पिछले दस-ग्यारह साल के दरम्यान गोवा काफी
कुछ बदल गया है। मैंने 2003 में कुछ दिन यहां सैलानी के रूप में बिताए थे।
उसके बाद एक कांफ्रेंस के सिलसिले में एक और संक्षिप्त यात्रा हुई, लेकिन
तब सारा वक्त सम्मेलन की मशगूलियों में ही बीत गया था। अभी नवम्बर के अंत
में फिर चार दिन गोवा में रहने का मौका मिला। यूं तो इस बार भी मैं एक
अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में शिरकत करने के लिए गया था, लेकिन सभा स्थल से
बाहर निकलकर गोवा के जनजीवन की झलकियां देख सकूं, इतना समय अवश्य मिल गया
था। मेरी दिलचस्पी उन स्थानों को देखने में नहीं थी जहां सैलानियों की भीड़
इकट्ठी होती है गो कि एक दिन मित्रों के साथ चंद घंटे इस तफरीह में ही
बीते। मैं चाहता था कि सैरगाहों से हटकर जो गोवा है उसे भी देखा जाए और
मेरी यह इच्छा किसी हद तक पूरी भी हुई।
मैं जब 2003 में पहली बार यहां आया था तब गोवा में बड़े पैमाने पर भवन निर्माण की गतिविधियां शुरू होने-होने को थीं। आज उसका कोई पारावार नहीं है। आप किसी भी तरफ चले जाइए, नई-नई कालोनियां बस रही हैं, सात-सात मंजिल की अट्टालिकाएं खड़ी हो रही हैं, नित नए होटल खुल रहे हैं, कितने ही नए पुल बन गए हैं। दूसरी ओर खेती सिमटती जा रही है, हरियाली अभी भी बहुत है, लेकिन पहले के मुकाबले कम हो गई है। इसका इस द्वीप-प्रदेश के पर्यावरण पर प्रभाव पडऩा शुरु हो गया है। ये जो कुछ नवनिर्माण हो रहा है गोवावासियों के लिए नहीं, बल्कि मुख्य रूप से उन लोगों के लिए जो शहर के कोलाहल से दूर शांतिपूर्ण जीवन बिताने के लिए गोवा आकर बस जाना चाहते हैं। लेकिन अगर यही रफ्तार बनी रही तो शांति का स्थान कोलाहल को लेने में कितना वक्त लगेगा?
गोवा की इस प्रगति को देखते हुए ही मुझे ध्यान आया कि एक समय भारत में तीन स्थान अवकाश-प्राप्त लोगों के लिए और साधन-सम्पन्न तबकों के लिए स्वर्ग माने जाते थे। पश्चिम भारत में पूना या पुणे, दक्षिण भारत में बैंगलोर या बंगलुरू और पूर्वी भारत में रांची; उत्तर भारत में तो हिल स्टेशन थे ही। इन स्थानों पर रिटायर्ड लोग घर बना लेते थे। फिल्म अभिनेता वगैरह भी यहां अपनी गर्मी की छुट्टियां बिताने आया करते थे। आबोहवा अच्छी थी, खूब हरियाली थी, आस-पास जलप्रपात और अन्य सुरम्य स्थल थे, लेकिन प्रथम तो औद्योगिकीकरण ने इन स्थानों की तस्वीर विकृत कर दी। दूसरे, अपने मूल स्वरूप में ये स्थान बड़े शहरों से भागकर आए कितने लोगों को शरण दे सकते थे? परिणाम यह हुआ कि यहां सुविधाएं चाहे जितनी हों, स्वर्ग होने का दर्जा तो इन्होंने खो ही दिया है। गोवा भी उसी दिशा में चल पड़ा है।
एक तरह से देखें तो गोवा अब तीन हिस्सों में बंट गया है। एक हिस्सा वह है जिसमें गोवानी बसते हैं, दूसरा- सैलानियों का गोवा और तीसरा अप्रवासियों का। फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि इस बदले हुए माहौल से गोवा को कोई परेशानी या नुकसान हुआ है। सैलानियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है। उनके लिए उसी अनुपात में होटल, भोजनालय, टैक्सी आदि सेवाएं भी चाहिए। जो बाहर से आकर बस रहे हैं उन्हें भी सेवाओं की दरकार है। इस वजह से यहां रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं। स्थानीय अखबारों में प्रतिदिन विज्ञापन छपते हैं कि इन सेवाओं में काम करने के लिए योग्य व्यक्ति चाहिए। देश में जब बेराजगारी बढ़ रही है तब एक प्रदेश में रोजगार के ढेरों अवसर मिल रहे हैं यह देखकर विस्मय होता है।
हम जिस दिन गोवा पहुंचे उसी दिन गोवा पर्यटन मंडल के एक रेस्तरां में दिन के भोजन के लिए गए। वहां पहले जो बैरा आर्डर लेने आया वह उड़ीसा का निकला। फिर उसने बताया कि वहां कर्नाटक, महाराष्ट्र, मणिपुर, मिजोरम, छत्तीसगढ़, बिहार आदि विभिन्न प्रदेशों से आए लोग काम कर रहे हैं। मैं स्वाभाविक ही छत्तीसगढ़ सुनकर कुछ चौंका और कहा कि कौन हैं, उन्हेंं बुलाओ। उससे भेंट हुई, परिचय प्राप्त किया। जशपुरनगर के पास किसी गांव से आया प्रमोद लकड़ा नामक वह नवयुवक दो-तीन साल से वहां काम कर रहा है। मैं जिस होटल में ठहरा था, वहां सुबह की चाय पिलाने वाला युवक बिहार का था। मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि गोवा में स्थानीय और बाहरी जैसा कोई द्वंद्व अभी तक कोई उपस्थित नहीं हुआ है।
मैं जब 2003 में पहली बार यहां आया था तब गोवा में बड़े पैमाने पर भवन निर्माण की गतिविधियां शुरू होने-होने को थीं। आज उसका कोई पारावार नहीं है। आप किसी भी तरफ चले जाइए, नई-नई कालोनियां बस रही हैं, सात-सात मंजिल की अट्टालिकाएं खड़ी हो रही हैं, नित नए होटल खुल रहे हैं, कितने ही नए पुल बन गए हैं। दूसरी ओर खेती सिमटती जा रही है, हरियाली अभी भी बहुत है, लेकिन पहले के मुकाबले कम हो गई है। इसका इस द्वीप-प्रदेश के पर्यावरण पर प्रभाव पडऩा शुरु हो गया है। ये जो कुछ नवनिर्माण हो रहा है गोवावासियों के लिए नहीं, बल्कि मुख्य रूप से उन लोगों के लिए जो शहर के कोलाहल से दूर शांतिपूर्ण जीवन बिताने के लिए गोवा आकर बस जाना चाहते हैं। लेकिन अगर यही रफ्तार बनी रही तो शांति का स्थान कोलाहल को लेने में कितना वक्त लगेगा?
गोवा की इस प्रगति को देखते हुए ही मुझे ध्यान आया कि एक समय भारत में तीन स्थान अवकाश-प्राप्त लोगों के लिए और साधन-सम्पन्न तबकों के लिए स्वर्ग माने जाते थे। पश्चिम भारत में पूना या पुणे, दक्षिण भारत में बैंगलोर या बंगलुरू और पूर्वी भारत में रांची; उत्तर भारत में तो हिल स्टेशन थे ही। इन स्थानों पर रिटायर्ड लोग घर बना लेते थे। फिल्म अभिनेता वगैरह भी यहां अपनी गर्मी की छुट्टियां बिताने आया करते थे। आबोहवा अच्छी थी, खूब हरियाली थी, आस-पास जलप्रपात और अन्य सुरम्य स्थल थे, लेकिन प्रथम तो औद्योगिकीकरण ने इन स्थानों की तस्वीर विकृत कर दी। दूसरे, अपने मूल स्वरूप में ये स्थान बड़े शहरों से भागकर आए कितने लोगों को शरण दे सकते थे? परिणाम यह हुआ कि यहां सुविधाएं चाहे जितनी हों, स्वर्ग होने का दर्जा तो इन्होंने खो ही दिया है। गोवा भी उसी दिशा में चल पड़ा है।
एक तरह से देखें तो गोवा अब तीन हिस्सों में बंट गया है। एक हिस्सा वह है जिसमें गोवानी बसते हैं, दूसरा- सैलानियों का गोवा और तीसरा अप्रवासियों का। फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि इस बदले हुए माहौल से गोवा को कोई परेशानी या नुकसान हुआ है। सैलानियों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है। उनके लिए उसी अनुपात में होटल, भोजनालय, टैक्सी आदि सेवाएं भी चाहिए। जो बाहर से आकर बस रहे हैं उन्हें भी सेवाओं की दरकार है। इस वजह से यहां रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं। स्थानीय अखबारों में प्रतिदिन विज्ञापन छपते हैं कि इन सेवाओं में काम करने के लिए योग्य व्यक्ति चाहिए। देश में जब बेराजगारी बढ़ रही है तब एक प्रदेश में रोजगार के ढेरों अवसर मिल रहे हैं यह देखकर विस्मय होता है।
हम जिस दिन गोवा पहुंचे उसी दिन गोवा पर्यटन मंडल के एक रेस्तरां में दिन के भोजन के लिए गए। वहां पहले जो बैरा आर्डर लेने आया वह उड़ीसा का निकला। फिर उसने बताया कि वहां कर्नाटक, महाराष्ट्र, मणिपुर, मिजोरम, छत्तीसगढ़, बिहार आदि विभिन्न प्रदेशों से आए लोग काम कर रहे हैं। मैं स्वाभाविक ही छत्तीसगढ़ सुनकर कुछ चौंका और कहा कि कौन हैं, उन्हेंं बुलाओ। उससे भेंट हुई, परिचय प्राप्त किया। जशपुरनगर के पास किसी गांव से आया प्रमोद लकड़ा नामक वह नवयुवक दो-तीन साल से वहां काम कर रहा है। मैं जिस होटल में ठहरा था, वहां सुबह की चाय पिलाने वाला युवक बिहार का था। मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि गोवा में स्थानीय और बाहरी जैसा कोई द्वंद्व अभी तक कोई उपस्थित नहीं हुआ है।
जब पहली बार आया था तब पाया था
कि कश्मीर घाटी से निकले मुस्लिम समुदाय के बहुत से व्यापारी यहां
हस्तशिल्प और हैण्डलूम के शो रूम खोलकर अपना जीवनयापन कर रहे हैं। पर्यटन
और शहरीकरण के विकास के चलते अब ये अन्य प्रदेशों से आए सेवाक्षेत्र में
काम कर रहे युवक भी इसमें जुड़ गए हैं। अलबत्ता टैक्सी ड्रायवर अब भी शायद
सारे के सारे गोवा के ही हैं। अब ऑटो रिक्शा भी बहुत चलने लगे हैं, वे भी
स्थानीय निवासी हैं। इनके अलावा इस पर्यटन प्रदेश में मोटर साइकिल पर गोवा
की सैर करवाने वाले युवा बाइकर्स की सालों पुरानी परंपरा वैसी ही चली आ रही
है। कहने की आवश्यकता नहीं कि वे सब गोवा के ही तरुण हैं।
जहां तक मैं जानता हूं भारत में दो ऐसे प्रदेश थे जहां के निवासी दोपहर में तीन घंटे सारा कामकाज बंद कर विश्राम करते थे। एक था उड़ीसा और दूसरा गोवा। दोपहर एक से चार तक सारी दुकानें बंद रहती थीं। यहां तक कि खाना भी नहीं मिलता था। उड़ीसा में यह परिपाटी कैसे पड़ी, नहीं मालूम, लेकिन गोवा में शायद पुर्तगाल की भूमध्य सागरीय जलवायु के असर से जन्मी परंपरा यहां भी आई होगी! किन्तु अब यह उनींदापन पर्यटन व्यवसाय के चलते समाप्त हो गया है। आप होटल में जाइए तो दोपहर तीन-साढ़े तीन बजे तक खाना आराम से मिल जाता है। दूसरे गोवा की प्रसिद्ध काजू फैनी तो अब भी मिलती है, परन्तु इसके साथ-साथ देश-विदेश की उम्दा और घटिया हर तरह की मदिरा सुविधा से उपलब्ध हो जाती है। ग्राहक का संतोष ही हमारी सफलता है- इस मंत्र को गोवा के व्यापारी निश्चित रूप से जानते हैं।
यह संयोग ही था कि हमारी गोवा यात्रा उन दिनों हुई, जब वहां खासी गहमागहमी का माहौल था। सैलानियों का सीज़न तो था ही; भारत का अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव भी उन दिनों चल रहा था; साथ ही साथ संत फ्रांसिस ज़ेवियर की पार्थिव देह भी हर साल की तरह उन्हीं दिनों दर्शनार्थ बाहर निकाली गई थी। एक तरफ फिल्म महोत्सव में असम से लेकर केरल तक के सिनेप्रेमी जुटे थे, दूसरी तरफ संत के दर्शनों के लिए गोवा और निकटवर्ती क्षेत्रों से भक्तजन चले आ रहे थे। यह विशेष उल्लेखनीय है कि ये भक्त सिर्फ ईसाई नहीं, बल्कि हिंदू और अन्य धर्मों के भी थे और इनमें से अनेक पैदल यात्रा करके आ रहे थे। भारत की उदार-उदात्त लोकचेतना का यह एक प्रबल उदाहरण था।
पिछले एक दशक में गोवा की राजनीति में भी बदलाव आया है। यहां प्रारंभ से एक नागरिक चेतना रही है और ऐसे बहुत से जाने-माने व्यक्ति हैं जो सक्रिय राजनीति में न होकर भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी आवाज उठाने से नहीं चूकते। दूसरी तरफ शेष भारत की तरह यहां भी राजनीति में अवसरवादियों की कमी नहीं है। तीसरी ओर एक छोटा प्रदेश होकर भी यहां श्रमिक संगठन या कि ट्रेड यूनियनें काफी जीवंत हैं और उनका नेतृत्व प्रबुद्धजन कर रहे हैं। इस समय कांग्रेस का प्रभाव क्षीण है और यह दिलचस्प तथ्य है कि बहुत बड़ी संख्या में गोवा के बहुसंख्यक ईसाई भारतीय जनता पार्टी को वोट देते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर से जनता इसलिए खुश है कि उनके शासनकाल में प्रदेश में बहुत सारे विकास कार्य तेजी के साथ हुए। लोगों का कहना है कि पैसा खा के भी जो काम करे वह सही। कांग्रेस से उन्हें यही शिकायत है कि उसने काम नहीं किया।
जहां तक मैं जानता हूं भारत में दो ऐसे प्रदेश थे जहां के निवासी दोपहर में तीन घंटे सारा कामकाज बंद कर विश्राम करते थे। एक था उड़ीसा और दूसरा गोवा। दोपहर एक से चार तक सारी दुकानें बंद रहती थीं। यहां तक कि खाना भी नहीं मिलता था। उड़ीसा में यह परिपाटी कैसे पड़ी, नहीं मालूम, लेकिन गोवा में शायद पुर्तगाल की भूमध्य सागरीय जलवायु के असर से जन्मी परंपरा यहां भी आई होगी! किन्तु अब यह उनींदापन पर्यटन व्यवसाय के चलते समाप्त हो गया है। आप होटल में जाइए तो दोपहर तीन-साढ़े तीन बजे तक खाना आराम से मिल जाता है। दूसरे गोवा की प्रसिद्ध काजू फैनी तो अब भी मिलती है, परन्तु इसके साथ-साथ देश-विदेश की उम्दा और घटिया हर तरह की मदिरा सुविधा से उपलब्ध हो जाती है। ग्राहक का संतोष ही हमारी सफलता है- इस मंत्र को गोवा के व्यापारी निश्चित रूप से जानते हैं।
यह संयोग ही था कि हमारी गोवा यात्रा उन दिनों हुई, जब वहां खासी गहमागहमी का माहौल था। सैलानियों का सीज़न तो था ही; भारत का अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव भी उन दिनों चल रहा था; साथ ही साथ संत फ्रांसिस ज़ेवियर की पार्थिव देह भी हर साल की तरह उन्हीं दिनों दर्शनार्थ बाहर निकाली गई थी। एक तरफ फिल्म महोत्सव में असम से लेकर केरल तक के सिनेप्रेमी जुटे थे, दूसरी तरफ संत के दर्शनों के लिए गोवा और निकटवर्ती क्षेत्रों से भक्तजन चले आ रहे थे। यह विशेष उल्लेखनीय है कि ये भक्त सिर्फ ईसाई नहीं, बल्कि हिंदू और अन्य धर्मों के भी थे और इनमें से अनेक पैदल यात्रा करके आ रहे थे। भारत की उदार-उदात्त लोकचेतना का यह एक प्रबल उदाहरण था।
पिछले एक दशक में गोवा की राजनीति में भी बदलाव आया है। यहां प्रारंभ से एक नागरिक चेतना रही है और ऐसे बहुत से जाने-माने व्यक्ति हैं जो सक्रिय राजनीति में न होकर भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी आवाज उठाने से नहीं चूकते। दूसरी तरफ शेष भारत की तरह यहां भी राजनीति में अवसरवादियों की कमी नहीं है। तीसरी ओर एक छोटा प्रदेश होकर भी यहां श्रमिक संगठन या कि ट्रेड यूनियनें काफी जीवंत हैं और उनका नेतृत्व प्रबुद्धजन कर रहे हैं। इस समय कांग्रेस का प्रभाव क्षीण है और यह दिलचस्प तथ्य है कि बहुत बड़ी संख्या में गोवा के बहुसंख्यक ईसाई भारतीय जनता पार्टी को वोट देते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर से जनता इसलिए खुश है कि उनके शासनकाल में प्रदेश में बहुत सारे विकास कार्य तेजी के साथ हुए। लोगों का कहना है कि पैसा खा के भी जो काम करे वह सही। कांग्रेस से उन्हें यही शिकायत है कि उसने काम नहीं किया।
देशबन्धु में 11 दिसंबर 2014 को प्रकाशित
सैरगाहों से हटकर जो गोवा है वह यहां देखने मिला।
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