Tuesday, 25 August 2020

कविता: पक्षियों के अभयवन में

 


हिमप्रदेश में कहीं

किसी झील के किनारे

टूरिस्ट आफिस में

एक धुंधलाता पोस्टर है

चिलका,

जिसे देखते हुए

बूढ़े हंस अफ़सोस से

सिर हिलाते हैं;


सारसों के घर में

है एक अलबम जिसमें

हैं ढेर सारी तस्वीरें,

आखिरी बार कब गए थे

भरतपुर याद नहीं,

दुबारा नहीं जा पाए सारस

अपने बच्चों को

भरतपुर के

चित्र दिखाते हैं;


हंस और सारस और

उनके तमाम दोस्त

जानना चाहते हैं अब

किसी नई जगह का पता,

और रात-दिन के

शोर से बेहाल थकी

कुछ और सूख जाती है

नवाबगंज की झील;


हर अभयवन में अब

सिर्फ शिकारियों को है अभय,

शिकारियों की चालाकी को

समझते हैं चतुर बगुले,

और धान के खेतों के पास

किसी बूथ से खटखटाते हैं फोन

दोस्तों और रिश्तेदारों को

कि यहाँ माहौल अच्छा नहीं है;


बगुले अपने पेड़ों पर

लौट जाते हैं लेकिन

रेलवे लाइन के किनारे

बिजली के तार पर बैठे

नीलकंठ प्रतीक्षा करते हैं

सुदूर देश से

दोस्तों को लाने वाली

रेलगाड़ी का और

निराशा में डूब जाते हैं;


गांव के तालाब के पास

पेड़ पर अकेला रह जाता है

तोते का एक बच्चा

शाम के सूरज की परछाई

तालाब में निहारते हुए

नाराज़ माँ उसे

पकड़कर घर ले जाती है;


इसी समय

सूने कमरों, जर्जर दीवारों

सौ-सौ तालों वाले

बाड़े की खपरैली छत पर

आपस में बतियाता  है

एक कपोत युगल,

अरहर के पौधे

चोंच में दबा लाए थे

अरहर की कुछ फलियां

बीज बिखेरे

बाड़े की कच्ची ज़मीन पर

गिनती के बीजों से

उग आए गिनती के पौधे

उठ आए छत तक पहुंचे

हलद-सिंदूरी फूलों से

फूले, फलियों के भार से झुके


बहुत खुश नज़र आते हैं

दोनों कबूतर और

देखते हैं चारों तरफ

क्या है कहीं आसपास

संदेसा ले जाने  वाला कबूतर

खबर कर दे सब तरफ

सारे दोस्तों और सब अपनों को

खतरों के बीच अब भी

कहीं-कहीं फूल खिलते हैं


14.02.1998

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