Thursday 25 December 2014

मुख्यमंत्री कौन हो?


 जम्मू-काश्मीर एवं झारखण्ड दोनों प्रदेशों में विधानसभा चुनाव तो सम्पन्न हो गए हैं। अब बड़ा सवाल यह है कि दोनों जगह मुख्यमंत्री कौन बने? झारखण्ड में भाजपा के सामने कोई खास परेशानी नहीं है। वहां तीन गैर-आदिवासी नेता मुख्यमंत्री पद की दौड़ में हैं और ऐसा तय माना जा रहा है कि वरिष्ठ और अनुभवी रघुवर दास को ही पार्टी द्वारा मनोनीत किया जाएगा। झारखण्ड में भाजपा पर गैर-आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाने का दबाव शुरू से ही रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के चुनाव हारने से ऐसा सोचने वालों की राह सरल हो गई है, लेकिन ऐसा करके भाजपा यहां एक अलग तरह का अवसर गंवा रही है। निवर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भाजपा की एक अन्य वरिष्ठ नेता डॉ. लुई मरांडी ने हराया है। अगर उन्हें मौका दिया जाता तो झारखण्ड को एक आदिवासी के अलावा प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री पदासीन करने का श्रेय मिल जाता और इसका शायद एक सही संकेत भी जाता।

बहरहाल लाख टके का सवाल तो जम्मू-काश्मीर का है। यहां तरह-तरह के समीकरण प्रस्तावित किए जा रहे हैं। पीडीपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है अत: पहला मौका उसे ही मिलना चाहिए, किन्तु बहुमत हासिल करने के लिए वह किसके साथ जाए? पीडीपी और भाजपा दोनों पर अनेक हल्कों से दबाव पड़ रहा है, कि वे मिलजुल कर सरकार बना लें। इससे क्षेत्रीय असंतुलन की समस्या भी समाप्त हो जाएगी और भाजपा को जम्मू के अलावा घाटी में भी अपने पैर जमाने का मौका मिल जाएगा। लेकिन यह कैसे हो? अगर पीडीपी राजी हो भी जाए तो इसका प्रदेश की बहुसंख्यक जनता के बीच क्या संदेश जाएगा? काश्मीर घाटी में तो भाजपा को दूर रखने के लिए ही तो लोगों ने पीडीपी को वोट दिए हैं। इसके अलावा ऐसे बहुत से पेचीदे मुद्दे हैं जिन पर दोनों पार्टियों में कभी एक राय कायम नहीं हो सकती। पीडीपी के लिए भाजपा को साथ लेना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा। मुफ्ती साहब जैसा अनुभवी नेता जानते हैं कि भाजपा कैसे एक-एक कर अपने सहयोगी दल को लीलती गई है।

दूसरा विकल्प भाजपा और नेशनल कांफ्रेंस के साथ मिलकर सरकार बनाने का है। इसके लिए उमर अब्दुल्ला शायद प्रतीक्षा भी कर रहे होंगे! दोनों के पास मिलाकर चालीस सीट हो जाती हैं। अगर इनको सज्जाद लोन के दो व दो निर्दलियों का साथ मिल जाए तो सरकार आसानी से बन सकती है। यहां भाजपा के सामने यह परेशानी हो सकती है कि जिस नेशनल कांफ्रेंस को मतदाताओं ने नकार दिया हो क्या उसका साथ लेना उचित होगा? लेकिन व्यवहारिक राजनीति में ऐसे नैतिक प्रश्न अक्सर बेमानी हो जाते हैं। इसलिए संभावना तो बनती है किन्तु इसका संदेश मतदाताओं के बीच सही नहीं जाएगा यह आशंका अपनी जगह बरकरार है।

पीडीपी के सामने दो और विकल्प हैं। एक तो वह नेशनल कांफ्रेंस के साथ मिलकर सरकार का गठन कर सकती है। इसके लिए बरसों से चली आ रही अदावत को भुलाकर हाथ मिलाना होगा। यह दूर की कौड़ी लगती है और यहां फिर नेकां की वर्तमान छवि का सवाल उठता है। एक अन्य विकल्प है कि पीडीपी और कांग्रेस मिलकर सरकार बनाएं। इसके अलावा मुफ्ती मोहम्मद सईद पुराने कांगे्रसी हैं। वे कांग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार चला भी चुके हैं तो शायद एक बार फिर वह प्रयोग दोहराया जा सके!

पीडीपी के सामने एक अल्पमत सरकार गठित करने का रास्ता भी खुला हुआ है। वे अपने अठाइस सदस्यों के साथ सरकार बनाएं चाहें तो एकमात्र विधायक युसूफ तारीगामी वाली माकपा और दो-तीन निर्दलीय अथवा छोटी पार्टी वाले विधायकों  को लेकर गठजोड़ कर लें। इस सरकार को नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस दोनों बाहर से समर्थन देते हैं। यदि नेकां समर्थन न भी दें तो भी कांग्रेस के समर्थन से सरकार चल सकती है, ऐसा अनुमान होता है। खैर! सरकार जैसी भी बने, एक और मौंजू सवाल यहां उभरता है।

इस पूरी तस्वीर में इस तथ्य को रेखांकित करना जरूरी है कि अगर भाजपा सरकार से दूर रहती है तब भी उसे विधानसभा में विपक्षी दल की मान्यता तो मिलना ही है। इस हैसियत से प्रदेश की राजनीति में भाजपा क्या भूमिका निभाएगी? काश्मीर घाटी और लद्दाख में मिली जबरदस्त मार के बाद उसे यह तो समझ आ गया होगा कि यह सीमांत प्रदेश उसकी बुनियादी सोच और उसूलों को पसंद नहीं करता। इसे जानते हुए भी वह अपने रुख में कोई नरमी लाने के लिए तैयार शायद ही होगी। ऐसे में उसका एजेण्डा हो सकता है कि वह जम्मू-काश्मीर प्रांत के पुनर्गठन की बात सोचे व पृथक जम्मू व पृथक लद्दाख प्रांत बनाने की दिशा में कार्रवाई करने के लिए सन्नद्ध हो। आगे क्या होता है इस पर राजनीतिक पर्यवेक्षकों की नज़र रहेगी।
देशबन्धु सम्पादकीय 26 दिसंबर 2014

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