की अपील की। उनको यह अपील करने की आवश्यकता नहीं पडऩी चाहिए थी। देश की सर्वोच्च संस्था संसद है और उसमें पक्ष और विपक्ष दोनों को ही रचनात्मक भूमिका निभाना चाहिए। लेकिन स्वयं भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए पिछले दस साल में संसद का कामकाज जिस तरह से बार-बार ठप्प किया उसके बाद क्या इस अपील का महत्व रह जाता है? अगर भाजपा ने कांग्रेस को लोकसभा में विपक्षी दल की मान्यता दे दी होती तब भी शायद बिगड़ी बात बन सकती थी। बहरहाल छह माह के कार्यकाल पर राजनीति के अध्येता अपने-अपने अंदाज में विश्लेषण कर ही रहे हैं। हमारा सिर्फ इतना ही कहना है कि इस सरकार को अति उत्साह में ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे देश के सामाजिक ढांचे पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़े और अनावश्यक विवाद पैदा हो।

आज ही मुंबई में आतंकवादी हमले की सातवीं बरसी है। यह हमारी कल्पना से परे था कि ऐसा दिन भी आ सकता है। उस दु:स्वप्न की स्मृतियां आज फिर ताजा हो गई हैं। इस पर सोशल मीडिया में कहीं एक टिप्पणी पढऩे मिली कि 26/11 को लोग याद कर रहे हैं, लेकिन उसके पहले मुंबई में ही जो शृंखलाबद्ध बम विस्फोट उपनगरीय रेलवे पर 11 जुलाई 2006 को हुए थे उसे हमने क्यों विस्मृत कर दिया। मैं समझता हूं कि यह सवाल आंशिक रूप से सही है। 26/11 का जो जीवंत प्रसारण टीवी चैनलों पर हुआ उसकी वजह से उसके दृश्य लोगों की स्मृति में बैठ गए हैं; किन्तु देश में बड़े-छोटे आतंकी हमले जहां भी हुए हों उन सबको याद करते हुए यह सोचना भी आवश्यक है कि ऐसा वातावरण कैसे बन गया है. जो हमें सामने दिखाई देता है वही अंतिम सच नहीं है। यह समझने के बाद ही समस्या के मूल में जाकर समाधान के सूत्र मिल सकते हैं।

आज के जिस प्रसंग ने मुझे सबसे ज्यादा जो विचलित किया है वह है तमिलनाडु में वाइको की एमडीएमके पार्टी द्वारा लिट्टे सुप्रीमो प्रभाकरन के जन्मदिन पर आयोजन करना। टीवी के परदे पर यह देखना बेहद तकलीफदेह था कि वाइको प्रभाकरन के चित्र के सामने मोमबत्ती जला रहे हैं और केक काट रहे हैं। तमिलनाडु के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों की कोई प्रतिक्रिया मुझे देखने नहीं मिली, लेकिन भारतीय जनता पार्टी से तो इस पर खुलकर प्रतिक्रिया अपेक्षित थी। आखिरकार वाइको की पार्टी एनडीए में भाजपा की सहयोगी है। तमिलनाडु की जनता की सहानुभूति श्रीलंका के तमिलों के साथ हो सकती है, होना भी चाहिए लेकिन ऐसा पाखंड करके वाइको किसे और क्या संदेश देना चाहते हैं !

तमिलनाडु के इस प्रसंग को देखकर पंजाब की याद आ जाना स्वाभाविक है, जहां श्रीमती इंदिरा गांधी के हत्यारों को भी इसी तरह से प्रतिष्ठित करने की कोशिशें बार-बार होती हैं। कभी उनके परिवारजनों को सरोपा देकर, कभी उन्हें शहीद की पदवी देकर, तो कभी उनका स्मारक बना देने की बात कर। कहा जाता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। ये दो प्रसंग दु:खद तरीके से सिद्ध करते हैं कि पंजाब से तमिलनाडु तक भारत एक अवांछित स्तर पर अवश्य एक है। एक तरफ हम आतंकवाद से लडऩे का संकल्प करते हैं, पाकिस्तान पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का बहुत हद तक सही आरोप लगाते हैं, दूसरी तरफ अपने प्रधानमंत्री की हत्या करने वालों को इस तरह से सम्मानित करते हैं। क्या यह कुछ लोगों का मनोविकार मात्र है या इसके पीछे कोई बड़ा राजनीतिक निहितार्थ है? इस प्रश्न का उत्तर मैं ढूंढ रहा हूं।
देशबन्धु में 4 दिसंबर 2014 को प्रकाशित