क्या राजस्थान के उन तेईस भाजपा विधायकों
की सदस्यता निरस्त कर देना चाहिए जो आठवीं पास भी नहीं है? यह सवाल इसलिए
उठता है कि प्रदेश की भाजपा सरकार ने हाल में एक अध्यादेश लाकर पंचायत
उम्मीदवारों के लिए आठवीं पास होने की शर्त अनिवार्य कर दी है। इसी तरह
जिला पंचायत व जनपद पंचायत का चुनाव लडऩे के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता
शायद हाई स्कूल पास रख दी गई है। जब ऐसा है तब तो विधायक पद के लिए
उम्मीदवार को कम से कम बी.ए. डिग्रीधारी तो होना ही चाहिए। अभी तो अध्यादेश
के रास्ते से सरकार ने यह प्रावधान कर दिया है, किंतु जब इसे विधानसभा में
बाकायदा अधिनियम का रूप देने का समय आएगा, तब सरकार क्या करेगी? वसुंधरा
राजे के पास प्रबल बहुमत है, इसलिए उन्हें कानून बनाने में अड़चन तो नहीं
होगी, लेकिन प्रदेश की भाजपा सरकार की दोहरी नीति अवश्य उस वक्त प्रकट हो
जाएगी। दरअसल, वसुंधरा राजे अपनी दूसरी पारी में ताबड़तोड़ ऐसे निर्णय ले
रही हैं जिनसे सुविधाभोगी जमात प्रसन्न हो सके, लेकिन उन्हें शायद ध्यान
नहीं है कि ऐसा करने से बहुसंख्यक मेहनतकश समाज की जनतांत्रिक आकांक्षाओं
का निरादर हो रहा है।
यह तर्क उचित ही है कि सांसद, विधायक या पंच-सरपंच बनने के लिए कुछ न्यूनतम अहर्ताएं हों, लेकिन औपचारिक शिक्षा को ही अनिवार्य तथा सर्वप्रमुख योग्यता क्यों माना जाए? यह सोच एक तरफ तो मनुष्य की सहज बुद्धि की अवज्ञा करती है, दूसरी तरफ इसमें भारत की सामाजिक संरचना के प्रति अवहेलना का भाव प्रकट होता है एवं तीसरी ओर अभिजात एवं सम्पन्न वर्ग की वर्चस्ववादी नीति का प्रतिबिंब भी देखने मिलता है। यह सब जानते हैं कि भारत में औपचारिक शिक्षा का ढांचा कितना कमजोर और गरीब विरोधी है। अनिवार्य शिक्षा कानून लागू हो जाने के बाद भी उसका उल्लंघन कदम-कदम पर हो रहा है। आज़ादी के समय साक्षरता और शिक्षा की जो दर थी उसमें काफी बढ़ोतरी हुई है, फिर भी संपूर्ण साक्षरता का लक्ष्य अभी तक हासिल नहीं किया जा सका है। भारत ने सहस्राब्दी लक्ष्य के प्रति जो प्रतिबद्धता जाहिर की थी उस पर भी वह खरा नहीं उतरा है।
हमें यह भी पता है कि उत्तर भारत के राजस्थान इत्यादि प्रदेशों में स्थिति और भी चिंताजनक है। आदिवासी, दलित और महिलाओं के साक्षर-शिक्षित होने का लक्ष्य पाने के लिए तो अभी लंबा सफर तय करना है। ऐसे में जहां इन वर्गों के लिए पंचायती राज में आरक्षण है वहां आठवीं पास उम्मीदवार कहां से आएंगे? इस व्यवहारिक पहलू पर वसुंधरा सरकार का ध्यान शायद नहीं गया है। दुर्भाग्य से राजस्थान का अनुसरण छत्तीसगढ़ भी कर रहा है जहां पंचायती राज चुनाव के लिए प्रत्याशियों के लिए साक्षर होना अनिवार्य कर दिया गया है। गनीमत है कि साक्षर को अभी परिभाषित नहीं किया गया है। याने अगर हस्ताक्षर करना आता है तो शायद उतने से काम चल जाएगा। यहां प्रश्न उठता है कि क्या शिक्षा सिर्फ वही है जो स्कूली किताबों से मिलती है? इस प्रश्न की पेचीदगी को उन शिक्षाविदों ने समझा है जो देश के साक्षरता अभियान में सक्रिय रहे हैं।
केन्द्र सरकार का संपूर्ण साक्षरता अभियान ताईद करता है कि जो लोग स्कूल नहीं गए हैं वे अन्य तरह से शिक्षित हैं। एक किसान फसल, बीज, मिट्टी, मौसम के बारे में जितना जानता है वह उसका विशिष्ट ज्ञान है। यही बात उन तमाम लोगों पर लागू होती है जो निरक्षर होने के बावजूद अपने-अपने पेशे में हुनरमंद हैं। ऐसे लोगों के लिए ही राष्ट्रीय साक्षरता अभियान ने समतुल्यता परीक्षा की व्यवस्था की है। मोटे तौर पर इसके तहत अपने हस्ताक्षर कर पाने वाली एक किसान औरत पांचवीं, आठवीं या बारहवीं के बराबर शिक्षित मानी जा सकती है। क्या राज्य सरकार ने इस बात को ध्यान में रखा है? दूसरी बात, जब आप पंचायत प्रतिनिधि के लिए न्यूनतम शिक्षा की शर्त रखते हैं तो यही शर्त उन लोगों के लिए क्यों नहीं लागू होती जो सांसद और विधायक हैं? एक निरक्षर विधायक पंच बनने के लिए साक्षरता की शर्त किस नैतिक अधिकार से लगा सकता है?
दरअसल पंचायती राज के प्रति हमारी सरकारें गंभीर नहीं हैं। 73वें और 74वें संविधान संशोधन विधेयक के जरिए राज्य सरकारों को पंचायतों के कामकाज में हस्तक्षेप करने की बड़ी छूट दे दी गई है। इसके चलते पंचायती राज व्यवस्था राज्य सरकारों की दया पर निर्भर हो गई है। इसलिए कभी मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार दो बच्चों से ज्यादा होने पर चुनाव लडऩे पर प्रतिबंध लगा देती है तो कभी राजस्थान की भाजपा सरकार ऐसा निर्णय ले लेती है। सांसद और विधायक भी पंचों-सरपंचों को किसी गिनती में नहीं रखते। यह एक बड़ी विसंगति है। हम मानते हैं कि अगर पंचगण शिक्षित हों तो वह बेहतर है, लेकिन जब हम देखते हैं कि हमारे द्वारा चुनकर भेजे गए लोग शिक्षित होने के बावजूद किस तरह का आचरण कर रहे हैं तब यह एकमात्र शर्त संदिग्ध हो जाती है।
यह तर्क उचित ही है कि सांसद, विधायक या पंच-सरपंच बनने के लिए कुछ न्यूनतम अहर्ताएं हों, लेकिन औपचारिक शिक्षा को ही अनिवार्य तथा सर्वप्रमुख योग्यता क्यों माना जाए? यह सोच एक तरफ तो मनुष्य की सहज बुद्धि की अवज्ञा करती है, दूसरी तरफ इसमें भारत की सामाजिक संरचना के प्रति अवहेलना का भाव प्रकट होता है एवं तीसरी ओर अभिजात एवं सम्पन्न वर्ग की वर्चस्ववादी नीति का प्रतिबिंब भी देखने मिलता है। यह सब जानते हैं कि भारत में औपचारिक शिक्षा का ढांचा कितना कमजोर और गरीब विरोधी है। अनिवार्य शिक्षा कानून लागू हो जाने के बाद भी उसका उल्लंघन कदम-कदम पर हो रहा है। आज़ादी के समय साक्षरता और शिक्षा की जो दर थी उसमें काफी बढ़ोतरी हुई है, फिर भी संपूर्ण साक्षरता का लक्ष्य अभी तक हासिल नहीं किया जा सका है। भारत ने सहस्राब्दी लक्ष्य के प्रति जो प्रतिबद्धता जाहिर की थी उस पर भी वह खरा नहीं उतरा है।
हमें यह भी पता है कि उत्तर भारत के राजस्थान इत्यादि प्रदेशों में स्थिति और भी चिंताजनक है। आदिवासी, दलित और महिलाओं के साक्षर-शिक्षित होने का लक्ष्य पाने के लिए तो अभी लंबा सफर तय करना है। ऐसे में जहां इन वर्गों के लिए पंचायती राज में आरक्षण है वहां आठवीं पास उम्मीदवार कहां से आएंगे? इस व्यवहारिक पहलू पर वसुंधरा सरकार का ध्यान शायद नहीं गया है। दुर्भाग्य से राजस्थान का अनुसरण छत्तीसगढ़ भी कर रहा है जहां पंचायती राज चुनाव के लिए प्रत्याशियों के लिए साक्षर होना अनिवार्य कर दिया गया है। गनीमत है कि साक्षर को अभी परिभाषित नहीं किया गया है। याने अगर हस्ताक्षर करना आता है तो शायद उतने से काम चल जाएगा। यहां प्रश्न उठता है कि क्या शिक्षा सिर्फ वही है जो स्कूली किताबों से मिलती है? इस प्रश्न की पेचीदगी को उन शिक्षाविदों ने समझा है जो देश के साक्षरता अभियान में सक्रिय रहे हैं।
केन्द्र सरकार का संपूर्ण साक्षरता अभियान ताईद करता है कि जो लोग स्कूल नहीं गए हैं वे अन्य तरह से शिक्षित हैं। एक किसान फसल, बीज, मिट्टी, मौसम के बारे में जितना जानता है वह उसका विशिष्ट ज्ञान है। यही बात उन तमाम लोगों पर लागू होती है जो निरक्षर होने के बावजूद अपने-अपने पेशे में हुनरमंद हैं। ऐसे लोगों के लिए ही राष्ट्रीय साक्षरता अभियान ने समतुल्यता परीक्षा की व्यवस्था की है। मोटे तौर पर इसके तहत अपने हस्ताक्षर कर पाने वाली एक किसान औरत पांचवीं, आठवीं या बारहवीं के बराबर शिक्षित मानी जा सकती है। क्या राज्य सरकार ने इस बात को ध्यान में रखा है? दूसरी बात, जब आप पंचायत प्रतिनिधि के लिए न्यूनतम शिक्षा की शर्त रखते हैं तो यही शर्त उन लोगों के लिए क्यों नहीं लागू होती जो सांसद और विधायक हैं? एक निरक्षर विधायक पंच बनने के लिए साक्षरता की शर्त किस नैतिक अधिकार से लगा सकता है?
दरअसल पंचायती राज के प्रति हमारी सरकारें गंभीर नहीं हैं। 73वें और 74वें संविधान संशोधन विधेयक के जरिए राज्य सरकारों को पंचायतों के कामकाज में हस्तक्षेप करने की बड़ी छूट दे दी गई है। इसके चलते पंचायती राज व्यवस्था राज्य सरकारों की दया पर निर्भर हो गई है। इसलिए कभी मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार दो बच्चों से ज्यादा होने पर चुनाव लडऩे पर प्रतिबंध लगा देती है तो कभी राजस्थान की भाजपा सरकार ऐसा निर्णय ले लेती है। सांसद और विधायक भी पंचों-सरपंचों को किसी गिनती में नहीं रखते। यह एक बड़ी विसंगति है। हम मानते हैं कि अगर पंचगण शिक्षित हों तो वह बेहतर है, लेकिन जब हम देखते हैं कि हमारे द्वारा चुनकर भेजे गए लोग शिक्षित होने के बावजूद किस तरह का आचरण कर रहे हैं तब यह एकमात्र शर्त संदिग्ध हो जाती है।
देशबन्धु सम्पादकीय 29 दिसंबर 2014
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