Wednesday, 24 December 2014

सुहाना (!) सफर और मौसम हसीं (!)


 मेरा इरादा न तो हिंदी फिल्मों का इतिहास लिखने का है और न ही उसके गीत-संगीत पर चर्चा करने का। यह तो अपनी किशोरावस्था में सुना पचपन-साठ साल पुराना गाना कुछ सोचते-सोचते यूं ही होठों पर आ गया। हुआ कुछ ऐसा कि करीब दो-ढाई माह पहिले प्रोग्राम बना दिसंबर में तीन दिन की पचमढ़ी यात्रा का। अमरकंटक एक्सप्रेस से पिपरिया तक की रेल यात्रा का आरक्षण भी बाकायदा हो गया। यात्रा की निर्धारित तिथि के चार दिन पहिले भोपाल से छोटे भाई पलाश ने फोन पर पुष्टि भी चाही कि हम पहुंच रहे हैं या नहीं। उन्हें आश्वस्त किया कि हां, आना पक्का है। लेकिन उसके दो दिन बाद उनका ही दूसरा फोन आ गया- आप कैसा करेंगे? पचमढ़ी में ठंड बहुत ज्यादा है- 4 डिग्री सेल्सियस के आसपास।  यह सुनकर तबियत घबराई, फिर भी हिम्मत कर जवाब दिया- हीटर-कंबल आदि व्यवस्था कर लेना; बाकी ऊनी कपड़े वगैरह तो हम साथ लाएंगे ही। किंतु इसके बाद मन डांवाडोल होने लगा- जाएं, न जाएं। इतने पहिले से प्रोग्राम बना है। नहीं जाएंगे तो सबको निराशा होगी। ट्रेन से नहीं जाते, रात का सफर है, दिन-दिन में कार से निकल जाते हैं, आदि। यह सोच-विचार चल ही रहा था कि पलाश का तीसरा फोन आ गया- ठंड लगातार बढ़ रही है, आप न आएं, वही ठीक होगा। अपनी खैर मनाते, भाई को मन-मन धन्यवाद देते हमने टिकिट वापिस कर दिए।

अच्छा ही हुआ कि नहीं गए। नागपुर के लोकमत समाचार से खबर मिली कि पचमढ़ी में शीतऋतु ने कई बरसों का रिकॉर्ड तोड़ दिया। तापमान शून्य डिग्री तक चला गया। चलो, एक यात्रा स्थगित हुई सो हुई, किंतु मुझ जैसे यात्राप्रेमी के लिए यह एक निराश करने वाला प्रसंग था। मेरे बुजुर्ग मित्र रायपुर के स. परदुमन सिंह चावलाजी कहते हैं- उमर बढ़ रही है, अब आवारागर्दी कम कर दो, लेकिन क्या करूं कि मन मानता नहीं है। यात्रा करने का निमंत्रण मिले तो उसे अस्वीकार नहीं कर पाता। कोई कहता है- पैरों में शनि है, कोई पैरों में चक्र बतलाता है। जो भी हो, यात्राएं करने में मुझे हमेशा से आनंद आते रहा है, पर इस कमबख्त मौसम को क्या कीजिएगा। आप जब धूप का आनंद लेना चाहते हैं तब बादल घिर आते हैं, जब आकाश खुला रहने की संभावना रहती है तब एकाएक बरसात होने लगती है, जब जाड़ों में गरम कपड़े निकालने के दिन आते हैं तब न जाने कहां से थर्मामीटर में पारा चढ़ जाता है।

प्रकृति की यह विचित्र लीला हम इधर कई बरसों से देख रहे हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि भूमंडल दिनों-दिन गर्म होते जा रहा है। वे तरह-तरह की खौफनाक भविष्यवाणियां करते हैं। कभी ग्लेशियर पिघलने की चेतावनी मिलती है, तो कभी समुद्र की सतह ऊपर उठ जाने की। इनके बीच कभी यूरोप की नदियों में एकाएक बाढ़ आ जाती है, तो कभी लंदन में तापमान चालीस डिग्री के करीब पहुंच जाता है। अमेरिका के कैलिफोर्निया प्रांत में पीने के पानी का संकट उपस्थित हो जाता है, तो कभी दक्षिण-पूर्वी एशिया के आकाश पर धुएं के बादल छा जाते हैं। इन सारे दृश्यों के बीच मुझे एक तस्वीर परेशान करती है- उत्तर ध्रुव पर बर्फ पिघल रही है और बीच में एक छोटे से हिमखंड पर एक सफेद ध्रुवीय भालू असहाय सा यहां-वहां देख रहा है कि कहां जाए और कैसे जाए। वह तो बर्फ के नीचे छुपी मछली पकडऩे आया था, लेकिन प्रकृति के इस खिलवाड़ के सामने उसका ही अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।

मैं भी कहां की बात ले बैठा। जिन्हें ग्लोबल वार्मिंग की चिंता करना हो वो करें। मेरे सामने तो यह परेशानी है कि एक यात्रा कैंसिल हुई तो हुई, आगे ऐसी नौबत न आए इसके लिए मैं क्या करूं। हो सकता है कि मैं सूखे मौसम में यात्रा पर निकलूं और रास्ते में बारिश होने लगे, तो क्या मुझे अब अपने सामान में एक बरसाती रखने के लिए जगह बना लेनी चाहिए। तब तो फिर मुझे ऊनी कोट न सही एक मोटी स्वेटर तो हमेशा साथ रखना ही चाहिए कि न जाने कब एकाएक पारा गिर जाए और ठंड से शरीर ठिठुरने लगे। जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि- ''चाहे जीवन यात्रा हो या सामान्य यात्रा, कम से कम सामान लेकर साथ चलना चाहिए।" उनके समय में मौसम ऐसी दुष्टता नहीं करता था शायद इसीलिए वे ऐसा लिख सके। आज का समय होता तो उनके ट्रंक का वजन दुगुना हो जाता। इतना वजन नाहक  उठाकर घूमो इससे तो अच्छा है कि घर में ही रहो और जैसा मौसम हो वैसा इंतजाम कर लो।

यह तो हुई हसीन मौसम की हकीकत। जरा यह भी देख लिया जाए कि सुहाने सफर की सच्चाई क्या है। वे पाठक जिन्हें मेरी ही तरह यायावरी में सुख मिलता है वे शायद सहमत होंगे कि सफर का सुहानापन अभी खत्म तो नहीं हुआ है, लेकिन धीरे-धीरे वह उसी तरफ बढ़ रहा है। एक दौर था जब आप स्टीम इंजन वाली रेलगाड़ी में बैठक यात्राएं करते थे। ये रेलगाडिय़ां चालीस-पचास किलोमीटर की प्रति रफ्तार से चलती थीं और इनके पड़ाव बहुत होते थे। रायपुर से नागपुर - बंबई की दिशा में जाना हो तो डोंगरगढ़ पर रुककर देशराज अरोरा की रेलवे कैंटीन की चाय पीना जैसे अनिवार्य ही होता था। हावड़ा-बॉम्बे मेल जैसी गाड़ी भी यात्रियों के चाय पीने तक का इंतजार कर लेती थी। इसी स्टेशन पर बाद में सुस्वादु इडली भी पलाश के पत्ते पर मिलने लगी थी। इधर बिलासपुर होकर कटनी-जबलपुर जाना हो तो खोडरी और खोंगसरा जैसे छोटे स्टेशनों पर जो गर्मागर्म भजिए और मौसमी फल मिलते थे उनका कहना ही क्या था।

गोंदिया-जबलपुर छोटी लाइन पर शिकारा स्टेशन की तो बात ही अनोखी थी। सुबह-सुबह ट्रेन रुकती थी कोई आधा घंटे के लिए। घने जंगल के बीच बसे इस छोटे से स्टेशन पर सुबह जो गर्म स्वादिष्ट नाश्ता समोसा, जलेबी का मिलता था, वैसा स्वाद तो पांच सितारा व्यंजनों के होटलों में भी नहीं मिलता। अब ये सारी बातें हवा हो चुकी हैं। रेलगाडिय़ां सौ-सौ किलोमीटर की रफ्तार से दौड़ रही हैं। उनके सामने इन छोटे स्टेशनों की बिसात ही क्या। अब तो बुलेट ट्रेन की बात हो रही है, लेकिन सच पूछिए तो उन मद्धम रफ्तार ट्रेनों में मजे में नींद आती थी जैसे मां की गोद में सिर रखकर सो रहे हों। आज जो सुपरफास्ट ट्रेनें जो चल रही हैं वे इस कदर हिचकोले खाती हैं, लहराती हैं कि उनमें कुंभकर्ण को ही नींद आ सकती है।

चलिए, ट्रेन छोड़ एरोप्लेन की बात करते हैं। आज भी पुरानी फिल्मों को देखिए तो रश्क होता है कि वे दिन भी क्या दिन थे। हीरो हवाई जहाज से कहीं दूर जाने वाला है। सीढ़ी चढ़कर ऊपर से वह हाथ हिलाता है और नीचे खड़ी हीरोइन इत्यादि हाथ हिलाकर उसे विदा कर रहे हैं। इसी तरह हीरो जब विदेश से पढ़कर लौटता था तो घर के सारे लोग खड़े होकर इंतजार करते थे और फिर कोई खुशी से चीख पड़ता था-देखो भैया प्लेन से उतर रहे हैं। आज वह सुख कहां? पहले तो हवाई अड्डे में घुसने के पहले अपना आई-कार्ड बताओ, फिर दोबारा जांच करवाओ, फिर सामान की सुरक्षा जांच करवाओ, लंबी कतार में खड़े होकर बोर्डिंग पास लो, फिर सुरक्षा जांच की सर्पाकार कतार में सीढ़ी की तरह रेंगो, जहां कभी-कभी जूते उतरवाकर भी जांच होती है। फिर विमान की प्रतीक्षा करो जो विदा करने आए हैं, वे न भी आते तो काम चल जाता। नाहक परेशान हुए, समय अलग बर्बाद हुआ। मैं पहले ट्रेन के सफर में पांच-छह सौ पेज की एक पूरी पुस्तक पढ़ लेता था। अब न तो ट्रेन के हिचकोलों में पढऩा हो पाता और न हवाई यात्रा की अनिवार्य औपचारिकताओं से उपजी थकान के चलते।

इस बीच देश में सड़क मार्ग से यात्रा भी, कहते हैं कि पहले की अपेक्षा बेहतर हो गई है। फोरलेन और सिक्सलेन सड़कें बन गई हैं, लेकिन उससे क्या। आज से पैंतालीस साल पहले रायपुर से दुर्ग की चालीस किलोमीटर की दूरी चालीस मिनट में पूरी होती थी, आज फोरलेन के बाद भी वही चालीस मिनट लगते हैं। इन नई-नई सड़कों पर लगभग एक रुपया प्रति किलोमीटर दर से टोल टैक्स लगने लगा है। समझ नहीं आता कि जब सरकार को ठेकेदारों से ही सड़क बनवाना है, तो फिर लोक निर्माण विभाग याने पीडब्ल्यूडी की जरूरत ही क्या है। इन सड़कों पर गाडिय़ां निश्चित ही बहुत तेजी से दौड़ती हैं, लेकिन अधिकतर स्थानों पर यह ख्याल नहीं है कि राजमार्गों के किनारे बसी बस्तियों के लोग सड़क के आर-पार आना-जाना कैसे करेंगे। इन नई सड़कों को बनाने के चक्कर में सड़क किनारे की हरियाली पूरी तरह खत्म हो गई है। सपाट सड़क, धूसर दृश्य, चमकते सूरज में मृगमरीचिका का आभास और रात को बिना डिपर दिए हेडलाइट की रौशनी में  दौड़ती सामने वाले को चौंधियाने वाली गाडिय़ां। पहले इन रास्तों पर ढाबे हुआ करते थे जहां साफ-सुथरे ढंग से बना सादा भोजन मिल जाता था। ढाबे तो नए-नए खुल रहे हैं, लेकिन साफ-सफाई का ध्यान नहीं है। कुछ घनी बस्तियों के बाइपास भी बन गए हैं। पहले जब बस्ती के बीच से कार या बस से गुजरते थे तो स्थानीय फलों का और व्यंजनों का लुफ्त उठाने का मौका मिल जाता था जैसे लखनादौन की खोवे की जलेबी या छपारा की बिही, या सोनकच्छ के गुलाबजामुन- वे सब भी अतीत की बात हो गए। अब बताइए ऐसे सफर को सुहाना कैसे कहा जाए।

गीतकार शैलेन्द्र यदि आज होते तो उन्हें शायद यह जानकर खुशी होती कि उनके लिखे गीत को पचास साल बाद भी गुनगुनाया जा रहा है, लेकिन आज सफर और मौसम दोनों को देखकर क्या वे कोई नया गीत लिखने की सोचते?
देशबन्धु में 25 दिसंबर 2014 को प्रकाशित

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