सन् 1971 में पांचवी लोकसभा के लिए चुनाव संपन्न हुए। सामान्य तौर पर पांच साल बाद अर्थात 1976 में नए चुनाव होते। इस बीच आपातकाल लग चुका था और इंदिरा गांधी ने एकतरफा निर्णय लेते हुए लोकसभा की अवधि एक साल के लिए बढ़ा दी थी। इस अलोकतांत्रिक कदम का विरोध पक्ष-विपक्ष के किसी भी सदस्य ने नहीं किया, सिवाय दो अपवादों के। पहला अपवाद अनुभवी सांसद मधु लिमये थे, जिनका अनुकरण मात्र एक साल पहले उपचुनाव में जीतकर आए शरद यादव ने किया। उनका सीधा तर्क था कि जिस अवधि के लिए चुना गया है, उसके आगे पद पर बने रहने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। शरद यादव ने अपने संसदीय जीवन की शुरुआत में ही जिस नैतिक साहस का परिचय दिया, उसका पालन, जितना मैंने समझा है, वे अब तक कर रहे हैं। मैं अगर तुलना करना चाहूं तो ऐसे नैतिक साहस का परिचय सोनिया गांधी ने दिया था, जब लाभ का पद वाले मामले में उन्होंने लोकसभा से त्यागपत्र देने में एक दिन का भी विलंब नहीं किया और उपचुनाव में जीतकर दोबारा लोकसभा लौटीं। जबकि लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी जैसे व्यक्ति भी इस अवसर पर डगमगा गए थे।
शरद यादव में एक अनोखे किस्म का अक्खड़पन है, जिसे मैं उनकी छात्र राजनीति के दिनों से देखते आया हूं। पीवी नरसिंह राव के शासनकाल में हवाला प्रकरण जोर-शोर से उठा। उसमें बड़े-बड़े लोगों के नाम उछले, जो येन-केन प्रकारेण अपना बचाव करते नजर आए; तब शरद यादव राष्ट्रीय स्तर के एकमात्र ऐसे नेता थे, जिन्होंने खुलकर कहा कि हां, मैंने चंदा लिया था, राजनीति में हम लोगों को चंदा लेना ही होता है। एक तरफ लालकृष्ण आडवानी आदि थे, जो अपने बचाव के रास्ते ढूंढ रहे थे और दूसरी तरफ शरद की यह स्वीकारोक्ति जो उनकी चारित्रिक बुनावट को समझने में मदद करती है। यह भी उनका अक्खड़पन या अनोखापन है कि शरद यादव ने आज तक विदेश यात्रा नहीं की है। एक बार प्रधानमंत्री के निर्देश पर उन्हें चीन जाना पड़ा तो यात्रा बीच में ही स्थगित कर उन्हें लौटना पड़ गया।
शरद यादव के पिता कभी मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष हुआ करते थे। लेकिन शरद को राजनीति विरासत में नहीं मिली। वे जिस मुकाम पर हैं, वहां तक पहुंचने की राह उन्होंने स्वयं बनाई है। एक समय जबलपुर को मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक-शैक्षणिक राजधानी का दर्जा प्राप्त था। मध्यप्रदेश, महाकौशल और भोपाल अंचल के अधिकतर छात्र वहां पढ़ने आते थे। शरद ने वहीं से एक छात्रनेता के रूप में अपने राजनैतिक सफर की शुरुआत की। 1964 में समाजवादी पार्टी ने अपने युवा संगठन समाजवादी युवजन सभा की बुनियाद रखी थी। जिसके पहले अध्यक्ष प्रखर चिंतक किशन पटनायक थे।
शरद और उनके अनेक साथी युवजन सभा से तभी जुड़ गए थे तथा छात्र हितों के लिए आंदोलन करते हुए उन्होंने अपनी अलग पहचान बना ली थी। मैं तब तक रायपुर आ चुका था। लेकिन जब शरद युवजन सभा का गठन करने रायपुर आए तो वैचारिक मतभेदों के बावजूद युवजन सभा की रायपुर इकाई के गठन में मुझे मैत्रीधर्म का निर्वाह करना पड़ा। रमेश वर्ल्यानी ने 1977 में जब विधानसभा का पहला चुनाव लड़ा, तब अपने परिचय में उन्होंने लिखा था- ललित सुरजन की प्रेरणा से राजनीति में आया। खैर, यह विषयांतर हो गया। शरद यादव को छात्र राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति में आने के लिए ऊंची छलांग लगाने का मौका तब मिला, जब सेठ गोविंददास के निधन से जबलपुर लोकसभा सीट रिक्त हुई और उपचुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार रविमोहन के खिलाफ शरद यादव को संयुक्त विपक्ष का उम्मीदवार बनाया गया। शरद ने अपेक्षा के अनुरूप शानदार जीत दर्ज की। तब से अब तक उन्हें राष्ट्रीय रंगमंच पर आए 45 साल से अधिक हो चुके हैं।
यह राजनीति की विडंबना मानी जाएगी कि जिस शरद यादव को जबलपुर ने सिर माथे बिठाया था, उसी जबलपुर ने 1980 के लोकसभा चुनाव में उन्हें नकार दिया। 1977 में देश के मतदाता ने बड़ी उम्मीदों के साथ जनता पार्टी को अपना समर्थन दिया था, लेकिन साल बीतते न बीतते स्वप्न भंग की स्थिति उत्पन्न हो चुकी थी। इंदिरा गांधी ने अपनी खोई प्रतिष्ठा और लोकप्रियता फिर से हासिल कर ली थी। इसका खामियाजा शरद यादव जैसे कई नेताओं को भुगतना पड़ा। मेरा मानना है कि शरद भाई को इस पराजय से दुखी होकर अपनी जमीन छोड़ना नहीं चाहिए थी। उनका मन जबलपुर से उचट गया और वे अपना घर छोड़ दिल्ली चौधरी चरणसिंह की शरण में चले गए। चौधरी साहब ने शरद यादव को नए सिरे से राजनीतिक आधार बनाने में मदद की। ऐसा लगने लगा कि चौधरी साहब के बाद देश में किसानों का अगर कोई नेता होगा तो वे शरद यादव ही होंगे। मेरा अपना अनुमान है कि शरद यदि जबलपुर अथवा होशंगाबाद में बने रहते तो वे ये सम्मान हासिल कर सकते थे।
सच कहें तो शरद यादव की चित्तवृत्ति एक खांटी किसान की है। वे जब कहते हैं कि एक जनम में तो पूरा भारत नहीं घूम सकते तो विदेश जाकर क्या करेंगे, तब उनकी इसी सोच का परिचय मिलता है। यही नहीं इस 2020 के साल में भी शरद यादव पारंपरिक भारतीय वेशभूषा यानी धोती कुर्ता को ही अपनाए हुए हैं। उनके अलावा आज भला और कौन सा ऐसा नेता है जो कोई भी अवसर क्यों न हो, धोती-कुर्ते में नजर आता है। यहां मेरा मन अनायास उनकी तुलना चंदूलाल चंद्राकर से करने का होता है। चंदूलालजी ने पत्रकार के रूप में सौ से अधिक देशों की यात्राएं कीं, लेकिन अंतर्मन से वे किसान ही थे। धोती-कुर्ता और सफर में टीन की एक पेटी के साथ आप उन्हें देख सकते थे। वे जब नागरिक उड्डयन मंत्री थे, तब भी चेक-इन के समय सामान्य यात्रियों की तरह कतार में खड़े होते थे। शरद यादव का यह किसान मन ही है जो उन्हें देश के वंचित समाज के साथ जोड़ता है।
पिछली सदी के अंतिम वर्षों में एक दौर वह भी था जब वे देश में ओबीसी के सबसे बड़े नेता माने जाते थे। सत्ता के गलियारों में चर्चा होती थी कि ऐसे कम से कम 43 लोकसभा सदस्य हैं जो शरद यादव के कहने पर अपना वोट देते हैं। मुझे पता नहीं कि इसमें कितना सच है, लेकिन लालूप्रसाद, नीतीश कुमार और ऐसे कुछ अन्य नेताओं से मेरी भेंट शरद यादव के घर में ही हुई है।
शरद यादव को मध्यप्रदेश ने लगभग भुला दिया है लेकिन जैसा कि मैंने ऊपर संकेत किया है कि इसमें कुछ दोष तो स्वयं उनका है। 1980 की हार से विचलित होना स्वाभाविक था, लेकिन इसे उन्हें खिलाड़ी भावना से लेना चाहिए था। यह उनकी क्षमता थी कि उत्तरप्रदेश और बिहार के लगभग अपरिचित इलाकों में जाकर भी वे चुनावी जीत दर्ज कर सके, लेकिन कोई पूर्वाधार न होने के कारण इन जगहों पर वे स्थायी ठौर नहीं बना पाए। दूसरी ओर शरद के जाने के बाद महाकौशल की राजनैतिक पहचान लगभग समाप्त हो चुकी है। कमलनाथ भले ही छिंदवाड़ा से 10 बार चुनाव जीत गए हों, लेकिन न वे महाकौशल को अपना बना सके और न ही महाकौशल ने उन्हें स्वीकार किया। जो अन्य सांसद-विधायक आदि हैं, वे सत्ता की राजनीति में मगन हैं और आम जनता के साथ कोई लेना-देना नहीं है।
शरद यादव ने राष्ट्रीय राजनीति में एक लंबी पारी खेली है। इस दरम्यान उन्होंने एकाधिक बार नैतिक साहस का परिचय दिया है और कहना होगा कि उनके बारे में आज तक किसी तरह का राजनैतिक प्रवाद खड़ा नहीं हुआ। उन्होंने समय-समय पर विभिन्न मंत्रालय संभाले। उनके काम को लेकर भी कभी कोई प्रतिकूल बात सुनने नहीं मिली। शरद यादव आज भी राष्ट्रीय मुद्दों पर अपनी राय बेबाकी से प्रकट करते हैं। वे सैद्धांतिक रूप से अपनी मूल पार्टी यानी कांग्रेस के काफी निकट आते प्रतीत होते हैं। उन्हें करीब से जानने वाले प्रतीक्षा कर रहे हैं कि सोनिया या राहुल गांधी इस मित्र एवं सहयोगी की राजनैतिक सूझबूझ का लाभ किस तरह उठाते हैं।
(अगले सप्ताह जारी)
#देशबंधु में 27 अगस्त 2020 को प्रकाशित