जम्मू-काश्मीर एवं झारखंड में विधानसभा के चुनावी नतीजे सिद्ध करते हैं कि इस दौर में न तो मोदीजी की मेहनत रंग लाई और न संघ परिवार का हिन्दुत्ववादी एजेंडा ही कुछ खास काम आया। पिछले कई सप्ताहों से जमकर प्रचार किया जा रहा था कि झारखंड में भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट से ज्यादा प्रबल बहुमत मिलेगा। जम्मू-काश्मीर में भी पार्टी ने अपना चुनाव अभियान मिशन-44 के नाम से याने पूर्ण बहुमत प्राप्त करने के लक्ष्य से चलाया था। नतीजे बताते हैं कि दोनों राज्यों में उसे वह सफलता नहीं मिली जिसकी उम्मीद भाजपा ने लगा रखी थी। झारखंड में भाजपा को अपने दम पर बहुमत हासिल करने के लिए बयालीस सीटों की दरकार थी। वह इस आंकड़े तक पहुंच गई है, लेकिन इस जीत में सहयोगी दल भी शामिल हैं। एक तरह से यहां महाराष्ट्र जैसी स्थिति ही उत्पन्न हुई है। जम्मू कश्मीर में तो वह बहुमत से बहुत दूर रह गई है। यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि एक्जिट पोल इत्यादि एक बार फिर निरर्थक साबित हुए हैं।
झारखंड में यदि भाजपा को अकेले भी स्पष्ट बहुमत मिल जाता तो इसमें बहुत आश्चर्य की बात नहीं होती। ऐसा क्यों नहीं हुआ यह समझने की बात है। झारखंड राज्य के गठन से लेकर अब तक के चौदह वर्षों में 9 वर्ष वहां भाजपा अथवा उसके गठबंधन का शासन रहा है। करिया मुंडा जैसे सम्मानित आदिवासी नेता और यशवंत सिन्हा जैसे अनुभवी नेता भी इसी प्रदेश के हैं। इसके अलावा देश के अन्य प्रदेशों की तरह यहां भी धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिशें लगातार जारी थीं। फिर भी हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोर्चा का प्रदर्शन बहुत निराशाजनक नहीं रहा तो इसका एक कारण समझ में आता है कि झारखंड के आदिवासी मतदाता ने भाजपा को अपनी पार्टी नहीं माना है। इस बार वहां बार-बार कहा जा रहा था कि झारखंड आदिवासी प्रदेश नहीं है कि वहां आदिवासियों की संख्या मात्र पच्चीस प्रतिशत के आसपास है, कि वहां इस बार गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री बनना चाहिए। ऐसा लगता है कि भाजपा की यही सोच उसके लिए बाधक बन गई।
जम्मू-काश्मीर को लेकर भाजपा ने हवाई किले बनाना शुरु कर दिया था। पार्टी का यह सोचना था कि जम्मू की सैंतीस, लद्दाख की चार, इस तरह इकतालीस सीटें तो उसकी झोली में पके आम की तरह आ टपकेंगी। बची तीन सीट उसे काश्मीर घाटी से जीतने की उम्मीद थी। जाहिर है कि न तो जम्मू और न ही लद्दाख में वोटरों को धर्म के आधार पर बांटने का यह फार्मूला कामयाब हो सका। लोकसभा चुनाव में लद्दाख की एकमात्र सीट तीस-चालीस वोट के अंतर से भाजपा को मिल गई थी, किन्तु इस बार विधानसभा की चार में से एक सीट भी उसे नहीं मिल पाई। उसे जम्मू में पच्चीस सीटें मिलीं याने यहां भी बची हुई बारह सीटों पर उसका जोर नहीं चला तथा घाटी में तो उसे एक स्थान पर भी विजय प्राप्त नहीं हुई। जम्मू में भाजपा का प्रभाव बहुत पहले से रहा है, जिसमें मोदीजी के प्रधानमंत्री बनने के बाद इजाफा ही हुआ है इसलिए यहां मिली सफलता अप्रत्याशित तो नहीं है, लेकिन बहुत उत्साहवर्धक भी नहीं कही जा सकती।
झारखंड तथा जम्मू-काश्मीर इन दोनों प्रदेशों में सत्तारूढ़ गठबंधन को जिसमें कांग्रेस शामिल थी, हार का मुख देखना पड़ा है। इसमें ''एंटी-इंकमबैंसी" का रोल तो था ही, यह भी स्मरणीय है कि इन दलों ने अपना गठबंधन विसर्जित कर पृथक रूप से चुनाव लड़ा था। यह दिलचस्प तथ्य है कि झारखंड में कांग्रेस का प्रदर्शन झामुमो की तुलना में निराशाजनक रहा है, जबकि काश्मीर में वह नेशनल कांफ्रेंस के मुकाबले लगभग बराबर कामयाबी हासिल कर सकी है। इससे एक तो यह पता चलता है कि कांग्रेस के पास दोनों प्रदेशों में नेतृत्व का अभाव है। काश्मीर में भी गुलाम नबी आज़ाद के बाद कांग्रेस का कोई दूसरा नेता दिखाई नहीं देता। दूसरे, झारखंड में विदा लेते मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन मतदाताओं में अपने प्रति विश्वास जगाने में किसी हद तक सफल हो सके हैं जबकि काश्मीर में उमर अब्दुल्ला को अब अपनी गलतियों पर सोचने के लिए मतदाताओं ने लंबा मौका दे दिया है।
इन नतीजों के आने के बाद झारखंड में पहला प्रश्न यह है कि भाजपा क्या किसी गैर-आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाएगी। ऐसा हुआ तो उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी यह अभी समझना मुश्किल है। जम्मू कश्मीर में मुफ्ती परिवार की पार्टी पीडीपी को सबसे ज्यादा सीटें मिलीं। उसे सरकार बनाने के लिए किसी अन्य पार्टी के साथ तालमेल करने की आवश्यकता होगी। भाजपा पर मुग्ध मीडिया ने अभी से पीडीपी-भाजपा गठबंधन की वकालत शुरु कर दी है। अगर ऐसा हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। किन्तु पीडीपी के सामने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने का विकल्प भी खुला है। अगर पीडीपी भाजपा के साथ जाती है तो आने वाले समय में संभव है कि जम्मू और लद्दाख नए प्रदेश बना दिए जाएं। इस विचार को संघ परिवार के भाष्यकार समय-समय पर व्यक्त करते रहे हैं।
अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने वक्तव्यों के अनुरूप विकास की राजनीति करना चाहते हैं तो ये चुनाव परिणाम उन्हें मौका देते हैं कि वे हिन्दू राष्ट्र की बात करने वाले अपने साथियों को समझा दें कि मतदाता ने इस एजेंडे को नकार दिया है।
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