आज 26 नवम्बर को एक सप्ताह की यात्रा पर
निकलने के पूर्व मैं यह कॉलम लिखने बैठा हूं। आज का दिन एक कोलाज की तरह
मेरे सामने है। नेपाल की राजधानी काठमांडू में सार्क का शिखर सम्मेलन
प्रारंभ हो गया है और मैं भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अंग्रेजी
में भाषण देते सुन रहा हूं। श्री मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पूर्व यह
तथ्य आमतौर पर ज्ञात नहीं था कि वे अंग्रेजी में सहजता के साथ भाषण दे सकते
हैं। जनता ने उन्हें अब तक हिन्दी में ही बोलते सुना था और इसी वजह से
कट्टर हिन्दी समर्थकों में उन्माद की सीमा तक उत्साह था कि मोदीजी के आ
जाने के बाद देश में चारों तरफ हिन्दी का वर्चस्व हो जाएगा। वे लोग अब शायद
कुछ निराश होंगे! लेकिन हमारे लेखे अच्छी बात है कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर
जहां आवश्यकता है वहां प्रधानमंत्री अंग्रेजी में बात कर रहे हैं।
सार्क शिखर सम्मेलन में भारत की भूमिका को लेकर मीडिया में विरोधाभासी चर्चाएं हो रही हैं। एक तरफ तो भारतीय मीडिया स्वाभाविक ही श्री मोदी का गुणगान कर रहा है, दूसरी तरफ वह पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करने में भी कोई कसर बाकी नहीं रख रहा है। भले ही इसके लिए तथ्य और तर्क को दरकिनार क्यों न करना पड़े। सम्मेलन की क्या उपलब्धियां होंगी यह इस कॉलम के छपने तक पाठकों के सामने आ चुका होगा। मैं यहां कोई पूर्वानुमान नहीं लगाना चाहता। इतना कहना पर्याप्त होगा कि सार्क जैसे बहुराष्ट्रीय मंच आज की वैश्विक राजनीति में लगभग अनिवार्य बन चुके हैं। जब हम विश्व ग्राम की कल्पना करते हैं और तकनीकी उपलब्धियों के सहारे विश्व समाज को परस्पर निकट लाने का प्रयत्न करते हैं तब क्षेत्र विशेष के पड़ोसी देशों के बीच आर्थिक, व्यापारिक, सांस्कृतिक, तकनीकी संबंधों को विकसित होने की प्रासंगिकता स्वयंसिद्ध है। यह सच्चाई भी अपनी जगह पर है कि ऐसे मंचों पर द्विपक्षीय मसले सुलझाने की गुंजाइश कम ही होती है।
प्रधानमंत्री यद्यपि काठमांडू में हैं, लेकिन दिल्ली में उनकी सरकार ने आज छह माह का कार्यकाल पूरा कर लिया है। इस अवधि में घोषणाएं बहुत हुई हैं, वायदे बहुत हुए हैं, किन्तु उन पर अमल होने के लिए अभी न जाने कितने कदम चलना शेष है। इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि जनता ने अपनी आशा की डोर अभी भी श्री मोदी के साथ बांध रखी है तथा मोहभंग जैसी कोई स्थिति फिलहाल नहीं है। इसकी एक वजह यह भी है कि कांग्रेस पार्टी छह माह बाद भी स्पष्ट नहीं कर पाई है कि विपक्ष के रूप में उसकी कार्ययोजना क्या है। किन्तु भाजपा को यह समझना होगा कि कांग्रेस चाहे की जो स्थिति हो, उसकी अपनी विश्वसनीयता लंबे समय में तभी कायम रह पाएगी जब वह अपने वायदों पर गंभीरतापूर्वक अमल करना शुरु कर देगी।
लेकिन ऐसा होने में दो प्रमुख अड़चनें हैं। एक तो अधिकांश वायदे चुनावों के समय किए गए थे और उनके व्यवहारिक पहलू पर विचार करने की कोई आवश्यकता तब नहीं समझी गई थी। आकाश से तारे तोड़ लेने का जोश हर प्रेमी दिखाता है, लेकिन सामने पोखर से कमल का फूल तोड़ लाने में उसके हाथ-पैर फूलने लगते हैं। दूसरे, सरकार पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पुरातनपंथी सोच को लागू करने के लिए भारी दबाव है। मोदीजी की समस्या यह है कि वे संघ प्रमुख आदेशों का पालन करें या कि संविधान के अनुसार चलें।
संसद का सत्र प्रारंभ होने के पूर्व प्रधानमंत्री ने संसद का कामकाज सुचारु रूप से चलने की अपील की। उनको यह अपील करने की आवश्यकता नहीं पडऩी चाहिए थी। देश की सर्वोच्च संस्था संसद है और उसमें पक्ष और विपक्ष दोनों को ही रचनात्मक भूमिका निभाना चाहिए। लेकिन स्वयं भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए पिछले दस साल में संसद का कामकाज जिस तरह से बार-बार ठप्प किया उसके बाद क्या इस अपील का महत्व रह जाता है? अगर भाजपा ने कांग्रेस को लोकसभा में विपक्षी दल की मान्यता दे दी होती तब भी शायद बिगड़ी बात बन सकती थी। बहरहाल छह माह के कार्यकाल पर राजनीति के अध्येता अपने-अपने अंदाज में विश्लेषण कर ही रहे हैं। हमारा सिर्फ इतना ही कहना है कि इस सरकार को अति उत्साह में ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे देश के सामाजिक ढांचे पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़े और अनावश्यक विवाद पैदा हो।
आज ही मुंबई में आतंकवादी हमले की सातवीं बरसी है। यह हमारी कल्पना से परे था कि ऐसा दिन भी आ सकता है। उस दु:स्वप्न की स्मृतियां आज फिर ताजा हो गई हैं। इस पर सोशल मीडिया में कहीं एक टिप्पणी पढऩे मिली कि 26/11 को लोग याद कर रहे हैं, लेकिन उसके पहले मुंबई में ही जो शृंखलाबद्ध बम विस्फोट उपनगरीय रेलवे पर 11 जुलाई 2006 को हुए थे उसे हमने क्यों विस्मृत कर दिया। मैं समझता हूं कि यह सवाल आंशिक रूप से सही है। 26/11 का जो जीवंत प्रसारण टीवी चैनलों पर हुआ उसकी वजह से उसके दृश्य लोगों की स्मृति में बैठ गए हैं; किन्तु देश में बड़े-छोटे आतंकी हमले जहां भी हुए हों उन सबको याद करते हुए यह सोचना भी आवश्यक है कि ऐसा वातावरण कैसे बन गया है. जो हमें सामने दिखाई देता है वही अंतिम सच नहीं है। यह समझने के बाद ही समस्या के मूल में जाकर समाधान के सूत्र मिल सकते हैं।
आज के जिस प्रसंग ने मुझे सबसे ज्यादा जो विचलित किया है वह है तमिलनाडु में वाइको की एमडीएमके पार्टी द्वारा लिट्टे सुप्रीमो प्रभाकरन के जन्मदिन पर आयोजन करना। टीवी के परदे पर यह देखना बेहद तकलीफदेह था कि वाइको प्रभाकरन के चित्र के सामने मोमबत्ती जला रहे हैं और केक काट रहे हैं। तमिलनाडु के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों की कोई प्रतिक्रिया मुझे देखने नहीं मिली, लेकिन भारतीय जनता पार्टी से तो इस पर खुलकर प्रतिक्रिया अपेक्षित थी। आखिरकार वाइको की पार्टी एनडीए में भाजपा की सहयोगी है। तमिलनाडु की जनता की सहानुभूति श्रीलंका के तमिलों के साथ हो सकती है, होना भी चाहिए लेकिन ऐसा पाखंड करके वाइको किसे और क्या संदेश देना चाहते हैं !
तमिलनाडु के इस प्रसंग को देखकर पंजाब की याद आ जाना स्वाभाविक है, जहां श्रीमती इंदिरा गांधी के हत्यारों को भी इसी तरह से प्रतिष्ठित करने की कोशिशें बार-बार होती हैं। कभी उनके परिवारजनों को सरोपा देकर, कभी उन्हें शहीद की पदवी देकर, तो कभी उनका स्मारक बना देने की बात कर। कहा जाता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। ये दो प्रसंग दु:खद तरीके से सिद्ध करते हैं कि पंजाब से तमिलनाडु तक भारत एक अवांछित स्तर पर अवश्य एक है। एक तरफ हम आतंकवाद से लडऩे का संकल्प करते हैं, पाकिस्तान पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का बहुत हद तक सही आरोप लगाते हैं, दूसरी तरफ अपने प्रधानमंत्री की हत्या करने वालों को इस तरह से सम्मानित करते हैं। क्या यह कुछ लोगों का मनोविकार मात्र है या इसके पीछे कोई बड़ा राजनीतिक निहितार्थ है? इस प्रश्न का उत्तर मैं ढूंढ रहा हूं।
सार्क शिखर सम्मेलन में भारत की भूमिका को लेकर मीडिया में विरोधाभासी चर्चाएं हो रही हैं। एक तरफ तो भारतीय मीडिया स्वाभाविक ही श्री मोदी का गुणगान कर रहा है, दूसरी तरफ वह पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करने में भी कोई कसर बाकी नहीं रख रहा है। भले ही इसके लिए तथ्य और तर्क को दरकिनार क्यों न करना पड़े। सम्मेलन की क्या उपलब्धियां होंगी यह इस कॉलम के छपने तक पाठकों के सामने आ चुका होगा। मैं यहां कोई पूर्वानुमान नहीं लगाना चाहता। इतना कहना पर्याप्त होगा कि सार्क जैसे बहुराष्ट्रीय मंच आज की वैश्विक राजनीति में लगभग अनिवार्य बन चुके हैं। जब हम विश्व ग्राम की कल्पना करते हैं और तकनीकी उपलब्धियों के सहारे विश्व समाज को परस्पर निकट लाने का प्रयत्न करते हैं तब क्षेत्र विशेष के पड़ोसी देशों के बीच आर्थिक, व्यापारिक, सांस्कृतिक, तकनीकी संबंधों को विकसित होने की प्रासंगिकता स्वयंसिद्ध है। यह सच्चाई भी अपनी जगह पर है कि ऐसे मंचों पर द्विपक्षीय मसले सुलझाने की गुंजाइश कम ही होती है।
प्रधानमंत्री यद्यपि काठमांडू में हैं, लेकिन दिल्ली में उनकी सरकार ने आज छह माह का कार्यकाल पूरा कर लिया है। इस अवधि में घोषणाएं बहुत हुई हैं, वायदे बहुत हुए हैं, किन्तु उन पर अमल होने के लिए अभी न जाने कितने कदम चलना शेष है। इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि जनता ने अपनी आशा की डोर अभी भी श्री मोदी के साथ बांध रखी है तथा मोहभंग जैसी कोई स्थिति फिलहाल नहीं है। इसकी एक वजह यह भी है कि कांग्रेस पार्टी छह माह बाद भी स्पष्ट नहीं कर पाई है कि विपक्ष के रूप में उसकी कार्ययोजना क्या है। किन्तु भाजपा को यह समझना होगा कि कांग्रेस चाहे की जो स्थिति हो, उसकी अपनी विश्वसनीयता लंबे समय में तभी कायम रह पाएगी जब वह अपने वायदों पर गंभीरतापूर्वक अमल करना शुरु कर देगी।
लेकिन ऐसा होने में दो प्रमुख अड़चनें हैं। एक तो अधिकांश वायदे चुनावों के समय किए गए थे और उनके व्यवहारिक पहलू पर विचार करने की कोई आवश्यकता तब नहीं समझी गई थी। आकाश से तारे तोड़ लेने का जोश हर प्रेमी दिखाता है, लेकिन सामने पोखर से कमल का फूल तोड़ लाने में उसके हाथ-पैर फूलने लगते हैं। दूसरे, सरकार पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पुरातनपंथी सोच को लागू करने के लिए भारी दबाव है। मोदीजी की समस्या यह है कि वे संघ प्रमुख आदेशों का पालन करें या कि संविधान के अनुसार चलें।
संसद का सत्र प्रारंभ होने के पूर्व प्रधानमंत्री ने संसद का कामकाज सुचारु रूप से चलने की अपील की। उनको यह अपील करने की आवश्यकता नहीं पडऩी चाहिए थी। देश की सर्वोच्च संस्था संसद है और उसमें पक्ष और विपक्ष दोनों को ही रचनात्मक भूमिका निभाना चाहिए। लेकिन स्वयं भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए पिछले दस साल में संसद का कामकाज जिस तरह से बार-बार ठप्प किया उसके बाद क्या इस अपील का महत्व रह जाता है? अगर भाजपा ने कांग्रेस को लोकसभा में विपक्षी दल की मान्यता दे दी होती तब भी शायद बिगड़ी बात बन सकती थी। बहरहाल छह माह के कार्यकाल पर राजनीति के अध्येता अपने-अपने अंदाज में विश्लेषण कर ही रहे हैं। हमारा सिर्फ इतना ही कहना है कि इस सरकार को अति उत्साह में ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे देश के सामाजिक ढांचे पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़े और अनावश्यक विवाद पैदा हो।
आज ही मुंबई में आतंकवादी हमले की सातवीं बरसी है। यह हमारी कल्पना से परे था कि ऐसा दिन भी आ सकता है। उस दु:स्वप्न की स्मृतियां आज फिर ताजा हो गई हैं। इस पर सोशल मीडिया में कहीं एक टिप्पणी पढऩे मिली कि 26/11 को लोग याद कर रहे हैं, लेकिन उसके पहले मुंबई में ही जो शृंखलाबद्ध बम विस्फोट उपनगरीय रेलवे पर 11 जुलाई 2006 को हुए थे उसे हमने क्यों विस्मृत कर दिया। मैं समझता हूं कि यह सवाल आंशिक रूप से सही है। 26/11 का जो जीवंत प्रसारण टीवी चैनलों पर हुआ उसकी वजह से उसके दृश्य लोगों की स्मृति में बैठ गए हैं; किन्तु देश में बड़े-छोटे आतंकी हमले जहां भी हुए हों उन सबको याद करते हुए यह सोचना भी आवश्यक है कि ऐसा वातावरण कैसे बन गया है. जो हमें सामने दिखाई देता है वही अंतिम सच नहीं है। यह समझने के बाद ही समस्या के मूल में जाकर समाधान के सूत्र मिल सकते हैं।
आज के जिस प्रसंग ने मुझे सबसे ज्यादा जो विचलित किया है वह है तमिलनाडु में वाइको की एमडीएमके पार्टी द्वारा लिट्टे सुप्रीमो प्रभाकरन के जन्मदिन पर आयोजन करना। टीवी के परदे पर यह देखना बेहद तकलीफदेह था कि वाइको प्रभाकरन के चित्र के सामने मोमबत्ती जला रहे हैं और केक काट रहे हैं। तमिलनाडु के दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों की कोई प्रतिक्रिया मुझे देखने नहीं मिली, लेकिन भारतीय जनता पार्टी से तो इस पर खुलकर प्रतिक्रिया अपेक्षित थी। आखिरकार वाइको की पार्टी एनडीए में भाजपा की सहयोगी है। तमिलनाडु की जनता की सहानुभूति श्रीलंका के तमिलों के साथ हो सकती है, होना भी चाहिए लेकिन ऐसा पाखंड करके वाइको किसे और क्या संदेश देना चाहते हैं !
तमिलनाडु के इस प्रसंग को देखकर पंजाब की याद आ जाना स्वाभाविक है, जहां श्रीमती इंदिरा गांधी के हत्यारों को भी इसी तरह से प्रतिष्ठित करने की कोशिशें बार-बार होती हैं। कभी उनके परिवारजनों को सरोपा देकर, कभी उन्हें शहीद की पदवी देकर, तो कभी उनका स्मारक बना देने की बात कर। कहा जाता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। ये दो प्रसंग दु:खद तरीके से सिद्ध करते हैं कि पंजाब से तमिलनाडु तक भारत एक अवांछित स्तर पर अवश्य एक है। एक तरफ हम आतंकवाद से लडऩे का संकल्प करते हैं, पाकिस्तान पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का बहुत हद तक सही आरोप लगाते हैं, दूसरी तरफ अपने प्रधानमंत्री की हत्या करने वालों को इस तरह से सम्मानित करते हैं। क्या यह कुछ लोगों का मनोविकार मात्र है या इसके पीछे कोई बड़ा राजनीतिक निहितार्थ है? इस प्रश्न का उत्तर मैं ढूंढ रहा हूं।
देशबन्धु में 4 दिसंबर 2014 को प्रकाशित
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