नया साल प्रारंभ होने पर खुशियां इस उम्मीद से मनाई जाती
हैं कि आने वाला साल गुजरे वर्ष की तुलना में बेहतर होगा। बेहतर होने की इस
कल्पना में तमाम बातें आ जाती हैं- निजी जीवन, निजी संबंध, घर-परिवार,
मोहल्ला-पड़ोस, नौकरी-व्यापार, आर्थिक स्थिति इत्यादि। अगर निजी बातों को
छोड़ दिया जाए तो आने वाले दिनों को बेहतर बनाने की बहुत बड़ी जिम्मेवारी
सरकार की होती है। खासकर उस व्यवस्था में जहां सरकार को चुनती है और अपनी
आशा-आकांक्षाओं को पाने के लिए एक सुचारु व्यवस्था निर्मित करने का दायित्व
उसे सौंप देती है। फिर यह सत्ता पर काबिज लोगों को सोचना है कि आम आदमी को
रोटी, कपड़ा, मकान कैसे मुहैय्या करवाया जाए। यह मुहावरे की बात हुई,
परन्तु इसमें शांति, सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि तमाम बिंदु शुमार हैं।
इस दृष्टि से गौर करें तो शंका होती है कि 2015 का साल पहिले से बेहतर
बीतेगा।
यहां हम दो खास बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं- शिक्षा और स्वास्थ्य। पाठकों को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि भारत उन दो सौ देशों में है, जिन्होंने सन् 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निर्धारित सहस्राब्दी लक्ष्य (एम.डी.जी.) के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे। इस अनुबंध में सन् 2015 तक याने पंद्रह वर्षों के दौरान कुछ जनहितैषी लक्ष्य हासिल करने का संकल्प लिया गया था, जिनमें शिक्षा व स्वास्थ्य सर्वोपरि थे। भारत ने करार किया था कि देश के सकल घरेलू उत्पाद याने जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर व 3 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च किया जाएगा, ताकि प्राथमिक शिक्षा व बुनियादी चिकित्सा सुविधा का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंच सके। अधिकतर देश इस संकल्प के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाए हैं और अब 2015 प्लस का नया नारा लेकर आगे बढऩे की बात हो रही है। हम अन्य देशों के साथ अपनी तुलना नहीं करना चाहते। भारत तो आज महाशक्ति बनने के सपने देख रहा है। उसकी संकल्प शक्ति क्यों कमजोर पड़े? अगर यूपीए ने इस दिशा में ध्यान दिया होता तो शायद उसे ये दुर्दिन न देखना पड़ते लेकिन भाजपा के मुखर नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार का भी वांछित ध्यान इस ओर नहीं है।
हमारे लिए यह खबर अत्यन्त चिंताजनक है कि भारत सरकार ने आने वाले समय के लिए अपने स्वास्थ बजट में बीस प्रतिशत की कटौती कर दी है। याने 3 प्रतिशत जीडीपी की बात तो दूर रही, जितना है उसमें भी पीछे जा रहे हैं। अनुमान होता है कि स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को बढ़ावा देने की दुरभिसंधि तो कहीं इस निर्णय के पीछे नहीं है? सहस्राब्दी लक्ष्य की मंशा के मुताबिक जनता को स्वास्थ्य का अधिकार तो पहले से ही दिया जा चुका है, किन्तु जो नीतियां बन रही हैं उनमें एक तरफ दवा कंपनियां और दूसरी ओर निजी क्षेत्र के अस्पतालों को ही बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके अलावा विदेशी बीमा कंपनियों के माध्यम से स्वास्थ्य बीमा को भी बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित किया जा रहा है। इन सबका मिला-जुला परिणाम यह है कि सरकारी अस्पताल दुगर्ति को प्राप्त हो रहे हैं। डॉक्टरों की दिलचस्पी अपने-अपने अस्पताल खोलने में है। आंख फोड़ कांड, गर्भाशय कांड, नसबंदी कांड आदि छत्तीसगढ़ में ही नहीं, पूरे देश में हो रहे हैं। इलाज करवाना अनावश्यक रूप से महंगा हो गया है व दवाईयों की कीमतें मनमानी बढ़ रही हैं। ऐसे में एक आम आदमी 2015 में बेहतर स्वास्थ्य की कल्पना कैसे कर सकता है?
शिक्षा के क्षेत्र में भी स्थिति बेहतर नहीं है। देश में प्राथमिक स्तर पर लाखों शिक्षकों की कमी है। सब प्रांतों में ठेके पर शिक्षक नियुक्त किए जा रहे हैं भले ही उनका पदनाम कुछ भी हो। इन शिक्षकों के प्रशिक्षण की भी समुचित व्यवस्था नहीं है। सरकारी स्कूलों पर से लोगों का भरोसा लगभग उठ गया है। वहां वे ही बच्चे पढ़ते हैं जो सब तरफ से मजबूर हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी ऐसी ही बुरी हालत है। युवा मानव संसाधन विकास मंत्री से अपेक्षा थी कि वे वयोचित उत्साह और कल्पनाशीलता के साथ व्यवस्था को सुधारने के लिए उपक्रम करेंगी। लेकिन उनका पूरा समय अनावश्यक विवादों में जा रहा है। वे भले ही कम शिक्षित हों, लेकिन एक राजनेता से अपेक्षित सहज बुद्धि का भी अभाव उनके कामकाज में दिखाई देता है। पंडित नेहरू के समय में स्थापित जिन आदर्श शिक्षण संस्थाओं से निकलकर अनेकानेक भारतीयों ने दूर देशों में जाकर पैसा कमाया, शोहरत हासिल की और जो आगे चलकर जो भाजपा के सबसे बड़े समर्थक हुए, उन श्रेष्ठ संस्थाओं की स्वायत्तता खत्म की जा रही है। देश की शिक्षा नीति अब वे लोग बना रहे हैं जिन्हें कूपमंडूक की संज्ञा दी जा रही है। ऐसे में आम आदमी के सामने 2015 में बेहतर शिक्षा हासिल करने के अवसर भी कहां हैं?
हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को धन्यवाद देंगे यदि वे बिगड़ते हालात को दुरुस्त करते समय रहते आवश्यक कदम उठा सकें।
यहां हम दो खास बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं- शिक्षा और स्वास्थ्य। पाठकों को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि भारत उन दो सौ देशों में है, जिन्होंने सन् 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निर्धारित सहस्राब्दी लक्ष्य (एम.डी.जी.) के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे। इस अनुबंध में सन् 2015 तक याने पंद्रह वर्षों के दौरान कुछ जनहितैषी लक्ष्य हासिल करने का संकल्प लिया गया था, जिनमें शिक्षा व स्वास्थ्य सर्वोपरि थे। भारत ने करार किया था कि देश के सकल घरेलू उत्पाद याने जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर व 3 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च किया जाएगा, ताकि प्राथमिक शिक्षा व बुनियादी चिकित्सा सुविधा का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंच सके। अधिकतर देश इस संकल्प के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाए हैं और अब 2015 प्लस का नया नारा लेकर आगे बढऩे की बात हो रही है। हम अन्य देशों के साथ अपनी तुलना नहीं करना चाहते। भारत तो आज महाशक्ति बनने के सपने देख रहा है। उसकी संकल्प शक्ति क्यों कमजोर पड़े? अगर यूपीए ने इस दिशा में ध्यान दिया होता तो शायद उसे ये दुर्दिन न देखना पड़ते लेकिन भाजपा के मुखर नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार का भी वांछित ध्यान इस ओर नहीं है।
हमारे लिए यह खबर अत्यन्त चिंताजनक है कि भारत सरकार ने आने वाले समय के लिए अपने स्वास्थ बजट में बीस प्रतिशत की कटौती कर दी है। याने 3 प्रतिशत जीडीपी की बात तो दूर रही, जितना है उसमें भी पीछे जा रहे हैं। अनुमान होता है कि स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को बढ़ावा देने की दुरभिसंधि तो कहीं इस निर्णय के पीछे नहीं है? सहस्राब्दी लक्ष्य की मंशा के मुताबिक जनता को स्वास्थ्य का अधिकार तो पहले से ही दिया जा चुका है, किन्तु जो नीतियां बन रही हैं उनमें एक तरफ दवा कंपनियां और दूसरी ओर निजी क्षेत्र के अस्पतालों को ही बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके अलावा विदेशी बीमा कंपनियों के माध्यम से स्वास्थ्य बीमा को भी बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित किया जा रहा है। इन सबका मिला-जुला परिणाम यह है कि सरकारी अस्पताल दुगर्ति को प्राप्त हो रहे हैं। डॉक्टरों की दिलचस्पी अपने-अपने अस्पताल खोलने में है। आंख फोड़ कांड, गर्भाशय कांड, नसबंदी कांड आदि छत्तीसगढ़ में ही नहीं, पूरे देश में हो रहे हैं। इलाज करवाना अनावश्यक रूप से महंगा हो गया है व दवाईयों की कीमतें मनमानी बढ़ रही हैं। ऐसे में एक आम आदमी 2015 में बेहतर स्वास्थ्य की कल्पना कैसे कर सकता है?
शिक्षा के क्षेत्र में भी स्थिति बेहतर नहीं है। देश में प्राथमिक स्तर पर लाखों शिक्षकों की कमी है। सब प्रांतों में ठेके पर शिक्षक नियुक्त किए जा रहे हैं भले ही उनका पदनाम कुछ भी हो। इन शिक्षकों के प्रशिक्षण की भी समुचित व्यवस्था नहीं है। सरकारी स्कूलों पर से लोगों का भरोसा लगभग उठ गया है। वहां वे ही बच्चे पढ़ते हैं जो सब तरफ से मजबूर हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी ऐसी ही बुरी हालत है। युवा मानव संसाधन विकास मंत्री से अपेक्षा थी कि वे वयोचित उत्साह और कल्पनाशीलता के साथ व्यवस्था को सुधारने के लिए उपक्रम करेंगी। लेकिन उनका पूरा समय अनावश्यक विवादों में जा रहा है। वे भले ही कम शिक्षित हों, लेकिन एक राजनेता से अपेक्षित सहज बुद्धि का भी अभाव उनके कामकाज में दिखाई देता है। पंडित नेहरू के समय में स्थापित जिन आदर्श शिक्षण संस्थाओं से निकलकर अनेकानेक भारतीयों ने दूर देशों में जाकर पैसा कमाया, शोहरत हासिल की और जो आगे चलकर जो भाजपा के सबसे बड़े समर्थक हुए, उन श्रेष्ठ संस्थाओं की स्वायत्तता खत्म की जा रही है। देश की शिक्षा नीति अब वे लोग बना रहे हैं जिन्हें कूपमंडूक की संज्ञा दी जा रही है। ऐसे में आम आदमी के सामने 2015 में बेहतर शिक्षा हासिल करने के अवसर भी कहां हैं?
हम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को धन्यवाद देंगे यदि वे बिगड़ते हालात को दुरुस्त करते समय रहते आवश्यक कदम उठा सकें।
देशबन्धु सम्पादकीय 31 दिसंबर 2014
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