ऐसा क्यों होता है कि कुछ प्रसंग हमेशा के लिए स्मृतिकोष में सुरक्षित हो जाते हैं! अशोक सेक्सरिया से मेरी पहली मुलाकात का प्रसंग भी कुछ ऐसा ही है। श्रीकांत वर्मा ने दिल्ली में दिनमान के दफ्तर में मुझे उनसे मिलवाया था। यह 1967 की बात है। मैं श्रीकांत जी से मिलने गया था और तभी अशोक जी उनसे मिलने आ गए थे। जहां तक मुझे याद है दोनों एक ही इमारत की एक ही मंजिल पर काम करते थे। श्रीकांत जी दिनमान में उपसंपादक थे और अशोक जी दैनिक हिन्दुस्तान के संपादकीय विभाग में थे। वे एक कथाकार के रूप में तब तक प्रसिद्धि पा चुके थे। मैंने उनकी कुछ कहानियां पढ़ रखी थीं। मुझ तरुण के लिए एक चर्चित लेखक से मिल पाना प्रसन्नता का ही विषय था। उस दिन हम लोग कोई आधा घण्टा साथ में बैठे होंगे। इसके बाद उनके साथ यदा-कदा भेंट तो हुई, लेकिन ऐसी नहीं कि जिसका कोई खास जिक्र किया जा सके।
एक समय पता चला कि वे दिल्ली छोड़कर कोलकाता वापिस जा चुके हैं। हमारे परिचय को तब ताजा करवाया उनके अभिन्न मित्र और दूसरे समर्थ कथाकार प्रबोध कुमार ने। इस बीच अशोक जी का जीवन एक नए माहौल में ढल चुका था। वे यूं तो देश के एक प्रतिष्ठित व्यवसायिक घराने से ताल्लुक रखते थे, लेकिन विरासत में प्राप्त वैभव का उपयोग करने अथवा व्यवसाय को बढ़ाने के प्रति उनकी कोई रुचि नहीं थी। लक्ष्मी उन्हें बांधकर कभी नहीं रख सकी। इतना मैं जानता हूं कि वे शुरु से ही समाजवादी राजनीति से, खासकर डॉ. राममनोहर लोहिया से, बहुत ज्यादा प्रभावित थे तथा अंतिम समय तक समाजवादी मूल्यों के लिए जीते रहे।
कोलकाता में उनके परिवार की विशाल कोठी थी। उन्होंने एक कमरे को ही अपना घरौंदा बना लिया था। उन्होंने विवाह तो किया ही नहीं था। उनकी अपनी जरूरतें भी बहुत सीमित थीं। उनके इस कमरे में चारों तरफ किताबें थीं। बीच में एक पलंग या तख्त पर उनका आसन हुआ करता था। कोलकाता के उमस भरे मौसम में भी वे एक पुराने पंखे से ही अपना काम चलाते थे। पढऩे के अलावा उनको अगर कोई लत थी तो शायद बीड़ी पीने की। अपने इस एकांत में उन्होंने कुछ ऐसे काम किए जिनके लिए हिन्दी जगत उनका ऋणी रहेगा।
हिन्दी पाठक रोशनाई प्रकाशन नामक प्रतिष्ठान से संभवत: परिचित होंगे। यहां से अनेक उत्कृष्ट कृतियां सस्ते दामों पर लगातार प्रकाशित होती रही हैं। बेबी हालदार की विश्व प्रसिद्ध आत्मकथा 'आलो आंधरि' भी सबसे पहले पहल यहीं से छपी। इस प्रकाशनगृह के कर्ताधर्ता संजय भारती बता सकते हैं कि सस्ते दामों पर साहित्य प्रकाशित करने की प्रेरणा उन्हें अशोक सेक्सरिया से ही मिली। बेबी हालदार को लिखने की प्रेरणा प्रबोध कुमार ने दी, जबकि उसकी पुस्तक प्रकाशित करने में अशोक जी ने खासी भूमिका निभाई, लेकिन वे एक तरह से जीवन भर बेबी के संरक्षक या धर्मपिता का दायित्व भी निभाते रहे। उन्होंने एक काम और किया। सेक्सरिया परिवार के वाहन चालक महेन्द्र (शायद यही नाम था) और उसके माता-पिता को उन्होंने जोर देकर समझाया कि आज के समय में उचित नहीं है कि महेन्द्र की नवपरिणीता निरक्षर रही आए। उन्होंने उसे पहले स्कूल पढऩे भेजा और फिर एक दिन उसके हाथ में भी कलम थमा दी कि वह अपनी जीवन गाथा लिखे। सुशीला राय की 'एक अनपढ़ कहानी' यह पुस्तक भी रोशनाई से ही छपी है।
एक और दिलचस्प प्रसंग। कोलकाता स्थित भारतीय भाषा परिषद ने अपने परिसर में अंग्रेजी माध्यम शाला या किंडरगार्टन खोल दिया तो अशोक जी उसके खिलाफ धरने पर बैठ गए, जबकि परिषद के तमाम कर्ताधर्ता मित्र और उनके परिजन ही थे। 29 नवम्बर को अशोक सेक्सरिया के निधन के साथ हिन्दी ने एक सच्चे साधक को खो दिया, लेकिन मेरे लिए तो यह एक निजी हानि है।
इस दु:ख से उबर पाता इसके पहले एक और हृदय विदारक घटना हो गई। 4 दिसम्बर को डॉ. रमेशचन्द्र महरोत्रा का बिलासपुर में निधन हो गया। महरोत्रा जी ने एक अलग ढंग से असाधारण जीवन जिया। वे रविशंकर वि.वि. रायपुर के प्रारंभिक वर्षों में ही भाषा विज्ञान के प्राध्यापक बनकर आए थे। उनसे कब परिचय हुआ था यह तो मुझे याद नहीं लेकिन जब भी हुआ हो, यह परिचय दिनोंदिन प्रगाढ़ होते गया और आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं तो मैं एक रिक्ति महसूस कर रहा हूं।
रमेशचन्द्र महरोत्रा भाषा विज्ञान के उद्भट अध्येता थे। मैंने किसी दिन बात-बात में उन्हें कॉलम लिखने का प्रस्ताव दिया होगा और वे तुरंत राजी हो गए। उनका साप्ताहिक कॉलम 'दो शब्द' शायद बीस साल से भी अधिक समय तक देशबन्धु में हर रविवार को नियमत: प्रकाशित होते रहा तथा अपार लोकप्रिय हुआ। हिन्दी भाषा के प्रति रुचि जागृत करने एवं भाषा का सम्यक ज्ञान प्राप्त करने के लिए इस कॉलम की उपादेयता स्वयंसिद्ध थी। राजकमल प्रकाशन ने इस कॉलम के लेखों को पांच खंडों वाले वृहद ग्रंथ के रूप में कुछ साल पहले प्रकाशित किया। हिन्दी भाषा को वैज्ञानिक आधार लेकर लोकप्रिय बनाने में इस तरह महरोत्रा जी ने जो योगदान किया वह मेरी दृष्टि में अनुपमेय है।
महरोत्रा जी भाषा-शास्त्री थे इस नाते अपने विषय पर उन्होंने कुछ लिखा तो कहा जा सकता है कि यह कोई बड़ी बात नहीं थी, लेकिन वि.वि. में एक ऊंचे पद पर सुविधापूर्ण जीवन बिताने का अवसर आने के बाद भी जो अन्य काम किए, वे उन्हें अपने समकालीनों से अलग खड़ा कर देते हैं। यह जानकारी बहुतों के लिए आश्चर्यजनक होगी कि रमेशचन्द्र महरोत्रा ताउम्र साइकिल पर चलते रहे। कभी किसी झोंक में उन्होंने कार खरीदी होगी, तो उसे कभी चलाया नहीं और बेटी संज्ञा ससुराल गई तो कार भी पीछे-पीछे भेज दी गई। महरोत्रा दंपत्ति ने भी अपनी निजी जरूरतें बहुत सीमित कर रखी थीं। उन्हें भौतिक सुविधाओं का लेशमात्र भी लोभ नहीं था। विश्वविद्यालय की प्रोफेसरी से जो वेतन भत्ते मिल रहे थे उसका एक थोड़ा सा हिस्सा ही वे अपने ऊपर खर्च करते थे, बाकी समाजसेवा के लिए सुरक्षित।
महरोत्रा दंपत्ति याने रमेशचन्द्र एवं उमा महरोत्रा ने विधवा व परित्यक्ताओं के सूखे जीवन में फिर से बहार आ सके इसका बीड़ा उठाया और रायपुर में विधवा विवाह केन्द्र की स्थापना की। हमारे रूढिग़्रस्त समाज में विधवा विवाह को सामाजिक स्वीकृति मिले, इस बारे में जनचेतना जागृत हो, इसके लिए उन्होंने देशबन्धु प्रतिभा प्रोसाहन कोष के माध्यम से छात्रवृत्तियां स्थापित कीं। यही नहीं, वे प्रदेश के पहले दंपत्ति थे जिन्होंने देहदान का संकल्प किया। यह निर्णय उन्होंने उस समय किया जब देहदान और नेत्रदान तो दूर, रक्तदान के संदर्भ में भी आम जनता के बीच तरह-तरह की भ्रांतियां थीं। इस तरह उन्होंने एक ओर जहां अपनी भौतिक संपदा को समाज के काम में लगाया वहीं अपने पार्थिव शरीर भी चिकित्सा शिक्षा के माध्यम से समाज के लिए दान कर दिए।
एक वर्ष पूर्व श्रीमती उमा महरोत्रा का बिलासपुर में निधन हो गया। तब मित्रों की सलाह थी कि बिलासपुर मेडिकल कॉलेज में उन्हेंं दान कर दिया जाए, लेकिन वे वचन के ऐसे पक्के कि रायपुर मेडिकल कॉलेज में देहदान का संकल्प किया था इसलिए पार्थिव देह यहीं लाएंगे। उनकी इसी भावना का पुन: सम्मान करते हुए महरोत्रा जी का शव लेकर बेटी संज्ञा और दामाद राजेश रायपुर आए और यहां मेडिकल कॉलेज में देहदान किया गया।
अशोक सेक्सरिया और रमेशचन्द्र महरोत्रा- दोनों की अलग पृष्ठभूमि, काम करने का अलग अंदाज, अलग-अलग समझ, लेकिन दोनों में यही उत्कट भावना थी कि मनुष्य जो कुछ है समाज के कारण है। इसलिए उसकी जो भी सामर्थ्य है वह समाज के वृहत्तर हित में लगना चाहिए। मेरा सौभाग्य कि मैं ऐसे दो जीवनदानियों के संपर्क में आया और दुर्भाग्य कि एक सप्ताह के अंतराल में इन दोनों अग्रज मित्रों को खो दिया।
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