बहुत बरस बीते
मैने कोई कविता नहीं लिखी,
क्या करता लिखकर,
लिखने से क्या होता,
मेरे आकुल मन में
भाव बहुत थे लेकिन
मैं उनको साध न पाया,
मेरे संचित धन में
शब्द बहुत थे लेकिन
मैं उनको बाँध न पाया,
बस्ती से बाहर
जिसकी शोभा ने मुग्ध किया सबको
बरगद का विशाल वृक्ष
जिसके आश्रय में लुक-छुप पड़ी
सदियों का जल समेटे
प्राणहीन बावड़ी वह,
टूटे सीढ़़ियों के पत्थर
नीचे की सीढ़़ियों पर फिसलन,
जल की छाती पर
जमी काई की परतों पर परतें,
रौशनी से भीत
अपने में व्यतीत
जीवन जल को सोखती
निष्प्राण भावों की काई,
कविता ने उनके
छूने से इंकार किया,
मंदिर में बैठे ठाकुर
जागृत प्रतिमाएँ उनकी,
उनके सखा-सहोदरों की,
अभिभूत सब, श्रद्धा से लोटपोट
भक्तजन, पुरवासी और पिकनिक कामी,
रोली, श्रीफल, फूलों के हार
व्रत, उत्सव, पर्व, वार,
पास वहीं, किसी सूने कोने में
खंडित प्रतिमाओं का अंबार
लंगड़ी, लूली,नकटी, कानी प्रतिमाएं,
पुराविदों के मन भाई,
अर्चन से दूर
प्रतिष्ठा से हीन
विकल अंग भावों के प्रस्तर,
कविता ने उनको
दूर से ही नमन किया
झील पर उठा टापू
उतरे प्रवासी पक्षी जहाँ,
डैनों में समेटे
हज़ारों मील की दूरी
खोजते सुरक्षित आश्रय
ज़िंंदगी के नक़्शे में, जैसे
चिलका,नल सरोवर या सिरपुर,
भोजन मिले उनको
अभय मिले उनको,
खिंचे उनकी तस्वीरें
परिचय की मुद्रिका पहिने
घूमें वे देश-विदेश,
लेकिन क्या है सचमुच
कहीं उनका अपना घर,
घर जहाँ गौरैया
निर्भय जा सके,
आँगन जहाँ कबूतर को
नियम से मिलता हो दाना,
छत जहाँ कौए के लिए
पहिले से निकला हो ग्रास,
बिना घर दर-दर भटकते
भावों के पक्षी करते प्रवास,
कविता ने उन्हें
धरती पर उतरने नहीं दिया,
इधर खेत-खलिहान
उधर कल-कारखाने
लहलहाती है फसल और
भट्टियाँ ठंडी नहीं पड़ती,
उम्मीदों की हवा में
लहराती हैं बालियाँ
उमगते मन की तरह,
और अंगारे चमकते हैं
सपने भरी आँखों की मानिंद,
प्रकाश के इस पारावार में
कहीं अकेले बैठ
अपने को गलाता है जीवन
पीली मोमबत्ती के उजाले में,
लॉकर में सपने
सुरक्षित रख सो रही है दुनिया
मोम बनकर पिघल रहे हैं
जीवन के भाव,
कविता ने उनको
धरोहर लेने से मना किया,
पहाड़ों से उतर रही हैं
सर्द हवाएँ और बेमौसम
उतर आए हैं बादल,
मैदान ठिठुर गए हैं और
तड़प रहा है महासागर,
शीतलहर ने चीर दी है छाती
फूटे हैं स्याह लहू के फ़व्वारे
साथ-साथ रत्नों के भंडार,
हे नीलकंठ! गरल तो तुमने पी लिया,
कौन साधेगा अनगढ़ भावों को
किसके कंठ में रख दूूं ये शब्द
जो मुझसे सम्हलते नहीं ।
जमी काई की परतों पर परतें,
रौशनी से भीत
अपने में व्यतीत
जीवन जल को सोखती
निष्प्राण भावों की काई,
कविता ने उनके
छूने से इंकार किया,
मंदिर में बैठे ठाकुर
जागृत प्रतिमाएँ उनकी,
उनके सखा-सहोदरों की,
अभिभूत सब, श्रद्धा से लोटपोट
भक्तजन, पुरवासी और पिकनिक कामी,
रोली, श्रीफल, फूलों के हार
व्रत, उत्सव, पर्व, वार,
पास वहीं, किसी सूने कोने में
खंडित प्रतिमाओं का अंबार
लंगड़ी, लूली,नकटी, कानी प्रतिमाएं,
पुराविदों के मन भाई,
अर्चन से दूर
प्रतिष्ठा से हीन
विकल अंग भावों के प्रस्तर,
कविता ने उनको
दूर से ही नमन किया
झील पर उठा टापू
उतरे प्रवासी पक्षी जहाँ,
डैनों में समेटे
हज़ारों मील की दूरी
खोजते सुरक्षित आश्रय
ज़िंंदगी के नक़्शे में, जैसे
चिलका,नल सरोवर या सिरपुर,
भोजन मिले उनको
अभय मिले उनको,
खिंचे उनकी तस्वीरें
परिचय की मुद्रिका पहिने
घूमें वे देश-विदेश,
लेकिन क्या है सचमुच
कहीं उनका अपना घर,
घर जहाँ गौरैया
निर्भय जा सके,
आँगन जहाँ कबूतर को
नियम से मिलता हो दाना,
छत जहाँ कौए के लिए
पहिले से निकला हो ग्रास,
बिना घर दर-दर भटकते
भावों के पक्षी करते प्रवास,
कविता ने उन्हें
धरती पर उतरने नहीं दिया,
इधर खेत-खलिहान
उधर कल-कारखाने
लहलहाती है फसल और
भट्टियाँ ठंडी नहीं पड़ती,
उम्मीदों की हवा में
लहराती हैं बालियाँ
उमगते मन की तरह,
और अंगारे चमकते हैं
सपने भरी आँखों की मानिंद,
प्रकाश के इस पारावार में
कहीं अकेले बैठ
अपने को गलाता है जीवन
पीली मोमबत्ती के उजाले में,
लॉकर में सपने
सुरक्षित रख सो रही है दुनिया
मोम बनकर पिघल रहे हैं
जीवन के भाव,
कविता ने उनको
धरोहर लेने से मना किया,
पहाड़ों से उतर रही हैं
सर्द हवाएँ और बेमौसम
उतर आए हैं बादल,
मैदान ठिठुर गए हैं और
तड़प रहा है महासागर,
शीतलहर ने चीर दी है छाती
फूटे हैं स्याह लहू के फ़व्वारे
साथ-साथ रत्नों के भंडार,
हे नीलकंठ! गरल तो तुमने पी लिया,
कौन साधेगा अनगढ़ भावों को
किसके कंठ में रख दूूं ये शब्द
जो मुझसे सम्हलते नहीं ।
27.12.1997
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