Friday 7 August 2020

कविता: मील का पत्थर

 




घर के बाहर
एक मील का पत्थर था
जिस पर लिखी थी
नदी के पार गाँव की दूरी,
उस गाँव से आगे
नर्मदा के घाट की दूरी,
और नर्मदा के पार के
गाँव की दूरी,

घर के बाहर सड़क थी,
दो हाथ ऊंची नींव पर
बना था घर और
तीन सीढ़ियां उतरकर
मिलती थी सड़क,

सड़क के किनारे
नीम के पेड़ थे और
धोखे से आ गया था
कहीं से एक गुलमोहर,
झांई लाल फूलों की
या था अहंकार
सड़क को राह दिखाने का,
मील का सफेद पत्थर
लाल ही दिखता था,

सड़क जाती थी
नर्मदा के पार तक,
लेकिन बरसात में
गाँव की नदी पर
जा रुक जाती थी,
बरसात के पानी में
नहाती थी कच्ची सड़क,
और पूर आई नदी में
लापरवाह नहाता था रपटा,

धुआँधार से बेदम
उतरकर आती थी नर्मदा,
और बिना सांस लिए
चली जाती थी आगे
दोनों तरफ ज़मीन को
उर्वरा बनाते हुए,
बरसात के बाद
फिर बनती थी सड़क
काम पर लगती थी,
फिर छाती पर बोझ
उठाता था गांव की
नदी पर रपटा,
फिर नर्मदा के घाट पर
भरता था मेला और
फिर रास्ता दिखाता था
मील का पत्थर,

सड़क बनते-बनते
बहुत बनी, इतनी बनी
सड़क दो हाथ ऊँची हुई,
घर तीन सीढ़ी नीचे उतरा,
रपटा ऊंचा उठा, पुल बना
नर्मदा पर और ऊँचा पुल बना,
मील का पत्थर
धरती में धंसा, फिर भी
नदी पुल सड़क पर हंसा,

अब नहीं आता
नर्मदा को आवेश,
अब नहीं भिगोता
नदी को पहाड़ी का जल,
बिना डूबे रहा आता है
पुराना रपटा और
पुल को नहीं मिलता
टोल टैक्स के अलावा
एक लहर का भी स्पर्श,

धँसा मील का पत्थर
अब नहीं बताता
सड़क को दिशा और दूरी,
और सड़क सोचती है
कहां रह गई कसर
घर से दोस्ती करने में

16.02.1998

.....



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